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JNU Struggle, Media Workshop Gwalior and Other Posts 8 to 18 Nov 2019

उजालों की चपेट में धरती 
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● मेरा मोबाइल 7300 का पड़ा था दीवाली पर अमेजॉन और फ्लिप कार्ट पर छूट थी, 24 की रात बारह बजे बुक कर दिया था और तीन दिन में मिल गया ये आसुस का मोबाइल

● यूट्यूब पर आपने सपना चौधरी के नए गाने देखें है और पंजाबी एलबम जो नया आया है, बाबा सहगल के नए गाने नही आ रहे है सर 

● पित्ज़ा आपको डेढ़ घण्टे में मंगवा देंगे, अभी फोन करेंगे, बस में आ जायेगा पित्ज़ा , घर मे चूल्हे पर तवा रखकर गर्म खा लेंगे - आप तो बताओ खाना क्या है अभी

● मेरे मामा की बाइक के साइलेंसर में दिक्कत आ रही थी, अब गांव में तो मैकेनिक नही है फिर क्या बस हमने यूट्यूब पर देखा कि सुधारना कैसे है और रात को देर तक वीडियो देख देखकर हमने बाइक ठीक कर ली

● महाराष्ट्र में सेना का तो बैंड बज जाएगा अब चुनाव हुए तो

● बोलेरो का नया मॉडल लेना है पर जो मज़ा सफ़ारी में है वो जायलो या इनोवा या बोलेरो में नही है , अभी तो नही पर अगले साल दीवाली पर ले लेंगे

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ये असर जियो, एयरटेल, वोडाफोन प्रदत्त डेढ़ जीबी का है और ये बातें करने वाले 19 से 26 साल तक के युवा है जिसमे लड़के - लड़कियां शामिल है, यह राजस्थान का सहरिया आदिवासी बहुल शाहाबाद है - जहां शिक्षा, कुपोषण, स्वास्थ्य और विकास के सूचकांक भयावह है और निराशाजनक है पर अबके पास लगभग स्मार्ट फोन है ; शिवपूरी से श्योपुर और बारां तक आपको सहरिया विशेष विकास प्राधिकरण के बोर्ड लगभग हर सरकारी भवन पर दिख जाएगा पर विकास के बरक्स अगर आप देखेंगे तो आंकड़ों की जुबान कुछ और ही कहानी कहती है 

सब वाट्सएप से लेकर फेसबुक तक चला रहे है सारा दिन फ़िल्म, गाने, बाज़ार, अमेजॉन, फ्लिप कार्ट, मन्त्रा देखकर आर्डर करते है - डॉक्टर, एएनएम कम पर कुरियर बॉयज ज्यादा दिखते है जो कपड़ों से लेकर हर तरह की चीजें सप्लाय कर रहें है

बंजर, पथरीली ज़मीन, बेरोजगारी और पिछड़ापन जैसे स्थाई कलंक पर वास्तविकता बेहद कटु है पर कुछ समझ नही आ रहा बस एक प्रश्न से जूझ रहा हूँ - 

इन्हें मुख्य धारा में लाना है पर वो मुख्य धारा तो आ भी गई और सब इसमें बहने लगे है, विकास तो सचमुच हुआ है - समरथ को नही दोष गुसाईं

कल एक ग्रामीण हाट में कुछ लोगों से बातें हुईं तो उन्होंने कहा कि अगर हम सुधर गए तो फिर सरकार जो हमें मुफ्त राशन - दाल, चावल, नमक, गेहूं, घी, तेल से लेकर मकान, दुकान, लोन से लेकर जो सुविधाएं देती है वो सब बंद कर देगी

घबराइए नही - ये युवा दसवीं से एमए तक भी पढ़े है भूगोल, हिंदी, राजनीति, बायलोजी, गणित और कम्प्यूटर विज्ञान में एमएससी तक भी पर आप देखेंगे तो यही कहेंगे कि सच मे सहरिया बहुत पिछड़े है और ज्यादा रिसोर्सेस की अभी ज़रूरत है 

संकट हर जगह है और हल हम सबके पास नही है

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भक्तों के दिमाग़ और ज्ञान का कोई मुकाबला नही
🍀☘️🍀
आज एक ने फोन किया बोला - "आप क्यों जेएनयू को स्पोर्ट कर रहे हो, साले दिल्ली में प्रोस्टेट कर रहें है - करने दो"
ईश्वर करें इनके प्रोस्टेट स्पोर्ट्स और एक्सपोर्ट करते फलें फुलें और उनमें खूब पानी भरें और ... छोड़ो ज़्यादा दुआएँ नही - बापड़े वैसे ही वैचारिक दरिद्र नारायण है
ओम शांति
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Who is afraid of Rejection
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हिंदी में पुराने और बड़े बड़े संपादक कितने जड़ बुद्धि हो चुके हैं कि वह कुछ नया सोचते ही नहीं है , ना नया पढ़ते हैं - उन्होंने जो बीए, एमए में कविता - कहानी की परिभाषा पढ़ी थी वही उनके लिए आज तक पैमाना बनी हुई है
एक जगह कहानी भेजी थी छपने को तो वहां से उनका आज फोन आया बोले कि इस पूरी कहानी में एकालाप है, कोई घटना नहीं है, इसमें घटनाएं नहीं है, क्रम नही है, इसमें कोई संवाद नहीं है और तो और यह कहानी ही नहीं है - जब मैंने उनसे बहस की तो बोले कि आपकी भाषा बहुत अच्छी है गद्य बहुत सधा हुआ और अच्छा है, सब ठीक है पर कहानी के जो तत्व हमने पढ़े हैं उस जमाने में उन पैमानों में यह कहानी फिट नहीं बैठती , अरे महाराज थोड़ा विदेशी नही तो मराठी, मलयालम, गुजराती, तमिल या कुछ और पढ़ लेते - छोड़ दो ना घर बैठो अब - काहे बैठे हो सांप की तरह कुंडली फैलाकर, अपनी निकम्मी औलादों को भी सेट कर दिया अब तो
मेरी यह कहानी एक ऐसे युवक की कहानी है जो आत्महत्या करने जा रहा है, जिसकी नौकरी छूट चुकी है और वह कमरे में बैठकर एकालाप कर रहा है, परिस्थियों और परिवार के बारे में वह सोचता है, भविष्य का सोचकर कांप उठता है और अंत में फांसी लगा लेता है परंतु संपादक महाशय के दिमाग में पता नहीं कौन सा फ्रेम बैठा हुआ है 1940 - 50 का, उसके बाहर निकलना ही नहीं चाहते
जबकि इन्हीं संपादक महाशय ने अपनी पत्रिका में सिर्फ हिसाब किताब के 4 पन्नों को लेकर एक कहानी छापी थी एक चर्चित कथाकार की और बाद में और भी तमाम कहानियां जिन पर लम्बी बहस की जा सकती है उनके कथ्य, शिल्प और कथा वस्तु पर बोलें तो उनके ही फ्रेम और परिभाषा अनुसार पर बोलें कौन
मैं जानता हूँ कि दल्लों, चाटुकारों और पाँव पडूँ लोगों से हिंदी की चिन्दी आबाद है और ये तमाम रीढ़विहीन लोग यही करके, घर बुलाकर खाना खिलाकर लखटकिया पुरस्कार लेने तक की छिछोरी हरकतें करते है और अपनी छपास मिटाते है - यहां कोई "घण्टा" फर्क नही पड़ रहा आपकी राय से - अपने को कौनसा पुरस्कार लेकर दिल्ली नुमा गैंग बनाना है या किसी बीएचयू में मास्टरी या हिंदी की क्लर्की करना है
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देश भर के किशोर और युवा किसी भी प्रकार की फीस देने से मना कर दें - जो शिक्षा संस्कार नही दे सकती, संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति और गरिमा और अपने ही देश मे रोज़गार नही दे सकती - उस शिक्षा के लिए सरकारों को काहे के रुपये देना और उस सरकार को क्या कहें जो दृष्टि बाधित युवा छात्र शशि भूषण को सड़क पर बूटों से रौंद दें, उसकी छाती पर डंडे बरसाये इतने कि उसे एम्स में भर्ती करना पड़े
धिक्कार है ऐसी नपुंसक व्यवस्था और प्रशासन पर, जो मुल्क अपने 55 % समर्थ युवाओं को बेहतरीन आज नही दे सकता उस मुल्क में कुछ नही हो सकता वो कल और सुरक्षित इज्जत वाला बुढ़ापा क्या देगा
अब तो जागो युवा मित्रों कि अभी भी जिंदगी बर्बाद करना है भेड़चाल में
बेहद शर्मनाक है , ये पढ़े लिखे लोगों की ये हालत कर रहें है तो सोचिए इनकी पुलिस और सेना गरीब, आदिवासियों और बांध या वनों से विस्थापित लोगों की क्या हालत करती होगी - जिनकी आवाज भी कही नही उठती
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देश भर के किशोर और युवा किसी भी प्रकार की फीस देने से मना कर दें - जो शिक्षा संस्कार नही दे सकती, संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति और गरिमा और अपने ही देश मे रोज़गार नही दे सकती - उस शिक्षा के लिए सरकारों को काहे के रुपये देना और उस सरकार को क्या कहें जो दृष्टि बाधित युवा छात्र शशि भूषण को सड़क पर बूटों से रौंद दें, उसकी छाती पर डंडे बरसाये इतने कि उसे एम्स में भर्ती करना पड़े
धिक्कार है ऐसी नपुंसक व्यवस्था और प्रशासन पर, जो मुल्क अपने 55 % समर्थ युवाओं को बेहतरीन आज नही दे सकता उस मुल्क में कुछ नही हो सकता वो कल और सुरक्षित इज्जत वाला बुढ़ापा क्या देगा
अब तो जागो युवा मित्रों कि अभी भी जिंदगी बर्बाद करना है भेड़चाल में
बेहद शर्मनाक है , ये पढ़े लिखे लोगों की ये हालत कर रहें है तो सोचिए इनकी पुलिस और सेना गरीब, आदिवासियों और बांध या वनों से विस्थापित लोगों की क्या हालत करती होगी - जिनकी आवाज भी कही नही उठती
ये शशि भूषण की आवाज है और एक बार सुनिए उनकी आवाज और गीत की आग , शशिभूषण 'समद' का गाया हबीब जालिब का यह कलाम ख़ासा मशहूर हुआ था पिछले दिनों
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दीप जिस का महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले
वो जो साए में हर मस्लहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

मैं भी ख़ाइफ़ नहीं तख़्ता-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़्यार से
क्यूँ डराते हो ज़िंदाँ की दीवार से
ज़ुल्म की बात को जहल की रात को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

फूल शाख़ों पे खिलने लगे तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे तुम कहो
इस खुले झूट को ज़ेहन की लूट को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

तुम ने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फ़ुसूँ
चारागर दर्दमंदों के बनते हो क्यूँ
तुम नहीं चारागर कोई माने मगर
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

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समय आ गया है कि अब पार्टी , दलगत घटिया राजनीति और मंदिर - मस्जिद छोड़कर युवा एक हो और निशुल्क शिक्षा, अभिव्यक्ति की आज़ादी, रोज़गार और अपने मुद्दों की बात सरकार से एक झटके में कर लें
बहुत हो गया नाटक और देशप्रेम का डंका बजाना
बन्द करो निजीकरण रौंद दो निजी स्कूल, निजी विश्वविद्यालय और निजी संस्थान जो लूट रहें है शिक्षा के नाम पर
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जिस देश की संसद इतनी लापरवाह हो कि देश के युवाओं से शिक्षा के मुद्दे पर बात करने से घबराएं और फीस पर बात करने को तैयार ना हो उन सांसदों को महत्व देने का कोई महत्व नही, ऐसे कुलपतित कुलपति को भी इज्जत देने की ज़रूरत नही
जो व्यवस्था, पुलिस और प्रशासन युवाओं को सरेआम गुंडों मवालियों की तरह पीटें उनसे क्या उम्मीद करें -धिक्कार है ऐसे लोगों पर जो कठपुतली बनकर अपने बच्चों के समान युवाओं पर डंडे और लाठी भांज रहें है
शर्मनाक
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गर याद रहें
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यात्राएं विशेषकर साहित्यिक यात्राएँ कही का नही छोड़ती, हम ज़्यादा बुद्धिजीवी होने के बजाय बुद्धूजीवी होकर लौटते है और यह तब मुखर होता है जब हम यात्रा के उद्देश्य, प्राप्य या साहित्य को आँकने के बजाय आत्म मुग्ध होकर उस सबका जिक्र कर बैठते है जो वस्तुस्थिति में था ही नही, कई कई दिनों तक अपनी पोस्टस में और भाषण पेलते हुए कही भी या निजी बातचीत में - जो नितान्त अनावश्यक होता है, अपनी ज्यादा हांकते है बजाय उस वास्तविकता के

गोष्ठी, बैठक, भ्रमण और किसी के साथ की मुलाकात में संजोये पलों को मथने, सीखने और अपनाने के बजाय हम अपना गुणगान करने लगते है , मेरे साथ यह दिक्कत ज़्यादा हो गई है, रही सही कसर इस ससुरे मोबाइल ने पूरी कर दी है - ऐसे ऐसे विचित्र फोटू या वीडियो हिंचता है कि उस क्षण में तो लगता है कि सब डाल दें और डाल भी देता हूँ पर बाद में अफसोस होता है क्या बेहूदगी है - किसी की निजता की परवाह नही - सामने वाला / वाली भी भोलेपन से मुस्कुरा देता है और मना नही कर पाता है वह भी क्या कहें आप ठहरे महान और अतिथि जो देव कम दानव ज़्यादा है - मना किया तो भड़ासी बन जाएंगे
व्यक्तियों, मंदिरों , किलों, जगहों , नदियों, समुंदरों और बाज़ारों से ज्यादा महान हम हो जाते है - क्योंकि हमने फोटू डाले हैं और हमारी वजह से वो आबाद हो रहें हैं या अब उनकी अस्मिता है, फोटू की महिमा में मूल मानवीय गरिमा के खिलाफ चले जातें है हम और यहां मिल रहे लाइक्स और कमेंट्स की अंधी दौड़ में हमें समझ नही आता कि क्या कर बैठे है हम
साहित्यिक समझ या तथाकथित उपन्यासकार, आलोचक, कहानीकार, कवि या स्तम्भकार होने से हमें कुछ ज़्यादा ही समझ आता है - ख़ैर , अब थोड़ा सतर्क रहने की कोशिश होगी और भी बहुत कुछ
इन कार्यक्रमों यात्राओं से एक तरह की प्रतिस्पर्धा भी होते जा रही है - वो गर्मी में ठंडे जगह जाकर फोटू चैंपकर जलाना हो या कविता, कहानी पाठ या भाषण देने जाने के ढकोसले हो - इससे कस्बों से लेकर बड़े शहरों तक एक अजीब किस्म की जलन, कुंठा और तरतीबे बन रही है, उन लोगों में आत्मप्रचार की भूख बहुत ज़्यादा बढ़ी है जो साल में एक बार या हद से हद दो बार निकल पाते है और बाकी समय मन मसोसकर रह जाते है, यह कहना मानीखेज होगा कि ये सब गुप्त रखा जाता है रॉकेट साइंस की तरह और पूरा होने पर यो उघाड़ा जाता है जैसे कोई नोबल मिल गया हो - जोकि घातक प्रवृत्ति है - दुर्भाग्य से इधर यह बढ़ा है बुरी तरह से - कैसे निजात पाएं इससे - मुझे समझ नही आता - फ़ेसबुक और वाट्सएप समूहों में यह देखना रोचक होगा कि इंसान इंसान है या जोकर बन गया है - सेल्फी से लेकर उजबक किस्म के फोटो देखना कितना मजेदार होता है
बाकी सब चंगा सी
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बगल में दो चार टँगे या टँगी हो तो साहित्यिक गोष्ठी चरम को प्राप्त होती है, बाकी तो सब विशुद्ध मूर्खता है
सुख के सब साथी 
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हिंदी के कवि, कहानीकार, उपन्यासकार , आलोचक या प्राध्यापक है तो उसके छर्रे हर जगह साथ होना जरूरी है यहां तक कि संडास में भी दरवाजे पर चौकीदारी करने को , यदि छर्रा ना हुआ तो साला फोटुआ कौन हिंचेगा
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वक्त से लम्हा गिरा है - दास्तां मिलेगी
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बड़े काम जो आखिर पूर्ण हुए इस माह के
एक वृहद अनुवाद का कार्य लिया था, उसमें मित्रों ने बहुत मदद की पर स्वर्ग देखना हो तो खुद मरना ही पड़ता है, आखिर सम्पादन, ले आउट और बारीक बारीक जो रह गया था वह पूर्ण हुआ और अंतिम स्वरूप में गया आज
भ्रमण समाप्ति पर है लगभग और इसमें एक बड़ी गोष्ठी थी और एक सहरिया आदिवासी बहुल इलाके में तीन दिवसीय प्रशिक्षण - सफल हुए दोनों काम
एक किताब को आकार देना था या यूं कहूँ कि ढाँचा बनाना था वो भी हो गया और दे दिया था - अब सुझाव आये तो बाकी बचा शेष पूर्ण कर उससे निवृत्त होऊँ
दो तीन कवि गोष्ठी हो गई, गांधी बाबा पर प्रवचन सुनें देवास - ग्वालियर और इंदौर में, मित्रों से मिला बड़े वर्षों बाद - यह भी काम का ही हिस्सा है , लॉ की पढ़ाई चल ही रही है
सात हजार शब्दों का एक लम्बा आलेख लिखना था - वो भी ठीक डेड लाईन के दिन पूर्ण किया - एक किताब में आएगा - उसे भेजा, इसीका एक हिस्सा एक पत्रिका में छपेगा - बड़ा लम्बा क्यू है वहां पत्रिका में - जुलाई 2020 में छपेगा - यह सम्पादक जी ने आश्वस्त किया है
नईदुनिया में रविवारीय तरंग हेतु कव्हर स्टोरी करना थी वो भी बिल्कुल प्रेस में जाने के आधे घँटे पहले करके भेजी और छपी
एक कहानी - लगभग तीन हजार शब्दों की, पूरी करके 3 जगह भेजी है - देखें क्या होता है, अभी सम्पादकों के सूक्ष्मदर्शी अदालतों में अवलोकनार्थ विचाराधीन कैदी की तरह तड़फ रही है
अब दो तीन दिन में 4 - 5 शादियां अटेंड करनी है क्योंकि भगवान जाग गए है और मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, एक रिपोर्ट कल फाइनल करनी है, फिर एक मॉड्यूल और माह के अंत में दो प्रशिक्षण निपटाने है 4 दिन में
दिसम्बर में एक बड़ा काम फिर हाथ में है जो लगकर - भिड़कर करना है जिसकी बात कर आया था अभी पिछले हफ्ते , एक दूसरे प्रांत में भ्रमण है और एकाध घर में कोई बड़ा आयोजन होगा कभी तो इंशा अल्लाह उसमे सब थकान दूर होगी
उफ़्फ़ मेरे जैसे आलसी और शुगर के भंडार गृह ने कित्ता सारा कर लिया विश्वास नही होता
साल जाते देर लगती है क्या बताओ - उल्टी गिनती शुरू करो अब शेष दिनों की और निपटाओ भड़ाभड़ - धड़ाधड़ और नए रिज्योलुशन तो लेना मत फालतू का अपराध बोध होता है और ना शुगर कम होती है ,ना पीने खाने या भोजन - मिठाई का लालच छूटता है, ना मोटापा कम होता है, ना घूमने जा पाते है, ना व्यायाम और ना ससुरे सोशल मीडिया से पीछा छूटता है
लॉ की परीक्षाएं भी ऐन सिर पर है पढ़ना तो होगा ही - वहां भी मुक्ति नही है
फिर भी 2019 ठीक रहा आर्थिक रूप से मंदा या कंगला पर बाकी सब ठीकठाक - आगे राम जाने
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ये जो मुहब्बत है ये उनका है काम
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बहुत सारे भारतीय जो विदेशों में है - दोस्त, मित्र, रिश्तेदार, छात्र आदि पर मुश्किल से 10 - 15 लोगों को छोड़ दूं हजारों में से तो बाकी सबका ना इस देश से कोई सरोकार है ना कोई मतलब, बल्कि यहां जब आते है तो भारत में लायबिलिटी बन जाते है
सस्ते कपड़े से लेकर दाढ़ी, कटिंग, आइब्रो, पेडीक्योर आदि करवाने और सेव मिक्स्चर एवं सस्ती ज्वेलरी खरीदने और ले जाने के अलावा कुछ और करते है क्या - यहां आकर इमोशनल अत्याचार और करके जाते है पांच साल में एक बार आकर
हमारे सरकार बहादुर किन एनआरआई की बात करते है क्या मालूम
दो तीन दिन में कुछ इन निर्यात किये हुए आयातित भारतीयों से मुलाकात हुई और भारत की चिंताएं और सरोकारों की बात हुई - ये बाहर हुजुरे आलम की तारीफ में तालियां इसलिये पीटते है और तारीफ करते है क्योंकि इन्हें अभी भी सांप बिच्छू, जादू टोना, भूत पिशाच, चुड़ैल और अनपढ़ गंवारों का प्रतिनिधि समझा जाता है और इनके ज्ञान और अंग्रेज़ी बोलने पर आश्चर्य किया जाता हैं
अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी में अभी भी बहुत से बाज़ार, मॉल और जगहें ऐसी है जहां इनका प्रवेश वर्जित है पर वहां बैठकर भारतीय राजनीति, विकास, दलित मुद्दों, आर्थिक नीतियों और गरीबी पर शगल करना इन्हें सुहाता हैं - पर लिखने - बोलने से डरते है क्योंकि ट्रम्प की सरकार इनका वीज़ा कैंसल कर भगा देगी और ये सहमे सहमे वहां अपने इंटरनल ग्रुप्स में भारतीयता की नास्टेल्जिक बातें करते रहते है
[ सौभाग्य से मेरे 3 विद्यार्थी, 2 हिन्दू राष्ट्र के अमेरिकन कल्चर प्रेमी परिवार और दो रिश्तेदार इन दिनों " इंडियन वेंडिग में एन्जॉय" करने आये हुए है और रोज़ विदेशों की तारीफ और यहां की ब्लडी पूअर कंडीशन्स की बात हो रही है ]
***
सरकार बन नही रही महाराष्ट्र में - नायक खलनायक कौन
राम मंदिर अब कब बनेगा
गमछा अस्मिता है अब बिहार की UN में भी बिछा देंगे - मतलब ग़जब के मानक है (अब लड़ने भी आएंगे )
गौतम गम्भीर और जलेबी पोहा
दिल्ली में प्रदूषण खतरे से भी भयावह
सब्जियां महंगाई के चरम पर
प्याज, लहसन, टमाटर से आंसू
देश के हालात , 136 करोड़ लोग , मीडिया और सोशल मीडिया पर फुरसती लोग हम
जियो, जियो और सबको मारो वोडा या एयरटेल या आईडिया
बस नोटबन्दी, बेरोजगारी, भ्रष्ट न्याय व्यवस्था, छापेमारी और लोकतंत्र पर मत बोलो
बाकी सब चंगा सी
***


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आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

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मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही