उम्मीद के बीज ही वट वृक्ष बनेगें
संदीप नाईक
नईदुनिया 2 जून 2019
नईदुनिया 2 जून 2019
यह कहानी है मध्य प्रदेश के बघेलखंड क्षेत्र
के रीवा जिले के दीनानाथ आदिवासी की, जिले का सुदूर गांव डभौरा जो शायद बघेल खंड का
पहला रेलवे स्टेशन था और और यहां से थोड़ी दूर बाद शंकरगढ़ की पहाड़ियां लग जाती है और फिर
इलाहाबाद यानी एकदम उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच का एक बड़ागांव जिसके
आसपास सूखे पत्थर ऊंची पहाड़ियां हैं जो जवा तहसील में आता है.
डभौरा से 3 किलोमीटर अंदर जंगल में एक गांव है धुरकुच - चारों तरफ सख्त पत्थर,
पेड़ पौधों का नाम नहीं - सूखे का साम्राज्य चारों ओर इतना भयावह है कि यहां कोई
उम्मीद की किरण भी नजर नहीं आती थी. विकास और तरक्की के पैमानों के हिसाब से यह
गांव आजादी के 70 वर्षों बाद भी वैसा का वैसा ही है परंतु
एक कारण की वजह से यह गांव सिर्फ प्रदेश ही नहीं बल्कि देश भर के नक्शे पर जाना
जाता है और इसका सिर्फ एक कारण था - एक व्यक्ति जिसका नाम दीनानाथ आदिवासी था,
अपनी दो पत्नियां और तीन बच्चों के साथ वे यहां रहते है, बहुत साल पहले जब एक बार
उन्होंने देखा कि गांव में बहुत सूखा है, पानी की किल्लत है, खेती नही हो रही, तो
उन्होंने सोचा कि कुछ किया जाए – पर क्या कुछ पौधे उगाने की सोची परंतु पानी नहीं
था और बीज कहां से लाएं, फिर ध्यान आया कि शादी ब्याह में जब इधर उधर जाते है तो
गांव में इन दिनों लोग जंगल से आम तोड़कर टोपलों रख देते हैं और आए हुए मेहमान
उन्हें खाते हैं, गुठलियाँ फेंक देते है, दीनानाथ ने देखा तो उन्हें एक विचार आया कि वे आम की गुठलियाँ उठा लाए. जब भी कही जाते ऐसे
समारोह में आम की गुठली उठा लाते और उन्हें अपने पास के जंगल में रोप देते. परंतु
सवाल यह था कि जमीन बंजर थी पत्थर थे तो उसने अपनी दोनों पत्नियों की मदद से उन
पत्थरों को खोदना शुरू किया और आम के गुठलियाँ लगाना शुरू की, दूर कहीं से वह पानी
भरकर लाते और उनको पानी देते इस तरह यह शौक उसका जुनून बन गया और वह जहां भी जाते –
जामुन, नीम, बबूल, महुआ, इमली, आंवला जैसे पौधों के बीज उठा लाते और उन्हें प्यार से पालते उनके लगाए हुए बीज
धीरे धीरे पौधे बनें फिर बड़े होने लगे. बाद में 7 एकड़ के इलाके को हरे भरे जंगल से भर
दिया - यह सब इतना आसान नहीं था अभी जब मैं दीनानाथ से मिला था तो उनकी उम्र लगभग 60 पार कर रही थी - ना उन्हें क्लाइमेट चेंज के बारे में मालूम है - ना
पर्यावरणीय समस्याओं के बारे में परंतु उसका जुनून उसकी दोनों पत्नियां और छोटे
बच्चे का भी एक मिशन बन गया था . वन विभाग ने उन पर कई बार सरकारी जमीन पर
अतिक्रमण करने का दंड लगाया बाद में उसी वन विभाग में उसे जंगल का चौकीदार भी
नियुक्त किया और कुछ मानदेय दिया परंतु उस निश्चल आदिवासी ने उस मानदेय में से ₹1 भी अपने जीवन के लिए इस्तेमाल नहीं किया और सारा पैसा 7 एकड़ के जंगल को हरा भरा बनाने में लगा दिया. हाल ही में मैंने जब
उस जंगल के बारे में और दीनानाथ से बात करना चाहा तो मुझे पता चला कि गांव और
आसपास की गंदी राजनीति के चलते दीनानाथ को वहां से विस्थापित कर दिया गया है वह अब
गांव में ही रहते हैं और जंगल पर असामाजिक तत्वों का कब्जा हो गया है लगभग उसके
बरसों की मेहनत नष्ट होते जा रही है
यह जून का महीना है और ठीक तीन दिन
बाद पुरी दुनिया पर्यवरण दिवस मनाएगी. जून महीना मानसून की शुरुवात का माह है, जिसमें
हमें तैयारियां करनी है अपने आने वाले वर्ष की, फसलों की, बाड़ी के लिए सब्जियों
की, घने जंगलों की, सड़क किनारे और मेध पर वृक्षारोपण करने की और सहेजना है , समूची
धरती का ताप इधर बढ़ा है और पानी का गिरना कम हुआ है, रोहिणी नक्षत्र की तपन से हम
सब वाकिफ है और पसीने से भरे हुए माथे पर चिंता की लकीरें हरेक के लिए एक सबक है
की हमने कुछ नहीं किया तो आने वाली पीढियां तो दूर अपने लिए ही पानी नही बचा
सकेंगे.
मै देखता हूँ कि कैसे समुद्र की सतह
से धुप अपने प्रचंड स्वभाव से पानी की एक एक बूंद को वाष्पित कर उड़ा देती है
परन्तु बादल अपने उदार भाव से हर उड़ने
वाली बूंद को अपने में समो लेता है और फिर उन्हें इकठ्ठा करके पुनः समय आने पर
धरती को लौटा देता है, गडगडाहट के साथ हर बार मानसून में धरती का कोई ऐसा कोना
नहीं छोड़ता जहां वर्षा की अमृत बूंदें ना बरसें और तपती धरा को तृप्त ना कर दें.
मै अपने त्योहारों को देखता हूँ तो आम
से लेकर केले के पत्तों का महत्त्व हर पूजा में है, आंवला नवमी से लेकर वट सावित्री
की पूजा में पेड़ों का महत्त्व है, आदिवासी समुदाय में पेड़ों की पूजा के बगैर कोई
अनुष्ठान पूरा नहीं होता, औषधियों की बात करें तो हरेक दवाई का मूल सत्व पौधों और
पेड़ों में है पर फिर भी हरियाली की घोर उपेक्षा कर रहें है और लगातार इसके
दुष्परिणाम भी झेल रहें है.
मेरे घर में अभी घर मे जितना भी आम, पपीता,
जामुन, अचार, करौंदे, खिरनी, कटहल, करेले, लौकी, गिलकी, तोरई, भिंडी से लेकर बीज
वाली जो भी चीजें आ रही है – उन सबकी गुठलियाँ सहेज कर रखी है, सब्जियों के कचरे, उपयोग की हुई चाय पत्ती को एक बड़े
से मटके और गमलों में इकठ्ठा कर रहा हूँ. मेरे बीज एवं खाद तैयार है - बस मिट्टी में गूंथकर
बरसात की पहली बूंदों के संग रोप दूँगा, किसी दिन निकल जाऊंगा उम्मीद के बीज
लेकर लंबे रास्तों, सूनी गलियों और नंगे पहाड़ों पर, जहां - जहां पग पड़ेंगे - झुकूंगा नीचे और पग उठाकर हल्का सा गड्ढा
खोदूँगा एक बीज डालकर मिट्टी को थपकाउंगा प्यार से और हौले से आगे बढ़ जाऊंगा, पहाड़ पर चढूँगा तो अपने पसीने की बूंदों से सींचूँगा उसकी पहली
प्यास और इस तरह धरती के किसी कोने पर हरियाली होगी दमकती - महकती और सांस लेती.
मैं आश्वस्त हूँ कि बीज बोने से ही
पौधे उगते है, पेड़ बनते है और एक दिन फल आते है , कितना भी कम पानी हो, नमी हो या सख्त मिट्टी - यदि आपने
बीजों को सहेजा है और उन्हें सही रोपा है तो नवांकुर आएंगे जमीन फोड़कर आएंगे और
खड़े होकर मुस्कुरायेंगे, हर बीज एक विशाल वटवृक्ष की प्रबल संभावना है - यही
सभ्यता, संस्कृति और हमारी परंपरा है
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