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प्रेम, पीड़ा, पराक्रम और पराभव का नाम ओरछा (Aug 2017)


प्रेमपीड़ा, पराक्रम और पराभव का नाम ओरछा





1
कड़ी धूप में चली थी गणेश कुंवरी
अजुध्या से ओरछा की ओर गोद मे थे राम राजा
जो उसकी प्रार्थना और तपस्या से नही
नदी में डूबकर जान देने के इरादे के फलीभूत होने पर आये
सिर्फ यही नही अपनी शर्तों और जिद पर

पैदल ही चल पड़ी गणेश कुंवरी राजा राम को लेकर
ओरछा की ओर क्या क्या ना सहा होगा उस रानी ने
जो बुंदेलों की आन बान थी जंगल, नदी और मौसम के झंझावात भी झेले होंगे
जिक्र नही इसका स्त्री को सहना ही पड़ता है गोदी में राजा राम हो, श्रीकृष्ण हो
ओरछा आकर भी वह राजा राम को उनके लिए बन रहे मन्दिर में बसा ना पाई
जुझार सिंह के सामने गर्व से गोदी में बैठे राजा राम को आले में बिठा दिया
भव्य आलीशान मन्दिर खाली रह गया जो आज भी वीरान है राम के बिना
बुंदेलखंड में कहते है लाई तो राजा राम को अजुध्या से पर मन्दिर ना दे पाई
ओरछा की कहानी में राजा राम आज भी है पर गणेश कुंवरी गायब है.

खंडित जहांगीर महल,लक्ष्मी और चतुर्भुज के मंदिर की कहानी में
रात को होने वाले रुपया देकर कहानी सुनने वालों को
शो में सुनाई देती है गणेश कुंवरी की कहानी
दर्द की क्षणिक दास्ताँ में मानो उतर आती हो
अभी भी बुंदेलों में कई गणेश कुंवरियाँ घूमती है
पन्ना से दिल्ली तक बस अब वे अपने राजा राम को
किसी बड़े धन्ना सेठ के यहां गिरवी रख आती है.

 2
राय प्रवीन की आत्मा आज भी घुंघरुओं में बजती है
छत्रसाल के राज्य भर में जहां बुंदेले राज करते थे
राय प्रवीन की आवाज इन मंदिरों से होकर बेतवा में बहती है 
जहांगीर महल से ओरछा की गलियों में उड़ाती है देखा तुमने ?

मैं जब भी आया यहां तो दूर तक फैले बियाबान में 
बंजर धरती पर कही नही दिखी हरियाली जबकि 
पाँच नदियों के मिलन पर बना था यह शहर
बुंदेलों ने जितने महल और मन्दिर बनाएं यहां
हर जगह राय प्रवीन के प्यार की कहानी गूंजती है

अपने दरबार से आगरा में अकबर के पास भेजा
वहां जाकर सूख गई जैसे सूख गई है बेतवा केन
पर गजब का साहस था उस गायिका में जिसने 
शहंशाह आलम को कह दिया था भरे दरबार में

बिनती राय प्रवीन की, सुनिये साह सुजान,
जूठी पातर खात है, वारी, वायस स्वान  
कैसे जुटाया इतना साहस राय प्रवीन भरी सभा मे बोलने का
राजा भी हो तो अकबर जैसा, जान गया गायिका की मनोदशा
भेज दिया राय परवीन को फिर ओरछा में बुंदेलों के पास
मरने तक गाती रही और फिर मरकर भी 
भटक रही है राय प्रवीन आज भी ओरछा की धूल से किलों के बुर्ज तक 
शाम होते जब छाने लगता है अंधेरा तो उसकी आवाज गूंजती है
सूने महल के अंधियारों में रूह भटक आती है खजुराहो तक

राय प्रवीन अब दैहिक रूप से नही है ज़िंदा 
झांसी, हरपालपुर, मउरानीपुर या मानिकपुर से
हजारों राय प्रवीन रोज दिल्ली, मुम्बई, सूरत जा रही है
सूख गई है बेतवा के संग खेतो की मिट्टी, आंख के आंसू
ठेकेदार के यहां काम करते बज रहे है घुंघरू चहूं ओर
कि यहां घर का चूल्हा जल सकें बाप महतारी का

इस देश के सभी शहंशाह ए आलम अब तक खामोश रहें और 
हिम्मत नही किसी मे कि भेज दें वापिस एक भी राय प्रवीन को
ससम्मान उस बेतवा के किनारे जहां लांगुरिया गूँजती है
देश के महलों में रात को अँधेरे में सिसकती है

हजारों राय प्रवीन और बुंदेलखंड की झाँसी की रानियां
देश के बड़े शहरों में, कोई इनके प्रेम का दर्द नही बुझता।


3

लाला हरदौल के अमर प्रेम की भूमि कहाती है
आल्हा और ऊदल गूंजते है कण कण में वीरता के
ये औरंगजेब की छोटी सी बेटी बदरुन्निसा की जमीन है
जिसने अपने ही पिता के सेनापति को मात दी
बुंदेलों के प्रेम में ऐसी पड़ी बचपन से कि दस साल में लड़ बैठी पिता से 
इलाहाबाद के मोहम्मद खान बंगश ने जब पन्ना पर हमला किया
तो हार गया प्यार के आगे और लौट गया मुंह बनाकर इसी धरती से
बाजीराव पेशवा चलकर आये दूर दराज से बचाने इस बुंदेली धरती को
ये ओरछा एक मंदिर और नदियों का शहर नही मात्र संस्कृति का भी अड्डा है.
इस रंगीली भूमि में गूंज रही है प्रेम, पराक्रम और पीड़ा की दास्तानें
सूख गई है नदियां, बंजर हो गई लाल जमीन, खत्म हो रही है आवाजें
छतरपुर, महोबा, पन्ना, टीकमगढ़, झांसी या ललितपुर से कारवां जाता है रोज
लौटना बड़ा भारी होता है इस रंग - बिरंगे बुंदेलखंड में लोगों का
जंगल मे घिरता जा रहा है रिहाईशी इलाका कि शेर और बाघ विराज सकें
बुंदेलखंड की राय प्रवीन, बदरुन्निसा याकि गणेश कुँवरी बिक जाती है 
दिल्ली, मुम्बई या सूरत के बाजार में रोटी की खातिर  
जुझार सिंह रिक्शा चलाते है जबलपुर में  
लाला हरदौल कूली बन गए है झांसी स्टेशन पर
बुंदेले ढो रहे है सेना का सामान बबीना और तालबेहट में
बच्चे मरें जा रहे है दूध के बिना कमजोर होकर
सूखी वीरान आंखों में बंजर धरती का अक्स दिखता है
व्यवस्था इस नरकयात्रा के लिए एक पॅकेज की घोषणा करती है
और खबर बांचकर ओरछा के पण्डे खुश होते है घंटे जोर से बजते है
अब कही कोई वृंदावन लाल वर्मा नही लिखतें कहानी
कोई भूषण कवि या केशव इस जमीन को कविता में नही पिरोते
खाली पड़े उजाड़ गांवों में बूढ़े और फेंक दिए गए बीमार लोग अभिशप्त है मरने को
ओरछा में विदेशी इन्हें नही पूछता कि क्यों जिंदा हो अब तक
राजा राम भी मन्दिर में सिमट कर बैठे है और भक्ति कि धार देख मुस्काते है. 
प्रेम, पीड़ा, पराक्रम और पराभव के पर्याय इस ओरछा में
सैलानियों की बहार रहती है दिन भर, साल के बारहों मास 
गोरी चमड़िया हैरान होती है प्रेम समर्पण की कहानियां सुनकर
रास्ते के उदास चेहरे बुझ नही पाते इनके सवाल
मेलों में लगे ठेले लूटने में लगे है बुंदेलखंड को
प्रेम अब नही उपजता, सबको हर यात्री एक मौका नजर आता है
ओरछा प्रशासन के कागजों में एक धार्मिक नगरी है जहां शराब और लड़की 
पिछले दरवाजे से महंगे दामों में ऊंची होटलों में आसानी से उपलब्ध है 
जो आपको अस्थाई प्रेम की निशानियां दे सकती है और लांगुरिया सुनकर
आप इन्हें टीप दे सकते है. 

Comments

Manish Vaidya said…
ओरछा ही नहीं पूरे बुन्देलखण्ड और यहाँ लगातार पड़ते मौसम/व्यवस्था के सूखे की पड़ताल करती ये कविताएँ बड़े संदर्भों की कविताएँ हैं. इनके प्रतीक ओरछा की भूली बिसरी कहानियों से निकलते हुए आज पांच सौ साल बाद की कहानियों से जुड़ते हैं. बीते दिनों इन कविताओं के रचाव और इनकी आधारभूमि तैयार होते समय मैंने खुद संदीप को गहरी पीड़ा और आक्रोश से गुजरते देखा है. बुन्देलखण्ड कभी देशभर में अपनी आन, बान और शान के लिए पहचाना जाता था. मेहनत, वीरता, न्यायप्रियता और स्थापत्य की चुनौतियों के साथ अपनी मेजबानी के लिए जाना जाता रहा. केशव, भूषण और वृन्दावनलाल वर्मा या मैथिलीशरण गुप्त जैसे साहित्यकारों की प्रेरणा रहा हो, अब इसे जिस तरह व्यवस्था और कुछ स्वार्थी लोगों ने खत्म किया है और अब इसे अकाल में तब्दील कर दिया है..उसकी एक लंबी दास्ताँ हैं और कविता का एक हिस्सा प्रतीकों में उसकी बात करता भी है. सघन दृष्टि की कविताएँ जो देर तक झिंझोड़ती है ...मुबारक संदीप भाई

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