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बहुत कोसते थे फेसबुक पर लिखने वालों को - फेसबुकिया, उच्छृंखल, उजबक, फालतू, टाईम पास और ना जाने क्या क्या !!!
बड़े बड़े लेखक बनते थे, अकादमिक और सिर्फ पत्रिकाओं में छपने वाले, प्रकाशकों को तेल लगाने वाले और बड़ी अकादमियों और भारत भवनों में मुफ्त की दारू और आयोजक के मुर्गे चबाकर हमेशा घटियापन की साहित्यिक राजनीति करने वाले बनते थे ना।
सबकी असलियत सामने है - औलादों से, नए नवेलों से, नाती पोतों से ई मेल, ट्वीटर, फेसबुक सीख रहे है , मोबाइल में हिंदी फॉन्ट डालकर अब 70- 75 की उम्र में टाइपिंग सीख रहे है पोपले मुंह के फोटो या कि खपी जवानी के फोटो चैंपकर लुभाने की आदतें फिर जवां हो रही है इन सबकी और अब अपनी बातें, लड़ाई झगड़े और वाद विवाद कर रहे है। कई बार आने जाने का नाटक किया और बड़े मुगालते में रहें कि कोई हाथ पांव जोड़ेगा कि आ जाओ पर लौट आए फिर और अब फिर पेलने में लग गए कविता , गद्य, आलोचना, ब्लॉग, और लंबे उबाऊ आलेख।
समझ आ गया कि पत्रिकाओं और किताबों का जमाना गया कि कोई खरीदे पढ़ें, इंतज़ार करें । यहां लिखों हाथों हाथ प्रतिसाद मिल जाता है और किसी की चिरौरी भी नही करना पड़ती , आत्म मुग्ध भी खूब हो सकते है और जूतम पैजार भी खूब कर सकते हो।
कुछ की अकड़ अभी गई नही है जिनकी नाक बह रही है और कुछ कुटिल किस्म की लेखिकाओं ने या दो टके के प्रकाशकों ने फालतू में सर चढ़ा रखा है वे ही नौटँकी कर रहे है और सोच रहे है उनकी टी आर पी छपे से ही बढ़ती है जबकि हकीकत ये है कि सरकार या कारपोरेट की गुलामी में चौबीसों घंटों झक मार रहे है, बाकी तो सारे नोबल और बुकर के जायज हकदार ऊँट इस फेसबुक नामक पहाड़ के नीचे है। भारत भूषण पुरस्कार के बहाने इस हमाम में सबको देख लिया बगैर मानसून में नहाए।
खबरदार जो अब किसी ने किसी को फेसबुकिया कहा तो सारे सबूत लेकर बैठे है हर पोस्ट के थानेदार और कलपुर्जे
असल मे साहित्य के ये टूटे फूटे और चुके हुए चौहान युवाओं की बढ़ती प्रतिष्ठा और चर्चा में बने रहने से चिंतित है और देख रहे है कि अब घर मे पांव दबाने और मालिश करने कोई आता नही। लिहाजा शक्कर की बीमारी को सम्हालते हुए बी पी नियंत्रित करते आंखों पर मोटा चश्मा लगाकर भी की पेड पर कुश्ती लड़ रहे है और फिर अब यहां वहां आने जाने की , कार्यक्रमों की सेटिंग भी इसी ससुरी फेसबुक से होती है ना।
#साहित्य_के_टुच्चे
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अमित शाह जी किसने आपको भड़का दिया और गलत जानकारी दी कि दवाईयां 18 % सस्ती हो गई है।
ये लीजिये आपकी सरकार की एक और (ना) मर्दानगी भरी कार्यवाही।
हृदय का बायपास, किडनी का डायलेसिस , कैंसर और अन्य बीमारियों से पता नही जेटली या आपकी पार्टी के लोगों का पाला पड़ा या नही पर मैंने भुगता है और रोज अपने आसपास के लोगों को देखता हूँ ।
कभी विधायक खरीदने से फुर्सत मिलें तो एक बार किसी दवा की दुकान पर या अस्पताल में चले जाना 2019 के पहले ताकि समझ आ जाये कि भारत माता की जय बोलने वालों की हालत क्या है और ऊपर से ये जेटली नामक प्राणी दिनों दिन उजबक जैसे निर्णय लेता जा रहा है।
कांग्रेस को कहते थे तुष्टिकरण करते थे, और तुम क्या कर रहे हो।
कारण दे रहे है कि शिक्षा में पिछड़ापन है और गरीबी ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा है तो जिम्मेदार तो सरकार और ये समुदाय ही है ना !
अजीब है तर्क और कुतर्कों का कोई जवाब नही।
फायदा उन्हें मिलेगा जो पहले से सरकारी नौकरी में बैठे है, बगैर कुछ करें धरे मलाई चाट रहे है सातवें वेतन आयोग की।
पढ़ाई, सुविधा और सहूलियत तो तो ठीक था, नौकरी में भी दिया और अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ाते हुए पूरी बेशर्मी से प्रमोशन में आरक्षण देंगे।
सत्यानाश हो इनका, आग लगे ऐसी वोटों की हवस को, जो बच्चे मेहनत करके पढ़ रहे है और कठिन परीक्षाएं पास कर रहे है उनके हक ये मूर्ख और उज्जड गंवार राजनेता जिंदगी भर मारते रहेंगे।
फिर कहता हूँ बच्चों पढ़ो लिखो और इस देश को छोड़कर कही और बस जाओ यहां जीवन भर जाति सम्प्रदाय और राजनीति तुम्हारी हर सांस नरक बना देगी।
मैं इस तरह के नौकरी प्राप्त कर प्रमोशन के लिए भी बैसाखी लेकर जीवन का गुजारा बसर सरकार की दी हुई भीख पर जिंदा रहने वालों, काम ना करके प्रमोशन लेनेवालों, योग्यता, जमीर और खुद्दारी को गिरवी रखने वालों के खिलाफ हूँ और आरक्षण के भी।
ईमानदारी से कोई बता दें कि आरक्षण से आये लोगों ने क्या झंडे गाड़े है , क्या भला किया अपनी ही जाति का और खुद ने नौकरी पाकर कितनी योग्यता बढाई है कि कुछ सार्थक योगदान दे पाए या ये और बता दें कि कितनी पीढ़ियों को आरक्षण नामक दवाई पिलाकर अपनी औलादों को निकम्मा और ठूंठ बनाते रहेंगे ।
अब तो शिक्षा मुफ्त है तो जाओ ना पढ़ाओ और अपनी औलादों को योग्य बनाओ उनमे खुद की योग्यता से जीने का साहस पैदा करो, कब तक रोते रहोगे कि ऊंची जातियों ने शोषण किया, मनु ने ये किया - वो किया। हमारी पीढ़ी ने तो नही लिखी ना मनु स्मृति, कितने ऊंचे वर्ग के घरों में है ये किताब जिसका रोना उठते बैठते गाते रहते हो। या तुमने कभी पढ़ी या देखी है - सिर्फ कुछ नेताओं के पिछ लग्गू बनकर दोहराते रहते हो ?
सवाल यह है कि कब तक आरक्षण पर जिंदा रहोगे ? कभी तो झांक कर देख को अपना हूनर, दक्षता और ज्ञान यदि नही तो हर माह थोड़ी झिझक महसूस होती है या नही जब हाथ मे गिनते हो मक्कारी के रुपये, और फिर वो आदिवासी तो इस प्रपंच से दूर है जो असली हकदार है तुम तो रो धोके लग गए , अब तो छोड़ दो दूसरों के लिए, कब तक झिकते रहोगे ?
कमेंट वही करें जो थोड़ी अक्ल या समझ रखता है मुद्दों की , दलित विमर्श वाले , घटिया आंदोलन चलाने वाले, मुफ्तखोर जो काम करने के बजाय दलितों के नाम पर सुविधा भकोस रहे है कमेंट ना करें और जवाब की उम्मीद ना करें। लाखों का पैकेज गटककर, सेमिनारों और हवाई यात्राओं में दलितों की राख पर दाल बाटी खाने वाले चिंतक भी यहां पांव ना पसारे।
युवा कवि "क" को कविता के लिए भारतीय बुकर पुरस्कार मिला ।
उसी दिन उसके दोनो हाथों में फ्रेक्चर , अस्पताल में भर्ती भयानक जख्मी होकर ।
चार युवा कवियों और तीन आलोचकों के खिलाफ 302 में एफ आई आर दर्ज दिल्ली में ।
देशभर के लेखकों में जलन, 9 युवा कवि किस्म के चापलूस, पी एच डी होल्डर , अधेड़ कुंवारे, कुंठित कवियों और दस बीस कविता संकलनों और हर रोज प्रोफ़ाइल पिक्चर बदलने वाली 6 कवियित्रियों ने आत्महत्या की।
मीडिया ने पुरस्कार वापसी गैंग को लताड़ा।
विश्वविद्यालयों में प्राध्यापकों में रोष।
सोशल मीडिया पर घमासान और अंत मे
मार्क जुकरबर्ग ने हिंदी में कविता लिखना आरम्भ किया।
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"घर - घर मिट्टी के ही बर्तन है और टकराने की आवाज से व्योम में हलचल होती है "
एक अलमीरा है, कुछ टांड और चार पांच रेक। एक लकड़ी की छोटी अलमीरा जिसमे सामने की तरफ कांच लगे है जो अब इतने घिस गए है कि आरपार नही दिखता, जिस झिरी में वे फिट थे वो झिरी धूल, मिट्टी और लकड़ी के बुरादे से भर गई है लिहाजा जब भी कांच खोलना होता है तो मशक्कत करना पड़ती है बहुत मानो सदियों से जमे हो और दशकों का श्रम लग रहा हो। वैसे भी बीच के अंधेरे कमरे में पड़ी इस अलमीरा को खोलने के लिए पच्चीस वाट का बल्ब जलाना पड़ता है वरना खतरा हमेशा बना रहता है कि कब कांच फुट जाए चर्र से और हाथ मे लग जाये किरच कोई या बांस की कोई फांस घुस जाए हथेली की नरम बाजू में और फिर खून की एक बारीक से धार निकल पड़े जिसे बगैर आंसूओं के देर तक मुंह मे रखकर चूसना पड़े कि खून बहना रुके और एक काला सा मोटा थक्का जम जाए । काश कि उस दिन जब बांस की मोटी फांस घुसी थी तो जो खून निकला था उसे चूसने के लिए तुम होते या कि एक कपड़ा बांधकर कसकर धार रोकने के लिए कोई तो वह सब नही होता , बहरहाल।
इन सभी अलमिराओं या रेक पर बर्तनों की एक सजावट थी- कड़छी, संडासी, उचटन, झारा, पली, तलने वाली जाली, अलग अलग आकार के चम्मच, लोहे के काले लम्बे लम्बे अजीब आकार के औज़ार ! तपेलियाँ, डेगची, कढाहियाँ, भगोने, शकुंतला बर्तन, तेल के पीपे नुमा छोटे बर्तन, चाय की तपेलियाँ, डोंगे, कढ़ाव और भी आकार के बर्तन पीतल, स्टेनलेस स्टील और तांबे के, कुछ ब्रान्स और एलुमिनियम के भी थे जो झांक जाते थे यदा कदा !! इसके अलावा दीवार पर जंग लगी किलों के सहारे टँगी रेक में कुछ भिन्न प्रकार की थालियां थी, छोटी प्लेट्स, कुछ कटोरियाँ, कुछ बाउल और अजीब किस्म के बर्तन जिनका नाम भी मुझे याद नही था इसलिए मैं सभी को कटोरी और बाउल की दो श्रेणियों में बांट देता था। थालियां भी बड़ी छोटी होने के साथ साथ आकार, डिजाइन और रंग में अलग थी कोर वाली भी थी और सपाट भी , कुछ में खाने बंटेे थे और कुछ एकदम फीकी सी थी मानो जीवन की तरह कोई हलचल नही !!! ढेर सारे ग्लास थे आकार और प्रकार के - ऊँचे, ठिगने, मोटे ,पतले - पीतल, काँसे और स्टील के पर सब याद रहता था कि कौनसा कहां रखा रहता है और दही किसमें जल्दी जम जाता है।
लकड़ी की बुरादा होती जा रही अलमीरा में कांच के धुंधलकों के पार कुछ कांच के बर्तन थे और बॉन चाइना के कप बसी और केतली जो कोई खास आने पर ही बाहर निकलते थे । इन बॉन चाइना को छूने की मनाही थी और शायद देखने की भी। केतली को फिल्मों में ही देखा था अपने घर की केतली को हाथ लगाना पाप से बड़ा अपराध था । कुछ और बर्तन थे मसलन परात, तांबे का एक बड़ा बम्बा जिसमे ठंड के दिनों में कोयले डालकर पानी गर्म होता था, कुछ तवे थे और हंडे गागर के साथ एक कोने में रखी बाल्टियां जिन्हें इमली से रगड़ रगड़कर चमकाया जाता था और रखा जाता था मानो वो कोई जीने और संस्कारों का तगड़ा पैमाना हो।
--- जारी
इन सभी अलमिराओं या रेक पर बर्तनों की एक सजावट थी- कड़छी, संडासी, उचटन, झारा, पली, तलने वाली जाली, अलग अलग आकार के चम्मच, लोहे के काले लम्बे लम्बे अजीब आकार के औज़ार ! तपेलियाँ, डेगची, कढाहियाँ, भगोने, शकुंतला बर्तन, तेल के पीपे नुमा छोटे बर्तन, चाय की तपेलियाँ, डोंगे, कढ़ाव और भी आकार के बर्तन पीतल, स्टेनलेस स्टील और तांबे के, कुछ ब्रान्स और एलुमिनियम के भी थे जो झांक जाते थे यदा कदा !! इसके अलावा दीवार पर जंग लगी किलों के सहारे टँगी रेक में कुछ भिन्न प्रकार की थालियां थी, छोटी प्लेट्स, कुछ कटोरियाँ, कुछ बाउल और अजीब किस्म के बर्तन जिनका नाम भी मुझे याद नही था इसलिए मैं सभी को कटोरी और बाउल की दो श्रेणियों में बांट देता था। थालियां भी बड़ी छोटी होने के साथ साथ आकार, डिजाइन और रंग में अलग थी कोर वाली भी थी और सपाट भी , कुछ में खाने बंटेे थे और कुछ एकदम फीकी सी थी मानो जीवन की तरह कोई हलचल नही !!! ढेर सारे ग्लास थे आकार और प्रकार के - ऊँचे, ठिगने, मोटे ,पतले - पीतल, काँसे और स्टील के पर सब याद रहता था कि कौनसा कहां रखा रहता है और दही किसमें जल्दी जम जाता है।
लकड़ी की बुरादा होती जा रही अलमीरा में कांच के धुंधलकों के पार कुछ कांच के बर्तन थे और बॉन चाइना के कप बसी और केतली जो कोई खास आने पर ही बाहर निकलते थे । इन बॉन चाइना को छूने की मनाही थी और शायद देखने की भी। केतली को फिल्मों में ही देखा था अपने घर की केतली को हाथ लगाना पाप से बड़ा अपराध था । कुछ और बर्तन थे मसलन परात, तांबे का एक बड़ा बम्बा जिसमे ठंड के दिनों में कोयले डालकर पानी गर्म होता था, कुछ तवे थे और हंडे गागर के साथ एक कोने में रखी बाल्टियां जिन्हें इमली से रगड़ रगड़कर चमकाया जाता था और रखा जाता था मानो वो कोई जीने और संस्कारों का तगड़ा पैमाना हो।
--- जारी
अविजित, अविनाश, आदित्य, अभिषेक, अभिजीत, हरेराम, पीलेराम, कालेराम, मुकेश, सुकेश , नीलेश, उमार,कुमार, आ, झा, नित्या , अनित्या, दुःखेश, दुर्गेश, फिरोज, फारुख, अफसाना, रुखसाना, सुनीता, अनिता, दुर्गा, काली, भवानी अला फलां ढिमका आदि अनादि इत्यादि या और कुछ .... ये भीड़ गाय पट्टी से दिल्ली पहुंची अवागर्द है जो मप्र, यूपी ,बिहार ,झारखंड और राजस्थान से है। हिंदी में दो टके की मास्टर डिग्री लेकर प्राध्यापक बनने की चाह में ये दिन रात कोसने के सिवा कुछ नही करते मौजूदा प्राध्यापकों को। जीवन के रस रंग छोड़ चुके ये युवा प्रेम में असफल जीवन की कशिश में नित्य मरते जा रहे है और दया के पात्र है।
भारत भूषण से वंचित ये हिंदी के नए दलित है।
इसमे आप भी जोड़ सकते है कुछ नाम !!!
ये हिंदी के वो युवा कुंठित है जो पुरस्कारों की रज लेने को आपके चरण धोकर पी सकते है। वेब पोर्टलों पर घटियापन परोस कर और अपनी कुंठा में डूबी अवसादग्रस्त कविता, उजबक किस्म के गद्य और निम्नतम श्रेणी के किस्से लिखकर रातम रात हिंदी के बुकर पा लेना चाहते है। ये दिल्ली में किसी दुकान में टाइपिंग कर खुद को सॉफ्टवेयर इंजीनियर कहते है, होटल में वेटर की नौकरी कर होसपेटिलिटी बताते है, किसी पत्रिका में डिस्पेच वाले बाबू स्टूल पर बैठ के अपने को सहसंपादक बताते है। ये हिंदी के बदनाम कवि है जो पुरस्कार पाने को कोठो के लिए कविता लिखकर मंटो समझने का दावा करते है।
इन्हें पुरस्कार तो क्या हिंदी की जीवंत दुनिया से ही बेदखल कर देना चाहिए कि जाओ पढ़ो लिखो चीनी फ्रेंच और अँग्रेजी में इतना कि सीधा नोबल ही मिल जाएं।
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