हिन्दी कविता के अर्थ, मायने और कवियों की आत्म मुग्धता
नवोदित शक्तावत
कविताएं व्यक्ति केवल एक ही कारण से लिखता है। दूसरों को पढ़वाने के लिए अभिमत जानने के लिए। वह पक्ष में हो या विपक्ष में। पक्ष में हुआ तो वाहवाही मिलेगी, विपक्ष में हुआ तो पूरी चेतना उसका विरोध करने में लग जाएगी लेकिन रहेगा केंद्र में दूसरा ही। हर प्रकार की कविता केवल और केवल दूसरों कोपढवाने के लिए लिखी जाती है, ताकि दूसरों से हमें प्रमाण पत्र मिल सके कि कविता अच्छी है। यानी हम दूसरों की आंखों का उपयोग आईने की भांति कर रहे हैं। यदि मैंने अच्छा लिखा है तो मुझे पता ही है कि ये अच्छा है। अब इसमें मुझे आगे जानने के लिए बचा ही क्या है। अब अगर सामने वाला कहता है कि वाह वाह अदभुत, तो मैं ये जानकर क्या हासिल कर लूंगा। यानी कुल मिलाकर कविता दूसरों को पढवाई ही इसलिए जाती है कि हम अपने अहंकार को अधिक से अधिक श्रृंगारित कर सकें। तालियों की गडगडाहट से हम खुद को समझें कि हम भी ऐसे वैसे नहीं हैं। हम भी कुछ हैं। समबडी।
जो भी व्यक्ति ये बोलता है कि वह स्वयं के लिए लिखता है, एकांत में लिखता है, स्वयं की संतुष्टि के लिए लिखता है, वह झूठा है। क्योंकि उससे पूछा जा सकता है कि यदि स्वयं को केंद्र में ही रखकर लिखा है तो इसे उजागर करने के पीछे क्या कारण है। यह सामने ही नहीं आना चाहिए कभी। खुद लिखो खुद पढो। फिर वह बाहर कैसे आया। और बाहर आया है तो इस सच को स्वीकारो कि हमें वाह वाही चाहिए, हम प्रशंसा पिपासा के चलते दिन रात शब्द निवेश कर रहे हैं। शब्दों का वमन कर रहे हैं। सीधे सीधे क्यों नहीं बोलते कि हम खुद को खुदा मानते हैं, खुद को श्रेष्ठ मानते हैं, अहं ब्रम्हस्मि, आत्मकेंद्रित हैं, आत्मश्लाघा से भरे हैं। इतना भी साहस नहीं। तो फिर इसे सीधे न बोलते हुए काव्यात्मक बकवास का सहारा लेते हैं, और सामने वाले से बुलवाते हैं कि नहीं नहीं, आप तो महानतम हो। जिस क्षण यह बोध प्रगाढ़ रूप से हो जाता है कि दूसरों की अटेंशन पाना एकदम बेमानी है, नितांत व्यर्थ है, तत्काल क्रांति घटित होती है। एक रूपांतरण होता है। उस रूपांतरण के क्षण में सारी व्यर्थ चेष्टाएं बिखर जाती हैं। फिर ऐसा नहीं होता कि हम किसी इच्छा का दमन करते हैं, वह नष्ट ही हो जाती है। प्रशंसा की ग्रंथि ही खत्म हो जाती है।
कविता लेखन विधा का एक आयाम है। है यह लेखन ही। लेखन मात्र ही दूसरों को प्रभावित करने और खुद को श्रेष्ठ बताने के लिए किया जाता है। एक अहंकारी आदमी जो सीधे हिंसा नहीं कर सकता, गालियां नहीं दे सकता, दमन नहीं कर सकता, कूटनीति नहीं कर सकता लेकिन फिर भी घोर अहंकारी है, वह शब्दों पर टूट पड़ता है। वह चुन चुनकर शब्द बुनता है। शब्दों का निवेश करता है और शब्दों के पहाड़ पर बैठकर शब्दों का वमन करके दुनिया को दिखाता है कि देखो मैं कितना प्रतिभाशाली हूं, कितना मेधावी हूं। मैं कैसी काव्य की बातें करता हूं, तुम लोग तो मेरे आगे कुछ नहीं हो। ऐसा करके वह केवल अपनेअहंकार को और अधिक विकृत बनाता है और कुछ नहीं। यानी एक आक्रांता और एक लेखक, कवि में चेतना के तल पर कोई भेद नहीं है। वे समान ही हैं। अभिव्यक्ति के तल पर वे अलग हैं लेकिन दोनों का मनोविज्ञान एक ही है। दूसरों को प्रभावित करना। हिंसा के बल पर या काव्य के बल पर। और ऐसा करके खुद की वाहवाही बटोरना और आईने में खुद को निहारते रहना।
अभिव्यक्ति का मंत्वय ही अभिमत जुटाना है। फलां चीज के बारे में मैं ऐसा सोचता हूं, उस पर सामने वाला क्या सोचता है, यह पता करना होता है। यदि मैं गुलाब को पसंद करता हूं तो करता ही रहूंगा। किसी के विरोध करने से मेरी पसंद कैसे बदल सकती है। जब मेरी पसंद बदल ही नहीं सकती तो मैं किसी के विरोध या समर्थन की चिंता भी क्यों कर रहा हूं। किसी भी विषय पर मेरी क्या राय है, यह तो मेरे तल पर है। इसे मैं सबके सामने रखकर क्या साबित कर रहा हूं। मैं ये साबित कर रहा हूं कि जरा कोई मैदान में आए। फिर मैं उससे बहस करुंगा, शास्त्रार्थ करुंगा और किसी भी प्रकार से सामने वाले का मुंह बंद करना ही मेरा लक्ष्य होगा। ऐसा करके फिर मैं कहूंगा कि देखा, कर दिया ना चारों खाने चित्त। है और केाई सज्ज्न जो खुद का ज्ञान आजमाना चाहता है। आए मैदान में। और ऐसा कहके मैं मन ही मन अपनी बलाइयां लूंगा। खुद पर और अधिक मोहित हो जाउंगा। ये अहंकार के श्रृंगार के अपने अपने ढंग हैं।
ये तथ्यगत बात है। असल में, हम क्या करते हैं इससे अधिक महत्वपूर्ण ये है कि हम क्या हैं। क्या हम पाखंडी हैं, क्या हम द्विखंडित हैं, क्या हमारी कथनी करनी में भारी भेद है। प्रेम की बात करने वालों के जीवन में कितना प्रेम है, वे कितने प्रेम का प्रदर्शन करते हैं, ये अहम है। एक कवि लगातार सौम्यता की बातें कर सकता है लेकिन अपने मूल में वह कर्कश मालूम हो सकता है। इसलिए हमारी डूइंग से अधिक हमारी बीइंग का महत्व है।
एक श्रमिक, जो कि वास्तव में सार्थक परिश्रम करता है, वह किसी भी चीज का क्लेम ही नहीं करता, सिवाय मेहनताने के। वह प्रशंसा पिपासा की नाटकीयता से मुक्त रहता है। ऐसे कई लोग जो समाज में छोटे मोटे काम करते हैं। एकदम ऑड जाब। पंचर वाला, खोमचे वाला, चमार, नाई, सब्जी वाला आदि, ये लोग समाज की आधारशिला हैं। समाज में बैठे कवि, लेखक, बुदिजीवी लोग केवल परजीवी हैं। ये पढे लिखे लोग न केवल खुद को श्रेष्ठ बताते हैं, बलिक् गैर बिरादरी को हेय समझते हैं। यह विकृत अंहकार नहीं तो क्या है। फेसबुक पर लगातार प्रेम, संवेदना की बात करने वाले निजी जीवन में इतने अधिक घाघ, सुरक्षित, दुनियादार हैं कि हैरत होती है कि क्या इसी आदमी ने वह सब लिखा है।
- नवोदित शक्तावत इंदौर में रहते है और पत्रकारिता और साहित्य के युवा तुर्क और अध्येता है.
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