आजादी के सात दशकों का हश्र - कालीचाट
ये महज एक फिल्म नहीं, एक आर्ट वर्क नहीं, एक कहानी नहीं, एक अभिनय की पारंगतता को दिखाने की होड़ नहीं, एक सधा हुआ निर्देशन का लंबा चौड़ा आख्यान नहीं, एक सेट का चमत्कृत वर्णन नहीं, एक प्रकाश और वेशभूषा का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन नहीं, एक डायलोग और कलाकारों की महत्ता को नकली दंभ से भरने और स्थापित करने का माध्यम नहीं बल्कि एक लम्बी यातना, एक विकास का दंभ भरते देश और कृषि प्रधान होने की प्रलंबित तान और कृषक और किसानी के बीच झूलते समाज और पूरी ग्रामीण अर्थ व्यवस्था, विश्व में ग्लोबल होते जा रहे देश की एक पूरी पीढी को धोखा देकर जमीनी हकीकतों को छुपाकर देश को वास्तविकता से परे हटाकर अपनी ही जमीन में गड्ढा खोदकर या अपनी ही नाव में छेद कर पानी में खुद के डूबने के साथ पूरी व्यवस्था को डूबोने की कहानी है.
यह कहानी मालवा के देवास जिले के सतवास क्षेत्र के गाँव सिन्दरानी की कहानी है जहां विकास ना सिर्फ करवट ले रहा है और इस बहाने वहाँ की जमीन, जल और जंगल के खत्म होने की कहानी है पर बात सिर्फ यहाँ नहीं रुक रही, इस क्षेत्र के किसान जो सदियों से यहाँ खेती कर रहे है उनके संघर्ष और जीजिविषा को ज़िंदा रखने की कहानी है. सरकार के नाम पर किस तरह से सेवा प्रदाताओं के संजाल ने पूरे परिवेश को लूटपाट का एक बड़ा अड्डा बना रखा है जिसमे पटवारी, बैंक, पंचायत से लेकर जिला और राष्ट्र स्तर पर सरकार के सारे तन्त्र शामिल है और इस धार्मिक होते जा रहे माहौल में किस तरह से एक श्रद्धा भाव से अनुष्ठान के तहत किसान को मारने मरने को मजबूर कर रहे है.
पानी जिस तरह से मालवा में भी आहिस्ते आहिस्ते खत्म हुआ और डग डग रोटी पग पग नीर वाला मालवा भी सूखे की चपेट में आ गया , कपिल धारा कुएं जैसी महती योजनाओं ने किसानों में आशाएं जगाई परन्तु अमली जामा पहनाने में किस तरह से किसानों को दिक्कतें आई यह देखना हो तो इस फिल्म को देखा जाना चाहिए. डा सुनील चतुर्वेदी के उपन्यास “काली चाट” की एक उपकथा के माध्यम से किसानी संघर्ष, भयानक भ्रष्टाचार, तंत्र की विफलता, तंत्र में कार्यरत सेवा प्रदाताओं का लूट खेल और इस सबमे खत्म होती परिवार नाम की संस्था का विवरण है. ग्राम जीवन में भी किस तरह से आपसी विश्वास, भरोसा और आस्थाएं खत्म हुई है और बाजार के दलालों ने घुसपैठ अन्दर तक बना ली है इस की समानांतर कथाएं और असर देखना हो तो यह फिल्म निश्चित ही समझ बढाने में मदद करेगी. तकनीकी पक्ष और लय की दृष्टि से सधी हुई फिल्मों की कड़ी में इस फिल्म ने एक नई जमीन तैयार की है और विकास के साथ नई बहस को खडा करने की तकनीक भी इजाद की है.
सुधांशु शर्मा का हुआ निर्देशन, डा सोनल शर्मा की पटकथा और मालवा और मुम्बई के कलाकारों का अभिनय और पूर्व तथा उत्तर निर्माण में तकनीकी टीम का बहुत साधा हुआ काम दर्शाता है कि यह एक बड़ा टीम वर्क है. मालवा की लोक परम्परा, कबीर और लोक गीतों की बानगी देखनी हो तो इसे जरुर देखा जाना चाहिए, आज जो कबीर के नाम पर पूरी दुनिया भर में पसरी व्यवसायिक शास्त्रीयता और बंद कमरों में बंद एलिट की ठसक है, उससे दूर ठेठ ग्रामीण और मेहनतकश लोगों की वाचिक और समृद्ध परम्परा को अपने में बेहद खूबसूरती से समेटे है. पूरी फिल्म आपको बांधे रखती है एक छोटी सी फिल्म आखिरी में आपको सिर्फ "निशब्द श्रोता" के रूप में छोड़ती है.
उम्मीद है कि यह फिल्म शीघ्र ही दुनिया और देश के फिलोम्त्सव में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करके पुरस्कार हासिल करके कला और व्यवसायिक दुनिया की फिल्मों के बीच अपना स्थाई और प्रभावी स्थान बनायेगी.
पूरी टीम को हार्दिक बधाई और ढेरों शुभकामनाएं
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