बहादुर पटेल हिन्दी कविता में अब एक स्थापित नाम है जिनकी कविता एक अलग पहचान बनाती है. टापरी जैसी कविता और ग्रामीण परिवेश से चुनकर वे जो बिम्ब रच रहे थे वे बिम्ब अब विश्व परिदृश्य तक जा पहुंचे है और जहां वे बढ़ती हुई ग्लोबल व्यवस्था में तानाशाही प्रवृत्ति के खिलाफ बहुत तीखा तंज कसते है. जहां वे दादी के गेंहूं बीनने की बात करते है वही वे एक आत्महंता आदमी की त्रासदी की बात भी करते है और संवेदनाओं का ऐसा जाल बुनते है कि पाठक बरबस ही कविताओं को आत्मसात करने लगता है. जीवन और आत्महत्या के बीच सिर्फ एक ही क्षण होता है और यदि वह टल गया तो जीवन बच जाता है, इसे वे बखूबी अपनी कविता में चित्रित करते है.
लीलाधर मंडलोई से सही लिखा है कि वे एक अलग प्रकार के कवि है जिनके यहाँ लोक की नातेदारियाँ, सपनों और संघर्षों के तर्कों की अपनी निजता है. दलालों के देश जैसी कविताओं के साथ वे अपने समाज के आत्म रक्षा के सबक में गुंथे हुए है और आगाह करते हुए बहादुर पटेल बहुत आगे तक जाते है. बहादुर की कविताओं का दूसरा काव्य संकलन "सारा नमक वही से आता है" अंतिका प्रकाशन गाजियाबाद से आ रहा है, जो उनकी कविताओं की यात्रा का अगला पड़ाव और लगातार निखरती जा रही भाषा, बिम्ब और उपाख्यानों का दस्तावेज है. यह संकलन एक ऐसे समय में आ रहा है जब देश में उथल पुथल है और तानाशाही प्रवृत्तियाँ जोर पकड़ रही है, सारी दुनिया में एक विशेष तरह की विचारधारा थोपी जा रही है और आदमी को सिर्फ एक बाजार का पुर्जा मानकर इस्तेमाल किया जा रहा है, ये कवितायें उन्ही बेबसियों और करुणा की दास्ताँ है.
अपने पहले संकलन "बूंदों के बीच प्यास" से जनप्रिय हुए बहादुर पिछले दिनों बहुत चर्चित कवि रहे है. इधर हिन्दी की सभी पत्रिकाओं में उनकी कवितायें छपी है और तसल्ली से पढी गयी है. वाट्स एप पर काव्यार्थ जैसा समूह चला रहे है और पिछले छः माह से सुधी पाठकों को रोज एक नई कविता पढ़ा रहे है जो कि सराहनीय उपलब्धि है.
सारा नमक वही से आता है जहां बूंदों के बीच प्यास है, उम्मीद की जाना चाहिए कि इस नमक और प्यास के बीच कविता की जमीन पर जो नवांकुर फूटा था वह अब एक पौधे के रूप में तब्दील हो चुका है और आने वाले समय में वट वृक्ष बनकर अपने होने को चरितार्थ करेगा.
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