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संत कहाँ सो सीकरी



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देश की आजादी के बाद से धर्म को हमने दुर्भाग्य से लोकतंत्र का एक अनिवार्य हिस्सा माना और इसका इस्तेमाल हर नेता ने गाहे-बगाहे किया और नतीजा आज सामने है. रामपाल के बहाने से देश में चली आ रही संत परम्परा को आघात लगा है और जिस तरह से हरियाणा सरकार आज एक संत के सामने मजबूर दिखाई दे रही है वह बेहद चिंतनीय है. 

कांग्रेस ने पिछले छः दशको में इस परम्परा को समृद्ध किया और आज भाजपा इसी तरीके को इस्तेमाल करके वोट जुगाड़ने की कवायद कर रही है. जिस तरह से इस रामपाल के आश्रम से पेट्रोल बम, हथियार, गैस सिलेंडर और पत्थर जैसी सामग्री मिली है वह एक आश्रम की श्रद्धा और शब्द पर ही सवाल उठाती है, साथ ही अपने भक्तों को जिनमे बच्चे और महिलायें शामिल है, जिस अंदाज में घेरकर यह तथाकथित संत इस्तेमाल कर रहा है वह भी समाज के लिए घातक है. 

यह समझना दिलचस्प होगा कि आर्य समाज का विरोधी और एक प्रगतिशील कबीरपंथी इंजिनियर कैसे इतना निर्मम हो गया कि क़ानून और प्रशासन को धता बताकर वह तानाशाह बन बैठा है. 

यह स्पष्ट है कि बगैर राजनैतिक संरक्षण के इस देश में कोई कुछ नहीं कर सकता. अब समय आ गया है कि सरकार धर्म और साधू संतों को लोकतंत्र के दायरे से बाहर रखकर बड़े और वृहत्तर समाज के लिए विकास के काम करें. यह ना सिर्फ लोकतंत्र के हित में होगा, वरन लोगों के बीच सचमुच धर्मनिरपेक्ष संविधानिक मूल्यों का सन्देश जाएगा. 

रामपाल के बहाने हमें देखने और सीखने का एक अच्छा मौका मिला है कि कैसे आश्रम, संत साधू अपने गढ़ और मठ बनाकर अपढ़ जनता को ठग रहे है. सुनील चतुर्वेदी के चर्चित उपन्यास  "महामाया" का बरबस ही जिक्र यहाँ स्वाभाविक है जहां वे पुरी आश्रम व्यवस्था की पोल अपने उपन्यास में खोलते है और बताते है कि कैसे इन संतों ने समाज को दिग्भ्रमित करके रखा है और ये समाज का नुकसान ही कर रहे है.  

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