दो नदियाँ: लखुंदर और महानदी
लखुंदर
नदी में दोलते है सहस्रों सूर्य,
स्वच्छ दर्पण झिलमिला रहा हैं.
मुख न देख
पाओगी तुम स्नान के पश्चात्,
छांह ज्यों ही पड़ेगी
सूर्य का चपल बिम्ब घंघोल
देगा आकृति,
पुतलियाँ ही दिखेंगी तैरती मछलियों सी,
इस वर्ष वर्षा बहुत हुई है इसलिए
अब तक ऊपर ऊपर तक भरी है नदी.
पूछता हूँ
'नदी का नाम लखुंदर कैसे
पड़ गया?'
युवा नाविक बता नहीं पाता
'लखुंदर' का तत्सम रूप
क्या होगा...
नांव हो जाती है
तब तक पार
दिखती हैं मंदिर की ध्वजा
अगली बार
'नहाऊंगा नदी में' करते हुए संकल्प
चढ़ता हूँ सीढियां.
पीछे जल बुलाता हैं.
महानदी
मध्यदेश का सीना
ताम्बई, स्थूल व रोमिल. पड़ी
है महानदी उस पर,
पहनकर वनों की मेखला
घिसे रजत की श्याम
द्रोण के सूती नीलाम्बर से
ढंके देह मेदस्वी,
बाट जोह रही सूर्ज की.
मछलियाँ पेट में कर
रही है निरंतर उत्पात. दिनों
से मछुआरों का दल
नहीं आया. उदबिलावों
का झुण्ड ही उदरस्थ
करता हैं शैतान मछलियाँ पर
यह तो सहस्र हैं. अब
सहन न होती यह चपलता.
कब आएँगी यहाँ
घनचुम्बी पालों वाली नांवें,
डालेंगी जाल, तब
आराम से सोऊँगी मैं.
कीच में गिरी गेंद
सी मैली और बैचैन महानदी
पार की छत्तीसगढ़
में, जाता था जब बंगाल.
नदी में दोलते है सहस्रों सूर्य,
स्वच्छ दर्पण झिलमिला रहा हैं.
मुख न देख
पाओगी तुम स्नान के पश्चात्,
छांह ज्यों ही पड़ेगी
सूर्य का चपल बिम्ब घंघोल
देगा आकृति,
पुतलियाँ ही दिखेंगी तैरती मछलियों सी,
इस वर्ष वर्षा बहुत हुई है इसलिए
अब तक ऊपर ऊपर तक भरी है नदी.
पूछता हूँ
'नदी का नाम लखुंदर कैसे
पड़ गया?'
युवा नाविक बता नहीं पाता
'लखुंदर' का तत्सम रूप
क्या होगा...
नांव हो जाती है
तब तक पार
दिखती हैं मंदिर की ध्वजा
अगली बार
'नहाऊंगा नदी में' करते हुए संकल्प
चढ़ता हूँ सीढियां.
पीछे जल बुलाता हैं.
महानदी
मध्यदेश का सीना
ताम्बई, स्थूल व रोमिल. पड़ी
है महानदी उस पर,
पहनकर वनों की मेखला
घिसे रजत की श्याम
द्रोण के सूती नीलाम्बर से
ढंके देह मेदस्वी,
बाट जोह रही सूर्ज की.
मछलियाँ पेट में कर
रही है निरंतर उत्पात. दिनों
से मछुआरों का दल
नहीं आया. उदबिलावों
का झुण्ड ही उदरस्थ
करता हैं शैतान मछलियाँ पर
यह तो सहस्र हैं. अब
सहन न होती यह चपलता.
कब आएँगी यहाँ
घनचुम्बी पालों वाली नांवें,
डालेंगी जाल, तब
आराम से सोऊँगी मैं.
कीच में गिरी गेंद
सी मैली और बैचैन महानदी
पार की छत्तीसगढ़
में, जाता था जब बंगाल.
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