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Vishal Rathore, Khari Khari, Drisht Kavi and other Posts from 17 to 26 Spet 2025


ये रतलाम से ग्वालियर जाने वाली ट्रेन है - 21125 और ये है विशाल राठौर - जो ग्वालियर के कोटेश्वर में रहते है, एसी कोच B - 3 के अटेंडेंट है
आज रतलाम से जब इंदौर ट्रेन पहुंची तो इन्हें अपने कोच में एक बैग मिला - जिसमें कुल तिरपन हजार रुपए थे, कोई और होता तो रख लेता पर विशाल ने टीटी को और चार लोगों को बुलाकर वीडियो बनाया, और फिर संबंधित को सूचित किया
अब वे कल इसी ट्रेन से आकर रतलाम में यह रूपया जमा करेंगे और संबंधित को पुलिस की मौजूदगी में देंगे
ईमानदारी क्या होती है इस बारहवीं पास बच्चे ने सिखाई - जिसे हर माह मात्र आठ हजार मिलते है, कल कोई दस यात्री चादर उठाकर ले गए - जिसकी कीमत इन्हीं के आठ हजार के वेतन से अभी एक अक्टूबर कटेगी, ठेकेदार भी पूरा ईमानदार है, हर माह दो हजार कट जाते है - क्योंकि एसी में बैठने वाले हम कुलीन, संभ्रांत लोग नेपकिन - चादर घर ले जाते है चोरी से, एक मित्र ने एक बार कम्बल चोरी किया था पर बाद में ग्लानि होने पर एक तंग बस्ती में दे आया था
बहरहाल , हमें माल्या या अंबानी अदाणी नहीं - विशाल जैसे करोड़ों लोग और युवा चाहिए जो "झेन जी" का असली अर्थ जानते है
शाबाश विशाल, तुम जैसे लोग ही मेरा भरोसा बढ़ाते है कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है
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उस समय जब तुम अपने अकेलेपन से जूझ रहे थे, एकालाप में अपनी आत्मा का विरेचन कर रहे थे, अपने कर्मों, कृत्यों और पाप - पुण्य का हिसाब करके तिल - तिल शर्मिंदा हो रहे थे और बहुत हिम्मत जुटाकर माफ़ी मांगने की तैयारी कर रहे थे - तब तुम्हारा वो दोस्त, जिससे बेखौफ होकर कहना था, जमीन से दस हजार फीट या कही और ज़्यादा ऊंचाई पर बादलों के बीच हिचकोले खाते हुए अपनी कुर्सी की पेटी बांधकर जिंदगी के लिए दुआएं कर रहा था - अपने लिए नहीं बल्कि अपने साथ बैठे दो सौ और लोगों की - जिनमें महिलाएं, बच्चे, बूढ़े और जवान लोग थे - जिन्होंने जिंदगी को शुरू ही किया था, उसे एक पल लगा कि उसकी किस्मत की वजह से ही यह सब हो रहा है और जिस चाह को वह रोज सुबह अदृश्य दैवीय शक्तियों के सामने बुदबुदाता है कि "आज का दिन आखिरी हो" वह आ गया था जैसे और मौत सामने साक्षात खड़ी थी, पर अपने साथ शायद बेगुनाह यात्रियों के बारे में सोचकर वह थम सा गया
जीवन में हिसाब - किताबों की पुस्तक अपने साथ होती है और लिखे और कर्मों के अनुसार ही सब घटित होता है, बेहतर है कि हम हर क्षण अपने - आपको माफ़ कर दें, माफ़ी मांग लें और यथोचित ढंग से उस सबको विसरीत या विलोपित करने की चेष्टा करें - जिसके होने से कष्ट होता है, हम सबके अपने "ग्रे एरिया" है, कलंकित पृष्ठ है और सिलसिलेवार हिसाब है, बस ज़रूरत इस बात की है कि जो सजा हम भुगत चुके है - उसके आगे जाकर समय से एकाकार हो जाए और सब भूल जाए, कोई सबक याद दिलाए तो याद रखें कि आपको उससे कतई फर्क नहीं पड़ना चाहिए - क्योंकि मिट्टी में मिल जाने के बाद सब क्षीण हो जाता है, स्मृतियां भी एक परिकल्पना भर ही है
जीवन खुशी से मरो
Remember Die Happy must be the spirit at the end of the day
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शुक्ल पक्ष के बाद ही कृष्ण पक्ष आता है और इसे कोई रोक नहीं सकता, हिंदी में कृष्ण पक्ष की शुरूवात मुबारक हो मित्रों, जो प्रकाशक प्रकाशित अंक की प्रति तक लेखक को भेजते नहीं हैं, वे हिंदी युग्म को आदर्श मानकर किस रास्ते पर चलेंगे यह कहना मुश्किल है, प्रकाशक खुद कौन अंबानी अदाणी से कम है पर गरीबी और सादगी परोसने में किसी भी धूर्त गांधीवादी से कम नहीं है
वैसे भी जब मुंह में ना बचे दांत तो चने होने का क्या फायदा और सपूत - कपूत के लिए धन संचय करके रखने के लिए अपने यहां मनाही भी है, पर इस समय हिंदी में सत्तर पार सारे बूढ़े इसी काम में लगें है और सिर्फ बेचारी हिंदी को ही क्यों कोसना, राजनीति, ब्यूरोक्रेसी, राजस्व, मनोरंजन, डिफेंस, शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर सामाजिक क्षेत्रों में भी साम्राज्य बढ़ाने, वार्षिक टर्न ओवर गिनने वाले अकूत धन कमाने और अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए चल और अचल संपत्ति इकठ्ठा करने का रिवाज़ तो सदियों से रहा है, ये बेचारे तो धक्के खाकर यहां तक पहुंचे है, इस बहाने से ही सही बाकी बचे संस्कार ढंग से राजसी तौर तरीकों से सम्पन्न होंगे
इस सारी बहस में नए - पुराने छर्रो ने लेखन के मूल सिद्धांतों को त्यागकर जिस तरह से पिछलग्गू, चाटुकारिता, व्यक्ति पूजा और भेड़ बनकर अपना असली चेहरा दिखाया है वह बेहद शर्मनाक है, दूसरा तेरी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसे भी नजर आया और रही सही कसर डॉक्टर रमणसिंह जैसे नैतिक और उच्च कोटि के लोगों के साथ हमारे हिन्दी के प्रतिमानों ने फोटो खिंचवाकर पूरी कर दी, नामवर सिंह हो या आज के प्रतिबद्ध जनकवि बस अब मुझे "गिरने के नियम गिनाए जाएं - मेहरबानी करके"
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पिछले कुछ दिनों बल्कि पिछले एक डेढ़ वर्ष से देशभर में घूम - घूमकर कृषि विज्ञान केंद्रों, केंद्र सरकार के कृषि मंत्रालय एवं नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय [ MNRE] के माध्यम से किसानों के साथ काम कर रहा हूँ तो समझ आया कि हमारा भारतीय किसान आजादी के बाद सरकार, प्रशासन और न्याय पालिका में जमीन के मुकदमे लड़ते हुए इतना हैरास और परेशान हो गया है कि वह बेहद शातिर, लालची और रूपयों का भूखा हो गया है, अब ना उसे अपनी जमीन की चिंता है, ना फसलों के नाम पर उगाए जा रहे जहर की, ना अपनी आने वाली पीढ़ियों की - ना हवा और पानी की
उद्योग, शहरीकरण और आधारभूत संरचनाओं के बनिस्बत किसान के पास आज भी सबसे ज्यादा उपजाऊ और महंगी जमीन है, और इस भयावह क्लाइमेट चेंज के लिए सबसे बड़ा दोषी और जिम्मेदार किसान है - जिसे हमने ठोक पीटकर इतना मजबूत और शातिर बना दिया है कि वह कोई जिम्मेदारी, जवाबदेही लेना नहीं चाहता और कर्म नहीं करना चाहता और विकास, उद्योग और सरकार को बड़ी आसानी से आरोपी बनाकर खुद बच निकलना चाहता है, देशी विदेशी मीडिया वालों ने बहुत ही कृत्रिम रूप से वेबसाइट्स बनाकर विशुद्ध मूर्ख लोगों से रिपोर्टिंग करवा कर क्लाइमेट चेंज का गुब्बारा बनाया और डॉलर्स में कमा रहे हैं एवं देश विदेश घूमकर अपनी निज छबि बना रहें है, इनका किसान, जमीन और खेती से कोई लेना देना नहीं है और रही - सही कसर सामाजिक कार्यकर्ताओं, फर्जी और बेहद मक्कार किस्म के गांधीवादियों और आजकल ऑर्गेनिक खेती के नाम पर रायता फैलाने वाली बड़ी - बड़ी कंपनियों ने इन्हें सर चढ़ाकर पूरी कर दी है
एक चवन्नी भी आयकर ना देना और भोग - उपभोग कर लेना, असेट्स के नाम पर घर, उपकरण, ट्रैक्टर, महंगे से महंगे चार पहिया वाहन, और सालाना भ्रमण करना शगल हो गया है और फिर भी पूरी बेशर्मी से आयुष्मान कार्ड, बीपीएल कार्ड, राशन कार्ड, पांच किलो फ्री राशन से लेकर प्रधानमंत्री कुसुम योजना से लेकर हर तरह की सब्सिडी लेने में सबसे आगे है, जमीन इनके लिए अब बेचवाली और लेवाली का धंधा है, अगर मनपसंद दाम नहीं मिलें तो विघ्न संतोषी की तरह से लड़ने - भिड़ने आ जाएंगे, किसी लीड, सहकारी या ग्रामीण बैंक वाले से पूछे इन "किसान देवता" के बारे में या किसी शक्ति पंप, किर्लोस्कर, बीज वाले या पेस्टीसाइड वाले से वो आपको ना माँ - बहन की गाली देकर इनके गुणगान करें तो नाम पलट देना मेरा
यह किसानों की निंदा नहीं, परन्तु एक अजीब से कुचक्र की ओर मै इशारा कर रहा हूँ - जो मैने महसूस किया है और इसमें वो बड़े किसान सबसे ज्यादा शामिल है - जो जमीन के साथ तमाम तरह के व्यवसाय समानान्तर रूप से चला रहे है - फिर पंचायत में राजनीति के बहाने हो या किसी दक्ष व्यवसाय में जैसे डाक्टरी, इंजीनियरिंग, चार्टड अकाउंटेंट, मास्टरी, पटवारी, वकालत, किराना दुकान, खाद बीज या खली की दुकानदारी, फार्म हाउस के नाम पर अय्याशी के नए उभर रहे अड्डे, या कोई और उद्योग जो गोडाउन, वेयर हाउस के नाम पर सिर्फ रूपया कमाने के काम है, खेती किसानी से इसका कोई लेनदेन नहीं है
छोटे और सीमांत किसानों में अभी भी जमीन को माँ अन्नपूर्णा, हलदेव, बलदेव का कांसेप्ट बचा हुआ है
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अपना अमरूद ले जाओ
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इलाहाबाद यानी प्रयागराज के अमरूदों का ज़िक्र "गुनाहों का देवता" से लेकर तमाम जगहों पर आता है, जब लखनऊ में था तो हरदोई जाते समय मलिहाबाद पड़ता था, आते - जाते समय आम और आम के बौरों की खुशबू का अलग ही नशा होता था, खूब आम खाएं उन दिनों और घर भी लाया
प्रयागराज नियमित आता था - जब आर्मी स्कूल में प्राचार्य था तो आकाशवाणी के पास वाले आर्मी गेस्ट हाउस में रूकता और वही निहायत ही उजबक किस्म की बैठकें करके शाम को सिविल लाइन से लेकर झूंसी - नैनी तक तफरी होती थी - फौजी जिप्सी में और रास्ते में चाट, देव दर्शन और अमरूदों का स्वाद चखा जाता, कंपनी बाग से लेकर आनन्द भवन और फिर गंगा जी किनारे देर रात में दिन खत्म होता, थककर सो जाता था, तब उम्र लगभग पैंतीस - छत्तीस वर्ष थी, अपुन को "Second - in - Command" का गुरूर और जलवा भी था महू जैसे बड़े आर्मी स्टेशन का, अब तो अपने आप पर भी यकीन नहीं होता, छोड़ आए वो गलियां
अबकी बार अमरूद खाए पर मजा नहीं आया, पता चला ये थाईलैंड से लेकर जमाने भर के विदेशी बीज वाले भारी अमरूद है - आकार में बड़े, पर स्वाद है ही नहीं, बस अंदर से लाल यानी कॉमरेड है - जो इलाहाबादी क्रांति की या सांस्कृतिक हलचल की याद अपने भीतर समेटे है, कॉफी हाउस की गुणवत्ता भी भयानक गिर गई है - ना लोग है ना भीड़ और न वो चर्चाओं के दौर है
Kushal Pratap Singh - तुमसे वादा किया था कि भरपूर अमरूद लेकर आऊंगा तुम्हारे लिए , अब आओ और आकर अपना अमरूद ले जाओ, बस यह है कि दिल्ली जैसे छोटे से एयरपोर्ट में घात लगाकर घुसना होगा और अपना अमरूद ले जाना होगा
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मैं तुझसे साथ भी तो उम्र भर का चाहता था
सो अब तुझसे गिला भी उम्र भर का हो गया है
* इरफ़ान सत्तार
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भारत में कितने ऐसे शहर है जिनसे मुहब्बत बढ़ते ही जा रही है, Mamta Kalia दी का इलाहाबाद वाला उपन्यास पढ़ने के बाद आया, कुंभ में नहीं आया था पर अब जा रहा हूँ तो इस शहर से मुहब्बत हो गई है, हर बार हड़बड़ी में आता था पर अबकी बार सुकून था, तसल्ली थी और कोई जल्दी नहीं थी
खूब घुमा, मित्रों से मिला और किताबों की तीनों दुकानें देखी - राजकमल, वाणी और लोक भारती बस वहां उपस्थित लोगों से मिलकर फिर अपनी बात कहता हूँ कि साहित्यकार होने से पहले यदि आप एक अच्छे इंसान नहीं तो आप से बड़ा घटिया शख्स कोई नहीं नाम नहीं लिख रहा Ketan बाबू नाम उजागर किए तो अमित शाह को बोल दूंगा
🤣
बहरहाल, अब और तसल्ली से आऊंगा जब गंगा का पानी उतर जायेगा और साफ हो जाएगी
तब तक विदा
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उसी के शहर में आया हूँ तो सोचा मिल लूँ, फोन लगाया तो बोला - "कल तो नहीं २२ को ही मिल सकूंगा, कल तीन कार्यक्रम है - तीन बार भोजन भी करना है, परसो दो कार्यक्रम, एक युवा सम्मेलन, एक अनाथ महिलाओं के लिए उद्धार शिविर, साथ ही तीन जगह रक्तदान शिविर है, अब रहा सवाल शनिवार और रविवार का तो ...... और फिर साथ साथ में एनजीओ की नौकरी है "
"अबै, सांस तो ले लें, शुक्रवार पे रूक जा, मै तो जा रहा वापिस, गोबर मत कर, शनिवार को निकल जाऊंगा" मैने कहा
"शनि, रवि तो एकदम ई संभव नहीं, एक हिंदी में लिखने वाला अंग्रेजी का फर्जी प्रोफेसर रिटायर्ड हो रहा साला, एक ब्यूरोक्रेट एक्सीडेंट में निपट गया तो बैठने जाना है और फिर ससुराल से दो लोग आ रहे - उनको अस्पताल में सेटिंग करके भर्ती करवाना है, रविवार को सुबह ....." वो बकते ही जा रहा था
मैने कहा - "अबै, ओ समाजसेवा के कार्ल मार्क्स, साले बड़े वाले फर्जी और सड़े हुए बदबूदार आलू हो तुम, बड़े शहर में क्या रहते हो - साला हर जगह तुम मौजूद हो, अगर कार्यक्रम में नहीं हो तो कविता पेलते रहोगे, कभी इंसान भी बन जाओ, अब जिंदगी में मुंह मत दिखाना, आज से विदा किया तुम्हे"
मतलब सच में कमाल है, लोग इंसान नहीं कार्यक्रमजीवी हो गए है
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कवि टाइप मित्रों की पत्नियों के धैर्य की दाद देता हूँ, कवियों की अरबों कविताओं के पहले ड्राफ्ट को झेलने की प्रसव पीड़ा कितनी भयानक होती होगी और बाद में किसी फेमस कविता का बारम्बार घर में उठते - बैठते दोहराव - उफ्फ, कैसा कष्टप्रद जीवन है रे बाबा
उनके लिए लिखा होगा कवि ने
अबला जीवन तेरी यही कहानी
आंचल में .....

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