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Khari Khari, Drisht Kavi, Man Ko Chiththi and other Posts of July 2025

अब तक सच - झूठ के फेर में था, सत्य के अनुसंधान में जीवन लगाया, पर हकीकत यह हैं कि अब तक सबसे ज्यादा झूठ बोला और शायद क्षणांश में सच को सच बोलने पर अपराधी ही बनाया गया और एक अजीब सा अपराध बोध महसूस किया, पर जितना झूठ बोला, झूठ को अपनाया, अपनी शख्सियत को जितना झूठ से वाबस्ता किया - उतना ही आत्मविश्वास बढ़ता गया, हिम्मत बढ़ी, उम्मीदें जवां हुई और अपने - आपको मुकम्मल पाया

और यह लगने लगा कि झूठ ही सच है और वास्तविक सच भी यही था, सच एक परिकल्पना है - जिसे हम सुविधा और स्वार्थवश इस्तेमाल करके अपने - आपको संपूर्ण करने की जद्दोजहद में लगे रहते है
सच और झूठ के बीच जो महीन रेखा है - वह है न्याय जिसके बारे में कहते है और अकादमिक रूप से भी पढ़ा कि वह घटित होना दिखना भी चाहिए और मेरे अनुभव में न्याय के दो पैरहन है - सच और झूठ ; सारी गड़बड़ यही से शुरू होती है, न्याय सबको उघाड़ता है - न्याय सीमाएं दर्शाता है पर जब न्याय को प्रत्यक्ष रूप से घटित होने की बात आती है तो वह झूठ के पास जाकर ही आसरा लेता है कि सच बोलना तो कठिन है पर झूठ को सच कहना ही अब एकमेव रास्ता है
सच, झूठ और न्याय के बीच जब हम जीवन को व्यावहारिकता के बरक्स अपने को देखते है तो लगता है - हम कितने निसहाय है, ना सच और ना झूठ, बस जैसे - तैसे एक - एक कदम चलकर ऐसे मकाम पर पहुंच जाते है, जहां सब कुछ खो देते है
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जीवन की शुरुआत हम सब लोग ठीक - ठाक ही करते हैं, पर उलझनें आती - जाती है, रिश्तों के दरम्यान खटास, दूरियां और कुछ आपसी समझ के कारण चीज़ें बिगड़ना शुरू होती है, फिर सब कुछ खत्म होने लगता है, एक दिन हम खत्म हो जाते है - पूरी उम्मीदें, अदाएं, आशाएं, उल्लास और होश - जोश सब खत्म हो जाता है
रह जाता है तो सिर्फ जीवन - जिसके कच्चे धागे में मनके पिरोए हुए है और हम सुबह, दोपहर, शाम और रात हाथ फेरते बुदबुदाते रहते है - दोनों हाथों में लिए हुए कि माला खत्म हो, तो आगे की सूझ पड़े
एक समय होता है या होना चाहिए कि सब तोड़कर खत्म कर दें और चलते बनें सब त्यागकर
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कितनी बेशर्मी से ऑन रिकॉर्ड झूठ बोल लेता है अशिष्ट और कुपढ, एक बड़े लोकतंत्र के शीर्ष पर इतना घटिया, जाहिल और मूर्ख कभी ना था, ना है और ना होगा, दूसरे ने जिस टोन में बातें की वह सुनकर याद आया कि गली मुहल्ले में जिस तरह से मवाली लोग बोलते है वहीं भाषा इसकी थी
आने वाले शोधार्थी इन सब दस्तावेजों को देखेंगे तो सिर फोड़ लेंगे कि एक बड़े प्रजातंत्र का शीर्षस्थ व्यक्ति इतना बड़ा झूठा था जो बगैर किसी जानकारी, सबूत और तथ्यों के ऑन रिकॉर्ड किसी विदूषक की तरह बोलता था, उसकी बातों में सच्चाई कम और अशिष्टता ज्यादा थी
छब्बीस मौतों को मजाक बनाकर रख दिया कमबख्तों ने, शर्मनाक है, यही अगर संघ में चालीस साल तक काम करने के प्रभाव है तो फिर से संघ को सोचना चाहिए कि वे क्या कर रहे है शहादत का क्या मतलब है और अब वे कैसा देश बनाना चाहते है
पूरे सदन ने पाकिस्तान को महज कठपुतली बनाकर असली खिलाड़ी चीन को बताया पर जाहिलो को समझ आए तब ना क्योंकि हिन्दू मुस्लिम का गणित इसी से चलता है ना
"आपरेशन महादेव" का क्या चक्कर है, और यह सौ दिन बाद क्यों - जब सदन में चर्चा हो रही है, दया कुछ तो गड़बड़ है
इस सारे फसाने में राजनाथ सिंह ही थोड़े समझदार नजर आए सरकार की ओर से
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बगुला के वार्षिक आयोजन की मनुहार
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जान से प्यारे मित्रों
कल गौदाम, गबन-रिश्वत, रंग बिरंगी दुनिया, गुल्ली - डंडा वाले बड़े भैया कहानी के साथ ग़ज़लों, कविताओं, मुक्तक और छंदकों के रचयिता और माड़साब सीरीपत श्रीवास्तव, तत्कालीन कानपुर कायस्थ समाज के अध्यक्ष, और अलेस, प्रलेस के पूर्व सदस्य, हिंदू वाहिनी, फटे जूते फाउंडेशन के निवृत्तमान कोषाध्यक्ष श्रीमान प्रेमचंद्रचूड़ जी के जन्मदिन के उपलक्ष्य में कानपुर देहात में हिंदी साहित्य का एक क्रियाकर्म रखा गया है, सही समझे जिनकी अंतिम यात्रा में चार लोग आए थे, वही चार लोग जो नैतिकता के प्रमाणपत्र देते है आम जनता को
इस अवसर पर मै अपनी मख्खन के समान बनी मीठी और भयंकर मेहनत से मथी हुई 101 कविताओं का बाचन करूंगा
आप सभी आमंत्रित है, कृपया अपनी चाय, भोजन एवं छतरी साथ लेकर आएं, आयोजक सिर्फ नगर निगम का पानी वाला टैंकर खड़ा रखेगा - वो भी भाजपा नगर अध्यक्ष के सौजन्य से, और वो तैयार हो गया तो, बस उसकी जाति ओबीसी टाइप है
सादर
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हिंदी को बचाना है तो अति महत्वाकांक्षी युवाओं को बाहर करो, इन्हें पढ़ना बंद करो और बहिष्कार करो - खास करके युवा एंकर जो बहुत ज्यादा महत्वाकांक्षी है, जो तमाम तरह के पोर्टल, पेज, पोस्ट बनाने की कला में पारंगत होकर कवि, कवयित्रियों और बूढ़ों को रिझाते रहते हैं और जब आपस में मिलते हैं तो ठिठोली करते हैं, साथ ही मलाई चाटने में पारंगत हो जाते है
शुरू में ये ठीक काम करते हैं, थोड़े बहुत दिन तक बहुत विनम्र, सभ्य, सुशील और शोध आधारित रहते हैं परंतु जब-जब लोगों को इनकी थोड़ी बहुत आदत पड़ने लगती है तो यह अपने काम को "सास भी कभी बहू थी" या "बुनियाद" या "हम लोग" जैसे सीरीज की तरह से खींचने लगते हैं, और इससे ना मात्र वे कार्यक्रम बर्बाद हो जाते हैं बल्कि इन कार्यक्रमों की वजह से घर, परिवार, समाज और समुदाय बिगड़ने लगते हैं, इनकी वजह से लोग एक - दूसरे को ट्रोल करने लगते हैं और उसके समानांतर ही यह तथाकथित मोहरे बने कठपुतली संचालक बदतमीज, दंभी, बदजुबान और निहायत ही घमंडी हो जाते हैं
इनको बड़े - बूढों से लेकर इनके समकालीन, जूनियर सीनियर भैया - सैया बोलकर रिझाने में माहिर हो जाते है, यह रिझाना रचनात्मक नहीं - बल्कि चापलूसी की हद से बाहर हो जाता है और फिर वे इन फर्जी लोगों के लिए, जो अपने बाप के भी नहीं रहते, लोगों से दोस्तों और रिश्तेदारों से लड़ लेते है
ये दंभी संचालक शुरू में जितने विनम्र दिखते है, बाद में वे अपने रंग - ढंग दिखाना शुरू करते है और उन्हीं से गुफ्तगू करते है या उन्हीं गधों को बाप कहते है - जो इन्हें चारा डालते है, मजेदार यह कि एक से एक क्रांतिकारी, गांधीवादी, सूफी दुकान चलाने वाले कामरेड, समाजवादी, अलेस, प्रलेस, असम, जसम या आंबेडकरवादी, फुलेवादी या हर तरह की कमजोर मानसिकता वाले इनके आगे - पीछे नाचते है और चौबीस घंटे स्तुति में लगकर जुगाड़ में रहते है कि किसी तरह से बुनियाद के आलोकनाथ के साथ काम करने को मिल जाए - चाहे उसका संडास साफ करना पड़े
खैर, कहानी लंबी है, संदर्भ और प्रसंग भी साफ है, जिस तरह से बीस - पच्चीस एपिसोड ठीक रहते है, वैसे ही सब हुआ - पर उसके बाद का जो कचरा, रोना - धोना और घृणास्पद तरीके से निंदा - पुराण और स्कैंडल का प्रायोजित और स्क्रिप्टेड खेल खेला गया, वह हिंदी साहित्य का सबसे गंदा और नीचतम इतिहास है और इस खेल में सब शामिल है, मै "क से किताब" को इससे लाख गुना बेहतर मानता हूँ कि तीस एपिसोड के बाद शरीफ़ाना ढंग और शांति से इस शो को बंद कर दिया उस संचालक ने, जो कम शातिर नहीं था, किसी को उकसाकर, गलत तरीके से प्रश्न पूछकर, अपने समकालीनों पर जबरन टिप्पणी करवाकर और अंत में दो तीन घटिया लोगों की निगरानी में संपादन कर किसी भी एपिसोड को सनसनी बनाकर पेश करने में और क्राइम पेट्रोल में क्या फर्क है, यदि यह समझ आपकी साहित्य पढ़कर नहीं बनी तो धिक्कार है आपकी पढ़ाई - लिखाई और दो कौड़ी के लेखन पर
बहरहाल, लंबी बात है, अभी भी जिन्हें सौ के बाद आने की हौस है - उन्हें डूब मरना चाहिए, ऐसे लोग जो किसी सरकारी प्राथमिक स्कूल में मास्टर नहीं बन सकते - उन्हें हिंदी के पोर्टल और पत्रिकाओं के संपादन का काम सौंप दिया है और नतीजा जैसे एक अनपढ़ नेता के कुकर्मों का खामियाजा देश भुगत रहा है - वैसे ही हिंदी साहित्य में गुदा, गूदा, स्तन, चुंबन और "अश्लीलता" साहित्य के नाम पर घर में घुस आई है
बेहतर है कि इन सबको विदा करो, सबसे मजेदार यह है कि सारे पाप करके लोग भाग जाते है एकाउंट डिएक्टिवेट करके या ब्लॉक करके
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वो दिन कि जिसका वादा है
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10 दिसंबर 2024 की तारीख थी, जब मैं बड़वानी जा रहा था और इंदौर में आईएसबीटी पर बैठा था और अचानक मुझे भोपाल से एक मित्र का फोन आया और उसने कहा कि हमारे जावेद भाई नहीं रहे, उन्होंने आज सुबह ट्रेन से कटकर आत्महत्या कर ली है, मुझे काटो तो खून नहीं था, कुछ समझ में नहीं आ रहा था, दिमाग भोथरा गया था और लगा कि सब कुछ खत्म हो रहा है - आखिर ऐसा क्या हो गया कि जावेद को ऐसा कदम उठाना पड़ा
उत्तर प्रदेश से आकर मध्य प्रदेश में बसा था जावेद, यही मकान खरीद लिया था ; पुणे, दिल्ली, मुंबई, कई जगह पर घूमा था, पढ़ाई की थी, काम किया और दिल्ली - पुणे में पढ़ाई हुई थी, अच्छा - भला परिवार चल रहा था, परिवार में पत्नी थी, दोनों बहुत प्यार से रहते थे, ये दोनों जब 2005 में भोपाल आए तो सबसे पहले मुझे मेरे दफ्तर में आकर मिले थे, तब मैं हंगर प्रोजेक्ट में राज्य प्रमुख का काम करता था और उन्होंने कहा कि हम युवाओं के साथ एक "युवा संवाद" नाम का कार्यक्रम शुरू कर रहे हैं, तो मुझे लगा कि अच्छा कार्यक्रम है - इसमें जुड़ना चाहिए और मदद करनी चाहिए, धीरे-धीरे मुलाकातें बढ़ी और वैचारिक तौर पर भी हम साथ में जुड़े कब एक परिवार बन गए मालूम ही नहीं पड़ा
जावेद की बहुत पुख्ता समझ थी और वह बहुत ठोस और मंजा हुआ आदमी था, राजनीतिक, सामाजिक, स्तर पर उसकी अपनी एक विचारधारा थी और वह दुनिया भर के लोगों के साथ अपने लेखन और बातचीत से जुड़ा रहता था, कई प्रकार की चीज वह लगातार पढ़ता रहता था - चाहे वह अखबार हो या छोटी-मोटी पत्रिकाएं, उर्दू के रिसाले हो या हिंदी अंग्रेजी की पत्रिकाएं, साहित्य हो या विविध, उम्र के एक पड़ाव में आने के बाद उसे महसूस हुआ कि पुन: पढ़ाई करनी चाहिए तो उसने भोपाल के बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय से मदरसों की स्थिति को लेकर एक शोध किया और पीएचडी की डिग्री हासिल की, पर उसका ना ढिंढोरा पीटा ना किसी को बताया
वह चुपचाप अपना काम करता रहा वर्षों तक, 9 दिसंबर 24 की शाम को मेरी उससे बात हुई थी आखिरी, दरअसल में उपासना भी हमारे साथ बड़वानी जाने वाली थी तो मैंने उससे कहा था कि मेरे इंजेक्शन ले ले और उपासना को दे दे - ताकि मैं वहां लगा लूं - उसने कहा था कि "दादा आप चिंता मत करना - मैं उसको रखवा दूंगा याद से" और 10 तारीख की दोपहर 2:00 बजे के आसपास जब वह फोन मेरे पास आया मेरे दिमाग में 2005 से लेकर 2024 तक की सारी स्मृतियां एक साथ चलने लगी, कुछ समझ नहीं आ रहा था
आज जावेद का जन्मदिन है अगर वह आज होता तो उम्र का 45 वाँ जन्मदिन मना रहा होता, उसके हमने कई जन्मदिन मनाए हैं, भोपाल में 10 साल रहा तो ईद दिवाली हमारी साथ होती थी और इधर भोपाल छोड़ने के बाद शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो कि हम बात ना करते हो, फोन पर तो अक्सर बातें होती थी - शिक्षा, स्वास्थ्य, विकास, राजनीति, समाज , घर, परिवार, प्रशासन, शायरी, शायद ही कोई ऐसा मुद्दा हो जिस पर हम बात ना करते हैं - वह अपने विचार बताता - मैं अपनी परेशानियां, कभी हम अपनी दिक्कतें साझा करते, मिलजुल कर अपनी परेशानियों और अपनी इमोशन भी शेयर करते थे, हम दोनों के बीच में एक बाप - बेटे का रिश्ता था, और भोपाल में लगभग सभी को यह मालूम था मित्र मंडली में कि यदि मैं मरा तो मुझे मुखाग्नि जावेद देगा, नादानी तो नहीं पर बड़े वाला खेला कर गया लड़का, इतने बड़े वाला धोखेबाज निकलेगा कि हम सबको छोड़कर निकल लेगा - मालूम नहीं था, हद से बाहर खेल गया लड़का - क्या ही किया या कहा जाए अब
आज गांधी भवन के कबीर कक्ष में लगभग 125 लोग जमा थे भोपाल के और कुछ मेरे जैसे बाहरी भी, जावेद के लिखे हुए आलेखों की दूसरी एक और किताब संकलित होकर आई है जिसका विमोचन आज हुआ, भोपाल के कुछ साथियों ने "राग भोपाली" नामक पत्रिका जावेद को समर्पित की, उसके अंक का भी विमोचन था, सभी वक्ताओं ने और अन्य लोगों ने भी जावेद के बारे में ना मात्र प्रशंसा की, बल्कि यह कहा कि उसने जो लड़ाइयां लड़ी, वे बहुत अच्छी थी परंतु जो आत्मघाती कदम उठाया उससे सहमत नहीं हुआ जा सकता, जीवन संघर्ष का ही नाम है और उसे खत्म कर देना कोई समझदारी नहीं है, सुभाष गाताड़े ने एक लंबा वक्तव्य दिया जिसमें उन्होंने दुनिया में किस तरह से बदलाव हो रहे हैं और भारत में क्या-क्या परिवर्तन हो रहे हैं, जिससे आने वाला हमारा भविष्य खतरे में है, शरदचंद्र बेहार, जो मध्यप्रदेश शासन के मुख्य सचिव रहे हैं, उन्होंने परिवार का नेतृत्व करते हुए अध्यक्षीय उद्बोधन दिया और सबको धन्यवाद दिया
कुल मिलाकर बात यह थी कि जावेद वहां दैहिक रूप से उपस्थित नहीं था परंतु हर आदमी के दिमाग में जावेद था, है और हमेशा रहेगा ; यह बात कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं है, पर सवाल आज भी वही है कि आखिर ऐसी कौन सी परिस्थितियाँ बनी कि जावेद को आत्महत्या करनी पड़ी, मैंने इतने दिनों तक कुछ भी नहीं लिखा था, पर आज भी मेरे दिमाग में उन सारी स्मृतियों के साथ-साथ एक प्रश्न अभी भी गूंजता है और मैं गाहे बगाहे मित्रों से चर्चा जरूर करता हूं कि आखिर क्या कारण था कि जावेद को आत्महत्या करनी पड़ी और सिर्फ जावेद की बात नहीं, बल्कि जावेद जैसे तमाम उन युवाओं की बात है जो घर, परिवार, राजनीति, आर्थिक, सामाजिक दायरे में रहकर संघर्ष करते हैं और फिर एक समय पर "गिव - अप" कर देते हैं और आत्महत्या कर लेते हैं, निसंदेह आत्महत्या करना बहुत हिम्मत का काम है, परंतु उससे ज्यादा तो उसमें जीवन जीने की हिम्मत थी, बहरहाल जावेद को जन्मदिन की बधाई और सिर्फ यह दुआ की जहां भी रहे खुश रहे
लंबे समय बहुत सारे दोस्तों से मुलाकात हुई, नए अंदाज, चमक - दमक, व्यवहार, चाल - ढाल देखकर खुशी भी हुई, अधिकांश लोगों का एटीट्यूड देखकर मन प्रसन्न हुआ, और इन सबके भले के लिए दुआएं भी खूब निकली
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ज्ञानरंजन - इससे तो फेसबुक पर अकाउंट खोल लेते और चिरौरी करते, सारे लोगों पर लाइक और कमेंट्स करते और सारा दिन यही डेरा जमाकर बैठते, हंस के सामने पहल की दुकान खोलकर क्या "हासिल" हुआ - "घंटा" समझ आया, आखिरी प्लेटफॉर्म पर घंटे की तरह रह गए और बुढ़ापे की चुनरी में दाग़ लगा लिया, भला हुआ जो गगरी फूटी
वैसे बहुत सारे लोगों के मुगालते दूर हुए, पहल का घंटा पकड़कर जो झूल रहे थे - वही घंटा उनके सिर पर फूटा है, और कितने जहरीले और मवाद से भरे है ज्ञान के रंजन - यह समझ आया है
आत्म मुग्धता हिन्दी के लेखकों का स्थाई भाव है - फिर वो ठाकुर साहब हो, बामन हो, लाला लोग हो या कोई नत्थूलाल टटपुंजिया साहित्यकार, इस सदगति , सॉरी संगति के बाद जो लोग जबलपुर जाकर मोक्ष प्राप्त कर रहे थे बरसों से और झंडा उठा रहे थे आधारताल का अब मणिकर्णिका पर बैठकर दहाड़े मारकर प्रलाप कर रहे है - हाय मेरे नामवर, हाय ठाकुर साहब, हाय अलाने, हाय फलाने और मै देख रहा हूँ कि कुछ का पर्दाफाश ज्ञानरंजन ने किया वे अपने पिट्ठुओं से बाकायदा फैक्ट चेक की तर्ज पर प्रायोजित पोस्ट करवा रहें है, मतलब गजब का खेला हो रहा
दूसरा, संपादन और स्कैंडल खड़े करने के लिए हिंदवी को बधाई देना चाहिए कि सौ संगतों में एक करोड़ बहसों को तो पैदा किया ही होगा, बढ़िया कमा लिया साहित्य के नाम पर और कितना लोगे बाबा, चलो - अब आगे जाओ शनि महाराज
छोटी पत्रिकाओं के जीवित रहने की हकीकतों, ईर्ष्या, द्वेष, जलन, पीड़ा, अवसाद, कुंठा और अठ्ठासी बरस तक इस सबके साथ जीना ही ज्ञान का रंजन करना है, "सुनो ज्ञानरंजन" के नाम से एक कविता कई वर्ष पूर्व लिखी थी उसमें यह सब था, जो अब उघड़ गया है
हंस, पहल, आलोचना से लेकर बाकी पत्रिकाओं की समझ और "कुराज - नीति" सामने आ ही रही है, कोई नहीं बचेगा - वागर्थ, तद्भव, कथादेश और बाकी सब भी उघड़े होंगे, इंतजार कीजिए
कुल मिलाकर हिन्दी के बड़े लोग निहायत ही धूर्त, पापी, कुंठित और आत्म मुग्ध है
इति सिद्धम
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हिंदवी के चम्पादक उजबक है वे खुद उतरे और देखे कि उनके लिखे को कितने वोट मिलते है, दो कौड़ी लोग और दो कौड़ी की समझ, ये तीन चार मूर्ख लोगों ने हिंदी कविता को ब्रोथल में बिठा दिया है, ये समझदार कवि जिनमें से कुछ को जानता हूँ, बाकी नगीने कहां से आए नहीं जानता गए क्यों इस चक्कर में, वो अंग्रेजी में कहते है ना कि शूकर देव से बहस मत करो, वो खींचकर तुम्हे भी कीचड़ में ले जाएगा और तुम्हे कीचड़ में देखकर मजे करेगा, वही आजकल ये लोग कर रहें है - लल्लन हो या लल्लन का छोरा
एक स्व शशिभूषण पुरस्कार की जबरन ऊंच नीच चल रही है सीआईडी टाइप घटिया सस्पेंस बनाकर हर आठ दिन में कहानी संकलनों की लिस्ट प्रसारित की जाती है, भाई प्रभात रंजन को सनसनी पैदा करने में मजा आता है, एक देश निर्मोही थे जो युवा शोधार्थियों से अपने ही आधार की ना बिकने वाली सरकारी कर्मचारियों की लिखी घटिया किताबों का थोक में रिव्यू लिखवाकर पांच हजार के पुरस्कार के लिए नींबू दौड़ करवाते थे, एक बार जमकर लिखा तो बंद किया वह पुरस्कार, दिल्ली पुस्तक मेले में मिलें तो बोले आपने बहुत तीखा लिखा था इसलिए बंद कर दिया वह पुरस्कार, बीएचयू के कई फर्जी शोधार्थियों को उन्होंने उपकृत किया जो आजकल मास्टर बन कर भी धंधा कर रहे है
ये सब हरकतें आपसी रिश्ते अलग खराब करेगी, इसकी चिंता किसी को नहीं - कहानी में मेरे लिए मिथिलेश भी उतने ही प्रिय है, जितने सारंग उपाध्याय और यह वेटिंग, गला काट घटिया दौड़ का आखिर कहां ले जाकर छोड़ेगी
द्विवेदियों, त्रिवेदियों, चतुर्वेदियों, मिश्राओं, शर्माओं, पाण्डेयों और तिवारियों के घेटो से निकलकर हिंदी कविता और कहानी को मुक्त होना होगा, इन्हीं गढ़ और मठों की बात मुक्तिबोध करते थे
अरे जिसको देना है चुपचाप चयन करके दे दो, ये क्या हरकत है घटिया - कि सनसनी फैलाओ, वोटिंग करो और तमाम तरह के हथकंडे अपनाओ, इतना अपराध बोध और आत्ममुग्ध हो - तो राजनैतिक दल ज्वाइन कर लो और फिर करो भड़ैती, देश में हो ही रहे नाटक रोज, किसको फिक्र है और कौन ध्यान दे रहा
इन कवियों को withdraw कर लेना चाहिए चम्पादक के मुंह पर कालिख लगाते हुए या कवियों को अब कविता लिखना बंद करके कुछ और करना चाहिए, इस सूची में अजय, गौरव और गोविंद तीनों प्रिय कवि है अपनी तरह के अनूठे, बगैर वोटिंग के ये अपने अपने अंदाज में श्रेष्ठ है तो वोटिंग क्यों
कितना नीचे और गिरेंगे हिंदवी वाले घटिया चम्पादक
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"आपकी आज की पोस्ट पढ़ी, कई पिछली दार्शनिक पोस्ट की ही भाँति जीवन की नश्वर प्रकृति की ओर इंगित करती, पोस्ट में संलग्न चित्र में धूं - धूं करती जल रही चिता, इससे मुझे याद आया कि देवास श्मशान घाट पर कई बार अंतिम संस्कार में जाना हुआ है, वहाँ चिता को अग्नि प्रज्वलित करते समय ताली बजाई जाती है, मैंने कई से पूछा पर कोई ढंग का उत्तर नहीं मिला - आज सोचा आपसे बेहतर कौन बता सकता है"
प्रोफेसर, डॉक्टर और बड़े भाई Bholeshwar Dube जी का प्रश्न
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मेरा जवाब- बहुत बढ़िया प्रश्न, बचपन से यहां आ रहा हूँ और यह देखा है कि लाश जलाने के बाद ताली बजाते है यहां, यह सोचकर कि एक व्यक्ति मुक्ति पा गया इस नश्वर संसार से, कल रात मेरे एकदम नजदीक के पड़ोसी का देहांत हुआ है - श्री पंचोली जी का, बस उन्हीं के अंतिम संस्कार में आया था, असल में यहां नाथ संप्रदाय के लोग बहुत है, शीलनाथ महाराज की यहां विश्व प्रसिद्ध धुनी है, कबीर की वाचिक परंपरा का मालवा गढ़ है खासकरके देवास, कई संप्रदाय के लोग जब अपने परिजनों की लाश लेकर यहां आते है तो एक - डेढ़ घंटा नृत्य करते है, पक्की रसोई बनाते है, मीठा बनाते है और भोजन करते है यही, लगभग पूरा दिन श्मशान में ही उत्सव और जश्न होता है, श्मशान के एक भाग में यह प्रायः देखने को मिलता है, उज्जैन के चक्रतीर्थ, इलाहाबाद में संगम पर, नर्मदा नदी के कई किनारों पर, माही नदी के तट पर, गोमती नदी पर, कावेरी और कृष्णा, उज्जैन के क्षिप्रा के रामघाट पर और बनारस में मणिकर्णिका पर भी मीठा भोजन बनाने की और सहभोज की प्रक्रिया को देखा है
मौत को कई दार्शनिकों ने उत्सव माना है, ओशो तो मृत्यु को उत्सव ही कहते थे, संभवतः किसी बड़ी परम्परा को अपनाते हुए ताली बजाने को सर्व साधारण ने अपना लिया और अब वो एक सहज हो गई है, और कोई कभी गंभीरता से सोचता भी नहीं , एक स्वर में ताली बज जाती है, आज यह प्रश्न सामने आया तो याद आया कि यह प्रश्न मैने कई लोगों से पूछा था अपनी किशोरावस्था में तो लगभग यही जवाब मिलें थे
आपके यहां, इलाके में ऐसी कोई प्रथाएं है, विशेषकर अंतिम क्रिया के समय जो थोड़ी लीक से हटकर है और जो मृत्यु को एक उत्सव दर्शाती है और जीवन से वैराग्य को पुख्ता करती है, यदि हो तो बताइएगा, आभारी रहूंगा, जैसे महू में लकड़ी का प्रयोग लाश जलाने में नहीं होता, कंडो से यानी गोबर के उपलों से जलाते है, यह पर्यावरण और लकड़ी बचाने के उद्देश्य से किया जाता है
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जीवन अपने हिसाब से जिएं, यूँ तो जीवन छोटा लगता है, महज साठ - सत्तर बरस की यात्रा - जो सभ्यता के बरक्स बहुत कम कालावधि है, पर जब जीने को हम उतरते है तो एक - एक पल भारी होता है, इसमें हम हर किसी को खुश नहीं रख सकते, हर किसी को नाराज नहीं कर सकते, हम हर किसी के हीरो या हीरोइन नहीं बन सकते - ना ही किसी के खलनायक भी
एक टेढ़ा - मेढ़ा रास्ता है - धूल, कंकड़, गुबार और अंधड़ से भरा हुआ और बस गुजरना है - अपनी इच्छाओं को पूरा करते हुए या त्याग करते हुए
अपने आप से बार बार कहता हूँ कि एक ही जीवन है - बगैर किसी की अपेक्षा पर खरे उतरे या किसी बड़ी महत्वकांक्षा को पूरी करने के ख्वाब को संजोए - बस जी लो, अपने पसंद की कर लो, यदि तुम्हे लगता है कि यह करने से खुशी मिलती है, या संतुष्टि तो कर लो एक बार अपनी वर्जनाएं और डर छोड़कर
मरते समय छाती पर कोई तमगा होगा तो भी धू - धू कर जल जाएगा, बस यह याद रहेगा कि इसने जीवन कैसे जिया, जीवन को कैसे आनंदित भाव से पूर्ण किया - बाकी सब तो माया है, हम जानते ही है, सब छोड़ दो यश, कीर्ति, पताकाएं और वो सब जो जीने से रोकता है
"कोई पूछेगा जिस दिन वाक़ई ये ज़िंदगी क्या है
ज़मीं से एक मुट्ठी ख़ाक ले कर हम उड़ा देंगे"
* अनवर जलालपुरी
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न जाने कितने चिरागों को मिल गई शोहरत
एक आफताब के बेवक्त डूब जाने से
- इकबाल अशहर साहब
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मै लोगों को ब्लॉक करता नहीं आमतौर पर, एक घोंचू रोज टैग कर रहा था कई बार समझाया कि टैगासुर मत बन, साला चमन सूतीया अपनी घटिया गजल, श्लोक, अशुद्ध मंत्रोच्चार , गीत और अपनी काली - पीली माशूका के मां-बाप की शादी की सालगिरह में मुझे रोज टैग के रहा था, अबे उनकी शादी में मेरी क्या गलती है, जब मना किया तो ससुरा ज्ञान देने लगा, कुल जमा बाईस साल का होगा - सुअर का पिल्ला, बनारसी था,आखिर आज भारत रत्न देकर विदा किया नीच को
आप टैग मत करिए, मै कहां से आता हूँ, मेरी क्या पृष्ठभूमि है, मै कौन और क्या करता हूँ - इससे आपका कोई मतलब नहीं, 59 की उम्र हो रही है - आप मुझे समझाने आए है कि दुनिया क्या है, औकात में रहिए अपनी, ना आपको मुझे समझने की जरूरत है - ना मुझे आपको, यह एक वर्चुअल वर्ल्ड है - हम मित्र है तो है, बस और आपको लगता है कि मेरा लिखा, व्यवहार और लहजा ठीक नहीं तो हट जाइए - किसी डाक्टर ने नहीं बोला है जुड़े रहने को
परसो रात को एक और चमन बहार आ गया कि "कमरे के बाहर निकले और दुनिया देखें", अबे गधे, तेरे खानदान की सात पुश्तों में कोई इतना नहीं घुमा होगा - जितना भारत और गांव मैने देखे है, दुनियादारी की समझ मुझे समझा रहा था, जिसने घर - मोहल्ला और शहर छोड़कर कुछ और नहीं देखा, मप्र नहीं देखा, और राज्य के बाहर नहीं गया और कुंठित होकर उम्र के पचास साल गुजार दिए - वो ज्ञानी बनकर बकलोली कर रहा है
निकलो बै धरती के बोझ , चले आते है, साला रविवार बिगाड़ दिया कमबख्तों ने, चले आते है अंबानी, अदाणी, मुलायम, कार्ल मार्क्स, लेनिन,अंबेडकर, फुले, मायावती, लोहिया, जेपी, नेहरू, इंदिरा, भागवत, मोरारजी, जगजीवन, पटेल,आडवाणी, मोदी, राहुल, थरूर, ओवैसी के वंशज - भागो साले गंवार कही के
साला, आज बहुत काम करने थे दिन बिगाड़ दिया नालायकों ने, बस अब मस्त पोहा - जलेबी खाने जा रिया हूँ - गर्मागर्म कचोरी भी, वहां आ गए तो कचरे के डिब्बे में डुबोकर मार डालूंगा
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सर पर बचे 17 - 19 शुभ्र धवल लंबे केश, चमकता चंद्रमा, तीन - चार शेष रहे दांतों में कीट और मसूड़ों में जिन्जीवाइटिस, चेहरे पर झुर्रियां और हाथ - पांव की पेशियों में नसें मानो किसी भूकंप की भांति बाहर आने को बेचैन, ढीले पड़ते कपड़े, आंखों का मोतियाबिंद अब बाहर आने को मना कर रहा चार आपरेशन के बाद, नए नवेले से बदले घुटने, रीढ़ की हड्डी की ऐंठन, गोलियां लेकर आई साढ़े दो घंटे की नींद, कृशकाय सी काया - जो मिट्टी में मिल जाने को बेताब, रिटायर्ड हुए दस साल हो गए महाविद्यालय से और अब कुल मिलाकर अकेलेराम, बेटे - बहु - नाती - पोते, सब देश से बाहर - फिर भी रोज डेढ़ दर्जन कविता लिखने वाले युवा, जोशीले, हर दिल अजीज और दिलफेंक कवि को "जलम दिन की बधाई"
और इनसे दो - तीन माह ही छोटे या बड़े दोस्तों को भी मुबारकबाद कि कवि के युवापन को जिंदा रखा, चापलूसी कर, घर बुलाकर, मुहल्ले के सुंदरकांड में काव्य पाठ करवाकर और लगातार फेसबुक पर चिरौरी कर के
जिंदाबाद मित्रों
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सिर्फ "गुनाहों का देवता" का नायक ही नहीं, बल्कि "मुझे चांद चाहिए" का हर्ष भी दोषी ना होते हुए हर जगह दोषी करार दे दिया जाता है और अंत में हर्ष सब कुछ छोड़कर यानी नौकरी, प्रतिष्ठा, परिवार, दोस्त, ग्लैमर्स ज़िंदगी और यहां तक कि वर्षा जिसे वह सबसे ज्यादा प्यार करता है, को भी तन्हा छोड़कर आत्महत्या का सुरक्षित मार्ग अपना लेता है
महाभारत में अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा था "सब मेरे खिलाफ हो गए है माधव, तो श्रीकृष्ण जवाब देते है - सब हारेंगे पार्थ" - यह हार अंततोगत्वा मृत्यु ही है, जीत, पद, पैसे और प्रतिष्ठा का जश्न ज्यादा दिन नहीं रह सकता, सब नश्वर है इससे हम सब वाक़िफ ही है
बस यूँ ही चल रहा है जीवन - द्वंद, तनाव, मुश्किलें और अंधेरों के बीच पर सबसे निजात मिलेगी जरूर, शायद अज्ञेय ने लिखा है "एक दिन मर जाओगे और सब ठीक हो जाएगा"
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कीचड़ और मलमूत्र की आजादी वाला देश
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देश में बरसात हो रही है, जगह-जगह पानी का तांडव देखने को मिल रहा है, ऊपर से नीचे तक घरों से लेकर मंदिर-मस्जिदों में पानी है, मल-मूत्र और कीचड़ सब एक हो गया है और समस्याएं, पुल टूट रहें हैं, बसे-वाहन डूब रहे है, जनता मर रही है
क्या विकास किया है 56 वर्ष कांग्रेस ने और शेष भाजपा और बाकी लोगों ने - मतलब भ्रष्टाचार का कोई अर्थ ही नहीं है समझने की जरूरत ही नहीं है, अब यह मान्य और स्वीकृत विधा और चलन है
ब्यूरोक्रेट्स से लेकर चपरासी और पार्षद से लेकर प्रधान तक सब महापापी, भ्रष्ट, नीच और गैर जिम्मेदार है
सबसे ज्यादा मूर्ख जनता है और इस बात को समझना है तो सबके सामने खुलेआम चुनाव आयोग से लेकर राजनैतिक दल और हम सबकी प्रतिनिधि जनता बिहार में चुनाव मैदान में है , आजादी के अस्सी वर्ष क्या है और क्या होगा - आगे समझने के लिए बारीकी से नजर रखिए - क्योंकि बिहार चावल की अधपकी हांडी का वो चावल है - जो लोकतंत्र से लेकर सब कुछ समझा देगा
अभी आनंद से बडौदा के बीच का पुल टूट गया है और चार बड़े वाहन उसमें डूब गए है, विकसित गुजरात का मॉडल, किसके राज में बना, कौन सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहा, पिछला पुल टूटा था याद है ना, जांच रिपोर्ट किसी माई के लाल ने देखी हो तो बता दें
साली जनता हरामखोर है
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स्वयंसिद्धा
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मई - जून की प्रचंड गर्मी के बाद जुलाई में हल्की बारिश शुरू हो ही जाती है और अक्सर छोटे कस्बों और शहरों में बिजली जाना आम बात है, ऐसे में यदि अपने को लगने वाली सारी जरूरत की चीजें - मसलन दवाइयां, डॉक्टर की पर्ची, लेब रिपोर्ट की जांच वाली पर्ची, पीने का पानी, चादर, पढ़ने की कोई किताब, रोज के अख़बार, खाने की चीज़ें -जो अलग-अलग रंग-बिरंगे छोटे डिब्बों में रखी हो या मोबाइल फोन - जिसके पीछे एक पर्ची चिपकी रहती थी - हम तीनों भाइयों के नाम, मां के भाई बहनों के नाम एक से दस तक और स्पीड डायल करने का नंबर सामने गाढ़े अक्षरों में लिखा रहता था, इसी के साथ-साथ पलंग के आसपास दो कुर्सियां पड़ी रहती - जिसमें से एक पर मोमबत्ती और माचिस रखी रहती ताकि जब भी बिजली जाए तो तुरंत हाथ बढ़ाकर मोमबत्ती को जला दिया जाए ; पलंग के पांव की तरफ एक वॉकर पड़ा होता था और सिरहाने की तरफ एक छड़ी - जो तीन पांवों पर नीचे टिकी रहती थी
जुलाई की शुरुआत हो जाती थी और बरामदा दिनभर गुलजार रहता था, बोगलवेलिया की बेल, गुलाब की महकती डगालें , मोगरे की सुवास, एक झुला, घर की बाउंड्री के ठीक बाहर गुलमोहर जो गर्मी में छांव देकर थक चुका होता और उसके फूल जब जमीन पर बिखरते तो बरसात उन्हें कुचलकर विद्रूप कर देती, सड़क पूरी लाल हो जाती और हमारी सायकिल, गाड़ियां घर में रखते समय पहियों से लिपटकर फूल घर के अंदर आ जाते या जूते और स्लीपर से भी रसोई तक पहुंच जाते
कभी पलंग पर, जिसे लकड़ी का दीवान आज भी पुकारते है हम घर में, कभी बरामदे के झूले पर या कभी दरवाजे के बाहर नीलकमल कंपनी की प्लास्टिक की कुर्सी पर मां बैठ जाती, थोड़ी देर बैठती तो आसपास की महिलाएं चली आती, चाय का दौर चलता, हंसी खिलखिलाहट, पोपले मुंह से फुसफुसाहट और मोहल्ले से लेकर रिश्तेदारी की बातें सुख दुख सब सजीव हो जाते, इस सबके बाद दवा का समय होने पर अपने आप उठकर आती और पलंग पर बैठकर पानी का लोटा लेती ग्लास भरती और दवा को खाती फिर लेट जाती, कभी हमसे बात करती कभी खुद ही बड़बड़ाती, तीनों नाती बड़े हो रहे थे, उनके स्कूल से आते ही उनसे गपियाना शुरू करती कि आज स्कूल में क्या हुआ
इधर चक्कर आना शुरू हुए थे तो पलंग पकड़कर बैठ जाती, और हम सबको चिल्लाकर इकठ्ठा कर लेती कि पकड़ो, पकड़ो मै गिर रही हूँ, सिर घूम रहा है, मै पलंग से गिर जाऊंगी , हम लोग शुरू में तो परिहास करते पर धीरे धीरे यह लगा कि मामला गंभीर हो रहा है, चलने में दिक्कत होने लगी, बाहर बैठना कम हो गया, जो भी आता उसे अंदर ही बुला लेती और फिर थोड़ी देर बाद मुझे इशारे से कहती कि अब आवाज सहन नहीं हो रही है इन्हें दूसरे कमरे में बिठा दें, चाय पिला और रवाना कर - यह सब अब नियमित होने लगा था, स्थानीय डाक्टर शुगर बीपी का कहकर दवा बदल देते और कहते कि हिम्मत धरिए सब ठीक होगा
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सुबह अक्सर नए संकल्प, विचार, दृष्टि, सम्पन्नता, जोश, उत्साह, उमंग, आशायें और कुछ करने के दृढ़ इरादे लेकर आती है परंतु समय ज्यों-ज्यों गुजरता है, सूरज की भक्क रोशनी में समय का पहिया जैसे-जैसे आगे बढ़ता है - हमें अपने हुनर, दक्षताओं और विपन्नता का एहसास तेजी से होता है, पस्त होती संवेदनाएं बारम्बार हमें याद दिलाती है कि अभी बहुत कुछ सीखना और समझना बाकी है, संसार में इतना कुछ है कि एक जीवन कम है, पढ़ना, लिखना और दर्ज किया हुआ आत्मसात करना शेष है
पर इस सबके बावजूद भी हम लथपथ होकर स्वेद लिए लगे रहते हैं और शाम होने तक कुछ नहीं तो एक अनुभव हासिल कर अपनी स्मृति में इस दिन को टंकित कर लेते है
यही जद्दोजहद मनुष्य होने की निशानी है, एक दिन एक स्मृति है और इसे जितना उजला बना सकें - उतने सार्थक प्रयास तो कर ही सकते है - तमाम कमजोरियों और चुनौतियों के बाद भी, अपना होना और सामने सब घटित होना और इसे महसूस करना भी अपने आपमें बड़ी बात है बाकी हमारे बाद कुछ भी हो इस धरा या आकाशगंगा पर, इससे हमारा क्या संबंध और सरोकार
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भ्रष्टाचार और गुंडागर्दी का विकेंद्रीकरण बनाम 73/74 th संविधान संशोधन अधिनियम
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देवास में कालानी बाग सबसे बड़ी और पाश कॉलोनी है यहां शहर भर के डाक्टर, उद्योगपति, व्यवसायी से लेकर तमाम तरह के लोग रहते है, भाजपा के पूर्व विधायक से लेकर पूर्व जिला अध्यक्ष यहां रहते है, नगर निगम के कमिश्नर से लेकर स्वास्थ्य अधिकारी तक यहां रहते है, परंतु दुर्भाग्य यह है कि सबसे ज्यादा खराब सड़कें, सेनिटेशन, और अंधेरा यहां रहता है, धीरे - धीरे यह सबसे बड़ी झुग्गी वाला धारावी जैसे इलाके टाइप हो जायेगा - तथाकथित जनप्रतिनिधियों की वजह से
आजादी के बाद संविधान में तमाम तरह के संशोधन अधिनियम हुए, सबसे ज्यादा घटिया संशोधन 73 एवं 74 वां अधिनियम था जिसमें हमने स्थानीय सुशासन की बात की थी, बेहद नालायक, भ्रष्ट निकम्मे और अनपढ़ किस्म के लोगों ने स्थानीय शासन की इकाइयों पर कब्जा कर लिया और अप्रैल सन 1993 से देश के गांव कस्बों और शहरों का सत्यानाश कर दिया इन नीच लोगों ने, ना पार्षद, ना पंच, ना महापौर, ना सरपंच, ना नगर पालिका अध्यक्ष कोई जवाबदेही निभा रहे है ना उन्हें कोई फिक्र है, कुल मिलाकर गुंडाराज है हर जगह और सचिव से लेकर कमिश्नर या मुख्य कार्य पालन अधिकारी सिवाय चापलूसी और भ्रष्टाचार के कुछ नहीं कर रहे, नरेंद्र मोदी में आज हिम्मत नहीं कि "स्मार्ट सिटी" की बात कर सकें या सुप्रीम कोर्ट स्वत: संज्ञान लेकर सरकार से हिसाब ले सकें या अपने रबर स्टाम्प पलटकर पूछ ले कि सौ में एक भी बना क्या स्मार्ट शहर, हरामी खा गए सब शौचालय से लेकर जल जीवन मिशन तक की पाइप लाइन और टंकियां
जिला कलेक्टर, पंचायत सीईओ या अन्य अधिकारी मजे लेकर अपने खाते में राशि जमा करने में लगे है, आप बरसात के वीभत्स दृश्य देख लीजिए या आए दिन सड़कों पर बजबजाती नाली से लेकर मल मूत्र को देख लीजिए, ना सफाई कर्मचारी काम करते है ना कोई और , जनता को सब सहन करना पड़ता है , पार्षद महानालायक है और बड़े नेता का चम्मच, सफाई कर्मचारी को या कचरे वाली गाड़ी को कुछ कहो तो एट्रोसीटी एक्ट की धमकी, हर जगह कचरा पड़ा है, नालियां चौक है, सेनिटेशन की सेंट्रल लाइन जाम है, सड़कों का भगवान मालिक है और शिवराज जैसे नेता ने कहा था कि न्यूयॉर्क से बेहतर है
कांग्रेस हो या भाजपा स्थानीय सुशासन अब कुशासन है और तमाम घटिया और नीच लोग यहां काबिज है जिनमें ना अक्ल है ना समझ, और मीडिया के दलाल कभी विधायक और कभी सांसद के रूपये खाकर दलाली कर रहे है
देवास में महापौर महिला है पर पति महापौर काबिज रहते है, एक हेल्प लाइन नम्बर देवास विधायक ने जारी किया था लगभग दो माह पूर्व, पहले तो कोई उठाता नहीं और शिकायत दर्ज होने या दस बार शिकायत करने पर भी कुछ नहीं होता तो जारी क्यों किया - यह बताने वाला भी कोई नहीं और देवास तो हमारा अभी भी सामंतवाद की चपेट में है, गत अठहत्तर वर्षों से और अभी भी श्रीमंत और राजाधिराज में लगा है, गुलामी खून में है, लोकतंत्र आने में सदियां लगेगी
धिक्कार है प्रशासन और शासन पर , इससे तो बेहतर था कि सुशासन होता ही नहीं, संविधान संशोधन नहीं होता, कम से कम बाबू राज में कुछ तो काम होता, अब तो जनप्रतिनिधि निहायत ही लापरवाह और एडहॉक है
कभी लगता है कि जब एक सौ चालीस करोड़ लोग चुप है तो तुम क्यों पंगे ले रहे हो बाबू , दो चार साल और बचे है, चुपचाप रहो और निकल लो पतली गली से , साला किसको फर्क पड़ रहा है
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मुंबई में जो हिंदी - मराठी विवाद चल रहा है वह बेहद घटिया और हद दर्जे तक धूर्तता का प्रतीक है
राज्य एवं केंद्र सरकार के साथ माननीय सुप्रीम कोर्ट को दखल देना चाहिए और यदि ये मूर्ख राज्य सरकार और सेना के लोग नहीं समझते है तो लॉ एंड ऑर्डर के परिपालन हेतु तत्काल प्रभाव से सरकार को भंग करके राष्ट्रपति शासन लगाया जाए
मै भी मराठी भाषी हूँ , पर इसका यह मतलब नहीं कि कोई भाषा किसी पर थोपी जाए, भाषा का काम अभिव्यक्ति का है - फिर वह कोई भी है, इन गंवारो को यह नहीं समझ आ रहा कि यदि मराठी ही रही तो मुंबई के काम - धंधे ठप्प हो जाएंगे और दूसरा संविधान में वर्णित भाषाओं का क्या होगा, तीसरा ये लोग होते कौन है - भाषा पर किसी की कालर पकड़ने वाले, जितनी भाषाएं और बोलियां होंगी देश और समाज उतना ही सुंदर होगा, उधर प्रसिद्ध भाषाविद प्रोफेसर गणेश देवी रोज एक भाषा - बोली की समाप्ति की बात कर रहे और मुंबई में मूर्ख लोग हिंदी - मराठी की लड़ाई लड़कर वैमस्य पैदा कर रहें है, राज्यपाल ऐसे निरंकुश नेताओं, जनता और मंत्रियों को कैसे बर्दाश्त कर रहें है - हद है मतलब
नरेंद्र मोदी जी क्या आपको दिख नहीं रहा या अपने दौरों में इतने मस्त है कि गृह युद्ध की स्थिति देश में बनते जा रही है कभी नाम चेक करने के नाम पर, कभी फ्रिज खोल रहे , कभी पेंट, कभी कांवड़ के नाम पर, कभी भाषा के नाम पर और कभी क्षेत्रीयता के नाम पर और फिर गृहमंत्री अमित शाह क्या कर रहे है
ग्यारह वर्षों में अराजकता पैदा करने के सिवा कुछ नहीं किया इन दो और अब तीन लोगों ने
देश नहीं सम्हाल पा रहे तो घर जाकर बैठो ना
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हिंदी कहानी और उपन्यास के साथ हिंदी कविता और कवियों का समय गुजर चुका है - अश्लील चित्रों, हरकतों और कविता से नाम कमाने वालों की हक़ीक़त सामने आ चुकी है, इनकी पोस्ट पर जहां तमाम लोग टिप्पणी करते थे - वे अब दो लाइक के लिए तरस रहे है, क्योंकि समझ यह आया कि ये सिर्फ और सिर्फ किताबें बेचने का धंधा करने के लिए यहां जमे रहते थे
इधर जबसे छोटे बड़े कांड हुए, खानदान के चूहों, कुत्ते बिल्ली से लेकर बीबी-बच्चों तक को इन्होंने बेचवाल बनाकर परोस दिया और संघ के एजेंडे पर काम करने ये धूर्त और पाजी खुले आम पूरी बेशर्मी से उतर आए, तब से इनकी असली औकात सामने आई और अब इन्हें कोई भाव नहीं देता, दुर्भाग्य से इस भीड़ में अच्छे कहानीकार, कवि और व्यक्ति छुप गए और कुछ ने तो साहित्य और समाज से ही नाता तोड़ लिया, पर बेशर्मों की जमात अभी जिंदा है और देशी-विदेशी लेखकों के नाम लेकर आतंक पैदा करने के उद्देश्य से हर तीन -चार दिन में यहां चले आते है
तीस - चालीस के युवाओं, हिंदी के फर्जी और चापलूस पीएचडी धारकों, पचास - साठ के बीच के प्राध्यापकों और मास्टरों ने जो गंद मचाया है - वह निंदनीय ही नहीं, जूते मारने लायक है, बगैर सामाजिक सरोकार के जाति - धर्म से लेकर दीगर मुद्दों पर जो भी धत्त कर्म इन्होंने किए, वह दुनिया की किसी भाषा में नहीं है, ना दर्ज होगा, पर हिंदी की अस्मिता की चिंदी - चिंदी इन्होंने की है और ये सब इस पाप में संगठित रूप से शामिल है
एक चवन्नी का भाव भी नहीं देने का और दुत्कारने का इनको - जब भी, जहां भी मौका मिलें - क्योंकि ये इसी लायक है, अपुन ना अब पढ़ता है इन्हें - ना कोई लाइक - कमेंट करता है, पर शर्म मगर इनको आती नही
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"प्रेम देह से गुजरकर आता है"
वर्षों पूर्व हरिनारायण ने कथादेश में बहस करवाई थी,जो बरसों चली और लोगों क्या क्या तर्क नहीं दिए थे कृष्ण राधा से लेकर सूफी परंपरा में दरवेश और ना जाने क्या क्या
हंस का औरत उत्तर कथा अंक याद कीजिए, लवलीन की कहानी चक्रवात से लेकर प्रभु जोशी के बनाए स्त्रियों के न्यूड चित्र - जो मूल प्रीतीश नंदी की किताब के लिए बनाए थे प्रभु जोशी ने, तीन वर्ष लगभग अपना मोर्चा में बहस हुई थी हंस में, राजेंद्र यादव जैसा आदमी क्या था, मुझे चांद चाहिए में सुरेन्द्र वर्मा ने वर्षा वशिष्ठ को कैसे गढ़ा है, "प्रेमी-प्रेमिका संवाद" किताब पढ़ी आपने, खट्टर काका किताब भी पलटिए , ठाकुर उदय प्रकाश की कहानी "और अंत में प्रार्थना" में डाक्टर वाकणकर को चढ्ढी दिखाई देती है किशोरियों की, प्रियंवद की कहानी खरगोश या वो कहानी याद कीजिए जिसमें एक मां अपने अर्ध विक्षिप्त युवा के आगे स्वयं को प्रस्तुत कर देती है, दरवाजा बंद करके
घटियापन कब, कहां नहीं है इस दौर में, विश्वविद्यालयों में शोध के नाम पर, पुरस्कारों में ऑब्लाइज करने के नाम पर, किताब छपवाने के नाम पर, दो कौड़ी की पत्रिकाओं में छपने के नाम पर क्या - क्या नहीं होता, जो बहुत ज्यादा शुचितावादी बन रहे है वे एक बार गिरेबान में झांक लें अपने और देख लें कि कितने पानी में है, सारे कुकर्म कर नैतिक ना बने, यही हिन्दी के लोग है - जो दो या तीन विवाह करके पत्नियों के संग चटखारे लेकर अपने यौन प्रसंग यहां शेयर करते है, आवासीय आयोजनों में रात भर कौन किसके कमरे में गया - इसकी लाइव रिपोर्टिंग कर मर्द और फेमिनिस्ट बनने के खिताब हासिल करते है, दो - तीन महिलाओं से संबंध रखकर उसे पूरी बेशर्मी से बगल में डाल देशभर घूमते है - तब लज्जा नहीं आती इन्हें
बाकी हिंदी और हिंदी के लोगों का घटियापन, साहित्य के बरक्स सबके चरित्र सामने है - इसमें संवेदना और आपत्तिजनक क्या ? जो लोग यहां नैतिकता के उपदेश दे रहे वो बताए कि मप्र में ही स्थित विवि की विभिन्न पीठों पर आसीन रहते हुए क्या-क्या धत कर्म नहीं किए, किस मुंह से ये आज नैतिकता की बात कर रहे है, "यार अब एक जवान लड़की चाहिए" जैसा वाक्य या डिमांड हमने देवास में एक दिग्गज कवि के मुंह से सर्किट हाउस में सुनी है और इस बात की तस्दीक यही के कई झंडाबरदार कर सकते है
हिंदी और हिंदी के साहित्य सहित हिंदी के साहित्यकार दो कौड़ी के घटिया और निर्लज्ज है और इनसे बड़ा नीच कोई नहीं , जो जीते जी अपने नाम पर किताबें लिखवा लें, ट्रस्ट बनाकर या अपने शोधार्थियों से जबरन अपना प्रशस्ति गान लिखवा लें, जो पढ़ाने के बजाय दिनभर फेसबुक से चिपका रहे - उन स्त्रैण कवियों और लोगों का क्या लिहाज और क्या इज्जत, जिसने अपनी बीबी और बेटी बेटे छोड़कर दूसरे के घर की बीबी को उठा लाया और ज्ञानी बनकर आसाराम या धीरेन्द्र बना बैठा है यूट्यूब पर उस हिंदी से आप नैतिकता की उम्मीद करते है, देशभर में नेतागिरी करने वाले और पीएचडी या प्रवेश के नाम पर भ्रष्ट तरीकोंसे रूपया उगाने वाले नीच प्राध्यापकों से आप भलाई और ईमानदारी के साथ चरित्र की उम्मीद करते है कितने क्यूट हो आप
मै, तुम, वो, हम, सब दोषी है
थू है इन पर और हम सब पर
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सुबह से शाम और फिर शाम से देर रात तक जागते हुए लगातार शून्य में ताकते हुए लगता है कि जीवन बहुत बोझिल है, भीड़ के बीच कांव - कांव सुनते हुए लगता है कि एकाकीपन का अपना मजा है, एकांत में रहते हुए लगता है संवाद की कमी जीवन को अपूर्ण बना देती है और अंत में यही लगता है कि जीवन में निरर्थकता के सिवाय कुछ है नहीं
हम सिर्फ और सिर्फ समस्याओं, दुखों, अवसादों, तनावों और संतापों से घिरे है और व्यस्त रहने के उपक्रम में जीने का स्वांग करते हुए एक लंबी यात्रा कर क्षितिज पर जाकर टिक जाते है और अपनी बारी का इंतजार करते है
मृत्यु से आलिंगनबद्ध होने की बेताबी बढ़ते जाती है और जब हम उस जगह पहुंचते है तो इतने क्षीण हो जाते है कि अपनी मुक्ति का उत्सव भी नहीं मना पाते - इसलिए जब तक सुरक्षित है, होश में है - मरने की इच्छा करो, दुआ करो और यही हमारा ध्येय होना चाहिए
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बिहार - विशेष राज्य की बाट जोहता अनूठा प्रदेश
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पटना में तीन-चार दिनों के दौरान पीके उर्फ प्रशांत किशोर के टीम के साथ-साथ वहां के पत्रकार मित्रों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और ब्यूरोक्रेट साथियों से मुलाकात हुई, बहुत मंजे हुए लोग थे जिनसे मैने जेपी आंदोलन से लेकर चंद्रशेखर, लालू, जीतनराम मांझी, राबड़ी देवी, नीतीश, भिखारी ठाकुर और नॉर्थ से लेकर साउथ बिहार आदि तक के किस्से विश्लेषण, तर्क, भड़ास और बकवास भी सुनी
सब ने कहा कि बिहार चुनाव में इस बार कोई क्रांतिकारी परिवर्तन होगा या होना चाहिए - लोगों के अपने-अपने तर्क अंदाज और अनुमान है जिस पर ना हम कमेंट कर सकते हैं - ना कमेंट करना चाहिए, क्योंकि लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता है और चुनने का अधिकार उनका ही है - जो भारतीय संविधान हमें प्रदान करता है
जहां एक और दूर-दराज से आए जमीनी साथियों ने भाजपा, राजद और जदयू के बीच कड़ा संघर्ष बताया वहीं पटना और थोड़े शहरी क्षेत्र के लोगों ने पीके को एक शक्तिशाली विकल्प बताया, पीके की टीम के साथ में मैं लगातार मिल रहा था - जो हमारे भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के युवा छात्र हैं या यहां से पढ़कर देश के अलग-अलग हिस्सों में पत्रकारिता कर रहे हैं - सभी लोग लगभग अपनी नौकरियां छोड़कर पीके की टीम में शामिल है और उन्हें तीस हजार से लेकर ढाई लाख तक का वेतन प्रतिमाह मिलता है, लोगों ने यह भी कहा कि पीके का यह टीम बिल्डिंग वाला तंत्र बहुत स्ट्रॉन्ग है और उम्मीद की जाना चाहिए कि इस बार जमीनी स्तर पर कोई क्रांतिकारी परिवर्तन होगा
हर जिले में लगभग 40 से 50 लोग काम कर रहे हैं, सबके पास गाड़ी - घोड़े होते हैं - जो ट्रैवल एजेंसी से गाड़ी लेकर संभावित उम्मीदवार को गांव-गांव में ले जाते हैं, समुदाय के साथ मीटिंग करवाते हैं, लोगों से मिलवाते हैं, उनके प्रपत्र, बैनर, पोस्टर, लीफलेट, भाषण, शोध, आंकड़े, बूथवार जानकारी आदि तैयार करते हैं और मीडिया के छात्र होने के नाते भव्य किस्म की प्रेस न्यूज़ बनाकर जारी करते हैं - जो यहां-वहां छपती है या नही छपती है
मेरा सबसे सवाल सिर्फ एक ही था कि पीके ने लंबे समय पूर्व यूएन एजेंसियों में काम किया हुआ है और एक आदमी अपने परिवार और दैनिक जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करते हुए कम से कम नौकरी में इतना नहीं कमा सकता कि वह पूरे राज्य में 700- 800 लोगों को नौकरियां दे दें - वह भी पांच अंको वाली या छह अंकों वाली, पीके के आय का स्रोत क्या है - यह कोई बूझ नहीं पाया था और मेरे लिए सबसे बड़ा आकर्षण का केंद्र यही था कि यदि आप ईमानदारी, नैतिकता, सदचरित्र, बदलाव, मूल्य, पलायन, मजदूरी बनाम ब्यूरोक्रेसी, बिहारी मानुष की सार्वभौमिकता, भूमिहार से लेकर यादव, अहीर, मुस्लिम, ब्राह्मण आदि तक, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और युवाओं को अवसर देने की बात कर रहे हैं तो आपको पारदर्शिता रखनी ही होगी और यह बताना होगा कि आपके आय के स्रोत क्या है, दूसरा सबसे महत्वपूर्ण यह है कि पीके के पास बिहार, वहां के जनमानस की अनंत समस्याओं का अंबार है, उसके पास सबका इतिहास है - जाहिर है अतीत में सबके कीचड़ होता है - इसलिए उसके पास हो सकता है सबकी कमजोर कड़ी या कमजोर नब्ज़ भी हो, परंतु समस्याओं के विकल्प क्या है जो कमोबेश अब अंतरराष्ट्रीय स्तर की हो गई हैं, कैसे हल करेगा, साथ ही धर्म-संस्कृति-सनातन और सांप्रदायिकता को लेकर खास करके हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता को लेकर, जो एक बड़ा मुद्दा है - उसपर पीके का स्टैंड क्या है, वह अभी तक पत्ते उसने नहीं खोले हैं
बिहार के मित्र और मीडिया के साथी राजनीति के जानकार बता सकते हैं कि मेरे इन सहज सवालों का क्या संभावित उत्तर है, और राजद, जदयू, भाजपा और कांग्रेस के बीच में जन सुराज पार्टी का क्या वास्तविक अर्थ है और क्या संभावना है, बाकी तो भारतीय राजनीति है, चुनाव है, चुनाव आयोग है, महाराष्ट्र का उदाहरण है, मतदाता सूची में हेरफेर की संभावना है, ईवीएम मशीन है, अमित शाह है, राहुल गांधी है और सबसे ऊपर नितीश बाबू है , दूसरा यह भी है कि केजरीवाल के प्रयोग से लोग अब आहत है बहुत
क्या कहते हो जी, बोलिए ना कुछ
[ किसी मित्र ने कहा था कि बिहार दौरे के बाद पीके के बाद और उभरते राजनैतिक परिवेश पर टिप्पणी कीजियेगा, लिहाज़ा यह लिखा है ]
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"जो उलझ कर रह गई है फाइलों के जाल में
रोशनी पहुंचेगी कब वह देश के हर गांव में"
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श्रीलाल शुक्ल ने जब "राग दरबारी" लिखा था, संभवतः भारत में लैंडलाइन फोन भी प्रचलन में नहीं थे और एक खास वर्ग या अधिकारियों तक ही यह सुविधा उपलब्ध थी, पर ग्रामीण जीवन, विकास और जीवन के संघर्ष की जो दास्तां उन्होंने बुनी वह इतनी सजीव थी कि आंखों के सामने विजुअल्स चलने लगते है पढ़कर और आजादी के बरक्स स्वतंत्रता, समानता, और सामाजिक आर्थिक विकास के साथ राजनैतिक जागरूकता का चलचित्र सामने आता है और समूची व्यवस्था पर सवाल उठते है
पंचायत के चार सीजन हो चुके है - शहरी माहौल से लेकर ठेठ ग्रामीण परिस्थितियों की हलचल, परिवेश और संविधान के बरक्स लोगों के जन जीवन, परिपक्वता, मूल्य, मूल अधिकार के साथ कर्तव्य देखने और इनका अठहत्तर वर्षों की राजनीति, चुनावों की श्रृंखला, कागजी विकास और लोगों के जीवन स्तर में क्या उठाव हुआ - इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है - यह सीरीज, महिला सशक्तिकरण के बहाने पुरुष प्रधान समाज, ब्यूरोक्रेसी, लोकतंत्र के पहरूओं का दोहरा चरित्र आदि बहुत खूबसूरती से उकेरा गया है इसमें
मुझे लगता है कि राग दरबारी के साथ इस विजुअल को बाईस्कोप में देखकर हम समझ सकते है कि हमारे मानव विकास के सूचकांक, कुपोषण, रोजगार, खेती, महिला समानता, स्वास्थ्य, शिक्षा और अंत में राजनैतिक परिपक्वता की वर्तमान स्थिति क्या है
इन दोनों को एक पाठ्यक्रम की तरह से LBSNA से लेकर राज्यों की प्रशासनिक अकादमियों में अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाए, साथ ही समाज विज्ञान से लेकर ग्रामीण विकास या ग्रामीण प्रबंधन में यह शामिल हो - तभी हम एक परिस्थितिजन्य जमीनी अध्ययन कर सार्थक विकास की ओर बढ़ सकेंगे
बहरहाल, पंचायत सीरीज को देखना कोई नुकसान का सौदा तो कतई नहीं है, मोबाइल जैसा सशक्त माध्यम और दो जीबी प्रतिदिन की ताकत का इस्तेमाल कीजिए और देख डालिए एक बार - सारा विकास, धर्म, अफीम, कामरेडगिरी, गांधीवाद, समाजवाद, जातिवाद, अंबेडकर, फुले से लेकर नेहरू - जिन्ना - पटेल, और मोदी - शाह से लेकर योगी - राहुल - ममता - मायावती - अखिलेश तक समझ आ जाएंगे और दिमाग़ के जाले साफ हो जाएंगे
जितेंद्र कुमार जैसा अभिनेता सदियों में पैदा होता है यह कहने में गुरेज नहीं, साथ ही नीना गुप्ता, रघुवीर यादव जैसे घुटे हुए लोग कितने चमत्कारिक है - यह देखकर ही समझ आता है, आने वाली पीढ़ियां शायद यकीन भी नहीं करेगी कि हमारे पुरखे ऐसे ग्रामीण क्षेत्रों से निकलकर अंतरिक्ष में पहुंचे है और कला की दुनिया के लाजवाब सितारों से छोटा पर्दा सजा रहता था
निंदा करने वाले तो हर युग में हुए है, पर हमें क्या - जो लगेगा - कहेंगे
Strongly Recommended
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आज को भूलकर आने वाले कल की तैयारी का वक्त नींद है, एक दिन में इतना कुछ कर गुजरते है कि सबको जज्ब करने में, स्थाई स्मृति बनने में और कुछ अतिरिक्त को छांटने-बीनने में कम से कम सात से आठ घंटे लगते हैं और गहन अंधकार भी चाहिए इस हेतु, इसलिए ये रात और ये नींद सिर्फ जीवन का दैनिक उपक्रम ही नहीं बल्कि एक जरूरी प्रक्रिया है और आने वाली सुबह को जीवन में लाने की - जो नई रंगत दे , दिशा दे शायद
जब नींद ना आ रही हो तो समझिए कि "आज" अभी पूरा हुआ नहीं है ठीक से

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हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी व...