जिंदगी में शातिर, चतुर और घाघ लोगों की कभी भी कोई मदद मत करो, ये वो लोग है जो आपके कंधे पर रखकर ना मात्र बंदूक चलाएंगे - बल्कि आपका इस्तेमाल करके अपने लिए अभेद्य किले बनाकर सुरक्षित हो जायेंगे, बेहतर है इनके साथ जितना बदतर व्यवहार हो सकता है - करो और अंत में इन्हें ऐसे चौराहों पर लाकर पटको कि ये कोई भी दिशा चुनने लायक नहीं रहे
इसके बजाय उन लोगों के लिए अपनी जान दे दो - जो सहज है, जो पारदर्शी है, जो आपसे लड़ते - भिड़ते रहते है और अक्सर आपके नुक्स निकालकर आपके संग - साथ बेफ़िक्री से बगैर किसी उम्मीद और भरोसे के चलते है
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हम सब चुन सकते है - दोस्त, यार, योग, क्षेम, अवसर, चुनौतियां, सुख, कष्ट, अवसाद, पीड़ा, स्वर्गिक लोक, सुविधाएं, मौके, ख़ुशी, हास - परिहास, पर जन्म और मृत्यु चुनने का अधिकार हमारा अभी नहीं है और इसलिए तमाम प्रलोभनों, विस्तार, समझ और बुद्धि चातुर्य के बाद भी हम बेहद कमज़ोर और नाकाबिल है - जीवन सिवाय अस्थिरता, अनिश्चितता और रिस्क के कुछ नहीं, दूसरों को मूर्ख साबित कर स्वयं को श्रेष्ठ साबित कर हमारा साम्राज्य बनाने का ध्येय निहायत ही बचकाना प्रयास है, हममें से अधिकांश लोग इस झूठ के कुचक्र में पड़कर जीवन जीने के बजाय जीवन गंवा देते है और अंत में उनके हाथ कुछ नहीं आता
आज जो भी काबिलियत दिखाने का स्वांग करता है या उच्चता की ओर उन्मुख होने का ढोंग रचता है - वह निहायत धूर्त और पाजी है, इनसे बचकर यदि जीवन के चार सुखी पल भी अपने लिए, अपनी उम्मीदों पर जी लिए तो अंत में आँखें मूंदते वक्त कोई अफसोस शायद ना रहें
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उसको जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ,
अब क्या कहें ये क़िस्सा पुराना बहुत हुआ
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संघी और भाजपाई कह रहे सामने कोई भी आयेगा तो डर कर नहीं भागेंगे, खेलेंगे और जीतेंगे, सूतिया लोग उदाहरण देकर ज्ञान पेल रहें है, बहुत ही कमजोर तर्क है वोटचोर के समर्थन में और अमित शाह का निकम्मा बेटा इसमें रूपया ढूंढ रहा है, वैध "ड्रीम इलेवन" जैसे ऐप से जुएं को सरकारी बना दिया, कितने बर्बाद हुए इसका कोई हिसाब नहीं जैसे युवाओं में Post Covid Cardiac Angina /Failure Death का हिसाब नहीं
शाह का बेटा भी कमा खा गया और समोसा प्रसाद यानी गडकरी की औलाद ने पेट्रोल में इथेनॉल मिलाकर ऑटो इंडस्ट्री बर्बाद कर दी और ज्ञान देते है मोती कि परिवार नहीं राष्ट्र सर्वोपरि है, हर जगह मूर्खों की एक फौज है जो क्रिकेट से लेकर हिन्दू - मुस्लिम के नाम पर भीड़, तमाशा, पिकनिक या भजन - पूजन कर अपने - आपको दूसरों से बड़े वाला उल्लू सीधा कर रही है, चारण और भांड हर जगह है - जो नित नए उपक्रम खोजकर नाटक - नौटंकी में व्यस्त है
इस बेशर्म सरकार को पहलगाम याद नहीं क्या, सिंदूर बंद कर दिया सेना ने, सीमा पर गरीब जवान मरे गोली खाकर, पर्यटक इनकी राजनीति में मर जाए - पर इन निठल्लों को खेल से भी रुपया कमाना है, गजब का देश और गजब की विचारधारा है
पांच किलो राशन से लेकर कॉपी, किताब, कमंडल और कंडोम की भीख पर जिंदा रहने वाली मूर्ख जनता ने मोमबत्ती नहीं लगाई आज, प्रदर्शन नहीं किए, असल में जनता को यह मालूम ही नहीं कि उसे टूल की तरह से इस्तेमाल किया जा रहा है, नेपाल का असर ना हो देश में - इसलिए चरस बोते रहो, युवाओं को बरगलाते रहो नौकरी देने के बजाय और इसमें ये निपुण, पारंगत, दक्ष और कुशल है
शर्म मगर इनको आती नहीं
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सारी अभिव्यक्ति के संदेश भाषा में ही होते है, हिंदी के नाम पर घटियापन, राजनीति और राष्ट्रभाषा बनने या होने का थोपने वाला नाटक बेमतलब का है और जब तक यह हिंदी दिवस मनाने का ढकोसला बंद नहीं होगा तब तक यह मूर्खताएं चलती रहेंगी, विविधता वाले देश में एक भाषा को थोपना सर्वथा गलत है, हिंदी संपर्क की भाषा हो सकती है,- संवाद या शासकीय जैसी भी, पर इसका अर्थ कतई यह नहीं कि हिंदी के नाम पर थेथरई की जाए, करोड़ों का बजट खर्च हो बैंक, बीमा से लेकर तमाम कार्यालयों में और इसके बावजूद भी यह सुनने को मिलें - "I am sorry my Hindi is little bit poor, I can understand but can't read, speak and write. I remember once I wrote a letter in Hindi to my RM and there were so many spelling mistakes - वो की right से होता है या left से आज तक समझ नहीं पाया", यह कहकर एक निहायत ही घाघ आदमी या औरत हीहीहीही करके हंसने लगता है और दर्शक भी हंसकर ताली पीट देते है इस सस्ते जोक पर, पर इन माँ के लालों और सपूतों को कोई दर्शकों में एक मधुर मुस्कान के साथ गाली दे दें तो तमतमा जाते है - जैसे चेन्नई के स्टेशन या एयरपोर्ट के बाहर टैक्सी वाले को ठेठ हिंदी में गाली दो तो तुरन्त लड़ने आ जायेगा - बाकी ससुर को हिंदी नहीं आती
हम यह भूल गए कि बोली जैसा कुछ होता नहीं, यदि एक आदमी भी अपने शब्दों में व्यक्त करके मेसेज समझा पा रहा है तो वह बोली नहीं - भाषा ही है, हम क्षेत्रीय भाषाओं को बोली कहकर भाषा - बोली के बीच भेदभाव करते है और यही भेदभाव खतरनाक रूप से इंसानों तक पहुंचता है और सामंतवाद, जातिवाद को पुष्ट करता है, मालवी, निमाड़ी, बुंदेली, बघेली या अवधि या मैथिली इन सब भाषाओं में उतनी ही ताकत है जितनी मराठी, उर्दू या मलयालम, तमिल, कन्नड़ या डोगरी में है या हिंदी अंग्रेज़ी में है, पर हमें धीरे - धीरे हिंदी का गुलाम बनाकर रख छोड़ा है और दुर्भाग्य से हमारे घरों में हम अपनी भाषाएं या तथाकथित बोलियां छोड़कर ठेठ हिंदी बोलने लगें है, यह अच्छा है - इसमें कुछ बुरा नहीं,पर बाकी भाषाओं को कमतर आंकने की जो मानसिकता है - वह बेहद खतरनाक है
बहरहाल , यह दिवस जब तक मनाने का रिवाज रहेगा लोग हिंदी की दुर्गति करना नहीं छोड़ेंगे, शुक्र है आज रविवार है - वरना बैंक, बीमा से लेकर सारे कार्यालयों में हिंदी का श्राद्ध होकर खीर पूड़ी बंटती और ढेर बजट खर्च होता
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