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Khari Khari, Drisht Kavi, Man Ko Chiththi, Bhopal in Memories and other Posts from 1 to 14 Sept 2025

सारी अभिव्यक्ति के संदेश भाषा में ही होते है, हिंदी के नाम पर घटियापन, राजनीति और राष्ट्रभाषा बनने या होने का थोपने वाला नाटक बेमतलब का है और जब तक यह हिंदी दिवस मनाने का ढकोसला बंद नहीं होगा तब तक यह मूर्खताएं चलती रहेंगी, विविधता वाले देश में एक भाषा को थोपना सर्वथा गलत है, हिंदी संपर्क की भाषा हो सकती है,- संवाद या शासकीय जैसी भी, पर इसका अर्थ कतई यह नहीं कि हिंदी के नाम पर थेथरई की जाए, करोड़ों का बजट खर्च हो बैंक, बीमा से लेकर तमाम कार्यालयों में और इसके बावजूद भी यह सुनने को मिलें - "I am sorry my Hindi is little bit poor, I can understand but can't read, speak and write. I remember once I wrote a letter in Hindi to my RM and there were so many spelling mistakes - वो की right से होता है या left से आज तक समझ नहीं पाया", यह कहकर एक निहायत ही घाघ आदमी या औरत हीहीहीही करके हंसने लगता है और दर्शक भी हंसकर ताली पीट देते है इस सस्ते जोक पर, पर इन माँ के लालों और सपूतों को कोई दर्शकों में एक मधुर मुस्कान के साथ गाली दे दें तो तमतमा जाते है - जैसे चेन्नई के स्टेशन या एयरपोर्ट के बाहर टैक्सी वाले को ठेठ हिंदी में गाली दो तो तुरन्त लड़ने आ जायेगा - बाकी ससुर को हिंदी नहीं आती
हम यह भूल गए कि बोली जैसा कुछ होता नहीं, यदि एक आदमी भी अपने शब्दों में व्यक्त करके मेसेज समझा पा रहा है तो वह बोली नहीं - भाषा ही है, हम क्षेत्रीय भाषाओं को बोली कहकर भाषा - बोली के बीच भेदभाव करते है और यही भेदभाव खतरनाक रूप से इंसानों तक पहुंचता है और सामंतवाद, जातिवाद को पुष्ट करता है, मालवी, निमाड़ी, बुंदेली, बघेली या अवधि या मैथिली इन सब भाषाओं में उतनी ही ताकत है जितनी मराठी, उर्दू या मलयालम, तमिल, कन्नड़ या डोगरी में है या हिंदी अंग्रेज़ी में है, पर हमें धीरे - धीरे हिंदी का गुलाम बनाकर रख छोड़ा है और दुर्भाग्य से हमारे घरों में हम अपनी भाषाएं या तथाकथित बोलियां छोड़कर ठेठ हिंदी बोलने लगें है, यह अच्छा है - इसमें कुछ बुरा नहीं,पर बाकी भाषाओं को कमतर आंकने की जो मानसिकता है - वह बेहद खतरनाक है
बहरहाल , यह दिवस जब तक मनाने का रिवाज रहेगा लोग हिंदी की दुर्गति करना नहीं छोड़ेंगे, शुक्र है आज रविवार है - वरना बैंक, बीमा से लेकर सारे कार्यालयों में हिंदी का श्राद्ध होकर खीर पूड़ी बंटती और ढेर बजट खर्च होता
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"जब तुम्हे रोशनी मिल जाएं, तो उन लोगों को मत भूलना - जो गहन अंधियारों में तुम्हारे साथ खड़े थे और तुम्हारा दुख बांटकर सब सह रहे थे, इन्हीं लोगों की सदाशयता, सदा और किस्मत से तुम आज सफलता के सोपानों पर खड़े होकर माहेनूर बन गए हो, यही वो लोग थे - जिनके कमज़ोर कंधों ने तुम्हे मुकम्मल आसरा दिया जो तुम एक मजबूत अना बनकर आज चमक रहे हो"
शाकिर चाचा पापा के साथ टोंक खुर्द में काम करते थे एक ही दफ्तर में, आज लगभग 1989 के बाद मुलाकात हुई तो मुझे वकील के ओहदे पर देखकर यह सब कहा, मै तो पहचान ही नहीं पाया, पर वे खुद आए और बोलें तुम नाईक के छोटे बेटे हो ना जो उन दिनों अख़बार में लिखता था
न्यायालय परिसर में आज बहुत बहुत पुराने लोग, मित्र, मम्मी - पापा के दोस्त, सहकर्मी मिले, कुछ भूले भटके रिश्तेदार और कुछ दुश्मनी और बैर रखने वाले संगी - साथी तो यह एहसास हुआ कि है जिन रास्तों और सफर से गुजरकर हम आगे बढ़ जाते है - उन सबके पीछे खूब किस्से - कहानियां होती है, जिनके किरदार अंधेरों में खो जाते है, पर अचानक सामने आने पर वे हमारे लिए दुआएं करते है - सिर पर हाथ धरकर आशीषों से नवाजते है और कोई एकदम अंजान आदमी एकदम अपना सा यूं निकल आता है कि आप पूरा दिल खोलकर उसके साथ बैठ जाते है, सब्र का बांध टूट जाता है और कब माज़ी मुब्तिला होकर हावी हो जाता है पता नहीं चलता
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चापलूसी, जी हुजूरी, मक्कारी और हांजी - हांजी करने से आप विश्व युद्ध जीत सकते हो बाकी सब तो आसान है ही, आजकल हर जगह यही एकमात्र सिद्ध सूत्र है और मजेदार यह कि मीडिया से लेकर न्याय या सामाजिक क्षेत्र जो सच बोलने - लिखने और कहने के लिए प्रतिबद्ध थे - वहां इनका बोलबाला सबसे ज्यादा हो गया है और निहायत ही गैर व्यवसायिक, अकुशल और कु-दक्ष लोग इससे अंबानी - अदाणी बन रहे है
कड़वा किंतु कटु सत्य इस युग का, अपन को ना ये सब आता है - ना अब सीखेंगे, क्योंकि बचा ही कितना है जीवन, जो बचा है वह भी गिरवी रखकर चरण चाटने लगे तो फिर हो गया उद्धार, पूरा जीवन अपनी शर्तों पर ही जिया है और अब किसी के सामने यह सब करना असम्भव है
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जे साहित्य उत्सवों में किताब चर्चा, किताब के केश लोचन समारोह, (सॉरी लोकार्पण) में स्टेज के फोटो ही लोग डालते है, सामने जनता कितनी है - इसका कही जिक्र नहीं होता , जानना यह है कि कौन है जो यह सब झेलता है और कौन इतने धैर्यवान लोग है बेचारे, जो भी आठ - दस लोग, (खानदान, पति या पत्नी बच्चे, अड़ोसी - पड़ोसी टाइप) उपस्थित है - उनके भी तो दीदार करवा दो, हम कौन भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत गवाही करवा रहे है इन सबकी अदालत में, माइक हाथ में पकड़े ज्ञान पेलते बकता सॉरी वक्ता, कितने क्यूट लगते है जैसे आकाशगंगा की सारी गतिविधियां ठप्प पड़ गई हो एवं तीनों लोक के देवता और असुर हाथ जोड़े मंत्र मुग्ध इन्हीं को सुन रहे है, कभी लगता है - हाय हुसैन हम ना हुए
मतलब आत्म मुग्धता चरम पर है इन दिनों
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जब तक हम है - तब तक ही संसार है, ना मेरे जन्म के पहले संसार था और ना मेरी मृत्यु के बाद कभी होगा, एक ही जीवन है - निस्तेज सूर्य की तरह जियो और भरपूर जियो, इस बात की चिंता मत करो कि कोई क्या कहेगा, कोई प्रमाणपत्र देगा, कोई पुरस्कार मिल जायेगा या कुछ और लोग कर डालेंगे - यदि आपने कुछ किया तो
जीवन वर्जनाओं, नियंत्रण और कठोर अनुशासन से नहीं प्रेम, भरोसे और आस्था से चलता है, और एक ही जीवन है - ना पिछले जन्म में कुछ था और ना अगला जन्म होगा - ये अगला - पिछला तो किसी मूर्ख मनुष्य के ही बनाऐ हुए मिथक है
इसलिए जब तक सांसें है - घूमो, मिलो लोगों से, प्रेम और अनुराग बांटों, सीखो, नए रास्तों की तलाश करके उन पर अपने पदचिन्ह दो, रोज एक नई बात सीखो, खूब गलतियां करो, किसी की परवाह मत करो, कोई तुम्हारे रास्ते में आए तो उसे ऐसा ट्रीट करो कि उसका यही जन्म सुधर जाए, तुम यहां जिंदगी जीने आए हो, नाते - रिश्ते तो बकवास और मोहमाया है - जो मृत्यु के पहले ही व्यवहार से टूट जाते है, इसलिए बस जियो और खूब मस्त रहो
बोलना, सुनना और अपनी मर्जी से जीवन जीना स्वाभाविक,और नैसर्गिक है, अपने शरीर और अपने सारे तंत्रों को देखो, प्रकृति ने इन्हें बनाया ही इसलिए है कि हम जी सकें और अभिव्यक्त कर सकें, इसलिए जियो और खुश रहो, अपना सूरज आप बनो, उसी से अपनी आभा बिखेरो और उसी के ताप में जल जाओ, यही होता आया है और होता रहें शायद
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जब तक आप लोगों को महत्व देकर उनके लिए अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय निकालते रहेंगे - चंद रूपयों, प्रशंसा, इज्ज़त, स्वीकृति, और साझा काम कर बदलाव के लिए - वे आपकी उपेक्षा करते रहेंगे
मूर्ख, अड़ियल, बेहद अशिष्ट, अव्यवहारी, विवेकहीन, अन्यायी, स्वार्थी, आत्ममुग्ध लोगों से संबंध रखने का कोई अर्थ नहीं, अपने जीवन का समय इन लोगों के साथ नष्ट करने का कोई अर्थ नहीं, बेहतर है जितनी जल्दी हो इन्हें झटक दें अपने दामन से - वरना ये वो बिच्छू है जो आपको काटकर अपने अस्तित्व का झंडा बुलंद करते रहेंगे
अयोग्य और अकुशल लोगों के साथ रहना बेहतर पर धूर्त और बेहद मक्कार लोगों के साथ एक पल नहीं रहना चाहिए
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हिंदी का कुंठित जगत ना खुद कुछ कर पाता है, न लिख समझ पाता है और मारे अपराध बोध, डिप्रेशन और एंग्जाइटी में अरुंधति के पीछे पड़ गया, प्राध्यापक, रिटायर्ड बूढ़े और धरती के बोझ मक्कार किस्म के जातिवादी लोग इसमें अव्वल है, रट्टा मारकर, नकल करके हिंदी में एमए करने वाले या चापलूसी से शोध कर रहे प्राथमिक विद्यालयों या सेकेंडरी स्कूल में दिनभर फेसबुक चलाने वाले क्रांतिकारी माड़साब लॉग्स अरूंधति पर कमेंट कर रहे, अबै तुम्हारे बाप से ज्यादा उम्र है उसकी
पहले नाक पोछना सीख लो, यह विश्व विद्यालय का विभाग नहीं जहां तुम अपने गाइड के हगने मूतने का हिसाब दिन भर फेसबुक पर लिखकर और परीक्षक की चाटुकारिता करके कमेंट कर रहे हो, बेटा एक वाक्य सही हिंदी में लिखना तो सीख लो और अंग्रेजी में Noun, Proper Noun तो पहचानना सीख लो, आज सुबह ही एक ज्ञानी को बढ़िया डोज दिया - उसके बाद पलट कर नहीं आया
रेत घाट जो हिंदी में पढ़ नहीं पाए वो अरुंधती की किताबों को पढ़कर विवेचना कर रहे है, भगवान से डरो कमबख्तों , तुम्हारी समझ नहीं कि तुम कुछ पढ़ समझ पाओ, अपने घेटों में जीने वालों घटिया किस्म के लोगों ने रायता फैला रखा है
यादव, सिंह और सब इतने कुंठित हो गए है कि इन्हें चवन्नी मिली नहीं तो उजबक बनकर अपने ही गोबर में पत्थर मार रहे है
शर्मनाक
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शिक्षक वो दीपक है जो खुद जलकर सब कुछ जलाने पर आमादा है इन दिनों
शिक्षक दिवस की बधाई तो क्या दूँ पर रिवाज है इसीलिए दे रहा हूँ, बाकी तो स्कूल कालेज में ना छात्र है ना चेले ना सीखने वाले तो यह अवांगार्द भीड़ क्या कर रही है
खैर
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नितिन गडकरी ने पिछले दस वर्षों में टोल टैक्स थोपकर बड़े हाईवे बनाए पर इस तेज बारिश ने सारी पोल खोल दी, देश के विकास का प्रतीक थी सड़कें पर आज जितना नुकसान हो रहा उतना कभी नहीं हुआ
सड़क बिजली पानी और प्रबंधन के नाम पर आए शिवराज हो या मोदी सरकार पर दुर्भाग्य से बरसात की तस्वीरें देखकर मन आहत है और दुख होता है कि पहाड़ों के साथ मैदानी इलाकों की जो हालत है वह दर्शाता है कि सरकार, मुखिया कितनी गैर जिम्मेदारी से राज कर रहें है, सिवाय विदेश घूमने, भव्य विज्ञापन में अरबों रूपयों को खर्च करके मूल विकास छोड़कर देश को जिस बर्बादी के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है वह इतिहास में कही नहीं मिलेगी, आज सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेकर चार राज्य सरकारों और केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया इससे ज्यादा शर्मनाक क्या होगा और
जनता मूर्ख है जो अभी भी धर्म और इस मुखिया के लच्छेदार भाषण में आकर अपनी बर्बादी का खुलेआम तमाशा देख रही है
यदि आपको बरसात और बाकी सब विनाश नहीं दिख रहा तो आईए अपनी अपनी माँ बहन को बहस में लाकर मुद्दों से भटकने का स्वांग करें, एक शीर्ष नेतृत्व के व्यक्ति को इस तरह की टुच्ची बातों को चुनाव में लाकर कितना शोभा देता है और इस बहाने से जो आज माँ बहनों को गालियां देकर सुशोभित किया वह क्या है
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एक बड़ी झील है जो प्रेम, मुहब्बत, आसक्ति, अवसाद, करूणा, लाचारी, बेवफाई और ना जाने किन किन समानार्थी और विरुद्धार्थी शब्दों की द्योतक है, लोग जब पानी में झांकने जाते है तो पानी नहीं अपनी असलियत में झांककर अपना विरेचन करते है और पाते हैं कि पानी वो नहीं जो झील में है, पानी आंखों में नहीं, पानी वो नहीं जो पवित्र करता है, या अस्थियों को अपने में समा लेता है पानी वो है जो सब कुछ छोड़कर, भुलाकर फिर से अपनी रौ में बहने लगता है और फिर से सब ओर हरियाली - खुशहाली बिखेरने लगता है

एक मित्र ने कहा था घर आना, पता भी दिया व्यवस्थित, एक को कल कम से कम दस बार फोन लगाया है हर बार काट दिया, फिर आज उसी का फोन आया कि निकल गया होगा तू तो, कल मै गाड़ी ठीक करवा रहा था, नहीं नहीं, सॉरी मोबाइल के सर्विस सेंटर पर था, तो कॉल उठा नहीं पा रहा था, अच्छा तो तू सिर्फ सौ मीटर दूर है, ओह पर मै ...अगली बार कभी आए तो मिलना, आज समय नहीं है, एक ने कहा मै आता हूँ दूर है तो क्या...एक ने तो पिछले पंद्रह वर्षों में मिलने की इच्छा ही जाहिर नहीं की पर दूसरी जगहों से आए निहायत घटिया और फर्जियों के साथ फोटो डालकर अपनी मानसिकता दर्शाई है, एक का जन्मदिन था तो कहा कि आज तो यहां के मित्रों के संग पार्टी है तो एडजस्ट नहीं हो सकेगा, तू थोड़ा कस्बे टाईप वाला है ना और हम यहां के तो मैच नही होगा, एक सदियों से कह रहा कि घर चलते है, या झील पर बैठते है सुकून से गप करेंगे, एक ने दो लाख नब्बे हजार ले रखें है, अभी पिछले माह ही चालीस फिर दिए थे, पर यहां आने पर वो अक्सर मुंबई, नाशिक, अमरावती या बैंगलोर चला जाता है जरूरी काम से, कुछ अपने ही शहर के वो लोग है जिनका बचपन मेरे यहां बीता, शिक्षा दीक्षा मेरे यहां हुई, पर उनसे मिलें हुए शायद बीस वर्ष हो गए - आज बड़ी झील में गया था तो इन सबकी राख, अस्थियाँ बहाकर आ गया, मै इंसानों से लड़ झगड़ सकता हूँ, प्यार कर सकता हूँ पर जिंदा लाशों के साथ नहीं रह सकता, जो लोग इतना बोलते थे कि एक दिन नहीं गुजरता था आज उन्हें भी पानी में जलाकर आ गया हूँ

कुछ रिश्तेदार थे, आहिस्ता आहिस्ता वो मर गए, उनके वंशज कहां और कैसे है मुझे नहीं मालूम, उन सर्द वीरान गलियों के बंद मकान अब मेरी स्मृतियों में श्मशान है और मै सब भूल जाना चाहता हूँ उन तथाकथित निज संबंधों के अधिकारियों की तरह जो प्रेम तो दर्शाते थे, अपनत्व भी पर उनकी वजह से नुकसान हुआ, आज आचमन लेकर उन्हें श्राप दे आया हूँ कि रिटायर्ड होने बाद कुत्ता भी नहीं पूछेगा तुम्हे और नगर निगम की गाड़ी भी नहीं मिलेंगी मरने पर, वर्षों साथ रही उस सहकर्मी को यूं तो जानता था कि अव्वल दर्जे की मूर्ख है पर एक दिन उसने घर का दरवाजा दो घंटे नहीं खोला और जब उसे बताया कि उसी का काम करने गए थे हम लोग तो नीचता की हद पार कर गई थी, एक कुलटा भी रही साथ जो विदेशियों की एस्कॉर्ट बनकर घुमती थी और धंधा करती ही, बाद में उसी की वजह से कई लोगों ने दफ्तर छोड़ा, यह शहर यूंही जेहन में तारी नहीं रहता

एक नही चार माशूकाओं का भी शहर है जो मेरे यहां आने का कारण था, पर अफसोस, बहरहाल यह शहर आज फिर बरसात में भीग रहा है शिद्दत से तो मुझे सब दिन, दस साल किसी फिल्म की भांति याद आ रहे हैं और मै सोचता हूँ क्या हर शहर के चौराहों, गलियों, मोहल्लों और सड़कों पर ऐसी दास्तानें बिखरी पड़ी रहती है और यदि हां तो किसमें इतना दम है जाए और समेट ले और किस्सा दर किस्सा सुनाता रहे अनंत काल तक ताकि सनद रहे कि तथाकथित बड़े शहरों के लोग बहुत घटिया और ओछे होते है


पेड़ों का दुख ज़्यादा है, मरने वाले के साथ वे भी मर जाते है मेरा निज अनुभव है, भोपाल के जिस मकान में मै लंबे समय रहा और पेड़ लगाएं वे देखे जाकर तो अधिकांश सूख चुके है मर चुके है
मेरे घर गुलमोहर था पिता, माँ और भाई के जाने के बाद सूखता रहा और एक दिन किसी ने काट दिया, भला हुआ - वरना मर जाता तो फिर कुछ बचता ही नहीं
जीवन भी पेड़ों के समान ही होता है, काश कि किसी के जाने के बाद हम मर जाते बजाय क्षीण क्षीण सूखने के , शहर भी ऐसे ही खत्म होते है और नदियां, झील तालाब भी, चट्टानें भी दर्द सहकर एक दिन पिघल जाती है, पहाड़ भी झर जाते है ऊंचाई से
दुख आदमी को खत्म नहीं करता - सूखाता है

जहां भी रहिए - बेचैन रहिए

इस शहर में दस साल रहा तो जाहिर है प्यार तो होना ही था, पत्थरों, चट्टानों और ऊंची अट्टालिकाओं के बीच छोटी बड़ी कुल मिलाकर तैंतीस झीलें है शायद, आया था तब ट्रैफिक के सिग्नल कम थे बल्कि ना के बराबर, जब शहर को दैहिक रूप से छोड़ा तो ट्रैफिक बढ़ रहा था और सिग्नल भी पर अब जब आता हूँ तो खूब विकास हुआ है, मेट्रो की लाइन, भीड़, बाजार और बाकी सब बढ़ गया है कम हुई तो हरियाली, मासूमियत और इंसानियत

एक ऊंची पहाड़ी की सुंदर सी इल्म की इमारत में बैठकर देखता हूँ तो एक ओर बड़ा सा तालाब दिखता है, दूसरी ओर ताज़ुल मस्जिद की ऊंची मीनार, लंबे सूने रास्ते अब भरे भरे नजर आते है और उन पर रेंगते से लोग, अदनी इच्छाओं और अदम्य साहस से रुपया बटोरने वालों की एक भीड़ जो किसी बेग पाइपर के पीछे उन चूहों की तरह जा रही है जिन्हें मालूम ना था कि ये नेतृत्व देने वाला और मनभावन संगीत सुनाने वाला शख्स उन्हें नदी में डूबोकर मार डालेगा, पर आज भी वो बेग पाइपर है और चूहों का हुजूम भी

रिटायर्ड अधिकारियों की पसंद और भ्रष्ट बाबूओं के नाम से जाने जाने वाला यह शहर पिछले पंद्रह बीस वर्षों से मीडिया के एक राजनैतिक विश्वविद्यालय बन जाने से मीडिया की जन पाठशाला भी बन गया है और एनजीओ का हब भी जहां अब करोड़ों के टर्न ओवर गिनने वाले ठेकेदारों की एक फौज भी जबरदस्त हो गई है जो कुछ भी करने को तैयार है बशर्ते आप सेवा के बदले मेवा दें, मीडिया हाउस तबेलों में बदल गए, तेवर वाले पत्रकार दल्ले बन गए और जब से सरकार एक ही पार्टी की लगातार बनी हुई है हरेक आदमी की टोपी बदल गई , कम्युनिस्ट, प्रगतिशील और जनवादी कहानीकार, नाट्यकर्मी एवं कवि सत्ता के भड़वे बन गए या गढ़े मुर्दे वाली फिल्मों पर लिखकर आत्म मुग्ध हो रहे है, शहर की पहचान भारत भवन कलाकारों का ब्रोथल बन गया और सारे संग्रहालय हिन्दू देवी - देवताओं के प्रतीक क्योंकि एक प्राध्यापक , वकील और डाक्टर नाम की प्रजाति होती है जो नेताओं की टट्टी खाकर ही इस अमूल्य जीवन को जीने का जतन करती है और वे जब इन संग्रहालयों या भारत भवनों के सर्वे सर्वा हो जाते है तो धर्म, संस्कृति, और कर्म को अपने रोजगार से जोड़कर सबको उपभोग की वस्तु समझ लेते है

यूं तो कस्बों देहातों और यहां तक कि महानगरों के अभिजात्य घरों से आए अधिकारी भी एक समय तक सहज और सरल थे, बाबू भी पचास सौ रूपयों में काम कर देते थे , पत्रकार बगैर लिफाफा संस्कृति के सब कुछ छाप देते थे और एनजीओ वाले भी उड़िया बस्ती से लेकर गेहूँ खेड़ा तक अपनी स्कूटी को किक मार कर खींच ले जाते थे पर ना जाने इस शहर को सदी के दूसरे दशक की शुरूआत से ही पता नहीं किसकी नजर लग गई और सब बर्बाद हो गया, दोस्त है जमात, पेशे और बिरादरी में थे पर सब तो नहीं अधिकांश बर्बाद हो गए

अधिकारियों पर पद का ऐसा शहद चढ़ा हुआ है कि बाबूओं से चाटे खत्म नहीं हो रहा, पत्रकार ऐसे मदमस्त हो गए कि हर जगह से बटोरने में लज्जा शील सब छोड़ दिया, एनजीओ वालों ने स्वयंसेवा की इज्जत करते हुए अकूत संपत्तियां, भवन, दुकान, मकान बना डाले और गाड़ियों की रेल घर के आगे लगाकर सबको शर्मसार कर दिया, इस शहर में तहजीब थी, शउर था, इल्म था और बातचीत का एक लहजा भी था पर सब खत्म हो गया

इस शहर को चार हिस्सों में बांटता हूँ संभ्रांत और कुलीन के नाम पर बसे नए भोपाल जिसमें अरेरा, चार इमली, गुलमोहर, मिनाल, नहर पार, बाग मुगलिया , साकेत, MNIIIT टाईप लोग और बसाहट है और जहां नींद रात दो बजे चुपके घुसती है और सूरज सुबह ग्यारह बजे उगने की इजाजत चाहता है, रिटायर्ड और कार्यरत ब्यूरोक्रेट्स अरबों रुपए बंगलों में दबाकर बैठे है, उनके वंशजों की हवस और रुपयों की चाह पूरी नहीं हो रही, वे कारपोरेट घरानों के संडास साफ करके भी खुश है कि रुपया आना चाहिए, वामपंथी बजाजों , माहेश्वरियों, गोदरेजो, अजीम प्रेम के रूपयों से बने घरों में धन धान्य भरकर हवन यज्ञ करके समाज सेवा का पुण्य अर्जित कर रहें है, पुराना भोपाल है कबाड़खाना से छोला रोड जिन्हें गैस ने डस लिया था और जिनके नाम पर कुछेक की अभी भी दुकानें चलती है, विदेशी अनुदान पर अस्पताल के नाम पर अड्डे और गरीब बेवा महिलाओं को जरदोसी का काम सीखाकर उन्हें ठगा जाता है, एक नया शहर शिक्षा माफियाओं के ठिकानों की तरह बस गया है जो रायसेन रोड या नीलबड़ रातीबड़ की तरफ है, जहां जमीनें है, मालिक है, भाव है और बायपास के नाम पर सरकारी धौंस धपट और चौथा हिस्सा है उद्योग के नाम पर मंडीदीप या भेल का जर्जर होता कारखाना, जहां दुनियाभर से आए दक्ष एवं हुनरमंद लोग है पर मजबूर, सताए हुए और सौ रुपए पाने के लिए रोज जद्दोजहद करते हुए







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