पिछले तीन चार माहों में घर में दर्जनों किताबें मंगाकर रखी है, अब जगह नहीं बची शायद, सम्हाल भी नहीं पा रहा हूँ, रोज दोस्त भेज देते है एक पंक्ति के साथ कि "पढ़कर कमेंट करना", रोज मेल में कई पीडीएफ आ जाते है - हिंदी,अंग्रेजी, मराठी अखबारों और पत्रिकाओं के, दर्जनों लेख आते है कमेंट के लिए, समझ बनाने के लिए इस निवेदन के साथ कि "यह पढ़ें - बहुत जरूरी है - तुम्हे अक्ल आएगी", मजदूर बिगुल से लेकर हरकारा में ढेरों अच्छी और संग्रहणीय सामग्री आती है, वाट्सअप विवि का जलवा सदैव बना रहेगा, आप चाहकर भी छोड़ नहीं सकते
ब्लॉग्स और वर्ड प्रेस की सदस्यता होने से रोज दर्जनों लिंक आते है - फिल्मों से लेकर सम-सामयिक राजनीति और साहित्य पर, किंतु कहना यह है कि आजकल बहुत तटस्थ रूप से सोचता हूँ तो पढ़ना छूट गया है - लोग रोज इतना लिख और छप रहें है कि पढ़ने - लिखने से घबराहट होने लगी है, और अंत में जो पढ़ने का सुख उठाने के बजाय या कई दिनों तक लिखें हुए के आगोश में नहीं रहने को छोड़कर हम किसी ना किसी का प्रमोशन ही कर रहें है फिर वह बहुत अच्छा लिखा हो या कूड़ा करकट, इस सबसे कुछ मिल नहीं रहा ना आर्थिक रूप से ना मानसिक रूप से और जिस तरह का समाज हमने विकसित कर लिया है - वहां तो सारी बातें अब बेमानी है
अब निगेटिव कह लें, अपराधबोध से ग्रस्त, कुंठित, ज़लकुल्कड या जो भी पर असल बात यही है और इसके आगे बात पुरस्कार पर, रॉयल्टी और बिक्री पर थम जाती है बधाईयों और शुभकामनाओं की रेल के साथ
पढ़ता तो हूँ कुछ हल्का - फुल्का, पर अब लिखता नहीं हूँ - क्योंकि मन नहीं करता और लिखें हुए में कुछ ऐसा नजर नहीं आता कि अलग से चीन्हित करके उसे रेखांकित किया जाए
फॉस्टर याद आते है - हेमिंग्वे भी जो कहते थे - "Everything is imitation, even a new shirt is not new, it's a product of Evaluation which is being repeated from time to time, the cloth can be new but the concept of shirt is not new"
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मोदी की मां को गाली की बात बहुत हो रही है, यह सब यात्रा गुजर जाने के बाद का जिक्र है, जो भी हुआ गलत है पर यात्रियों को दोष देने का कोई अर्थ नहीं, ना ही ऐसा कोई सबूत है कि राहुल या तेजस्वी ने गाली दी
बल्कि उल्टा है कि मोदी और भाजपाई नेता जितने बेहयाई से इंदिरा, नेहरू, राजीव और राहुल को भद्दी और घटिया जुबान से कोसते है - वह ज्यादा शर्मनाक है, एक संविधानिक विपक्षी नेता को लप्पू पप्पु कहते मोदी को लज्जा नहीं आती वो भी लोकसभा में कहता है, एक जानकारी के अनुसार यह सिद्ध करने में उन्नीस हजार करोड़ रुपए इस सरकार ने खर्च कर दिए, क्या क्या अभद्र बातें नहीं बोला है यह निर्लज्ज आदमी, मेरी जानकारी में आज तक गांधी परिवार ने कोई अभद्र भाषा नहीं बोली, सोनिया हो, प्रियंका या राहुल ने डीसेंसी कभी नहीं खोई
यह लंबी बहस तभी सार्थक होती जब यात्रा करने वाले वहां उपस्थित होते, बाकी तो खाली मंच पर छात्र और हुड़दंगी बाद में भी क्या - क्या नहीं करते और बोलते सबको सब पता है, युवा और गांव देहात में तो कार्यक्रम के बाद खाली मंच ठिठोली के अड्डे बन जाते है और जिसने यह सब नहीं देखा या समझा वो कोरा ज्ञान ना दें
यह समझ लीजिए कि देश और मोदी अलग है, देश भक्ति और भाजपा की भक्ति भी अलग है, संघ की भक्ति और देश अलग है, देश कम से कम मोदी शाह या योगी जैसे क्रूर, उद्योगपतियों की कठपुतली और अदाणी अंबानी के गुलामों और विश्व नेताओं की चमचागिरी से एकदम अलग है, महंगाई का समर्थन कर धर्म की आड़ में देश बेचना ही काम हो गया है, नोट बंदी से लेकर सारे निर्णय उल्टे पड़े है, हजारों सैनिकों को जान पर खेलकर देश बचाना पड़ रहा है गलत नीतियों के कारण, जो लोग भी इसे देश का अपमान कह रहे हैं वे कच्ची मानसिकता के है, उन्हें समझना चाहिए कि किसी व्यक्ति से घृणा होना और उसे गाली देना - देश का अपमान नहीं होता, जान लीजिए कि यह देश का अपमान बिल्कुल नहीं है
और गाली , गाली की संस्कृति तो बेहद घटिया और कुसंस्कृति का द्योतक है, विशेषकर मां - बहनों की गाली, लाख बराबरी की बात कर लें, पर आज भी जिस अंदाज में गाली दी जाती है - वह अशोभनीय ही नहीं, कायरता का भी संकेत है, हमारे प्रदेश के मुखिया का भी वीडियो वायरल हुआ है कभी - इसी तरह की गलियों को देते हुए
बहरहाल, सतर्क रहें देश, सरकार और व्यक्ति अलग होते है और हुड़दंगियों की ना समझ होती है - ना विचारधारा
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हम लाख काले - गोरे, सुन्दर - असुंदर की बात कर लें, पर जो चेहरे की कुरूपता और मन का कालापन है उसके आगे कभी नहीं जा पाएंगे और इसके लिए जमाने से तो दूर अपने - आप से ही कम से कम दस हजार बहाने बनाकर जीवन से पलायन करेंगे, फिर वो धर्म के नाम पर हो, आध्यात्म, यात्रा, संकोच, बीमारी या कोई और कुतर्क का बहाना हो
अफसोस है कि इतने शॉर्ट कट जीवन में लोग अपनाते है कि जी करता है इन सबको समाज और पृथ्वी से ही निकाल बाहर करें, पर आखिर कुंठाओं और अपराध बोध का कोई इलाज नहीं - सिवाय सामाजिकरण के, और यही फार्मूला जाति-जाति खेलने वालों पर भी लागू होता है, सारे सुख उठाकर अपराध और पीड़ा में अपने को समझाते रहते है - जबकि वहीं कुछ लोग इससे निजात पाकर रास्तों का निर्माण करते है - "The road not taken" जैसी कविताएं इसका उदाहरण है
[कई संदर्भ है इस पोस्ट में, समझ नहीं आएं तो ज्यादा ज्ञान देने की जरूरत नहीं है और होशियार बनने की तो बिल्कुल नहीं]
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पिकासो एक बार किसी रेस्तरां में कुछ स्केच बना रहे थे तो वही उपस्थित एक महिला ने उनसे अनुरोध किया कि वे उसकी तस्वीर बना दें, पिकासो सहर्ष तैयार हो गए और उन्होंने उस महिला का एक अप्रतिम चित्र बना दिया
उस महिला का चित्र बनाने के बाद महिला ने पूछा कि कितना मानदेय दूं तो पिकासो ने कहा कि सौ डॉलर, तो महिला बोली - "तीन मिनट लगे नहीं मुश्किल से और आप सौ डॉलर मांग रहें है", तो पिकासो ने कहा - "ये चित्र बनाना सीखने के लिए मैंने अपने जीवन के बहुमूल्य पैंतीस वर्ष लगाए है, और आपको लग रहा मात्र तीन मिनिट, आप कहें तो यह चित्र फाड़ दूं, पर यह चित्र बनाने का मानदेय इतना ही होगा" - "कहने का आशय यह है कि या तो किसी का समय और प्रयासों का मूल्य समझने की कोशिश करें या अपना ज्ञान अपने पास रखें" - यह सुनकर वह महिला शर्मसार हुई और पिकासो को डेढ़ सौ डॉलर देकर चली गई
कहानी कितनी सच या झूठ है - मालूम नहीं, पर जो लोग अनुभव और योग्यता का मूल्य नहीं जानते - उन्हें कम से कम राह दिखाने के लिये या आँखें खोलने के लिए यह कहानी पर्याप्त है और इसके बाद भी किसी को समझ ना आएं तो ऐसे लोगों से तर्क करने का कोई अर्थ नहीं है, बेहतर है ऐसे लोगों से दूर रहें
क्योंकि तर्क की सीमा है, कुछ लोगों के समक्ष हाथ जोड़कर प्रणाम ही सर्वोत्तम विकल्प होता है
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इस देश में हर जगह पर इतनी समितियां और प्रबंधन की बॉडीज है कि कहा नहीं जा सकता, मजेदार यह है कि इन समितियों के सदस्यों यह भी मालूम नहीं कि वे इसके सदस्य है या उनकी क्या जवाबदेही या जिम्मेदारी क्या है और सबसे ज्यादा मजा तो तब आता है जब आप किसी सदस्य को अपनी समस्या या मदद के लिए लिखें तो बीस पच्चीस दिन बाद वह पूछता है कि आपको कोई जवाब मिला, मेल आया
ख़ैर, सम्हलकर रहिए इन सदस्यों से जो देश का भविष्य तय करने के मंसूबे बांधकर जीते है
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हिंदी के तथाकथित वरिष्ठ कवि, बूढ़ा गए रिटायर्ड खब्ती प्राध्यापक या मीडिया में से दो कौड़ी की साहित्यिक समझ रखने वाला डेस्क का कॉपी - पेस्ट दल्ला पत्रकार किसी नए कवि को फंसाकर या उसकी किताब मंगवाकर जब टिप्पणी कर उसे जाल में उलझा लेता है ना तो - कसम से उससे बड़ा क्यूटिया कोई नहीं लगता, मतलब हर कविता की हर पंक्ति, पूर्ण विराम और पृष्ठ क्रमांक पर भी अपना सड़ा ज्ञान पेल देते है
विश्वास ना हो तो देख लीजिए उठाकर उपरोक्त केटेगरी में से किसी की भी वाल
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मुझे सबसे ज्यादा खुशी इस बात की हो रही कि आजादी के आंदोलन के शुरू होने के बाद यानी पंडित स्व मंगल पांडे के मुंह वो चमड़े से जड़ा अंग्रेज़ कारतूस जाने के बाद अब जाकर देशभर में खूंखार और जहरीले कुत्ते सामने आए है और हमारी शिक्षित और साक्षर जनता ने अब इनकी ठीक से पहचान कर ली है, कुत्ते अब भी काट रहे है और जनता भी चुप रहने के बजाय आवाज उठा रही है - इनको मार डालने की, नसबंदी करने की या शेल्टर होम में डालने की, जनता ने आजादी के आठ दशक गुजरने के बाद सर्वोच्च न्याय पालिका को उसके कर्तव्य याद दिलाते हुए आख़िरकार मजबूर कर दिया कि कुत्तों का बाकायदा इलाज करें, मुझे आशा है कि जल्दी ही सभी कुत्तों का स्थाई और बढ़िया इलाज होगा
मजेदार यह है कि आवारा कुत्ते गांवों से कम, बड़े शहरों में ज्यादा है, दिल्ली में तो इतने निकले कि माननीय सुप्रीम कोर्ट को स्वत: संज्ञान लेकर फैसला सुनाना पड़ा, पर देश में कुत्तों ने फिर आवाज बुलंद की तो दोबारा अंतिम फैसला आया
अब फिर कुत्ते और जनता आमने - सामने है और मीडिया कृमि, सॉरी कर्मी भी दौड़ - दौड़कर रिपोर्ट या लाइव कर रहें है, कुत्तों की वजह से एनजीओ और एनजीओ के संगठित होने की बात को भी आपस में बंटे हुए मीडियाकर्मियों ने प्रमुखता से बताया, सही है दिनभर कॉपी लिखना, फील्ड रिपोर्टिंग करना, माईक लेकर गाड़ी में दौड़ना और बदले में कुछ भी हासिल नहीं कर पाना कोई अपराध बोध से कम है क्या, एनजीओ वालों से मीडियाकर्मियों की जलन सहज मानव प्रवृत्ति है और सही समय पर सामने आई है - आखिर अस्सी साल से कुंठा और अपराधबोध में जी रहे थे ये मीडिया के लोग, और इसमें वो मीडियावाले भी है जो "पेटा या ब्रुक जैसे अंतर राष्ट्रीय एनजीओ" यानी पशुधन को बचाने वाले या Live Stock पर काम करने वाले एनजीओ से शिष्य वृत्ति लेकर जेबें भर रहे थे या फुड वेब, फुड चैन के बहाने क्लाइमेट चेंज की बकर कर रहे थे
मजेदार यह है कि कुत्तों का समर्थन और विरोध वो लोग कर रहे जो अपने बाप - माँ को दो टाईम की रोटी भी नहीं देते तो कुत्ते को क्या हफ्तेभर पुरानी फ्रिज में पड़ी फफूंद लगी रोटी देंगे
बहरहाल, मै बहुत खुश है कि कुत्तों की असलियत और कुत्तों के बहाने मानव सभ्यता के विकास की कहानी सामने आ गई है
जय हो
कुत्तों की जय हो
सदा विजय हो
जप नाम, जप नाम, जप नाम
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फिर आज बड़े दिनों बाद कारे बादल आस्मां में है और हवाएं ठंडी हो गई है, पक्षियों के झुंड देखता हूँ - खूब ऊंचे तो लगता है, वे भाग रहे है कि तेज बरसात के पहले घर पहुंच जाएं, सड़क पर लोग खुश तो है पर अशांत, वे भाग रहे हैं कि समय से घर आ जाए, सब्जी वाली अपने ठेले को तेज ले जा रही है, घर - घर जाकर गैस रिपेयरिंग करने वाला, वेल्डिंग करने वाला, गाय और बकरियों के चरवाहा आज गाना गाते घर नहीं लौट रहें, वे बाइबिल के चरवाहों की तरह उदास है और तेजी से सबको हांकते हुए लौटना चाहते है - बहुत जल्दी, स्कूल से लेकर अस्पतालों के कर्मचारी भी तेजी में है
आस्मां जितना काला होता जा रहा है - उतना ही मुश्किल होते जा रहा है सबकुछ, गृहिणियां दौड़ आई है - छतों पर से अध सूखे कपड़े उतार रही है, भगोनो - परात, थालियों में रखी सामग्री बटोर रही है, कांच की बरनी में रखी चीजें संवारने लगी है, जैसे - जैसे हवा तेज हो रही है और आस्मां काला, चिंताओं के बादल आस्मां में कम घर मोहल्लों और लोगों के चेहरों पर ज्यादा छा रहें है
कॉलोनी की सूनसान सड़क पर चार मंजिला मकान में एक बूढ़ा बहुत पुरानी नीलकमल की प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठा कभी सड़क नापता है, कभी आस्मां - अपनी कमजोर आंखों से - जिसमें अभी नया लैंस डाक्टर ने डाला है, जब दिखना लगभग बंद हो गया तो जेब खाली करना ही पड़ा, उसके पास कमाई का कोई जरिया नहीं अब, सारी उम्र घर - परिवार और लोगों को मदद करते जिंदगी गुजर गई उसकी, अपने जीवनकाल में सैकड़ों संस्थाओं को खड़ा करने और लोगों को जिंदा रखने में मदद की, पर आज लाचारी इतनी है कि सुबह से वह सिर्फ कच्ची मूंगफली खा रहा है - क्योंकि घर के डिब्बे खाली है और इस कुसंगत समय के चक्र में वह अब कुछ करने लायक नहीं तो दुनिया से निष्कासित कर दिया गया है
उसने अपनी पढ़ाई के दौरान शायद कक्षा छह में यशपाल की कहानी "निरापद" पढ़ी थी, जिसका नायक सूरज एक अधेड़ था और दर्जनों बार पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया था कि वह शहर के पार्क में खाली बेंच पर सोया पाया जाता है, आखिर में उसे एक सिपाही चोरी के जुर्म में ले जाता है तो थानेदार कहता है जेल में फोकट की रोटी नहीं मिलेगी, सीने में दम होना चाहिए - हराम की रोटी खाने को भी और उसे जेल के पिछले दरवाज़े से छोड़ देते है - गर्दन मरोड़कर - ऐसे ही किसी मौसम में - यह कहकर कि यह निरापद है - किसी का क्या बिगाड़ लेगा
आस्मां से मोटी - मोटी बूंदें टपकने लगी है और वह अन्दर जा रहा है, उस कमरे में जिसकी टप्पर की छत चूने लगी है और उसकी गोदड़ी शायद यह मौसम अब ना निकालें, वह चिंता में इसलिए नहीं है कि कमरे की दीवारों की हरी काई उसे सहारा देती है - जब भी वह दीवार के सहारे खड़ा होता है तो उसे लगता है एक भरा - पूरा जंगल उसके चारों ओर है - जहां चींटी से लेकर बिच्छू, सांप और ना जाने कौन - कौन से जीव - जंतुओं का बसेरा है, रात के आवारा कुत्ते जब उसकी गोदड़ी में आकर बैठ जाते है - तो उसे उनकी गर्मी से राहत मिलती है और वह बचा - खुचा टोस्ट या मूंगफली उनकी ओर फेंक देता है
हवाएं तेज हो गई है, बरसात की शुरूवात हो रही है, अबकी बार उसने ईश्वर से दुआ की है कि सर्दियों के पहले यदि वह सच में किसी बेंच पर सोया ही रह जाए तो किसी भी बात के लिए प्रार्थना नहीं करेगा और रोटी तो दूर, वह पीने के पानी की भी मांग नहीं करेगा
वह सच में निरापद है और उसने यह स्व संस्तुति कर ली है कि वह निराश्रित नहीं - वरन स्वाश्रित है
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अभी एक प्राध्यापक महोदय से बात हो रही है, तो व्यवस्था की बात निकली, उन्होंने ज्ञान दिया कि "इसीलिए शायद रामायण की रचना की गई हो गई कि दुर्योधन के संग रहोगे तो वध होगा ही"
बस फोन पर चरण नहीं दिखें उनके, वरना मै शहद लगाकर पी लेता हड्डियों सहित
[ किस विषय के होंगे केंद्रीय विवि में - यह तो आप समझ ही गए होंगे, 57 पीएचडी करवा चुके है श्रीमान जी और 154 किताबें प्रकाशित है ब्रह्मज्ञान की ]
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अनगिनत कमियाँ है मुझमें
एक दो गिनाकर खुद को खुदा ना समझें
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बूढ़े हर जगह मौजूद थे मार्क्स में, लेनिन में, देरिदा में, फूंको में, नीत्शे में, पाश में, हेडगेवार में, गांधी में, लोहिया में, जेपी में, इंदिरा में, आडवाणी से लेकर लालू तक में, ये हर जगह आ जाते थे - जब फोन नहीं था तो चिठ्ठियों, अखबार, पत्रिकाओं में जगह घेरकर रहते थे, फिर लैंडलाइन फोन आया तो हर बार ये लाइन अवरुद्ध रखते, जब मोबाइल आया तो इन्होंने समाज का जीना हराम कर दिया और इंटरनेट के बाद से तो इनका अस्तित्व इतना ज्यादा हो गया हर जगह कि ये यत्र - तत्र - सर्वत्र मौजूद है
हर फेलोशिप, धरने, रैली, प्रदर्शन में महंगी खादी के झब्बे पहने खिसियानी हंसी के साथ दांत निपोरते थूक चाटते नजर आ जायेंगे, सर्वशक्तिमान को प्रणीपांत प्रणाम करते नजर आएंगे हर जगह, बस इन्हें घूमने - फिरने के साथ रेल - हवाई जहाज का किरायाभर दे दें कोई, और आम भद्रजन से ये परशुराम सा व्यवहार करेंगे शूकर देव, घरों में लगभग असहनीय, पृथ्वी पर अतिरिक्त बोझ बनें ये बूढ़े कही भी कुछ भी खाली करने को तैयार नहीं - अदालतों में खैनी खाते और दमे एवं अस्थमा के इन्हेलर के साथ, नर्सिंग होम में टीबी की खुराक फांकते, सामाजिक संस्थाओं में ज्ञान की दुकानों सा सड़ा -गला माल लेकर लड़ते - झगड़ते, ढाबों पर मैदे की रोटी सेकते, महाविद्यालयों में युवाओं को बरगलाते, दूतावासों में रोते कलपते, जहाजों में पानी की शिकायत करते, पर्यटन स्थलों पर महिलाओं को कोसते, पहाड़ों पर कुरकुरे फेंकते, नदियों को विष्ठा से गंदा करते, अखबार - पत्रिकाओं में अतीत के गुण गाते, कुल मिलाकर कहाँ नहीं है ये बूढ़े
पृथ्वी ने इनका बोझ उठाने से मना कर दिया है, आसमान ने प्रवेश देने से, इंटरनेट की वायवीय दुनिया में मरने से अब तक वंचित त्रिशंकु से अटके बूढों की संख्या लगातार बढ़ रही है और इधर ईश्वर ने भी तंग आकर स्वर्ग - नरक के रास्ते बंद कर दिए है, सनद रहें कि ईश्वर को अब सिर्फ युवा, जोशीले, कुछ करने का जज़्बा और माद्दा रखने वाले ही पसंद आ रहे है, ईश्वर के कान पक गए है - छद्म गांधीवादियों को देखकर, बरसों से प्रगतिशीलता और जनवादिता के नाम पर कुर्सी को कमोड समझकर बैठे जोशियों, तिवारियों, दुबे, पांडे, शर्माओं और सक्सेनाओं, श्रीवास्तवों, ठाकुरों और अग्रवालों की कविताएं और ऊटपटांग गद्य पढ़कर ईश्वर भी संसार छोड़कर जाना चाहता है, ईश्वर बोर हो गया है, पैंसठ - सत्तर की उम्र में तन एवं धन के प्रति लालायित हिंदी के हरामखोर तथाकथित युवा कहलाना पसंद करने वाले कवियों से भी ईश्वर आज़ीज़ आ गया है, स्त्रैण कवियों से ईश्वर ने हाथ जोड़ लिए है कि बस कर भाई, वाहियात किस्म की फिल्में बनाते और फिल्मों से ज्यादा इनकी स्तुति करते देख आत्ममुग्ध बूढ़े पत्रकारों को जो कमबख्त रातभर जागकर फीचर पेल रहें है, वाट्सअप ठेल रहे, फीचर के कचरे से ई कचरा भर रहे है, जबकि उन्हें इस समय कुरान, गुरूबाणी, बाइबिल या गीता पढ़ना थी, से भी ईश्वर ने मुक्ति पा ली हैं
ईश्वर एक दिन इस पृथ्वी पर जानवरों की तरह से जीने की उम्र तय कर देगा - पांच या दस या चालीस साल बस
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जितनी चीज़ें कृष्ण से छूटीं उतनी तो किसी से नहीं छूटीं, कृष्ण से उनकी माँ छूटी, पिता छूटे, फिर जो नंद-यशोदा मिले वे भी छूटे, संगी-साथी छूटे, गोकुल छूटा, फिर मथुरा छूटी, कृष्ण से जीवन भर कुछ न कुछ छूटता ही रहा, कृष्ण जीवन भर त्याग करते रहे, राधा, मीरा और बाद में कौरव - पांडव भी छुटे
हमारी आज की पीढ़ी जो कुछ भी छूटने पर टूटने लगती है, उसे कृष्ण को गुरु बना लेना चाहिए, जो कृष्ण को समझ लेगा वह कभी अवसाद में नहीं जाएगा
“कृष्ण ने ज्ञान दिया, सुखे दुखे समेकृत्वा” – यह भगवद्गीता (अध्याय 2, श्लोक 38) की मूल भावना है -
श्लोक का अंश है:
“सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥”
इसका सरल अर्थ है कि - श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि –
सुख और दुःख, लाभ और हानि, एवं जय और पराजय, इन सभी को समान भाव से स्वीकार करो,
क्योंकि ये सब जीवन में बार-बार आते-जाते रहते हैं, जो बुद्धिमान है, वह इन परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होता
“समत्व” का संदेश:
सुख में अहंकार या आसक्ति न हो, दुःख में निराशा या हताशा न हो - मन हर परिस्थिति में स्थिर और संतुलित रहे, यही समत्व योग कहलाता है, और यही कर्मयोग की नींव है
सारांश यह है कि कृष्ण का ज्ञान यह है कि जीवन की द्वंद्वात्मक स्थितियाँ (सुख-दुःख, लाभ-हानि, जीत-हार) अस्थायी हैं, इनसे ऊपर उठकर यदि हम कर्तव्यपालन करें, तो मन शांति और आत्मिक शक्ति से भर जाता है
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की अनंत शुभकामनाएं
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हम सब अपने भीतर और लगातार बाहर भी अपनी - अपनी मुकम्मल लड़ाइयां लड़ रहे है और अंदर ही अंदर बहुत क्षुब्ध है, इसलिए अधिकांश लोग चुप है, जान लीजिए हमारी यह चुप्पी इगो या एटीट्यूड नहीं है, बस हम अपने-आप से निपट लें, फिर आपको बताएंगे कि मनुष्य और मनुष्यता क्या होती है, ताकत और हिम्मत क्या होती है, व्यवहार क्या होता है और संसार में जीने के लिए स्वतंत्रता के क्या मायने है , हम इंतजार में है कि ये मन की गांठें खुलें तो आगे की दिशाएं स्पष्ट हो
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AI का एक फायदा तो हुआ कि हर देशी, शहरी, ग्रामीण जन धड़ल्ले से अंग्रेजी में लिखने लग गया - भले साली हिंदी में "र" कितने प्रकार से लिखते हो, कि और की का फर्क मालूम ना हो, सूखा और सुखा का भेद ना पता हो, तत्सम तद्भव शब्दों का भेद मालूम ना हो, बोली या भाषा के बारे में जानकारी पुख़्ता ना हो पर अंग्रेजी लिखेंगे ससुर, एक वाक्य का अर्थ पूछ लो तो नानी याद आ जाएगी
मतलब हालत यह है कि Linkedln पर तो दूरदराज के हमारे छठवीं फेल कार्यकर्ता शुरू करते है - "I m happy to share that...", गजब की बकर और बकलोली चल रही है, जिस दिन किसी को फोन करके पूछ लेता हूँ कि बेट्टा क्यों बट्टा लगा रहा स्कूल, परिवार और शिक्षा को तो जवाब नहीं निकलता और ब्लॉक करके भाग जाते है, नाक का सेबडा पोछना नहीं आता पर अंग्रेजी देख लो इनकी
आख़िर अंग्रेजी में लिखकर क्या साबित करना चाहते हो, साला Parts of Speech पता नहीं, व्याकरण का पता नहीं, पर ज्ञान सुन लो, कितने Funders फंस गए अनुदान देने को इनकी पोस्ट पढ़कर
भगवान उठा लें इस AI कृत अंग्रेजी ज्ञान से
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"हिंदी में पीएचडी, पोस्ट डाक करने के बाद कविता की तीन संग्रह भी आ गए, साढ़े चार दर्जन कविताएं कई जगहों पर पाठ्यक्रमों में लग गई पर नौकरी नहीं लगी अब तक, सोच रहा हूँ कि दिल्ली शिफ्ट हो जाऊं" - परेशानी से भरी आवाज लग रही थी 49 वर्षीय उस कुँवारे युवा कवि की
"ओह, सही है, तो दिल्ली क्यों, वहां कोई जुगाड़ है क्या नौकरी का, कोई दूतावास में या मंत्रालय में" - मैने कहा
"बहुत शुभकामनाएं भाई, जाओ, तत्काल आरक्षण करवा लो दिल्ली का", - मै घर लौट था था, सड़कों पर कुत्तों के झुंड भौंक रहे थे मुझे देखकर
याद आया कि मेरे शहर के समीप का एक स्त्रैण कवि भी अब रिटायर्ड हो रहा है 65 वर्ष की आयु में, जीवन भर हरामखोरी करके नौकरी की तो अब क्या करेगा और उसके लिए भी पोस्ट रिटायरमेंट प्लान बढ़िया है
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"सेना पाक पर अगला आक्रमण करेगी"
उपेन्द्र द्विवेदी, तुम सेना के इतने बड़े अफसर होकर इतना नीचे गिर गए कि इस भ्रष्ट और फर्जी सरकार के कहने में आकर देश का ध्यान बाँट रहे हो, अबै इसलिए देश ने तेरे ट्रेनिंग, वेतन भत्तों और सुविधाओं पर खर्च किया
और सरकार बहादुर - तुम लोग विशुद्ध मूर्ख हो, तुम्हे लगता है केचुआ और सेना को इस्तेमाल करके देश का ध्यान फर्जी वोटरों से जीतने के मंसूबे पूरे कर लोगे - तो मुगालते में हो, शर्म आनी चाहिए सच्चाई कबूलने के बजाय रोज एक नया शगूफा छोड़ रहे हो, पाक पर आक्रमण का लॉलीपॉप देकर तुमको लगता है कि देश के लोग बेवकूफ है और जैसा वो सेना प्रमुख उपेंद्र द्विवेदी तुम्हारा गुलाम है - वैसे सब है, दम हो तो एक - एक आरोप का तथ्यात्मक जवाब दो, वरना निकल लो
बेट्टा , बांध लो बोरिया बिस्तर, बहुत हो गया, अब तो तुमको सामने आकर सच बताना पड़ेगा, जनता को इतना बेवकूफ मत समझो सरकार, अंधभक्ति का ज्वार उतर रहा है, इतने सालों से लिस्ट में हेरा - फेरी करके जो सत्यानाश किया है, EVM का बेजा इस्तेमाल कर रहें हो - वह सब सनातन है या वसुधैव कुटुंबकम् , यह रामराज्य है
देश को इस तरह के झांसों से बचने की जरूरत है, हिंदू, धार्मिक, सनातनी या जो भी बनना है, सब बनो पर कम से कम देश को देश तो रहने दो, संस्थाओं को स्वतंत्र रूप से काम तो करने दो, जब देश और तंत्र सही नहीं रहेगा तो धर्म का लालन - पालन कहां करोगे, इस सरकार ने सारी छोटी - बड़ी संस्थाओं की शुचिता ही खत्म कर दी है और गंवार और कुपढ़ लोगों ने देश बर्बाद कर दिया - हर स्तर पर, मतलब हद यह है कि सीजेआई के दफ्तर को रात बारह बजे खुलवा लिया था इसने और क्या उठाकर ले गया वहां से - आजतक देश को मालूम नहीं, राफेल का नाम ही देश भूल गया
मणिशंकर अय्यर बार - बार याद आते है, सही बोले थे इनको
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मुझको अब कोई काम नहीं, मै समय हो गया हूँ इन दिनों,
गुजर जाऊंगा जल्द ही, जैसे बीत गया सबके बीच से उन दिनों
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भरोसे के साथ सिर्फ भरोसा, विश्वास, आस्था या उम्मीदें ही नहीं टूटती, बल्कि जीवन का सबसे मजबूत हिस्सा ढह जाता है - उस दीवार की तरह जो बारहों मास धूप, ठंड और बरसात सहती है, दुनियाभर की काई जमने के बाद भी वह एक मजबूत सहारे की तरह खड़ी रहती है, एक कड़ा आवरण बनकर आपके सारे ऐब, कमियाँ, आँसू और दर्द सहकर भी सदैव आपके पक्ष में रहती है - बावजूद इसके कि उसकी नींव दरक रही है
यह असंख्य सूरजों की आकाशगंगाओं के खत्म होने का समय है
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All PR agencies today seem to be equally entangled in the murky business of election campaigns, from influencing voter lists to shaping narratives around counting and results. This observation is not speculative — it comes from extensive discussions I’ve had with several Mass Communication graduates who have been working in the PR and political consultancy sector for over a decade (10–12 years), often earning salaries several times higher than what entry-level mainstream journalists get.
For instance, while a young reporter in mainstream media may start with a monthly salary of ₹15,000–₹20,000, many of these PR professionals, even in their initial years, earn ₹40,000–₹60,000 or more. They are hired by agencies that run sophisticated campaigns for political parties — managing social media narratives, organizing influencer outreach, and even working on data-driven voter targeting strategies.
A 2019 report by the Internet and Mobile Association of India (IAMAI) estimated that political digital marketing spending had crossed ₹3,000 crore during the general elections, much of which went through PR and consultancy firms. This lucrative industry offers not only better pay but also far greater influence than what a beat reporter or field journalist could command early in their career.
This financial and strategic pull is one of the key reasons many budding journalists are reluctant to “toil” in the field for mainstream newsrooms when they can earn more, work in better conditions, and have a tangible impact in the political space through PR work.
It’s a point all stakeholders — from media houses to academic institutions — must urgently acknowledge and address if we care about the future of independent journalism.
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आजकल लगभग सभी पीआर एजेंसियां चुनावी अभियानों की संदिग्ध गतिविधियों में बराबर की भागीदार नज़र आती हैं — चाहे वह मतदाता सूची पर प्रभाव डालना हो या परिणामों और गिनती को लेकर नैरेटिव तैयार करना, यह कोई अटकल नहीं है, बल्कि पिछले 10–12 वर्षों से पीआर और राजनीतिक परामर्श के क्षेत्र में काम कर रहे कई जनसंचार (Mass Communication) स्नातकों से हुई लंबी चर्चाओं का नतीजा है, जो अक्सर शुरुआती स्तर पर भी मुख्यधारा के पत्रकारों से कई गुना ज्यादा वेतन पाते हैं
उदाहरण के तौर पर, जहां किसी युवा रिपोर्टर को मुख्यधारा के मीडिया में महीने का वेतन ₹15,000–₹20,000 से शुरू होता है, वहीं कई पीआर पेशेवर अपने शुरुआती वर्षों में ही ₹40,000–₹60,000 या उससे अधिक कमा लेते हैं, इन एजेंसियों को राजनीतिक दलों के लिए परिष्कृत अभियान चलाने का ठेका मिलता है — जिसमें सोशल मीडिया नैरेटिव तैयार करना, इन्फ्लुएंसर आउटरीच करना और डेटा आधारित मतदाता टार्गेटिंग रणनीतियां बनाना शामिल है
इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (IAMAI) की 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, आम चुनावों के दौरान राजनीतिक डिजिटल मार्केटिंग पर ₹3,000 करोड़ से अधिक खर्च हुआ, जिसका बड़ा हिस्सा पीआर और कंसल्टेंसी फर्मों के माध्यम से गया, यह लाभकारी उद्योग न केवल बेहतर वेतन देता है बल्कि शुरुआती करियर में किसी रिपोर्टर या फील्ड जर्नलिस्ट की तुलना में कहीं ज्यादा प्रभाव भी प्रदान करता है
बेहतर आमदनी, कार्य परिस्थितियों और राजनीतिक क्षेत्र में ठोस प्रभाव डालने के अवसर के कारण कई नए पत्रकार मुख्यधारा के न्यूज़रूम में “खपने” के बजाय पीआर के क्षेत्र को चुनते हैं
यदि हम स्वतंत्र पत्रकारिता के भविष्य को लेकर सचमुच चिंतित हैं, तो यह मुद्दा सभी हितधारकों — मीडिया हाउस से लेकर शैक्षणिक संस्थानों तक — को गंभीरता से लेना चाहिए
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सब पागल है और दौड़ रहे है, वहां - जहां जाकर पता चलेगा कि कही कुछ नहीं है, जो पाना चाहते थे - वह असल में एक भ्रम था - एक तरह का illusion, पर हम सब दौड़ते रहें, सबको पछाड़ने की होड़, पसीना बहाते हुए यूं दौड़ते रहें - जैसे यह नहीं तो कुछ नहीं, पर अंत में जब जीत गए तो लगा कि सबको छोड़कर जीतने का हासिल क्या है - असल में यह सबसे बड़ी हार थी - जिसने सब साफ़ कर दिया, सब धो दिया, और मन जैसे एकदम निर्मल हो गया;अक्सर बेइज्जत, जलील होकर और थकने के बाद ही अस्तित्व की लड़ाई और अस्मिता, जमीर जैसे शब्दों के मायने समझ आते है जीवन के उत्तरार्ध में
जीवन में दोनों धोखा खाये हुए थे, एक से धाम नदी के किनारे विनोबा के आश्रम में मिला था लंबे अरसे पहले, तब वह किसी और के संग साथ था - समय गुजरता गया, दोनों एक जान थे, पर फिर ना जाने क्या, कैसे, क्यों दरक गया कि वह निचाट अकेला रह गया, फिर किसी दूर जंगल में वो किसी और से मिला, दोनों दो टूटे दिल लेकर सुकून तलाशने काम की तलाश में आए थे, एक हो गए, सपनों ने फिर उड़ान भरी, फिर पढ़ाई का हौंसला भरा और साथ पढ़ने लगे, अबकी बार मेहनत की पढ़ाई थी, विशेष योग्यता लगती थी, पर दोनों ने यह रास्ता हमसफर बनकर तय किया, और जब उस रात उनके संग - साथ बैठकर उनके साथ खाना खाते हुए उनके सुखमयी भविष्य के बुने जा रहे सपने सुन रहा था, तो झर - झर आंसू बह रहे थे, जब उठा और उन्हें विदा किया, गले लगाकर दोनों को भींच लिया तो अपने जीवन की शेष बची खुशियां उन्हें सौंपकर आ गया - खाली हाथ कि मेरे पास इसके सिवा देने को कुछ और है ही कहां अब कुछ
प्रेम, विवेक, प्रज्ञा, शील, तपस्या और संयम के बीच से रास्तों को तलाशना और फिर अपने एकाकीपन से जूझना - एक लंबा और औघड़ रास्ता अपनाया है जीवन में, बुद्ध को सुना, महावीर का जिक्र आया, वेदों, ऋचाओं और यजुर्वेद का जिक्र आया, महाभारत की कहानियों में उदाहरणों के बरक्स भ्रातृत्व, मैत्री, और समता की बातें सुनी, पर जब अपने चारों ओर देखा तो लगा कि हम जिस वीभत्स संसार में रहते है और सहज जिज्ञासा से या कोई प्रश्न पूछने की हिमाकत करते है - तो पाते है कि मनुष्य स्वभाव इसके विपरीत है - क्षमा, दया, करूणा या समभाव की एषणा लिए हम उम्मीदें तो पाल लेते है - पर यह भूलते जाते है कि हम भी मनुष्य है और जब किसी न्याय या पद, प्रतिष्ठा एवं गरिमामयी जगह पर सर्वोच्च हो जाते है तो हमें धैर्य रखने के साथ निर्विकार एवं तटस्थ भाव को अपनाना जरूरी है, स्थितप्रज्ञ होना अत्यावश्यक है
मिलना, बिछड़ना और संयोगवश पुनः मिलना और इस सबमें किसी को जानना, समझना या समझकर जानना कितना जटिल है - पर यदि हम मिल रहे है - बारम्बार तो इसके पीछे के इशारों को बहुधा बूझ नहीं पाते है, यह एक दुष्चक्र ही है कि हम सारे प्रपंच, मोह माया और संवेदनाओं के बावजूद किसी से जुड़ते है और शीघ्र ही मोहभंग की स्थिति में आकर यथास्थितिवादी हो जाते है, बुद्ध कहते है "दया दुख का मूल कारण है" और मै कहता हूँ कि "अपेक्षा या उपेक्षा दुःख की जननी है", इधर देख रहा हूँ कि बहुत सारे जाले साफ हो रहे है, लगता है मै ही नहीं - कई सारे लोग यह कहकर अंतिम समय में वहां मुझसे गले लगे और विदा ली भरे, रूंधे गले और आँखों में आंसूओं के साथ कि बस यह अब आखिरी है, हम इसके बाद नहीं कभी नहीं मिलेंगे, विदा यह शब्द उनके चेहरे ही नहीं - पूरे शरीर पर लिखा था, उनके भावों से विदा की ही सुगंध आ रही थी, हो सकता है सच में ऐसा हो और मैने भी किसी को कहा तो नहीं पर अपने - आप को अपने से अब विदा कर दिया है और यह भी तय किया कि अब भीड़ में नहीं हूँ, किसी भेड़चाल में नहीं हूँ, किसी अनुसरण और किसी प्रमाद में नहीं हूँ, किसी सांध्य के उत्सव का गीत नहीं हूँ किसी उद्दाम वेग से बहते झरने का संगीत नहीं हूँ, अब शांत हो जाना चाहता हूँ और स्थिर ऐसे कि जैसे किसी ने पगों से घुंघरूओं को खींचकर खून के दागों सहित अंधेरे में किसी टांड़ पर सदैव के लिए फेंक दिया हो - जहां अपने ही जंग से वे लड़ते - लड़ते वे खत्म हो जायेंगे
समय कम है और मोह ज्यादा है संसार का, दुश्मनियां ज्यादा है और प्रेम कम लोगों से है, वफाएं और मैत्रीयाँ कम है, शत्रुता या बैर ज्यादा है, बंधुत्व कम है, स्मृतियाँ ज्यादा है और माझी का अजाब कम है, लिहाजा अब तिनका भर समय जो अंजुरी में बचा रिस रहा है आहिस्ता - आहिस्ता, उसे खर्च करने के बजाय शुद्धिकरण में लगाया जाए
मृत प्राय: देह में शक्ति के संचार का अनुष्ठान नहीं करना है बस इतनी ताकत बनी रहे कि सारे बंधन तोड़कर,समस्त अनुतोषो को त्यागकर सब कुछ विलोपित करते हुए मुक्त हो जाऊँ
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आज और अब हिंदी में पुरस्कार की गरिमा और प्रतिष्ठा इतनी गिर गई है कि कुछ भी लिखने या कहने की इच्छा नहीं, ना देने वालों का ईमान धर्म बचा है - ना लेने वालों में शर्म शेष है, चूंकि यह दोनों अपने हाथ में नहीं, पर अपने हाथ में जो है वह यह कि पुरस्कार प्राप्त करने वालों या देने वालों को बेशकीमती बधाई और शुभकामनाएं आज से देना बंद
यह मेरा ही नहीं, हम कुछ मित्रों का गंभीर निर्णय है, वैसे भी आत्ममुग्धता के इस दौर में लोगों का "मै, मै, मै" इतना जग गया है और बड़ा हो गया है कि सच सुनने को ना तैयार है - ना समझने को, बात करने या बताने जाओ जो उनके ही फायदे की हो तो कुत्तों की तरह काटने दौड़ते है, अफसोस होता है कि वरिष्ठ और गंभीर किस्म के लोग इस उन्नीस - बीस में पड़ गए है और अपनी बची - खुची प्रतिष्ठा और साख खो चुके है
क्या तो अपने - आपको तमाम तरह के नाटकों और मुखौटे के साथ यहां प्रदर्शित कर रहें है, क्या तो अपनी किताबों, थोथे कामों और लेखन का वीभत्स प्रदर्शन कर रहे है, क्या तो वाहियात किस्म की रील यहां लगा रहे है, क्या भौंडे ढंग से बेसूरी आवाज में गीत - ग़ज़ल या अपनी ही कविताएं गाकर यहां बेशर्म बनकर आत्ममुग्ध हो रहे, क्या तो अपने लंबे - चौड़े भाषण यहां पेल रहें है, मतलब हद से ज्यादा नालायकी में पारंगत, निपुण और निष्णात नजर आ रहे है, कई बार अपुन भी इस सब उपक्रम में शामिल हो जा रहा हूँ पर अब बंद
धिक्कार है इन सब पर
लिख दिया ताकि सनद रहें
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अपने साथ रहने वाले मित्रों, सहयोगियों, सहकर्मियों, बेहद निजी रिश्तों में गूंथे लोगों, अंतरंगता से जुड़े निज रिश्तों, दबे - छुपे संबंधों में संलग्न करीबी या अदृश्य लोगों, भयानक आत्म मुग्ध लोगों और यहां तक कि रिश्तेदारों की बारम्बार पहचान करते रहिए
ये आपको कही का नहीं छोड़ेंगे, सतर्क रहिए, मै तो ये सब अब सीख रहा हूँ क्योंकि जीवन भर सहज और सरल रहा और अभी भी कच्चा हूँ, पर शायद बाकी युवा - किशोर साथी समझ सकें, समय बड़ा कठिन है साथी, कबीर कहते है ना - "जागते रहियो"
संसार से, चीज़ों से, धन से, सम्पत्ति से, उम्मीदों से, आशाओं से, वैभव से, यश और कीर्ति से, मित्रों से और जीवन से जितनी जल्दी मोहभंग हो जाए - उतना ही जीवन सरल हो जाता है
"विजेता सत्य को स्थापित करता है, बाकी सबका कोई अर्थ नहीं"
"अंतिम या परम सत्य जैसा कोई फंडा नहीं होता, सबका सत्य अलग होता है, वैकल्पिक तथ्य और आंकड़ों का जमाना है"
"एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति" हमारे यहां कहा गया है
एक व्याख्यान में सुन रहा हूँ ये बातें - जो मित्र, मीडिया गुरू और प्रो आनंद प्रधान, IIMC, नईदिल्ली कह रहे हैं
इसलिए अपने विश्वास, भरोसे और सिद्धांतों पर काबिज़ रहिए, अपनी आंखों और अनुभव पर भरोसा कीजिए बजाय किसी और की कोई बात मानने के या सीखने के
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