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Posts from 25 April to 7 May 2024 - Khari Khari, Drisht Kavi and Tatasth

अपनी दोस्ती, रिश्तों और नेटवर्क से दूसरों को कभी भी परिचित मत कराइये, लोग आपको सीढ़ी बनाकर ऊपर चढ़ जाते हैं और आपको धक्का दे देते हैं, अपने लोगों से जब भी मिलें अकेले ही मिलें - यदि आप किसी के साथ मिलते है तो आपने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है
तीन - चार उदाहरणों से अभी यह समझ बनी है, अब कोई आपको पूछे कि क्या इसे - उसे जानते है या इसका कोई नम्बर या मेल आई डी मालूम है तो एकदम साफ़ मुकर जाईये, नीचता की हद तक लोग व्यवहार करते है - यह सीख लिखकर रख लीजिए
यकीन ना हो तो आज़मा कर देख लें
[ तटस्थ ]
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|| वोट ना देना ही विकल्प लगता है अब ||
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गिरते हुए वोटिंग प्रतिशत के लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ भाजपा जिम्मेदार है
देश में दस सालों में ऐसा गंदा माहौल बना दिया है कि भले लोग वोट देना ही नही चाहते क्योंकि ना लोकतंत्र बचा है ना प्रक्रियाएँ - ईवीएम पर शक है, दूसरों को मौका दिया नही है, तानाशाही का बोलबाला है और ऊपर से हर तरह की धमकी और धौंस से विपक्ष और यहां तक कि अपने मतदाता को भी डरा दिया गया है
पढ़े - लिखें - जिनकी सँविधान में आस्था है, वे इस चुनाव को महज़ खानापूर्ति मान रहें हैं, उन्हें मालूम है कि ये आख़िरी चुनाव है तो नाहक बाहर धूप में निकलकर चमड़ी जलाने का क्या फायदा है - क्योंकि बेशर्मों की चमड़ी तो मोटी हो गई है और जो वोट देने जा रहें है वे जानते है कि कोई अर्थ है नही, ओस अवागर्द भीड़ का ना दिमाग़ है ना समझ, जो वोट देकर आआये है वे खुद निराश है और भली भांति जानते है कि उनका वोट बर्बाद हुआ है
पूरा मामला एक तरफ़ा होने के ये नुकसान है और इतिहास इस बात को दर्ज कर रहा है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह इस पतन के लिये ज़िम्मेदार है
अभी तो तीसरा चरण है, चौथा चरण जो 13 मई को है , उसमें प्रतिशत और गिरेगा - क्योंकि चार दिन की लगातार छुट्टी है और सभ्य, भले लोग इस तरह की मूर्खता में पड़ने के बजाय परिवार के साथ चार दिन कही किसी ठंडी जगह पर सुकून से रहना पसंद करेंगे - इस अघोषित आपातकाल की गुंडागर्दी से, वैसे भी यह सरकार 5 किलो मुफ्तखोर राशन वालों की है हमें तो सिर्फ जबरन जजिया कर देना ही है टैक्स के रूप में जिसको ये लोग मन्दिर और दंगों में बर्बाद करेंगे
आश्चर्य यह लग रहा कि 140 करोड़ के देश में सुप्रीम कोर्ट, मीडिया और ब्यूरोक्रेसी शांत है और चुप है और इसका अर्थ एकदम साफ़ है, साथ ही मतदाता भी इस सरकार पर से विश्वास खो बैठे हैं, पर करें क्या - मजबूती का नाम महात्मा गांधी है और नकारेपन का यह भाजपा सरकार
आप भी शेष बचें चक्रों में वोट देने के बजाय वोट ना देकर या नोटा पर बटन दबाकर खामोश क्रांति में सहयोग बनें
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एक क्रांतिकारी ज़माने से फर्जी किस्से सुनाकर देश को घर - परिवार और अपनी यश गाथा सुना रहा है, कहने को भाजपा के ख़िलाफ़ दिखता था, कल अचानक कांग्रेस के खिलाफ लिखकर उसका असली हिन्दू चेहरा सामने आ गया, पूरी पोस्ट पढ़कर समझ आया कि यह तो संघी है और भाजपा का दल्ला
जब मैंने लिखा कि इस समय मसाला क्यो दे रहे भक्तों को तो फेसबुक से अलग कर दिया, और कुतर्क करने लगा, भयानक जातिवादी और घोर साम्प्रदायिक है, आदिवासियों का सहयोगी नही दुश्मन है
इसका छग का अड्डा कांग्रेस ने उजाड़ा था - जहाँ यह आदिवासियों के बीच गांधी के नाम पर धत कर्म कर रहा था आश्रम बनाकर, विदेशी रुपयों से शायद, दर्जनों मुकदमे है इसके ख़िलाफ़ कि तब से छग गया नही
आजकल हिमाचल में युवाओं को इकठ्ठा कर रुपया लेकर ज्ञान बांटने के काम करने वाले फर्जी लोगों की अगुवाई में व्यस्त है और दिन - रात यहाँ भ्रामक पोस्ट कर जातिवाद से लेकर नक्सलवाद के किस्से फैलाता रहता है, सिर्फ़ फर्जी, अप्रासंगिक किस्से और झूठ के पुराण है इसके पास - युवा मित्रों को बचना चाहिये वहाँ जाने से
सभी के चेहरे सामने आ रहे है, कल तो इसका जो भद्दा चेहरा सामने आया तो मैंने जाकर लिख दिया तो क्या भाजपा को वोट दें, तिलमिला गया बन्दा, चुनाव के दो चक्र होने के बाद असलियत सामने आई - इतने धूर्त और ऐयाश है ये गांधीवादी आप समझ नही सकते, इन्हीं जैसों की वजह से कट्टरपंथ बढ़ा है, मोदी का एजेंट निकला आख़िर और कहावत याद आई कि "जिसकी पूँछ उठाओ ......"
सावधान इस जैसों के ढोंग, पहनावों, पोस्ट और नाटक से - असली साम्प्रदायिक और कट्टरपंथी भाजपाई नही - ऐसे लोग है जो प्रपंच कर देश को बेवकूफ बनाकर फंड जुटा रहे है, माँ - बाप, पत्नी - बच्चों के फर्जी किस्से सुनाकर,और ज़मीनी काम करने वालों मेहनत कश लोगों को भट्टी में झोंककर दिल्ली और बड़े शहरों में इस सबको बेचने वालों से सावधान रहिये, ये लोग हिमालय की वादियों में सुकून से जीवन जी रहे है और लोगों को लड़ा रहे है, मैंने लिखा था "यह समय हम सबको एक होकर भाजपा से लड़ने का है" तो मिर्ची लग गई और फिर सामने से सब गुजर गया कि कैसे यह दल्ला बना
साम्प्रदायिक, पूंजीपति, दलाल, पाखंडी, धूर्त और नौटँकीबाज लोग भरे पड़े है इसके जैसे, और ये सब इस सरकार के ओवैसी है
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सारे गांधीवादी भी इस समय में "हिन्दू होकर असली रूप" में सामने आ गए है, ये वही लोग है जो 1900 से अहिंसा का नाटक कर रहे है और अब जब चुनाव के दो चक्र हो गए है तो इनकी असली औकात सामने आ रही है
कितने बड़े दोगले है - यह साफ दिख रहा है
शर्मनाक है, कितना और गिरोगे
गांधी का चरखा चबा गये
भरे पेट पर देश खा गये ....
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"मैंने तमाम बुरे लम्हात अकेले गुजारे हैं,
मैं किसी का शुक्रगुजार नहीं हूँ"
और बस इतना ही कि
"ये जिंदगी लोग जिसे मरहम ए गम जानते हैं
जिस तरह हमने गुजारी है वो हम जानते हैं"
आज शाम फ़िर एकांत की तलाश में ऐसी ही किसी उदास सी जगह पर ले आई थी ज़िंदगी, और मैं मुस्कुरा कर बैठ गया, सोचता रहा बहुत देर, फिर इस दृश्य में धँस गया, पेड़ों की तन्हाई को महसूसता रहा - थमी हुई जड़े और स्थाईपन कितना मजबूत कर देता है कभी - कभी पूरे अस्तित्व को और फिर किसी भोर में सूरज भी उगता है और देर शाम पक्षियों के झुंड भी आ जाते है - बस आपको ज़िंदा दिखना जरूरी है
ज़िंदगी दौड़ते - भागते हुए स्थायित्व की तलाश करती है और स्थायित्व अंततः एक दृष्टि भ्रम ही तो है जिसके पार वो सब है जो जीवन में हासिल नही
[ तटस्थ ]
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अमेजॉन प्राइम पर है, मुद्दा पुराना है पर स्व सतीश कौशिक और अनुपम खैर के साथ नीना गुप्ता की छोटी सी भूमिका ने इस फ़िल्म को अप्रतिम बना दिया है,बाकी तो सब बकवास है
सुप्रीम कोर्ट लाख आदेश दे दें - रैली, धरना, बन्द या ध्वनि प्रदूषण की रोक के लिये पर गुंडों, मवालियों, नेताओं और धार्मिक गुंडों जैसे लोगों से कौन उलझेगा, अजान पर चीखने वाले मुल्लों और पुराण बाँचने वाले उजबकों को कौन समझायेगा, पुलिस तक नाकाबिल साबित होती है - बस यही मुद्दा है
पर ये सब इस अंधभक्ति काल में सम्भव नही
आप सिर्फ फ़िल्म देखिये अदभुत संवेदनाओं और एक आदमी की पीड़ा और अंत में सतीश कौशिक के हाई कोर्ट में दिए गए बयान के लिये
कागज़ 2
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नीच पुराण
किसी मॉल में ना घुसने देना, रेल - बस - हवाई यात्रा में बगैर प्रमाणपत्र के नही घुसने देना, निजी होटल में भी घुसना मुश्किल था, राशन नही देना, ट्रैफिक वाले तक प्रमाणपत्र देख रहें थे, और हर जगह यह जरूरी था
बच्चों तक को नही छोड़ा, मैं उस समय से कह रहा था पर अंधभक्तों को तो थाली पीटने से फुर्सत नही थी ढपोरशंख जो कह रहा था - कितनी जान ले ली इन्होंने अंधविश्वासी, कुपढ और अनपढ़ गंवारों ने, अभी तो रामदेव आया है पकड़ में, जिस दिन ये धूर्त धरे जाएंगे तब असली भांडा फूटेगा
और इसे अब कह रहे टीका कानूनी बाध्यता नही था
बेशर्मों लाखों लोगों की हत्या कर शर्म नही आती सिर्फ़ देश ही नही बेचा, ज़मीर ही नही बेचा तुमने - बल्कि मौत के पक्के सौदागर हो
नीचता और किसे कहते है
अभी भी समय है, तीन चक्र बाकी है, भगाओ इस सरकार को, सरकार राष्ट्र नही होता, दो घटिया कार्पोरेट्स के गुलाम और व्यापारी लोग राष्ट्र नही होते - यह कब समझेंगे, मन्दिर - मस्जिद नही, हमें वैज्ञानिक समझ चाहिये, नैतिक और ईमानदार लोग चाहिये
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बहुत बढ़िया कविताएं बेरोजगारी को लेकर यहां वहां चर्चा में है युवा कवि लिख रहे हैं और जबरदस्त वाहवाही हो रही है, मुद्दे बहुत अच्छे हैं, बेरोजगारी सच में बड़ी समस्या है और पढ़े-लिखे लोगों के साथ में बेरोजगारी का अपना एक तालमेल और समन्वय है, मज़ेदार यह है कि इन्हीं बेरोजगारों ने भक्ति को समर्पण तक निभाया, सड़कों पर जॉम्बी बन घूम रहें हैं
पर बहुत दिनों से सोच रहा हूँ कि बीएचयू, अलीगढ़, दिल्ली, जामिया, सागर, पांडिचेरी, हैदराबाद और जेएनयू से शोध करने के बाद नौकरी नही यह पीड़ा प्रदर्शन हिंदी के युवाओं का ज़्यादा है - अंग्रेज़ी, विज्ञान, समाज शास्त्र, दीगर भाषाओं के युवाओं का नही है, ये अन्य विषय वाले विकल्प खोजकर काम में लग जाते है, नेतागिरी, लफंगाई या फालतू जगह दिमाग़ नही लगाते
इतनी पढ़ाई के बाद इतनी निराशा और पूरे तंत्र, व्यवस्था, धर्म आदि के प्रति विद्रोह क्या सही है, मैं नही कह रहा कि धार्मिक हो जाओ, मैं खुद नही हूँ, पर जबरन के विवाद करने के बजाय कुछ सार्थक क्यों नही करते
क्या पढ़ाई का अर्थ सिर्फ़ सरकारी नौकरी है वो भी केंद्रीय विवि में और प्रोफ़ेसरी करना मात्र है या कुछ और भी
क्या पढ़ाई का अर्थ व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों - सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, जातिगत, आरक्षण, सामंतवाद, नेपोटिज़्म, अनार्की या आदि को किसी भी साहित्यिक माध्यम से सामने लाना है
अगर पढ़ाई आपको वृहद दायरा और समझ नही देती तो क्या मतलब पीएचडी का या उच्च शिक्षा का , इससे तो हमारा अनपढ़ किसान गया कामगार वर्ग है जो खुला तो है - बन्द और संकुचित नही
ये बातें इन कविताओं के सन्दर्भ में नही या कवि के नही, पर सारे इस तरह के शोधार्थियों के लिये है
रोज कई मित्रों से मिलता हूँ और पिछले दो दशक में कई क्रांतिकारी कवियों को देखा जो सरकारी नौकरी के बाद गायब हो गए, शादी ब्याह कर दुम दबाकर राज्य के गुलाम हो गए और अब विभागाध्यक्ष से लेकर सरकार की दूदुम्भी बजा रहें है
आज जेएनयू के कितने लोग गाँव देहात में जाकर बदलाव का काम कर रहे है जो 70 के दशक से 90 के दशक तक होता रहा
कमाल यह कि हर पीएचडी को प्रोफ़ेसरी का चस्का है भले ही बोलना ना आता हो या पैजामे का नाड़ा बाँधना ना आता हो, नाक बह रही हो पर बनना माड़साब ही है
बेरोजगार है, पर ठसक गज्जबै ही होती है इनकी, देर रात तक दारू, सुट्टा, यारबाशी, टशन, और देशभर में भ्रमण - कैसे होता है यह सब, 5-7 साल जो JRF, SRF लिया - उसकी बचत है क्या दोस्तों या कुछ और
और अंत में क्या ये पीड़ा समाज के सभी वर्ग के युवाओं की नही - फिर एक वर्ग विशेष का विक्टिम कार्ड क्यों
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