इलाहाबाद विवि की फीस वृद्धि का समर्थन करता हूँ क्योकि आप बीएससी मात्र 1100 /- ₹ में पढ़ना चाहते है और लगभग 70 % को 18 से 20 हजार तक स्कालरशिप मिलती है उसका क्या, फ्री कॉपी किताबें पेन पेंसिल और निशुल्क होस्टल और घटे दरों पर भोजन
और फिर इन्ही सभ्य और पढ़े लिखें युवाओं ने उप्र में सरकार बनाई है ना, इन्ही को हिन्दू राष्ट्र बनाना है, इन्हें ही ज्ञानवापी का मुद्दा चाहिये, इन्हें ही बुलडोजर राज चाहिये ना, इन्हें ही नौकरी नही हिन्दू सम्राट चाहिये था ना
भुगतो, जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे, रोज़ पचास रुपये का गुटखा खाने वाले, हजार रुपयों की हफ्ते में शराब पीने वाले और हुड़दंग मचाने वाले होनहार छात्रों को क्यों सब कुछ फ्री और सस्ता चाहिये - आख़िर आपके लाड़ले मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री शिक्षा के इन मठों को चलाने के लिये रुपया कहाँ से लायेंगे, उच्च शिक्षा का तो बजट खत्म ही कर दिया है, विवि के सहायक प्राध्यापक को सिर्फ हरामखोरी और बकर करने और घटिया राजनीति के लिए इतना रुपया देने की जरूरत क्या है और सफ़ेद हाथी रूपी प्रोफेसर को हर माह दो से तीन लाख में पालना है तो यह रुपया आयेगा कहाँ से, कुम्भ में फूंकिये जोरदार तगड़ा माल, प्रयागराज के बाद मोहल्लों के नाम बदलने में भी मदद करें योगिधिराज की
सरकारी स्कूल्स, कॉलेज को गालियां देकर आपने निजी विवि के अड्डे खोलने दिए अब जाईये वही और 'पे एंड गेट' आधार पर डिग्रियाँ लीजिये
और गम्भीरता से जो फीस बढ़ी है वह कुछ भी नही है - क्योंकि अधिकांश फ्री सामग्री से स्कालरशिप वाले ही शेष है सरकारी संस्थाओं में बाकी तो विदेश निकल गए
दम हो तो बजट बढवाईये, सरकार उखाड़ फेंकिये, तंत्र बदलिए - उस महिला कुलपति के ख़िलाफ़ हल्ला करके क्या कर लोगे जो कठपुतली है मात्र, तुम्हारे रोज पहनने वाले कपड़े, स्मार्ट फोन, रिचार्ज और गाड़ी की कीमत ही चार हजार से ज्यादा है, यारां तुम तो रोज पेट्रोल उड़ा देते हो 200 /- का तो "पूरब के ऑक्सफोर्ड" को ज़िंदा रखने के लिए किडनी बेचो ना, बहुत हिकारत से देखते हो ना देश के बाकी विवि के युवाओं को तुम लोग
बोलो जय हिन्दू राष्ट्र
[जिसे पोस्ट , सन्दर्भ और प्रसंग समझ ना आये वो ज्ञान ना बांटे]
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"सूचना - सिर्फ दस - बारह फिल्टर वाले ब्यूटी एप से बने थोबड़ो के फोटू ही लाइक किये जायेंगे - कैंडिड और असली फोटू की पोस्ट को हाइड किया जायेगा, फिर वो कोई 70 साला रिटायर्ड बुड्ढा हो या कब्र में पेडिक्योर कर पाँव लटकाती 85 साला नवयौवना और वास्तविक जीवन में मिलने का दुराग्रह ना करें पिलीज़"
यह पोस्ट पढ़कर मैंने फोन किया - "क्यो बै, क्या दुर्घटना हुई, कहाँ मरने चला गया था काव्य की भजन संध्या में"
लाईवा निराश था - "क्या बताऊँ माड़साब, बड़े मन से गया था आज, पर तीन फेसबुकिया दोस्त एकदम ऐसी निकली कि संसार से विश्वास ही उठ गया, अपने एमबीए कर रहे नाती के साथ आई थी व्हील चेयर पर, दो बार प्रोफाइल चेक की उसके सामने ही - पर सिंगल ही लिखा था और फोटू शायद 1968 की लगी थी, पूछने पर बोली - बेटा समय नही मिलता अब, और एक युवा कवि अपनी बहू के संग स्कूटी पर आया था डेढ़ मन का चश्मा लगाए - बोला अब दिखता नही कुछ शाम के समय"
लाईवा भुनभुना रहा था फोन पर, मैं ठहरा सज्जन टाईप - काट दिया फोन, हिंदी के किसी कवि या कवयित्री के लिए निंदा और गाली नही सुन सकता
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मैंने कहा "प्रवीण के साथ उसकी गाड़ी में हूँ और रात 8 बजे तक देवास पहुँच रहा हूँ, कल दोपहर फिर निकलूँगा, तुम आ जाओ बस पकड़कर"
घर आया, बड़े दिनों बाद - रूम साफ किया, पानी भरा और जुगाड़ किया रुकने का, दूध आदि का और रात 9.30 बजे प्रणव बाबू आ गए, उनके साथ थे सुनीत सिंह जो मूल इलाहाबाद के है और इंडियन एक्सप्रेस दिल्ली में काम करते है पिछले छह वर्षों से
बहुत अच्छा लगा पहली बार फेसबुक से हटकर इन दोनों से वास्तविक दुनिया में मुलाकात हुई
अनुज प्रणव मिश्र जनसत्ता दिल्ली में काम करते है, युवा तेज़ तर्रार पत्रकार है और पढ़ाई यानी जयपुर से Mass Communication में पीएचडी करने के लिए एक लम्बा Sabbatical ले रहे है, एक छोटी सी मुलाकात थी, मुझे भी निकलना है बाहर और उन्हें भी आज ही दिल्ली लौटना है, भोपाल से रात का टिकिट है और अच्छा लगा मुलाकात करके - देर रात तक गपशप करके, अगली बार लम्बे समय आने का वादा करके गए है मित्र लोग
फेसबुक को भले ही कोसों पर दुनिया के भले लोगों से हमेंशा मिलवाया है, अभी जा रहे थे तो कुछ तस्वीरें ले ली यहाँ पोस्ट करने को - वरना पाप लगता जुकेरवा का
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|| काहे की हिंदी बै ||
हिंदी - हिंदी से कुछ नही होने वाला है जिन्हें अँग्रेजी इस देश में नही आती वे डूब मरें अरब सागर में, इतना बड़ा तबका अँग्रेजी में गंवार रह गया तो 75 साल से अँग्रेजी पढ़ाने वाले मक्कार मास्टरों को क्या फोकट की तनख्वाह दे रही सरकार फिर - इन मास्टरों को फांसी पर चढ़ाओ फिर ससुरे हरामखोरी कर रहे है, इन अंग्रेज़ी के निरक्षरों को तो अंडमान भेज देना चाहिये वे किसी काम के नही, ये सब देश पर बोझ है एकदम
सीखेंगे कुछ नही बस आरोप लगाते रहेंगे और कहेंगे कि हमारे साथ ब्ला, ब्ला हो गया, नाम नही आया पीएचडी में, अंतिम सूची बदल गई, आदेश समझ नही आया, होस्टल में सीट नही मिल रही, अदालत के जज वाली सूची में हमारे लोग नही, अस्पताल में सब अँग्रेजी में लिखा है, फॉर्म अँग्रेजी में है - मतलब आता जाता कुछ नही और चाहिए सब
साला एमफिल करके या एमडी करके भी एक वाक्य सही नही लिख सकते जबकि छठवीं से पढ़ना शुरू करते है नकलची बन एमए, एमडी या एमटेक हो जाते है पर अँग्रेजी के नाम पर दस्त लगते है, कितने ही एमडी एमटेक या जज से लेकर बड़ी पोस्ट मतलब प्रशासनिक सेवा में बैठे उच्च अधिकारी भी एक वाक्य नही लिख पाते बोलना समझना तो दूर
जबकि इसके विपरीत हर काम और हर घटिया काम की रपट भी अँग्रेजी में चाहिये इस देश को, साला एनजीओ वाला भी दूरस्थ गांव का गरीब गुर्गा जो दलित, आदिवासी या ओबीसी है, से काम की रिपोर्ट अँग्रेजी में मांगता है और मजेदार यह कि पढ़ने - समझने वाला और एक्शन लेने वाला भी हिंदी की संतान है
और सरकार की बात ही मत करना - सरकार तो उल्टी, दस्त, पेशाब भी अँग्रेजी में करती है और करती रहेगी, दुनिया भर के लोगों को बेवकूफ बनाकर अपना धंधा चलाने वाले कभी नही चाहेंगे कि तुम अँग्रेजी सीख लों - क्योकि फिर उनके धंधे का क्या, पर हम नही सीखेंगे जी, बस साल में एक दिन उत्सव मनाएंगे, जमकर कोसेंगे, पर करना - धरना कुछ नही - बस ब्राह्मणों को कोसो, बनियों को गाली दो, राजपूतों से जलन रखो - यही सीखा गए बाबा साहब - जो खुद अंग्रेजो, अंग्रेजियत और अंग्रेज़ी के पर्याय थे, 75 वर्षों में जो हरामी जनप्रतिनिधि मूर्ख मेडिकल या इंजीनियरिंग का पाठ्यक्रम हिंदी में नही बना पाए, एक सरल सा फॉर्म भी हिंदी में नही बना पाए वे नालायक हिंदी को फैलाएंगे कितने उजबक और बुड़बक हो बै तुम
इसलिए बन्द करो ये हिंदी - बिंदी का बकवास भरा नाटक, कोई एक कह दें कि उसे हिंदी में सब स्वीकार्य है - बैंक, पोस्ट ऑफिस, बीमा, कलेक्टर, कोर्ट, एयरपोर्ट, इंटरनेट, पासपोर्ट ऑफिस या पाठ्यक्रम - साला कुछ नही तो अधकचरी भाषा ही सीख लो - जो इंग्लिश मीडियम स्कूल की बदमिज़ाज औरतें सीखकर पचास - साठ हजार हर माह बटोर कर ले जाती है किसी निजी स्कूल से डीपीएस हो या मिराम्बिका या ऋषिवेल्ली या जे कृष्णमूर्ति के स्कूल हो - दस - बारह वाक्य ही तो सीखना है मात्र
यहाँ जो ज्ञान पेल रहें - उनकी औलादें किस स्कूल में पढ़ रही देख लो, एक संस्था में काम किया बड़ी क्रांतिकारी थी साब - सरकारी स्कूलों में नवाचार कर रही थी, मजाल किसी की भी औलाद सरकारी स्कूल में पढ़ी हो - इसमें काम करने वालों की शादी मेरे सामने हुई, बच्चे पैदा हुए और पढ़े लिखे - आज सगरे विदेश में है वही सेटल हो गए है या यही महानगरों में है - आलीशान पैकेज के साथ और बड़े बंगलों, गाड़ियों में और सरकारी नवाचार के ये ऐयाश व्याभिचारी और नवाचारी संवाहक साल में छह माह विदेश में रहते है - कभी पलटकर नही पूछा मानकुण्ड या हिरनखेड़ा के बच्चों से कि क्यो बै चूतिये अँग्रेजी क्यों नही सीखी या हिंदी सीखकर क्या उखाड़ लिया, आज रोटी खाई क्या, या अपनी महतारी के श्राद्ध का कितना कर्ज बाकी है अभी भी
अंग्रेज़ी सीखो फिरेन्ड्स
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