|| बुंदेलखंड में एक घर का कम हो जाना ||
छतरपुर जाओ और इनसे ना मिलो तो वे गुस्सा हो जाती थी, 94 - 95 वर्ष की उम्र में घर के बाहर लेने आती थी जाओ तो और जब मैं विदा लेता था तो वह छोड़ने आती थी
आखिरी समय में व्हीलचेयर पर बैठकर दरवाजे तक आती थी, मैं मना करता था, कार्यशालाओं में जब मैं कभी हाथ पकड़ लेता था और कहता कि मम्मी जी चलिए, चढ़ाव है - मैं आपको वहां तक छोड़ देता हूं तो वह कहती थी "संदीप जी हाथ छोड़िए, मैं अभी बूढ़ी नहीं हुई हूँ, बुंदेलखंड के लिए बहुत काम करना है, उनसे मिलकर मुझे इंदौर की पद्मश्री शालिनी ताई मोघे की बहुत याद आती थी - जो बिल्कुल ऐसी ही स्नेही थी मेरे प्रति और मरने तक काम करती रही समाज के लिए, ये उस जमाने में काम कर रही थी जब औरत क्या है किसी को पता ही नही था और ये सड़कों पर जूझ रही थी, बिल्कुल सावित्री बाई फुले की तरह - शिक्षा, स्वास्थ्य, अपने वाजिब हकों के लिए
अपने बेटे की मौत के बाद वे काफी दुखी रहने लगी थी, बहुत बुजुर्ग हो चुकी गई थी गायत्री देवी परमार - जिन्हें लोग प्यार से मम्मी जी कहते थे ; एक दबंग समाजसेवी थी, बुंदेलखंड के ठाकुरों को गलत प्रथाओं और महिलाओं की बेइज्जती के लिए बुरी तरह डपटती थी और किसी से डरती नही थी, 1998 में पहली बार इनसे मिला था और फिर उसके बाद से लगातार मिलना होता था
छतरपुर में बेसहारा महिलाओं और किशोरियों के लिए उन्होंने एक शेल्टर होम खोला था, बच्चों की पढ़ाई और महिला सशक्तिकरण के लिए वह हमेशा चिंतित रहती थी, हमेशा कहती थी कि बुंदेलखंड में कम उम्र में शादी हो जाना लड़कियों के लिए बहुत नुकसानदायक है और जो सेकंड मैरिज होता है वह भी 18 - 19 की उम्र के पहले हो जाता है, सेकेंड मैरिज मतलब गौना
गायत्री देवी मध्यप्रदेश की पहली महिला शिक्षक और महिला हेडमिस्ट्रेस थी, बाद में वे शायद पहली महिला विधायक भी थी बड़ा मलेहरा से जहाँ बाद में उमा भारती भी विधायक रही 2004 में, वे घोड़े पर बैठकर अपने क्षेत्र का भ्रमण करती थी इतनी जांबाज थी, एडवोकेट भी रही वो - ये किस्से बताते हुए वे कहती थी आज की राजनीति बहुत घटिया राजनीति है ; और इस सबसे बढ़कर एक बेहतरीन समाज सेविका थी - महिला समिति छतरपुर के नाम से उनकी स्वयंसेवी संस्था थी - जो कई क्षेत्रों में एक साथ कई प्रकार के काम कर रही थी, गायत्री जी उसकी अध्यक्ष थी और बुंदेलखंड के उन 12 -15 जिलों में उन जैसा काम करने वाला शायद ही कोई होगा - जो उन्हें ना जानता हो और वह खुद भी लोगों को व्यक्तिगत रूप से जानती थी
उन्होंने कई महिलाओं को पढ़ा लिखा कर सशक्त किया, नौकरियों पर लगाया और पूरे क्षेत्र में शादी की उम्र को बढ़ाकर न्यूनतम 18 - 21 करवाने में योगदान दिया, एक जमाने में यानी 2003 - 04 में जब 18 से कम शादियां होती थी तो लड़कियों को बहुत तकलीफ होती थी और 22 - 23 की उम्र तक आते-आते लड़कियाँ दो - तीन बच्चों की मां बन जाती थी और 25 साल की उम्र में उनका गर्भाशय निकाल दिया जाता था
यह समस्या बुंदेलखंड के साथ-साथ बघेलखंड के सतना, रीवा, सीधी और सिंगरौली में भी बहुत थी, यूएनएफपीए के साथ में डायरेक्टर पब्लिक हेल्थ - मध्यप्रदेश शासन और हमने मिलकर एक परियोजना 5 साल तक चलाई थी जिसमें गायत्री जी के साथ काम करने का उन्हें समझने का और उनका रुतबा देखने का अवसर मिला - तब से उनके और मेरे संबंध बिल्कुल मां बेटे जैसे थे, उनका घर मेरा घर था, मैं भले ही जटा शंकर होटल में रुकता पर मजाल कि भोजन कही और कर लूँ, वे देर रात तक इंतज़ार करते रहती थी कि गांव से लौटूंगा और साथ खाना खाएंगे
उनका एक बेटा पुलिस में टीआई था जिसका चार - पांच साल पहले देहांत हो गया, उसके बाद वह टूट गई थी, अभी पिछली बार जब मैं मिला था तो बोली "खाना खाकर जाओ, पता नहीं अगली बार यहां पर तुम्हें कोई पूछेगा या नहीं" पर मेरी बस थी मैं जल्दी में था, सिर्फ चाय और हल्का - फुल्का नाश्ता कर निकल आया
अभी अनुज Nitin Bhaskar Jadiya ने यह समाचार दिया तो मन दुखी हो गया है और मेरे सामने पूरी रील चलने लगी है, छरतरपुर से एक घर खत्म हो गया, मेरी बुंदेलखंड की संरक्षक चली गई ; गायत्री जी को नमन और हार्दिक श्रद्धांजलि - आज बुंदेलखंड ने ही नहीं, बल्कि मध्यप्रदेश में एक बड़े समाजसेवी को खो दिया है
यह तस्वीर उनके जन्मदिन की है जो 2019 में कोविड के पूर्व खींची थी उनके दफ्तर में ही
ओम शांति
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|| तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए
छोटी - छोटी मछलियाँ चारा समझकर फेंक दी ||
◆ दुष्यंत कुमार
बगैर किसी दुर्भावना और राजनीतिक दबाव के निष्पक्ष रूप से कह रहा कि उत्तर प्रदेश में जो मुफ्त राशन बन्द हुआ, इसका मैं समर्थन करता हूँ, यदि कोई दो रुपये या तीन रूपये किलो भी नही खरीद सकता तो कोई मतलब नही है, हालांकि यह राशि भी बहुत कम है ; गुटखा, तम्बाखू, दारू और बाकी सबके लिए इन्ही "गरीबों दलित और वंचितों" के पास पर्याप्त रूपया होता है - पर राशन और बाकी सब फ्री चाहिये
यह फ्री की रेवड़ी बन्द होना चाहिये - बल्कि पूरी राशि वसूलना चाहिये , जिस तरह से चुनावों में लोगों ने अपने घर भर लिये और विभिन्न पार्टियों ने वोटों की राजनीति का धंधा चला दिया - वह निंदनीय है
और एक बात ईमानदारी से कोई कहें कि "गरीब मतलब क्या", उत्तर प्रदेश को मैंने दो साल के कार्यकाल के दौरान करीब से देखा है ; मप्र, राजस्थान, महाराष्ट्र और छग को भी पिछले 50 वर्षों से देख रहा हूँ और यह साफ समझ है कि यह मुफ्त की रेवड़ी बिल्कुल बंद होना चाहिये हर जगह से
बेकार की चिकचिक होती है कि राशन कार्ड नही, राशन नही मिला, बिक गया, सेल्समेन बदमाशी कर रहा,बैंक ने पेंशन खा ली, पोस्टमेन ने नही दी, जॉब कार्ड में रुपये मांग रहें आदि - आदि और ये सब भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते है
सब कुछ मुफ्त देने की नीति का कोई अर्थ नही है अब, राजनीति, निज स्वार्थ और बकवास के समाजवादी या साम्यवादी या रामराज की कल्पना से निकलकर अब व्यवहारिक होना चाहिये, कब तक 85 करोड़ लोगों के मुफ्त रेवड़ी की कीमत मध्यम वर्ग चुकाता रहेगा
आज मजदूर 300 से 400 रुपये रोज कमा रहा है - शहर हो या गांव और आधा रुपया इसमें से शराब में जा रहा है, गांव की गुमटी देखिये - जहां सबसे ज़्यादा गुटखे के पाउच बिकते है, या शराब बिकती है, बहुत ही कम अपवाद मिलेंगे जो वास्तव में अति गरीब है पर 2×5 = 10 रूपये तो माह के खर्च कर ही सकता है अपने गुटखे बन्द करके या एक पव्वा कम पीकर , दस रुपये का गेंहू नही खरीद सकता तो क्या मतलब है
इसी फ्री की रेवड़ी ने देश को आज बर्बादी के कगार पर पहुंचा दिया है - मतलब हद है कि कंडोम से लेकर कॉपी - किताब, सायकिल, लेपटॉप, दलिया, शादी - ब्याह तक और तो और तीर्थ यात्रा तक का लॉलीपॉप देकर सरकारों ने लोगों को विशुद्ध निठल्ला बना दिया - शौचालय तक फ्री चाहिये और उसमें भी बेशर्मी इतनी कि उन बारह हजार में से भी सरपंच के साथ साठ - गांठ कर हजम कर गए और शौचालय स्मारक की भांति बेजान पड़े है, हगवाना कब से सरकार का संविधानिक कर्तव्य हो गया कि स्वच्छ भारत मे अरबों रुपया इस सरकार ने बर्बाद कर दिया और नतीजा यह है कि यह आजाद भारत के सबसे बड़े भ्रष्टाचार के सबूत के रूप में याद रखा जायेगा
सरकारें रोजगार दें, मनरेगा का सही क्रियान्वयन करें, शिक्षा - स्वास्थ्य की पेड व्यवस्था करें, विकलांग और निशक्तजनों को सहारा दें, आदिवासियों को जंगल सौंप दें, दलितों की पढ़ाई की व्यवस्था करें, उनके सीखने के अवसर उपलब्ध करवायें, बच्चों और बुजुर्गों को विशेष मौके दें, महिलाओं के लिए पर्याप्त कानून और आरक्षण है हर जगह - अब उन्हें कानूनी साक्षरता दें ताकि वे अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर सकें , घुमन्तु जनजातियों को एक जगह बसाकर रोजगार दें, बिजली पानी निशुल्क देना बंद करें, प्रसव एक प्लान्ड प्रक्रिया है और सुरक्षित मातृत्व की व्यवस्था करें नाकि 14000/₹ की रेवड़ी बांटे स्वास्थ्य विभाग, पंचायत और हितग्राही के बीच बाँट चूट करने को
अब यह मुफ्त राशन और रेवड़ियों की बरसात एकदम बन्द होनी चाहिये - आप में से कुछ लोग असहमत जरूर होंगे, पर एक बार सोचिये कि इस रेवड़ी ने कितना सत्यानाश कर दिया है देश का और अपनी दुकान, स्वार्थ और निहित निज ख्याति को छोड़कर देखिये कि कितना नुकसान हो गया
मोदी सरकार ने पिछले 3 वर्षों से जो मुफ्त रेवड़ी का बाजा बजाया वह आने वाले समय में तकलीफ देगा इसी सरकार को, कोविड तक ठीक था - हालांकि उससे भी मैं सहमत नही था, पर अब तो बिल्कुल बन्द होना चाहिये यह तमाशा
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प्राइम टाइम का बाजा बजने लगा है , अब वो बात नही खाँ, एक उत्साह नही - बल्कि मुर्दानगी छाई रहती है - लहज़ा हो या कंटेंट या नरेटिव - सब गोलमाल है , सब गड़बड़ है जैसे नागनाथ थे - वैसे सांपनाथ भी हो गए
अख़बार तीन साल से बंद ही है, हिंदी पत्रिकाओं और वेब पोर्टल पर इलिट्स का कब्ज़ा है और कुछ पूर्व पत्रकार जो अखबारों से हकाले गये है जो घटिया और टुच्चे है - इन लोगों ने संगठित होकर साहित्य पर बलात कब्ज़ा कर लिया है तो पत्रिकाएँ भी बंद कर दी है, कुछ लिहाज़ में ले लेता हूँ पर अब वो भी बन्द, और अब न्यूज़ देखना भी बन्द कर रहा हूँ - काहे को जी का जंजाल बनाऊँ
मिशन भावना से कुछ कामरेड्स पत्रिकाएँ निकाल रहें है - वे भी ससुर उन्ही घिसे पीटो को छाप रहें जो पुलिस की, विवि की , सरकार की या कार्पोरेट्स की तनख्वाह ख़ाकर ज्ञान पेल रहें गरीबी का ; बाकी मुस्टंडे बैठे है पेंशन और ब्याज खाते, बेशर्मी से पुरस्कार बीनते फिल्मों पर समीक्षाएँ लिखते - उन्हें ही ये फर्जी कामरेड्स छापकर कृतार्थ कर रहे है और मजाल कि कोई कम्बख़्त एक शब्द लिख दें महंगाई, गरीबी, सरकार या तानाशाही पर
शर्म मगर किसी को आती नही - मुझे भी नही, बल्कि मुझे भी क्यों आये
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