Kuchh Rang Pyar Ke - Sarang's Story, Savitri Bai Fule, Nishant Film and Unknowingly Known - Posts of 31 Dec 21 to 4 Jan 2021
|| कूटनीतिक फैसलों की विडंबना झेल रहे नागरिक ||
"वसुधा - 101" में सारंग उपाध्याय की कहानी "अकेले अजनबी" अभी अभी पढ़ी. कमला जी के बाद, राजेन्द्र शर्मा जी वसुधा निकाल रहें थे, मैं सौभाग्यशाली हूँ कि अंतिम अंक 'वसुधा - 100' में मेरी तीन कविताएँ छपी थी, अब यह अंक कॉमरेड विनीत तिवारी के सम्पादन में निकल रहा है, और 314 पृष्ठों तक फैला यह नया फ़ीनिक्स जैसा सुंदर अंक बेहद सुरुचिपूर्ण ढंग से संयोजित कर विनीत ने निकाला है - इस बात की तारीफ करना होगी कि विविध विधाओं की उत्कृष्ट सामग्री इसमें है जो पाठकों की समझ बनाने में सहायक होगी
मुंबई की पृष्ठभूमि में आसमान तोड़ती अट्टालिकाओं और कांक्रीट की इमारतो के बीच एक छोटे से गुमटी वाले की कहानी है - जो एक रात में घटती है, यह कहानी रोहिंग्या मुसलमानों के मुंबई जैसे शहर में पलायन, आजीविका के संघर्ष, छोटी - मोटी मजदूरी, उधारी, सेक्स की भूख और इस सबके बीच में आए दिन पुलिस प्रताड़ना का शिकार होते लोगों की कहानी है, इसी के बीच में पनपता है नायक का सलमा नामक लड़की से प्रेम जो पता नहीं बिहार की है, कोलकाता की या बांग्लादेशी परंतु यह नायक के एकाकीपन, खत्म हो गए परिवार की त्रासदी के बीच छटपटाने और संघर्ष की कहानी है जो सामने की झोपड़ियों में रहने वाले रोहिंग्या मुसलमानों को दिए उधार के रुपये 9670 वापस पाने और सलमा के प्रेम के बीच घटित होती है
आशा, निराशा, तगड़ी उम्मीद और गरीबी के दुष्चक्र के बीच फंसी यह कहानी बहुत बारीक - बारीक डिटेल्स के साथ लंबे समय के लिए अपना प्रभाव छोड़ जाती है - जहां समुद्र से उठती हवाएं हैं जो मछुआरों की बस्ती से होकर आ रही है या ऊंची इमारतों में रहने वाले अमीरजादों एवं बेपरवाह लोगों की कथा - जो अपनी दुनिया में मस्त रहते हैं और उन्हें पता भी नहीं होता कि ठीक उनकी नाक के नीचे उनके जीवन को बेहतर बनाने वाले लोग - मसलन नाई, बीड़ी गुटखा, सिगरेट, किराना सामान की गुमटी वाले, दिहाड़ी मजदूर, लोहार, बढ़ाई, सुतार, बर्तन झाडू पोछा करने वाली औरतें, या अन्य कार्य कर अपना जीवन कैसे बीता रहे हैं, उनमें से किसी का जिक्र नहीं है पर वे पूरी शिद्दत के साथ इस कहानी में मौजूद है
कुल मिलाकर 2 चरित्र हैं जिनके बीच कुछ संवाद स्थापित होता है, बाकी नायक रतन का संताप, अवसाद, एकालाप है और अंत में सलमा से उसका सुखद मिलन है - जो कहानी को सुखद अंत पर ले जाता है ; सारंग क्योंकि लंबे समय तक मुंबई में रहे हैं - इसलिए वहां की फ़िज़ा को, वहां की धड़कती जिंदगी को, बहती रफ़्तार, अपराध, पुलिस, जीवन शैली और लोगों पर, वहां काम करने वालों को बहुत पैनी दृष्टि से देखते - समझते हैं और इस कहानी में अपना वह पूरा अनुभव उड़ेल देते हैं
वसुधा का यह अंक कल मिला था, विनीत से लम्बे समय बाद मुलाकात भी हुई, सबसे पहले सारंग की कहानी पढ़ी, क्योंकि बहुत दिनों से सारंग अपनी कहानियां भेजता रहा - परंतु मैं अपने आलस और कुछ न कुछ काम की वजह से पढ़ नहीं पा रहा था, पर आज यह कहानी पहली फुर्सत में पढ़ी तो सोचा कि एक छोटी सी टिप्पणी दर्ज कर दूं ताकि सनद रहे
यह कहानी पढ़े जाने योग्य तो है ही पर देश के संकीर्ण होते जा रहें माहौल को समझने, राजनीति, भौगोलिक भेदभाव, कूटनीतिक फैसलों का विस्थापन और लोगों पर नकारात्मक प्रभाव, बाजारवाद तथा व्यवस्था में पीसते विश्व नागरिकता के और बदलते प्रेम के समीकरणों के संदर्भ में और बरक्स पढ़ी जाना चाहिये
अनुज और बेहद जिद्दी, लाड़ले Sarang Upadhyay. को बधाई और शुभकामनाएँ कि खूब रचें - हमारे मालवे में कहते है "छा गए गुरु "
[ इसी अंक की बाकी सामग्री और अपने प्रिय कवि मित्रों की कविताओं पर टिप्पणी जल्दी ही, बस अब पढ़ना और लिखना है खूब ]
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"हमें लाखों सावित्री बाई फुले चाहिये"
सावित्री बाई फुले का आज जन्मदिवस है सबको बधाईयाँ
तत्कालीन समाज में जिस तरह से संघर्ष करके उन्होंने लड़कियों की पढ़ाई के महत्व को समझा और लड़कियों की शिक्षा के लिए काम किया, वह सराहनीय है और इतिहास में यह सब सफलता के रूप में दर्ज है
सावित्री बाई के दिखाए मार्ग से लड़कियों ने पढ़ाई की, संघर्ष किया और इस बात को रेखांकित किया कि पढ़ने - लिखने में वे सक्षम है और घर, परिवार - समाज के साथ निर्णयन में भागीदारी करके वे भी विकास में हिस्सा बन सकती है , आज इसका असर दिखता है जमीन से लेकर अंतरिक्ष तक
सावित्री बाई के पहले भी स्त्रियों ने शिक्षा हासिल करके इस तरह के काम किये है - गार्गी , रमाबाई से लेकर तमाम उदाहरण मिलते है परन्तु सावित्री बाई को प्रताड़ना ज्यादा झेलना पड़ी यह भी सच है और उनके काम को ज्यादा सराहना मिली और समाज के नकारात्मक व्यवहार के कारण इतिहास में इसे पुख्ता तरीके से दर्ज किया गया
कालांतर में सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर अनेक महिलाओं को हम देखते है - महादेवी वर्मा हो अन्य महिला प्राध्यापक, SNDT विवि हो या राजस्थान का वनस्थली हर जगह महिला शिक्षा की बेमिसाल अलख जगी है ; आजादी के आंदोलन में महिलाओं को जागृत और संगठित करने का काम [ सिर्फ "क ख ग घ" को शिक्षा मान लेना निहायत ही बेवकूफी भरी समझ होगी ] अनेक महिलाओं ने किया, और 1990 के आते - आते जो कि अंतरराष्ट्रीय साक्षरता वर्ष घोषित हुआ था, में जिस तरह से केरल के कोट्टायम और अर्नाकुलम से महिलाओं ने शिक्षा की ज्योत को थामा और आज दूर दराज के गांवों में शिक्षित बेटियाँ, सायकिल पर झुंड में जाती लड़कियाँ या विभिन्न स्थानों पर नौकरियों में जाती लड़कियाँ, सड़कों पर ट्रैफिक में जूझती लड़कियाँ और ताज़ा सर्वेक्षण में जेंडर अनुपात में बढ़ी हुई लड़कियाँ दिखती है - वह एक स्वस्थ और विकसित होते समाज की परिचायक है और यह कहना समीचीन होगा कि सरकारों ने इस सबमें बहुत योगदान दिया निशुल्क पुस्तक से लेकर सायकिल, लेपटॉप या नौकरी में आरक्षण आदि को भुलाया नही जा सकता या जिस तरह के कानून पास किये जो महिलाओं के हित में है और कुछेक राज्य सरकारों ने जेंडर बजटिंग तक का काम किया
तत्कालीन परिस्थियों के चलते जो भी सामाजिक समीकरण रहें हो, सामंती शोषक समाज में महिलाओं के अधिकार रहे हो, यहाँ तक कि कुलीन ब्राह्मण स्त्रियाँ भी प्रताड़ित थी और गम्भीर भेदभाव की शिकार थी, राजघरानों में यही कमोबेश यही हाल था फिर सिर्फ दलित लड़कियों के प्रताड़ना की बात क्यों, यह राज्य की व्यवस्था रही होगी - जनपदीय ढाँचों में शिक्षा, स्वास्थ्य या सुशासन में भागीदारी के प्रश्न रहें हो उस पर बात करने का अब कोई अर्थ नही हैं क्योंकि आज उसको मथकर, अतिशयोक्ति पूर्ण विद्वता पूर्वक कुतर्क करके एक बड़े वर्ग को भड़काने और विद्वैष फैलाने का कोई अर्थ नही है
आज शासन की त्रिस्तरीय व्यवस्था में ज्यादातर बहुजन वर्ग की महिलाएं संविधानिक पदों पर काबिज़ है, पंचायतों से लेकर संसद में भी - पर कुछ असर दिख रहा क्या इनका - लेने को दो चार नाम के अलावा कुछ नही हमारे पास, नौकरियों से लेकर भले ही कम पर न्यायपालिका में भी हिस्सेदार है महिलाएँ - पर नतीज़े सामने है ; 23 अप्रैल 1993 से आरक्षण के कारण 33 - 50 % सुशासन की स्थानीय इकाइयों में महिलाएं है - परंतु ना शिक्षा का असर दिखता है और ना परिवर्तन - गिनी चुनी जगहों को छोड़ दें तो कोई बताये कि कितनी सावित्री बाई फुले सामने आईं या हमने पैदा की
इस देश के साथ के दिक्कत यहीं है कि बकलोल बहुत हैं - जो गाली गलौच या कुतर्क करने में माहिर है - एक गांधी, एक राधाकृष्णन, एक नेहरू, एक अम्बेडकर, एक सावित्री बाई, एक पेरियार, एक सरदार पटेल या एक ज्योतिबा को सदियों तक मानते - पूजते रहेंगे और जयन्तियां मनाते रहेंगे - हरेक का उत्सव मनाकर शाम को भूल जाते हैं और अगली किसी पुण्यात्मा के प्रकट दिन का इंतज़ार करते है ताकि फिर उसके बहाने किसी जाति, वर्ग, समुदाय या व्यवस्था को कोस सकें , पर दूसरा नही बनाएंगे
बहरहाल, सावित्री बाई फुले से आगे रास्ते और भी है, आज महिलाओं के संघर्ष उस फेंके गए कीचड़ - गोबर से ज़्यादा दुरूह है और जिस तरह की बाजारू दुनिया में महिलाओं, लड़कियों को सेक्स सिम्बोल बनाकर पेश किया जा रहा है, उपयोग किया जा रहा है और जिस तादाद में महिलाओं पर हिंसा और यौनिक आक्रमण बढ़े है - वे सावित्री बाई के सम्मुख निश्चित ही नही थे, इसलिए उनके कामों को याद करते हुए उनसे आगे निकलकर हमें लड़कियों की शिक्षा को नए तरीके से देखने - समझने और अमल में लाने की ज़रूरत है - तभी शायद सावित्री बाई फुले के योगदान की बात सार्थक हो सकेगी, वरना उजबक किस्म की भड़काऊ विचारधारा से क्या होना है - बजरंगी भाई जान के एक स्लोगन, एक वाट्सएप सन्देश या एक रैली से दशकों का संघर्ष पानी - पानी हो ही जाता है - आप करते रहिए दलित उत्थान, पंचायत में ओबीसी भागीदारी और तमाम संघर्ष - और यही हो भी रहा है
बहरहाल , सावित्री बाई फुले - ज़िंदाबाद
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"निशांत" फ़िल्म की यह अप्रतिम जोड़ी, अभिनय एवं कला का बेहतरीन आस्वाद और दो महान कलाकार - शायद आने वाली पीढियां यकीन नही करेंगी कि अपने ही जीवन में रुपहले पर्दे पर दूसरा जीवन जीकर चरित्रों में प्राण भर देने वाले कलाकार भी कभी थे और हम रसिक कलावन्त उन बिरले लोगों में से है जिन्होंने इनकी कला साधना और सम्पूर्ण यात्रा को अपनी आँखों से देखा, कानों से सुना और भावों को परखा और महसूसा हैं
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जज ने मिस्र के पूर्व राष्ट्रपति अनवर सादात के हत्यारे से पूछा, 'आपने सादात को क्यों मारा?
उसने उससे कहा, "क्योंकि वह धर्मनिरपेक्ष है!"
न्यायाधीश ने उत्तर दिया: "धर्मनिरपेक्ष का क्या अर्थ है?"
हत्यारे ने कहा: "मुझे नहीं पता!"
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मिस्र के दिवंगत लेखक, नागुइब महफौज की हत्या के प्रयास के मामले में, न्यायाधीश ने उस व्यक्ति से पूछा जिसने नागुइब महफौज को चाकू मारा था: "तुमने उसे चाकू क्यों मारा?"
आतंकवादी ने कहा: "उनके उपन्यास के कारण हमारे पड़ोस के बच्चे बिगड़ रहे थे"।
न्यायाधीश ने उससे पूछा: "क्या आपने यह उपन्यास पढ़ा है?"
अपराधी ने कहा: "नहीं!"
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एक अन्य जज ने मिस्र के लेखक 'फराज फारा' की हत्या करने वाले आतंकवादी से पूछा: "तुमने फराज फौदा की हत्या क्यों की?"
आतंकवादी ने उत्तर दिया: "क्योंकि वह एक विश्वासघाती है!"
न्यायाधीश ने उससे पूछा: "तुम्हें कैसे पता चला कि वह एक विश्वासघाती था?"
आतंकवादी ने उत्तर दिया: "उसने लिखी किताबों के अनुसार"।
न्यायाधीश ने कहा: "आप उसकी कौन सी पुस्तक जानते हैं कि वह एक विश्वासघाती है?"
आतंकवादी: "मैंने उसकी किताबें नहीं पढ़ी हैं!"
जज: "कैसे?"
आतंकवादी ने उत्तर दिया: "मैं पढ़ या लिख नहीं सकता!"
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घृणा ज्ञान से कभी नहीं फैलती...यह हमेशा
अज्ञानता से फैलती है..!!
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इस तरह कुछ धूर्त, एजेंडाधारी सत्तालोलुप शैतानी मानसिकता के लोग इसी अज्ञानता का फायदा उठा कर जाति, समुदायों, धार्मिक और जातीय संगठनों के बीच नफरत का प्रचार करने की कीमत चुकाते...!!
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