Drisht Kavi, Kuchh Rang Pyar ke, Birju Maharaj, Human review, Amber on Ashok Vajpeyee - Posts of 16 to 22 Jan 2022
बिरजू महाराज का जाना: स्मृतियां साक्षी हैं, धरती स्थिर है, आवाज़ों का शोर थम गया है..!
देवास का मल्हार स्मृति मन्दिर अनगिनत कलाकारों की प्रस्तुति का साक्षी रहा है संगीत, वाद्य यंत्र, बैंड, नृत्य से लेकर तमाम कलाएँ यहाँ आकर धन्य हुई और यहाँ के दर्शकों और श्रोताओं को तृप्ति दी
बहुत छोटे से मंच पर बिरजू महाराज को लगभग दो ढाई घण्टे अपने संगतकारों के संग थिरकते देखा है, शायद तीन बार से ज़्यादा और हर बार उनकी ऊर्जा चकित करती थी, 1970 से उन्हें देख रहा था देवास, इंदौर, भोपाल, मुम्बई, दिल्ली - वो आदमी थकता ही नही था और गाढ़ी लाली लगे होठों पर गज़ब की मुस्कान हमेंशा चिपकी रहती थी
हाल ही में रज़ा फाउंडेशन के कार्यक्रम की वीडियो क्लिप्स देख रहा था जहाँ वे बैठे बातें कर रहे थे कितने सहज और सौम्य लग रहे थे
घुँघरू बंधे पाँव, सांसों का आरोह अवरोह, जमुना के तट पर कृष्ण कन्हैया राधा के संग मुरली बजावे, नए प्रयोग, नित नूतन नवाचार और अपने शिष्यों संग पितृ भाव वाले महाराज संसार का चक्कर लगा आये थे, कोई कोना छूटा हो शायद
कल देर रात से तबियत ठीक नही, छत पर घूम रहा था पर ठंड, धुंध से हालात और खराब हो गए, बेचैनी छाती में दर्द, सर्दी खाँसी और धुंध में बनता बिखरता अस्तित्व, देर रात तीन बजे कमरे में आया तो Tapas की पोस्ट देखकर जी धक्क से रह गया - समझ आया कि ये घबराहट क्यों है
धरती स्थिर है, आवाज़ों का शोर थम गया है, सांसे रूक गई है - वह आदमी यहाँ से चला गया है जिसके होने से, जिसके घुँघरुओं की ताक़त से यह धरती घूमती थी, नृत्य करती थी और तबले के साथ जुगलबंदी कर मदमस्त होकर थिरकती थी
सुनो, आवाज़ें आना बंद हो गई है, जो बूंदे नाचती थी, जो पक्षी चहकते थे, हवा जिस थिर पर थम जाती थी, मयूर उदास है, सूरज की किरणें कही छुप गई है और लग रहा जैसे यह थमना ही अब शाश्वत सत्य है और नृत्य का अब अस्तित्व नही रहेगा, केलुचरण महापात्रा के बाद बिरजू महाराज के बाद यह सिर्फ नृत्य की नही बल्कि समूची मानवता की क्षति है - यह चलाचली की बेला है, कोई बताये कि इतनी सुबह किसने गा दी भैरवी, किसने कत्थक किया कि वो विराट महामना सो गया अतृप्त सा, अभी तो उसे फिर यहाँ आना था
नमन हे शिखर पुरुष, तुमने ही पुरुषों को नृत्य विधा में पारंगत किया और यह मान्यता तोड़ी कि पुरुष इस विधा में काम नही कर सकते और यह सिद्ध किया कि नृत्य पर सबका समान अधिकार है
हार्दिक श्रद्धांजलि बिरजू महाराज
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जैसे रह जाती है दूध में इलायची की गंध ||
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फिर सारे युवा कवियों ने अपने आका को जन्मदिन पर शशि थरूर से भी क्लिष्ट देवनागरी में लिखकर हिंदी में
बधाई
दी, आखिर साल में दो - तीन बार आका दिल्ली फ्लाईट से बुलवाता है, रहने खाने की पंच तारा व्यवस्था करता है, हर बार विदाई में नगदी 20 हजार देता है और नए लौंडो को अपनी माशूकाओं से और नई कवयित्रियों से मिलने का मौका उपलब्ध करवाता है, फेलोशिप देता है, किताब छपवाता है और इस बहाने से हिंदी के ये दलित और कुपढ़, अप्रचलित और उपेक्षित युवा तथाकथित तुर्क लेखक सवर्ण हो जाते है हर भारतीय भाषा, क्षेत्रीय भाषा, लोकभाषा और बोलियों से लेकर अंडमान के जारूवा आदिवासी एवं संथाल परगना तक के आदिवासियों को ऐसे आका युग - युगों तक मिलते रहें - ऐसी कामना करके सबने यज्ञ किया, मछली तली, रान दबाई, मुर्गा काटा, बकरे को मिमियाते सुना और जाम मिलाया ऑनलाइन और मुक्त कंठ से ढेर कविताएँ पेली
जबकि इसी हिंदी के एक और कवि का जन्मदिन था , पर उसके पास इन पांच अंकों में हर माह माले मुफ़्त बेरहम विशुद्ध बोनस के रूप में वेतन कमाने वाले मास्टरों को देने के लिए आशीर्वाद के अलावा कुछ नही था लिहाज़ा..... खैर
छोड़िए जनाब, "संसार की हर शै का बस इतना फसाना है - एक धुंध से आना है, एक धुंध में जाना है"
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अम्बर का आलेख अवा पर, पिछले वर्ष Kalbe Kabir जी का अदभुत आलेख था नरेश जी और अवा पर और आज का यह अदभुत रवानगी वाला आलेख
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अशोक वाजपेयी के सुनाए उपाख्यान
निर्मल वर्मा का रूठना, कृष्णा सोबती का वर्जनाएँ तोड़कर प्रकट हुआ व्यक्तित्व, नामवर सिंह के दंद-फंद यह सब इतने निर्मल, सोबती और नामवर के नहीं जितने अशोक वाजपेयी के है। इससे हिंदी में एक कौटुम्बिक स्मृति का निर्माण हुआ है, इसने हिंदी में लिखनेवाले दूरदराज से लेकर दिल्ली तक के लेखकों कवियों के लिए एक ख़ानदानी जाज़िम बिछा दी जो पहले भोपाल में बिछती थी और फिर वाजपेयी के पीछे पीछे दिल्ली में आकर बिछने लगी और यदि यह न होती तो हिंदी अंधों के बीच बँटी रेबड़ी से ज़्यादा न होती जो बिहार में अलग बँटती, उत्तर प्रदेश में अलग और न्यारे प्रदेशों के नए पुराने अंधों में दीगर।
कोई कुछ भी कहे, हर बात में हिंदुस्तान को अगुआ बतानेवाले सुन ले, हिंदुस्तानी अत्तरों पर फ़्रांसीसी परफ़्यूम भारी है क्योंकि अत्तरों में सब अच्छा ही अच्छा होता है, सर पर चढ़ता है - ख़ास हिंदुस्तानी सोच कि अच्छे में बुरे का क्या काम? अशोक वाजपेयी के उपाख्यान फ़्रांसीसी परफ़्यूम है- वहाँ ख़ुशबू है तो उसे उसकी ठीक जगह रखने के लिए बदबू भी, वह चापलूसियों, चमचागिरियों से बनी चिकनी चिकनी चेमेगोइयाँ नहीं बल्कि अच्छे बुरे, ऊँच-नीच सब देख-गुनकर गढ़ी बातें है फिर मुँहदेखियों और ठकुरसुहातियों से घिरा आदमी मीठे मीठे क़िस्से गढ़े भी तो किसके लिए।
मुक्तिबोध के साहित्य की विवेचना यदि हम नामवर सिंह में पाते है, उनके जीवन के विषय में बहुत सी जानकारियाँ हरिशंकर परसाई में तब भी अशोक वाजपेयी के संस्मरणों के बिना मुक्तिबोध का पूरा खाका गढ़ना मुश्किल है, वाजपेयी के मुक्तिबोध सम्बन्धी उपाख्यान जाहिर है बढ़े चढ़े है जैसे उपाख्यान होते है- उसमें मुक्तिबोध की ग़रीबी, उनकी बेचैनी तथ्य के क्षेत्र से साहित्य और कल्पना की नागरिक हो जाती है।
रज़ा फ़ाउंडेशन के युवा साहित्यकारों के सालाना जलसे में उस दोपहर मैंने खुद को एक तरफ़ से एक युवा अकादमिक आलोचक और दूसरी ओर से एक चालीस बरस के आसपास के मशहूर कवि से घिरा पाया, सामने वाजपेयी मुक्तिबोध के संग राजनांदगाँव में समोसे खाने जाने का संस्मरण सुना रहे थे- बारीक रेशम का छींटदार कुर्ता उसपर गढ़वाल की खुरदुरी, मोटी शॉल और बात करने का अन्दाज़ यों जैसे कोई नौजवान किसी लड़की को पटाने के लिए नीमरौशन रेस्तराँ में बैठा बातें बनाता हो- जिसमें सच भी हो तो कभी आटे में नमक और कभी आटे बराबर गप्प भी, छा जाने की नौउम्रों की इच्छा और दुनिया देखने के बाद आई बेपरवाही भी मगर मेरे दोनों तरफ़ बैठे साहित्यसेवियों के मारे सुनना मुहाल था- दोनों वाजपेयी की हर बात को नहला मानकर दहले नापतौलकर इतने ज़ोर से बुदबुदाते कि मुझे तो सुनाई पड़े मगर बात मुझसे आगे न जाए। आलोचक मुझे इसलिए बातें सुनाता था क्योंकि उसी बरस मेरी किताब रज़ा फ़ाउंडेशन से आई थी जो उसे मेरी वाजपेयी की चापलूसी का नतीजा लगती थी और कवि इसलिए कि वे रज़ा फ़ाउंडेशन के पुराने वजीफ़ेदार थे और मुझपर यह साबित करना चाहते थे कि वाहवाहियों, तालियों और चरणस्पर्शों में उनसे बढ़कर कोई नहीं।
वाजपेयी के संस्मरण में खास मोड़ तब आया जब समोसों की दुकान में होती साँझ के झुटपुटे में वे राजनाँदगाँव की किसी लड़की पर फ़िदा हो गए, संस्मरण मुक्तिबोध के बारे में और उसमें समोसों के कोणों से झाँकती सुन्दरी- इस मास्टरस्ट्रोक से मध्यमवर्ग से आए संस्कारी कवि और कवयित्रियाँ पसीने पसीने होने लगे, ऐसे साहित्य का पहला सबक़ पाया कि खूबसूरती से साहित्य पैदा होता है और खूबसूरती बचाने के लिए लड़ते लड़ते साहित्यकार मरता है फिर चाहे खूबसूरती किसी जवान लड़की की हो, क्लासिकल नृत्य की या राजनीति की। “मुक्तिबोध से दो बात सीखने के बजाय उनके आगे नैन मटक्के का पाठ!” आलोचक ने फ़ब्ती यों कसी कि ब्रह्मचर्य अपनाने के बाद बुढ़ऊ तोलस्टोय भी पानी पानी हो जाता उधर कवि बस ‘अद्भुत अद्भुत’ करता रह गया। एक नए कवि का हौंसला बुलंद हुआ वह पास बैठी कवयित्री के और पास सरक आया, देखकर मुझे ख़ुशी और शायद वाजपेयी को सकून हुआ।
क़िस्सा आगे क्या हुआ इसकी आस में बैठे लोग अब यह क़यास लगाने लगे कि आख़िर निर्मल वर्मा अपने दोस्त रामचन्द्र गाँधी से रूठे किस बात पर थे, राजनाँदगाँव की सुन्दरी समोसे बँधवाकर घर लौट गई होगी ऐसा सोचकर नए कवि के हौंसले ठण्डे तो नहीं पड़े देखने के लिए मैंने गरदन आगे झुकाई तो देखा वह सेलफ़ोन पर पटना से राजनाँदगाँव की दूरी देख रहा था। “सर, सर, सर क्या बात कह दी” मशहूर कवि ने फिर ताली पीटी और पलटकर आसपास देखा, बात अब वाजपेयी जी यह कर रहे थे कि कैसे केवल वाचिक आलोचना न केवल गम्भीर नहीं होती बल्कि साहित्य का नुक़सान भी करती है।
इतालवी कहावत है कि क़िस्से सबसे ज़्यादा रसीले ठीक बीच में होते है और ठीक बीच में सबसे ज़्यादा लज्जतदार मछलियाँ भी होती है, दोनों को बनाने का ढंग भी कमोबेश एक जैसा है। जैसे मछली को पकवान में बदलना आसान नहीं उसी तरह घटना को चाहे वह कितनी ही हैरतंगेज़ हो क़िस्से में बदलना आसान नहीं वरना ठिए ठिए अशोक वाजपेयी होते— यह कला तो ख़ासमख़ास लोगों में मिलती है जिनकी इंदराजें और आवाजाहियाँ अन्दरखाने तक हो और जो चार लोगों में बात बनाने का हुनर रखे और जो मज़मेबाज़ी को हिक़ारत से न देखकर यों देखे कि यह हमारी आज़ादी, हमारे एक दूसरे को लेकर सबर और अपनाव का सबूत है और यही सब आज की तारीख़ में मिलना मुश्किल है मगर जब तक अशोक वाजपेयी हमारे बीच है यह दुर्लभ जड़ी हर सभा में घिसकर नए नवेलों की घुट्टी में मिलाकर पिलाई जाती रहेगी।
वाजपेयी के हिंदी साहित्यकारों सम्बन्धी उपाख्यानों और हिंदी साहित्य में लोकतंत्र का गहरा सम्बंध है, इसने हिंदी में कलम उठानेवालों को यह समझ बख्शी कि एक साहित्यकार को आख़िरकार कैसा होना चाहिए, इसने उसे यह तमीज़ सिखाई कि अच्छा साहित्यकार यदि कटुतम आलोचनाओं से विचलित नहीं होता तो थोथी तारीफ़ें भी उसे लालायित नहीं कर सकती, इसने अचानक बड़े-छोटे, अफ़सर-कारकुन, प्रोफ़ेसर और दसवीं पास कवि सबको बराबर कर दिया, इन उपाख्यानों ने वह ज़मीन तैयार की जिसमें बबूल, शीशम से लेकर चन्दन तक साथ बढ़ सके। क्षेत्रवाद से भी साहित्य की यह भूमि कोसों दूर है, यहाँ मिथिला का उपन्यासकार मध्यप्रदेश के कवि के कंधे पर हाथ रखे बतियाता है तो इसके पीछे वाजपेयी के सुनाए ढेरों क़िस्से है- जैसे अँधेरे कोठार में आकर किसी ने सब खिड़की दरवाज़े खोल दिए हो।
सभा विसर्जित हुई और शाम होने आई, रसरंजन (क़िस्से सुनाने के साथ वाजपेयी ने कई नवेले शब्द भी गढ़े है और रसरंजन उस शब्दकोश का सिरमौर है) का दौर चला। अब मामला पलट गया था- युवा आलोचक का रस छलकने लगा और अधेड़ मशहूर कवि पर रस ने विष सा असर किया। “कोई कुछ भी कहे, अशोक जी ने हिंदी साहित्य को अंग्रेज़ी से ज़्यादा ग्लैमर बख्शा है” युवा आलोचक ने चिकन की टांग चूसते और गिलास से चुस्कियाँ लेते हुए मुझसे कहा और उधर मशहूर कवि वाजपेयी को अकेला न पाकर खिसिया हुआ था उसे किसी वजीफ़े की बात छेड़ना थी, चावल पर झोल उड़ेलते हुए बोला, “काम की बात हो नहीं पाती, क़िस्सा अनन्त हुआ जाता है”। उधर वाजपेयी मल्लिकार्जुन मंसूर के छह रागों का मिश्र राग खटराग का ज़िक्र छेड़े हुए है और कवयित्रियों का एक झुंड मुग्धभाव से सुन रहा है थोड़ी देर में जो आँख उठाई तो देखा युवा कवियों को वे बता रहे कि कैसे नागार्जुन की कविताओं के प्रति उनकी दृष्टि बदली है।
इस फ़ना दुनिया में सबसे सुंदर बात बदलना ही है, रोज लोग बदलते है, चीजें बदलती है मगर जो नहीं बदलना चाहिए वह है इसकी लोकतांत्रिक फ़िज़ा, जिसे बनाए रखने के लिए वाजपेयी न जाने कब से हिंदी के साहित्यकारों, गायकों, कलाकारों के क़िस्से सुना रहे है और जिस फ़िज़ा को ख़त्म करने के लिए सरकारें, कट्टरवादियों के झुंड भरसक प्रयास कर रहे है। जो वामपंथियों का विपक्ष था अब कट्टरवाद का विपक्ष है, जो हमेशा तराज़ू के निर्बल पलड़े की तरफ़ झुकता है वह अशोक वाजपेयी हिन्दी का अंतिम विराट पुरुष है और विराट वह नहीं होता जो बड़ा होता है बल्कि विराट वह है जो सबको समाहित कर लेता है, जो वाम-दक्षिण से परे कविता और कविता लिखनेवाले में आनेवाली पीढ़ियों को बरसों तक सुनाया जानेवाला क़िस्सा ढूँढ लेता है। वाजपेयीजी बरगद नहीं बाँस है जिसकी बांसुरी बनती है, बुढ़ापे में टेकने को लाठी और मारधाड़ के समय लट्ठ है और सबसे बढ़कर यह उजाड़ छोड़कर नहीं जाता बल्कि बाँस जो वंशबेलि का प्रतीक है अपने बाद अपने जैसी भरीपूरी जमात छोड़कर जाता है फ़िलहाल हिंदी का सौभाग्य है कि यह बाँस हिंदी के आँगन में हराभरा है
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हॉटस्टार पर ह्यूमन सीरीज देखी जो भोपाल में फिल्माई गई हैं, भोपाल शहर को टीवी पर देखना अपने आप में रोचक है
पिछले दिनों इसी शहर को लेकर विसलब्लोअर सीरीज आई थी, ह्यूमन सीरीज़ में भोपाल गैस त्रासदी से अनाथ बनी एक लड़की की कहानी है जिसे कोई डॉक्टर नाथ गोद लेता है, उसका शोषण करता है और बाद में वह लड़की बड़ी होकर प्रसिद्ध न्यूरोलॉजिस्ट बनती है और उस डॉक्टर और उसके परिवार को खत्म करके मंथन नामक अस्पताल चालू करती है, उसका सपना है कि वह इस अस्पताल को विश्व स्तर का बनायें
समय गुजरने पर यह अस्पताल षड्यंत्र का घर बना जाता है जहां पर ड्रग ट्रायल के धंधे चलते हैं, इस सीरीज में मूल रूप से तीन - चार औरतों की कहानियां है जो अपने इशारों पर पूरे तंत्र और राजनीति को नचाती है - साथ ही पैसे और हुस्न के बल पर पूरे तंत्र को जेब में रखती है ; अपनी महत्वकांक्षा पूरा करने के लिए जब कोई स्त्री अपने ही शरीर को इस्तेमाल करके सीढ़ी बना लेती है ऊंचाई पर चढ़ने के लिए तो उसे कोई रोक नहीं सकता और यह हम अपने आसपास भी देखते हैं, और यह सब इस सीरीज़ में होना कोई नया अजूबा नहीं है
बहरहाल, सीरीज में काफी बारीकी से भोपाल गैस त्रासदी, एनजीओ की भूमिका, राजनीति, मुख्यमंत्री का रोल, ड्रग ट्रायल, फार्मा कंपनियों के षड्यंत्र और वह सब दिखाया है जो एक सभ्य समाज अभी देखना नहीं चाहता या अभी इतना मैंच्योर नहीं हुआ है कि घर - परिवार में बैठकर सहजता से देख सकें - डॉक्टर सायरा और डॉक्टर गौरी नाथ के संबंध शुरुआत में भले ही प्रेम से उपजे हुए लगते हो, परंतु बाद में पता चलता है कि गौरीनाथ सायरा जैसी कार्डियोलाजिस्ट ने बुरी तरह से इस्तेमाल किया
अंत में सभी बारी - बारी से मर जाते हैं और एक सवाल छोड़ जाते हैं कि आखिर यह सब मध्यप्रदेश में क्यों हो रहा है, मुझे जेहन में भोपाल के हालात नजर आ रहे थे, वहां के मेडिकल कॉलेज नजर आ रहे थे, मुझे चिरायु अस्पताल नजर आ रहा था और वो सारे अस्पताल नजर आ रहे थे जहां पर ड्रग ट्रायल लगातार होता रहा है ; मुझे इंदौर का ड्रग ट्रायल वाला केस याद आ रहा था जहां डॉ नाडकर्णी, डॉ श्रीकांत रेगे जैसे लोगों को इंडियन मेडिकल काउंसिल ने एक लंबे समय के लिए प्रैक्टिस करने से रोक दिया था
मूल सवाल वही है कि विसलब्लोअर हो या ह्यूमन मेडिकल क्षेत्र की शिक्षा या इलाज के तौर तरीके हो, यह मध्य प्रदेश की सरजमी पर ही क्यों होता है - हम सबको हकीकत मालूम है परंतु बोलना कोई नहीं चाहता, मेरा सुझाव मानकर यह सीरीज देख लीजिए काफी रोमांचक और शैक्षिक है
ओटीटी प्लेटफॉर्म पर एलजीबीटी समुदाय को लेकर काफी खुलापन आया है यह समझना दिलचस्प है कि इस तरह के पुरुषों के गे या क्रॉस ड्रेसर या वृहन्नला के चरित्र तो हर फिल्म या सीरीज में खुले रूप से अब तक दिखाए जाते थे, भले ही मजाक बनाया जाता हो या गम्भीरता से भी, परन्तु इस सीरीज़ में पहली बार तीन सम्भ्रान्त पढ़ी - लिखी, ज़िम्मेदार और जवाबदार महिलाओं के लेस्बियन सम्बन्धों पर इतना खुलकर प्रदर्शन देखा, निश्चित ही यह बोल्ड एवं साहसिक कदम है पर अभी भारतीय समाज इस बात के लिये तैयार नही है
घर पर बिस्तर पर पड़ा हूँ फुर्सत में यह बड़ा काम कर डाला - लगभग पांच घण्टों में फैली यह सीरीज आपको बांधे रखती है, अस्पताल, इलाज, षड्यंत्र, राजनीति, रुपया पैसा, विलासिता, अपने बच्चों से व्यवहार, हाई सोसाइटी का दोगलापन, गरीबी, फोटोग्राफी, गैस त्रासदी के विक्टिम्स का पत्रकारों से रुपया एंठना, ब्यूरोक्रेसी, कुत्तों की दास्ताँ और भोपाल शहर के तालाबों किनारे की शूटिंग, खूबसूरत मकान, और पुराने महलों में फिल्माई सीरीज़ बहुत प्रभावी है, शेफ़ाली शाह ने अभिनय का उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है वही कीर्ति कुलहरी, सीमा विश्वास, राम कपूर, विशाल जेठवा, इंद्रनील सेनगुप्ता, संदीप कुलकर्णी और सुशील पांडेय भी गज्जब के कलाकार साबित हुए है इसमें
जरूर देखें
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कल देर रात तक नींद नही आई तो कई कवियों को पढ़ा बगैर पूर्वाग्रह के , उनकी आरम्भिक हस्तलिखित रचनाएँ, मुझे मेल की हुई वर्तनी की त्रुटियों से भरी रचनाएँ, परिपक्व होती चिरौरी कर छोटी पत्रिकाओं में छपवाई रचनाएँ, फिर बड़े - बड़े मास्टरों और समकालीन रचनाकारों के संगत में चाटुकारिता करके लिखी रचनाएँ और सबसे मज़ेदार कि घोर कट्टर होते जाने के बावजूद भी तमाम तरह से जुगाड़े गए पुरस्कारों से नवाज़ी गई रचनाएँ
कुल मिलाकर निष्कर्ष यह निकाला कि अधिकाँश को गलत ख्याति मिली, नाजायज़ पुरस्कार और बेहद घटिया प्रशंसा - भाभूअ हो, ज्ञानपीठ हो, युवा साहित्य अकादमी हो या साहित्य अकादमी - अधिकांश ओवर रेटेड लोग है बल्कि कुछ तो इंसान भी नही घोर - साम्प्रदायिक है, गाली गलौज की बुनियाद पर टिका इनका लेखन - उफ़्फ़
हिंदी का यह दुर्भाग्य ही है कि जो जितने ऊँचे स्तर का सम्मान था उसे उतने ही घटिया लोगों ने अपने स्वार्थ, लिजलिजी भावनाओं और कुछ को तुष्ट करने के लिए निकृष्टतम लोगों की झोली में वो पुरस्कार डालें भी और उन्हें मजलिसों में लेकर भी आये और अब ये नवरत्न बने घूम रहे हैं , लोगों के हाथ पांव जोड़ते फिरते है
"हुई तुझसे जो निस्बत, उसीका सदका है
वरना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है"
बस, एक ही इलाज है - बचो इनसे
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