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Khari Khari, Krishi bil, Training on Health, Story idea - Posts of 3 to 7 Dec 2020

 महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के अध्यापन विभागों का कोई ठिकाना नही है, पढ़ाई हो नही रही और तथाकथित बुद्धिजीवी प्राध्यापक गण मजे से डेढ़ से ढाई लाख तनख्वाह ले रहे है गत 10 माह से

अबकी बार तो कॉपी भी जाँचना नही पड़ी - बड़ी बेशर्मी है साहब तंत्र में - दिनभर प्रवेश प्रक्रिया के नाम पर फ़िजूल वक्त बर्बाद कर रहें है समोसे खाते है, गपशप,घटिया स्टाफ रूम की राजनीति और घर -मक्कारी और हरामखोरी का दूसरा नाम सरकारी नौकरी है
क्या शासन को ऑनलाइन कक्षाओं को लेने के अनिवार्य आदेश नही देने चाहिए, राज्य शासन ने फीस तो भरवा ली पूरे साल की, और मप्र के विश्वविद्यालयों ने अभी तक परिणाम भी नही दिए है, लॉ के परिणाम बीसीआई के कारण रुके पड़े है
पूरे कुएँ में भांग पड़ी है और सब मस्त है और हम चाहते है कि हमारे यहां विश्व स्तर की पढ़ाई हो, रैंकिंग में पहले 100 में आये हम लोग
कोई हल, सुझाव है या घँटे, घड़ियाल और थाली पीटते रहें, दीये जलाते रहें, बंगाल चुनाव का प्रचार करने चले क्या,
महाविद्यालयों के प्राचार्य, लीड कॉलेज के प्राचार्य, एडी, जेडी और तमाम ब्यूरोक्रेट्स जो उच्च शिक्षा के हेरार्की में बैठे सफ़ेद हाथी है - उनको कुछ समझ आता है या आँखों पर पट्टी बांधकर ही बैठे है
और छात्र, उनका पूछो ही मत - वे नकल और 20 क्वेशन्स के भरोसे तो पीएचडी कर लेंगे - बाकी तो छोड़ ही दीजिये - अभाविप हो या छात्र संगठन किसी को कोई मतलब नही
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तीनों कृषि बिल वापिस लेने के अलावा कोई और विकल्प नही होना चाहिये, 74 वर्षों में किसी ने आज तक कोई वादा पूरा नही किया और इस तरह से लोकतंत्र एक ढोंग और अविश्वसनीय तंत्र बन गया है, खासकरके इस सरकार पर तो बिल्कुल भी भरोसा नही करना चाहिये पिछले 7 वर्षों में इन्होंने लोगों को कितना छला है सब वाकिफ़ है
जो आदमी 8 नवम्बर 2016 के बाद पचास दिनों के इंतज़ार करवाने के बाद भी चौराहे पर नही आया, 15 लाख तो दूर - देश को बेरोजगार कर दिया , हर आदमी को नंगा कर दिया बुरी तरह से - उसका क्या यकीन करना
किसानों लगें रहो, बहिष्कार करो और जब तक ये दोनों सदन की बैठक बुलाकर तीनों कानून रद्द नही करते तब तक डटे रहो
और जनाब राष्ट्रपति साहब क्या हाल है, पेट भरा कि नही दरबार हॉल और बड़े बड़े कमरों में घूमकर कि अभी मुग़ल गार्डन और देखना बाक़ी है , सुना था कि एक रबर स्टाम्प होता हैं - पर देख भी लिया
और जज साहेबान, कब दो चार लल्लूओं को भेज रहें है शाहीन बाग की तरह मध्यस्थता करने , जब किसी की गाड़ी फंसेगी तब लेंगे क्या स्वतः संज्ञान या ₹ 1/- का दंड लगाने के लिए मुर्गा खोज रहें हो
मीडिया के मजे है और नए छोरे छपाटें कैमरा उठाकर कुरेद रहे है, अपनी अपनी सेटिंग्स के साथ अँग्रेजी में पूछ रहें है - गेहूं के पेड़ कहाँ से लेते है, निंदाई गुड़ाई के बाद कितना पानी देते है, बिसलरी का पानी देने से प्रोडक्शन पर कितना फ़र्क पड़ेगा, बोआई के पहले क्या - क्या पेस्टीसाइड जमीन में डालते है, ये मोबाइल कहाँ से लिया जी, गाड़ी का एवरेज क्या है आपकी - What a lovely place to freak out with gf / bf and learn about rustic life ....
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पद्मश्री से लेकर अर्जुन पुरस्कार तक वापिस हो रहें हैं
भक्त जनों पुरस्कार वापसी गैंग को तो बहुत कोस लिया था, अब दही जमा लिया क्या मुँह में या बवासीर हो गई मुँह की एक बार अपने घर में झाँक लेना , बापदादों को पूछ लेना खेती के बारे में
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मार्च से कोविड के कारण दुनियाभर के लोग आशा, उषा, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, स्वास्थ्य कर्मी और शिक्षकों के पीछे पड़े है - उनके लिए सामग्री, क्षमता वृद्धि और प्रशिक्षण को लेकर - वह सच में बेहद चिंताजनक है, इन सॉफ्ट टारगेट्स को भयानक किस्म के ज्ञानियों के गिनीपिग बनाने से बचाना हमारी जिम्मेदारी होना चाहिये - वे बेहतर जानते है कि स्थानीय परिवेश और परिस्थितियों में क्या, क्यों और कैसा किया जाना चाहिये
कोई भी ब्यूरोक्रेसी, मध्य स्तर के प्रशासनिक अमले और सबसे ज़्यादा राजनेताओं और जन प्रतिनिधियों के लिए यह सब नही कर रहा - आवश्यकता इन्हे ज़्यादा है
जबकि ज़मीनी स्तर के लोग ही इस महामारी को रोकने में ज़्यादा असरकारक रहें है और भगवान ना करें अगर वे इन चैनल्स पर आने वाले ज्ञानियों, यूएन के मुफ्तखोरों और फर्जी कंसल्टेंट्स या मीडिया कर्मियों की बात मान लेते तो देश की जनसँख्या अभी तक 30 करोड़ से कम हो जाती
असली जरूरत जन प्रतिनिधियों को है, वरिष्ठ स्तर पर बैठे रणनीतिकारों और ब्यूरोक्रेसी को है - जिनके उजबक नवाचार और फालतू आदेशों की वजह से देश मे ग़फ़लत पैदा हुई - हजारों आदेशों के कचरे को ठुकराना ही श्रेष्ठ था और इसलिये हम सब बच भी पायें है
चैनल्स पर आ रहें ज्ञानियों को दस मिनिट सुन लीजिये तो समझ आएगा कि ये कितने जमीनी है और किस तरह का घटिया अनुभव लेकर बकवास कर रहें है और यूनिसेफ से लेकर बाकी ज्ञानियों को एक सवाल ही दस्त लगवा देता है जमीनी हकीकतों का और बापड़े ओआरएस पीने लगते है
भगवान, अल्लाह जिसका भी वास्ता हो आपको - कम से कम जमीनी कार्यकर्ताओं को अपने आंकड़ों, शोध और ज्ञान से बख़्श दीजिये - हम सबका भला होगा, ये बहस देखें पर मनोरंजन के लिए
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बहुत छोटी जगहों से आये लड़के - लड़कियां थे, पढ़ने लिखने बड़े कस्बों, जिला मुख्यालयों से होते हुए मेट्रो शहरों में पहुँचे थे, बाप के भेजे दो तीन हजार से पूरा नही हुआ खर्चा तो काम सीखा - गीत, संगीत, हुनर और बाकी सब भी जो दो चार रुपया हाथ मे तुरन्त धर दें और इनके छोटे मोटे खर्च निकल आये
जानते सब थे, शहरों की हवा ने दिल दिमाग़ में बहुत कुछ प्रदूषित कर दिया था, पर अपने घेट्टो बनाकर शहरों के मुहल्ले में दड़बे नुमा घरों में एक दूसरे की नज़र में अच्छा बनने और सभ्य बने रहने की मजबूरी थी - इसलिए कभी ना जीवन में नवाचार कर पायें और ना व्याभिचार, बुरी आदतों को फट से आजमाने का मन होते हुए भी कुछ कर पायें , मन मे संस्कार और गांव की सीखें अभी तक मैथी के ताज़े पत्तों की तरह हरी थी - सूरजमुखी झूमता तो था पर सूरज की गति के साथ चलने की हिम्मत नही हुई इनकी
हद से हद कभी देर रात किसी के कमरे पर एक बीयर पी ली या स्टेशन के पानवाले के यहाँ सिगरेट, किसी लड़के से छुपकर बात कर ली या पिज़्ज़ा हट पर बड़ी सी चुनरी मुंह पर ओढ़कर कुछ खा लिया, या मकान मालिक के बाहर होने पर किसी को कमरे पर बुलाकर एक कप चाय पिला दी - बस; पाई पाई जोड़कर प्लॉट लेना, मकान कर लेना, कुछ तबला - पेटी खरीद लेना, बाइक या ऐसे ही कुछ भोग विलास के साधन जैसे ब्रांडेड जीन्स या शर्ट या एकाध नकली ज्वेलरी और लक्मे का मेकअप बॉक्स - जिनका बचपन से ख़्वाब देखते रहें थे, कुछ ने कार ली और कुछ ने शादी कर ली
शहरों में जीवन अनुपस्थित था और ये साल में दो चार बार घर हो आते, गांव से शहर आने वाले को अपनी दुनिया और घर की चकाचौंध दिखाते और यह जताने के पूरे जतन करते कि अब वे सुखी है और बेहद संतुष्ट
पर सच में था क्या ऐसा - ऐसे ही एक दिन एक ब्राह्मण कुल का लड़का अपने घेट्टो से गायब हुआ, जब दो दिन किसी को खबर नही हुई और गांव भी नही पहुंचा तो यह चर्चा का अजेंडा हो गया
फिर खबर मिली कि वह तो ....
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[ क्या यह प्लॉट है किसी कहानी का ? बड़े सालों बाद आज दो चरित्र पकड़ आये है जो चौकातें ही नही बल्कि हमारे सोचने विचारने के प्रयास, प्रक्रिया और विकास के बीच निजी हस्तक्षेप, चुनने की स्वतंत्रता आदि पर सवाल करते है ]
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ढोल, ताशे और बैंड वाले पगला गए है, दस माह घर में रहने का दिमाग़ पर भयंकर किस्म का दुष्परिणाम हुआ है
भगवान इन सबको बचाये और सदबुद्धि दें
जनता तो पागल है ही सड़कों पर बारातों में जिस तरह से नाच रही है, पटाखे फोड़ रही है और झूम रही है उससे लगता है कि एकदम गंवारों के देश में या सोलहवीं सदी में आ गये है हम - एक गरीब मुल्क में धन की इतनी बर्बादी कभी नही देखने को मिलेगी - सड़कों पर निकलकर देखिये जरा, कितने अय्याश है हम सब और क्या नौटँकीबाज है कि नोटबन्दी, जीएसटी, लॉक डाउन , धंधे में नुकसान से लेकर मंदी और ना जाने क्या क्या बकवास करते रहते है - कोरोना का बाप आये या मंदी की सास हम तो बर्बाद करेंगे सबको - खुद तो है ही
और प्रशासन इतना निकम्मा और बहरा कभी नही हुआ होगा

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