कल एक फ़िल्म समीक्षा लिखी थी, तथाकथित बड़े अखबार के पोर्टल पर भेजा तो सम्पादक ने कहा कि यह नही ले सकता क्योंकि यह प्रमोशन है फ़िल्म का, यह मुम्बई से बनता है, दिक्कत हो जाएगी दिल्ली में, इंक्वायरी आ जायेगी कि यह प्रमोट क्यो किया जा रहा है
तो कहाँ जाया जाए, अखबार में जगह खत्म, पत्रिकाओं में जातिवाद, दलितवाद, स्त्रीवाद और सबसे बड़ा अपना वाद है और हंस, तद्भव, वागर्थ से लेकर पहल में सम्पादक रचनाओं पर बैठ जाते है दो - तीन साल तक और यदि आपने पूछ लिया तो तुरन्त जवाब दे देंगे कि रचना उपयोगी नही है
अब बचे निठल्ले पोर्टल, पोर्टल सारा कुछ निशुल्क लेते है क्योकि उन्हें दिनभर पोर्टल का पेट भरना है - जो उसे देख रहा है उसे अपनी नौकरी बचानी है, अपने चहेतों को रुपया देते है जो उनके लग्गू भग्गू है, बाकी को वेल्ला समझकर फ्री में उपकृत करते है और उसमें भी इतने नखरे है कि कहा नही जा सकता, इन लोगों का दिमाग चाचा चौधरी से पचास गुना ज्यादा तेज चलता है और ये सनसनिबाज सम्पादक उर्फ पेज संयोजक या डिजाइनर या डेस्क बाबू और बड़े वाले होते है - इनका कुल जमा समय अपने सम्पादक को रिझाने उसके लिखे कूड़ा करकट और उसकी किसी घटिया मोटिवेशनल किताब जो स्टेशन पर टाइमपास बिकती है - को प्रमोट करने में चला जाता है
देहात, कस्बों या दूरदराज से मुम्बई, कोलकाता, दिल्ली या बनारस, इलाहाबाद जाकर बस गए ये लोग अचानक चिंतक बनकर परम ज्ञानी हो जाते है और फिर अपने को कारपोरेट के शहंशाह समझ लेते है , मोदी हो जाते है "तू इस मशीन का पुर्जा है - मशीन नही", ये आपको छापेंगे नही पर अपने लाइव का इनवाइट भेजेंगे, अपनी किताब खरीदने और प्रमोट करने के लिए दबाव डालेंगे, मिलेंगे तो अपनापा दिखाएंगे पर उन दड़बों में जाकर शेर हो जाने का मुगालता पाल लेंगे - ये भूल जाते है कि कफ़न पहन लेने से कोई शेर नही हो जाता, बहरहाल
अब कवि, लेखक, कहानीकार, आलोचक या पाठक के पास क्या बचा, फेसबुक , अब फेसबुक के अलावा क्या विकल्प और है, कम से कम यहां रिकॉगनिशन तो है - भले ही बहके हुए भले लोग है - निंदा, गाली गलौज करें, धमकाये, रिपोर्ट करें, रूठे मनाएँ एक दूसरे को, पर वायवीय स्नेह की डोर से तो बंधे है - एक दूसरे के लिए मैदान में कूद तो पड़ते है, इस कोरोना काल मे इन्हीं लोगों ने बहुत मदद की है
और क्या नही है यहाँ और कौन नही आत्म मुग्ध - सबकी रचना के पहले ड्राफ्ट यही परोसे जा रहें है, सुशोभित और मंगलेश डबराल की लाइव लड़ाई ने सबका मनोरंजन निशुल्क किया, गुनगुन के बताए नागार्जुन के कुकर्म और किस्से सबने यही सुनें - किसी पत्रिका में देखा क्या, अम्बर पांडे की द्रोपदी और तोताबाला यही जन्मी और यही मरी - सब तो है यहाँ - आलोक धन्वा, मंगलेश डबराल है तो व्योमेश है, पंकज चतुर्वेदी है, अम्बर है तो आशीष मिश्रा है, रवीश कुमार, पुण्य प्रसून, ओम थानवी जी है तो प्रियदर्शन है, अरुण देव है , महेंद्र मिश्रा है, माहेश्वरी घराना एवं समूह है तो सत्यम निरुपम है, राजकमल है , गौरीनाथ है, माया मृग है तो रविन्द्र कुंवर भी, रेडियो के यूनुस है और मनीषा जी भी , प्रशासनिक अधिकारी है , पुलिस सेवा के अफसर है विदेश मंत्रालय के लोग है - मास्टर है तो कबाड़ बेचने वाले है मछली खाने वाले है तो झींगा उत्पादन वाले भी है, फादर्स है , सिस्टर्स है तो मुल्ला मौलवी, पुजारी और निहंग भी है, व्यवसायी है तो कंगाल भी - अर्थात इस मंच पर पद्मश्री से लेकर जलील कर दिए गए बेगैरत लोगों की भरमार है तो फिर क्यों ना इस मंच को ही बेहतर माना जाये जहां त्वरित फीडबैक मिलता है
मुझे याद है सत्यनारायण पटेल जैसा कहानीकार मुझे बुरी तरह कोसता था कि फेसबुक पर बैठे रहते हो और आज वही बिजूका की दुकान चला रहा है, उसकी दोनो तीनो किताबों की मार्केटिंग और तथाकथित प्रसिद्धि फेसबुक से हुई - चाहे वो उसने की हो या देश निर्मोही जी ने कि गांव भीतर गांव बारह लाख बिकवा दूँगा - यानी सारी दुनिया यहाँ माल बेच रही है, सत्तू आज फेसबुक पर दोस्त नही - उसने हटा दिया, क्योकि उसे भी प्रशंसक एवं चाटूकार चाहिये - खरा बोलने वाले नही, और मुझे भी कौंनसा उससे रोटी बेटी का सम्बंध निभाना है, एक देवास के मित्र और है जो हर बात यहाँ चैंपते है फिर सन्दर्भ हो या ना हो, एक कॉपी पेस्ट युवा पत्रकार है जो जेल जाने को बेताब है और भयानक आत्म मुग्ध इतना कि कह नही सकते - पर यह सच हैं कि अपनी किताबे भेजकर लोग यहाँ छा जाना चाहते है, जिनकी क़िताब के बारे ना बोलो या ना लिखों वे नाराज़ हो जाते है - होने दो अपन ठहरे अकेले राम , जब जीवन ही रूठ गया और माँ - बाप की नही सुनी - "तो तू कौन बै - निकल " होगा कोई तुर्रे खान, मेरे को फर्क नही पड़ रहा और तेरी इस दोस्ती से कोई फर्क नही पड़ रहा - ना फायदा - ना नुकसान , चवन्नी का लेनदेन नही है तू विदेश में रहकर फ्रस्ट्रेट बोलता रह घण्टा फर्क नही पड़ रहा - योग्य होते तो यही कमा खा लेते और बड़े देश प्रेमी हो तो आ जाओ ना देश की माटी से दो दो हाथ करने, मेरा एक भाई दो दशकों से दुबई में है मुस्लिमों का खाकर उन्हें ही गाली देता है और भारत मे भड़काऊ शीट परोसता है ऐसे भी फर्जी लोग है - इनसे क्या बहस करनी घटिया और नीच है ये लोग
दुनियाभर की फेलोशिप के हितग्राही यहाँ हर कुछ उंडेल देने को बेताब है - फिर वो फोटो हो, शोध परिणाम या गाइड को गलियाना हो , सभी प्रकार के एनजीओ और अंतरराष्ट्रीय एजेंसी के फर्जी समाजसेवी दिनरात लोगों को ट्रैक करते रहते है - आप एक # लगाकर इनकी संस्था का नाम लिख दीजिये देखिये कैसे पीछे पड़ जायेंगे आपके ये दलाल, एक पोस्ट लिख दो तो पिछवाड़े सूज जाते है, एक हल्का सा कमेंट कर दो या भाषा मे एक यू टर्न ले लो तो लोग टसुए बहाने लगते है - गांधी या मार्क्स या कास्त्रो या गोलवलकर या मोदी या शाह पर तो इनके भक्तों को दस्त लग जाते है
और सबसे महत्वपूर्ण लोकतंत्र में इस सोशल मीडिया से बचा नही जा सकता जबकि चुनाव और परिणाम अब इसी से जीते और हारे जाते है - मेरे सामने कई बच्चे यही बड़े हुए, विधायक बने और आज अपना संजाल बड़ा कर रहें है
और मैं कोई चिंतक टाइप नही हूँ, ना कवि या साहित्यकार - एकदम दो कौड़ी का घटिया आदमी हूँ और जब यह अपने आप से कन्फेस कर लिया तो फिर जीने को और क्या चाहिये और आप है कौन मुझे चरित्र प्रमाणपत्र देने वाले और होंगे तो भी नही चाहिये आप से - मैं ख़ुश हूँ अपने जीवन, परिस्थिति, संपर्कों, रुचियों और जीवन पद्धति से - मुझे सत्यार्थी की तरह भूख नही और नाही कोई पद्मश्री लेना है जो हर समय पोलिटिकली करेक्ट रहूं - है मेरे ऐसे लोगों से रिश्ते जो रीढ़ गिरवी रखकर सब बटोर रहें है फिर वो रंगकर्मी हो, समाजसेवी, फटे गले के गायक वृन्द या सस्ती लोकप्रियता बटोरते रिटायर्ड खब्ती बूढ़े
सबको जै जै, लिखो, पढ़ो,लड़ो - झगड़ो और खूब मजे लो और इतना भी सीरियस मत हो जाओ कि आत्म मुग्ध हो जाओ और हर पोस्ट में दलित, जाति, जेंडर, पूंजीवाद, कम्युनिज्म, भगवा, नीला, हरा, कोविड, स्पेस टेक्नोलॉजी, प्रजनन स्वास्थ्य, गरीबी भुखमरी, प्रशासन, काफ़्का, नीत्शे, रामचन्द्र शुक्ल, विष्णु खरे, जेएनयू, बीएचयू, मगा हिंदी विवि, रज़ा न्यास या सड़ानीरा और दिल दिमाग और गुदा जैसी कविता ही खोजते रहो
मस्त रहो, जीवन किसने देखा है 60 का षष्ठि पूर्ति समारोह होगा या पाँचवी बरसी - यह भूलकर बूंदी के लड्डू और फैलते हुए रायते की कल्पना कर जी लीजिये बाकी तो सब ठीक ही है
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कल रात के चाँद ने कहा कि मेघों की ताकत यह है कि वे सूरज को ढाँक सकते है और यह जानते हुए भी कि बहुत जल्दी ही वे खाली हो जाएंगे, एक तेज़ हवा का झोंका उन्हें उड़ा ले जाएगा पर जब वे बरसते है तो अपने मन मयूर को खोल देते हैं और झूम कर नाचते हुए धरती के कोने कोने को भीगो देते हैं और अंत सूरज दुबक कर छुप ही जाता है
जीवन में एक बार भी मेघ बन जाएं , एक जुगनू को लुप्त कर दें क्षणिक भर भी तो शायद जीतने के स्वप्न फिर आँखों मे सजाने की हिम्मत आ जायेगी - हवाओं का डर ना हो, रिक्त हो जाएं पूरे मनोभाव से तो शायद कही अंदर से पूरा हो पाएं - यह आधा अधूरापन अब जीने नही दे रहा कही भी
[ तटस्थ ]
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छद्म युद्ध मे उतरे युवाओं की नौकरी और छोकरी के लिए ललकार
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हिंदी कविता बिहार, उप्र और दिल्ली के जनपदों तक सीमित है और बाकी सब या तो मूर्ख है एक पिछलग्गू या कॉपी पेस्ट उस्ताद - यह इतिहास की बात भी है और पिछले लगभग 38 वर्षों से पढ़ी कविता और आलोचना के बरक्स की जा रही मेरी गम्भीर टिप्पणी भी ; दूसरे प्रदेशों में संस्कृति केंद्रों और साहित्यिक मठों के झंडाबरदार भी इन्हीं जगहों से आते है - इसलिए इन जनपदों का दबदबा पूरे कविता के फलक पर स्पष्ट दिखाई देता है और इस स्थापना को स्थापित किया गया है जिसमे सबकी मौन स्वीकृति है
जाहिर है आलोचना के पक्ष पर तथाकथित स्वयम्भू आलोचक और रगड़ रगड़ कर अलादीन का चिराग बन रहे इन युवा तुर्कों के निशाने यही से आएंगे, वे यही की बात करेंगे, यही को पूजेंगे और कोसने के बहाने अपनी गोटी सेट करेंगे और पूछ परख भी इन्हीं लोगों की करके स्वयम्भू महान बनेंगे - छोकरी का रास्ता नौकरी से जाता है और नौकरी का इन दिनों फेसबुक से
महाराष्ट्र में मगा हिंदी विवि की भीड़ में या देश के चुनिंदा विवि के हिंदी विभागों की भीड़ को देखिये - वर्धा में ही महाराष्ट्र, मप्र, आसाम, नार्थ ईस्ट, जम्मू या कुछ अन्य राज्य देख लीजिए, अन्य राज्यों की तुलना में इन तीन जनपदों के लोगों को देख लो - देश भर के विवि में और महाविद्यालयो से लेकर केंद्रीय या नवोदय में मास्टरों का % देख लो और ये सब तभी सधेगा और नौकरी पाएंगे - जब आप इन्हीं तीन जनपदों के गुण गान गाकर चुके हुए, जंग लगे कवियों की विरुदावली गायेंगे - आप यहाँ से नही तो आप खारिज है भले ही वो कोई तुर्रे खान हो; यह कहते हुए दुखी हूं कि हिंदी का सबसे ज्यादा नुकसान देश के तथाकथित संकर नस्ल के हिंदी विभागों ने नही बल्कि मगा विवि वर्धा ने किया
सोशल मीडिया पर चल रही एक बहस पर त्वरित टिप्पणी - कृपया यहाँ ज्ञान ना दें - ना मैं कवि हूँ , न आलोचक, ना हिंदी मेरा विषय है और ना ही कोई नौकरी करनी है किसी कुपढ़, अपढ़ सम्पादक या चुके हुए कवि की चिरौरी करके, ना किताब बेचना है और ना बेस्ट सेलर की अंधी दौड़ में हूँ और ना ही किसी गुट में - पर कॉमन सेंस ये जरूर जानता हूँ कि जब भी कोई युवा एकदम से " हाइपर होकर " दलित विमर्श, सवर्ण, जेंडर या सौंदर्यबोध और कविता - कहानी की आलोचना या समालोचना के लिए बेहद आक्रामक शैली में उतरकर वार करना आरंभ करता है - फेसबुक से लेकर हर तरह की "सेटिंग वाली पत्रिकाओं में" उसके ठीक एक डेढ़ माह बाद उसकी नौकरी लग जाती है - पक्की वाली और फिर वह मुर्दा बन जाता है
नौकरी लगने के बाद इनकी बकलोली सुनकर आत्महत्या ना कर लें तो कहना, ये सब हो जाते है जाति विशेषज्ञ से लेकर दुनिया के स्पेस साईन्टीस्ट भी और फिर तो बागों में बहार है ही
एक हिंदी प्रेमी और साहित्य में रुझान होने के नाते यह एक पाठकीय टिप्पणी है
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सुबह से नया कुर्ता पाजामा पहनकर कवि बैठा था - आज गुरुपौर्णिमा जो थी
दो लड़को को आता देख कवि दीवान पर पालथी मारकर बैठ गया - उम्मीद थी कि दोनो प्रणिपात प्रणाम करेंगे
पर लड़के ढीठ थे, खड़े रहें और बेशर्मी से बोले - "कही पहचान हो तो कविता ही छपवा दो या शोध कर रहें हैं किसी यूजीसी वाली पत्रिका में छपवाने के लिए पांच हजार ही दे दो हमें" - करते क्या हो कवि सम्मेलन से मिलें रुपयों का
"तो मतलब तुम लोग उसके लिए नही आये"
नही बै, इधर से निकल रहे थे, तो सोचा देख लें कोरोना में निपटे तो नही - यह कहकर दोनों हंस दिए जोर से
बाइक स्टार्ट होने की आवाज़ कर्कश थी - कवि निराश था
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भिड़ू पानी गिरने वाला है
ऐ ...
हवो, भोत दिक्कत हो जायेगी, बिजली बंद कर देता हूँ
अबे फोन भी बंद कर , उठाकर रख दें, जनता माथा खा जायेगी
चल दोनो बंद कर, पोया खाने चलते है अपन दोनो
कोई अधिकारी को मालम पड़ा तो
क्या कल्ल लेगा, के देंगे अग्गे से गई हेगी
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( बिजली विभाग देवास - जनता की सेवा में सदैव तत्पर )
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कल गुरुपौर्णिमा है, गुरुओं के छर्रे ज़ूम से लेकर गूगल मीट पर दर्शन के मुंगेरी ख्वाब दिखा रहें है
T&C Applied की तरह गुरुजी के बैंक डिटेल्स भी झाँक रहें है विज्ञापन में
धँधा है पर गन्दा है और धँधा गन्दा होता नही
फर्जी गुरुओं राशन हो गया खत्म क्या ?
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे जब कोरोना काल मे बंद थे और भगवान तक क्वारेन्टीन में रहें तो इन गुरुओं के छद्म खेल क्या समझ नही आ रहें
यहाँ गुरु से आशय धार्मिक पाखंडी गुरुओं से है जो तमाम चोंचले करके जनता को मूर्ख बनाते है - भैय्यू महाराज याद है ना जो आत्महत्या कर मरा पिछले बरस - देश दुनिया तमाम ऐसे पाखंडियों से भरी पड़ी है और कमाल यह है कि पढ़ें लिखें लोग इनके चक्कर मे फंसे है
खूब गुरुओं के देखा और समझा - मतलब हद ये कि कबीर, बुद्ध से लेकर वशिष्ठ तक के नाम पर लोग पूजा पाठ का ढोंग करके दान दक्षिणा, कपड़े लत्ते और सूखा अन्न लूट लेते है - इन पर तो मुकदमे दर्ज होना चाहिये जो अंधविश्वास फैलाकर जनता को मूर्ख बनाते है
एक बात सोचिए क्या आपके गुरु इतने महान है कि रोटी नही खाते या उन्हें पसीना नही आता या संडास बाथरूम जाना बंद हो गया है और इंसान से भगवान बन गए है - आप जैसा ही हाड़ मांस का साधारण इंसान है तो क्यों पाँव पड़ रहे उसके और लूटा रहें हो अपनी मेहनत का धन
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गुरु गोविंद दोई खड़े
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1- जहाँ न पहुँचे रवि
वहाँ पहुँचे कवि
2- मीडिया चौथा स्तम्भ है
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इन दो मूर्खता पूर्ण अतिश्योक्तियों ने कवियों को और पत्रकारों को इतना खोखला कर दिया है कि उन्हें लगता है वे हर बात जानते हैं, सर्वज्ञ है और उनसे ज्यादा गुणी और ज्ञानी कोई नही है - मतलब वे राजनीति से लेकर अर्थ, सामाजिक, भूगोल, दर्शन, मनोविज्ञान, चिकित्सा शास्त्र, अभियांत्रिकी, खगोल, नृतत्त्व शास्त्र, लोक प्रशासन, गुप्तरोग, कानून, फ़िल्म तकनीक तक सब जानते है और हर विषय पर कविता से लेकर तमाम तरह की बकवास पेल देंगे और यदि आप पढ़े तो अंत में सिवाय हाथ मलने के कुछ नही होगा
सोशल मीडिया ने इस ट्रेंड को बढ़ाने में बहुत बड़ा रोल अदा किया और हमें कोरोना का शुक्रगुजार होना चाहिये कि लॉक डाउन की अवधि में इन दोनों के असली चेहरे सामने आए है - इन्हें थोड़ा ध्यान से पढ़ेंगे तो आप पायेंगे कि कॉपी पेस्ट, सन्दर्भ, किताबों से चोरी किया माल और पुरातन की ही नकल है जिसे आंग्ल साहित्य में Theory of Imitation की लम्बी बहस के बरक्स देखा जा सकता है
यह दुर्भाग्य है कि हम चमत्कारिक भाषा, चित्र जो 99.999999 % स्वयं के होते है - भयानक आत्म मुग्धता भरें, से प्रभावित होकर मोहित हो जाते है पर थोड़ा सोचने विचारने पर इनकी गन्द सामने दिखने लगती है, अभी दो पोस्ट पढ़ी दो युवाओं की - जो स्वयंसिद्ध बनकर सबको निपटाने के चक्कर में हैं
परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना है कि इन श्लाघा पुरुषों को ( Using as Common Gender ) सदबुद्धि दें - अगर परमपिता कही है तो, कल इन सबके भक्त इनके हत्थे चढ़े और इनको सबको जमकर धुन दें, गुरुपौर्णिमा पर इनके मुगालते दूर कर इन्हें बकलोली करने से रोकें और शिष्य एवं भक्तगण जब मठों से निकले तो बकौल मुक्तिबोध इनके गढ़ और मठ तोड़कर निकले
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अपराधी अपराधी है उसमें जाति सम्प्रदाय का कोण खोजना मूर्खता के अलावा कुछ नही और
आपको लगता है कि ये सब जरूरी है तो न्याय के समक्ष समता को पढ़ लीजिये या संविधान
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