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अधेड़ प्रेम की दिलचस्प दास्तान - "वन्स अगेन"


शेफाली शाह और नीरज काबी दो अधेड़ लोग है, शेफाली के दो जवान बच्चे है और नीरज की एक बेटी - शेफाली के पति के बारे में कोई सूचना नही है, वो एक रेस्टारेंट चलाकर बच्चों को बड़ा करती है और एक फोन कॉल उसकी जिंदगी बदल देता है, अभिनेता नीरज के लिए खाना भेजते हुए वह उसके जीवन का प्रेम बन जाती है पता नही चलता, सार्वजनिक जीवन मे इनके प्रेम के चर्चे होने लगते है, जवान बच्चे कोसते है पर थोड़े समय ठहरकर ये फिर प्रेम में संलग्न हो जाते है
चालीस के बाद कि एकल स्त्री और प्रेम से ज्यादा वासना की चाहत में दर - दर भटकता पुरुष किसी भी दर पर जाने को तैयार है, उसके लिए कोई परहेज नही, हर प्रकार की स्त्री से प्रेम के लिए बेकरार है जिसका अंत उसके बंगले के बेडरूम में हो - वो कहता है " सबसे छोटी उम्र न्यूज की होती है, इसलिए जो खबरें फैल रही है, फैलने दो - हमें क्या, हम तो प्यार करते रहेंगे"
ये कहानी समाज की है और थोड़ा श्रम करने पर इस तरह के एक नही हजारों केस मिल जाएंगे, फ़िल्म के बाद मेरे लिए जो सवाल अनुत्तरित रहते है वे परेशान करने वाले है क्योकि इन सवालों से मनुष्य सदियों से जूझ रहा है
1 - जवान बच्चों के सामने माँ का एक पर-पुरुष से बेशर्मी के साथ प्यार करना जायज है क्या
2 - दो जवान बच्चों की माँ का एक पर-पुरुष के घर जाकर या अपने घर बुलाकर रास लीला रचाना जुर्म है क्या
3 - कुंठित समाज में जहां स्त्री वो भी एकल स्त्री की इस तरह की हरकतों, प्यार और समुद्र किनारे, होटलों में घूमना जायज है क्या
[ मेरे जवाब है - हाँ क्योकि उसे एक सामान्य जीवन चाहिए , कब तक वो अकेले जूझती रहेगी और क्यों ]
4 - पद, पैसे और प्रतिष्ठा के नाम पर एक परिपक्व पुरुष को इस तरह की वर्जनाएं तोड़ना शोभा देता है क्या
5 - संगी साथियों, कलाकारों की महफिलों में स्त्री को खाना बनाने वाली कहना और फिर उसका दैहिक, भावनात्मक शोषण कर पुनः प्यार जताने का उपक्रम कर हर दम सम्बंध बनाने की मांग करना जायज है क्या
6 - नीरज की खुद बड़ी बेटी है पर उसका हर स्त्री को एक भोग्या के रूप में देखना और अपनाने की चाहत रखना जुर्म है क्या
7 - बच्चों का अपने अभिभावकों की इस भावनात्मक कमजोरी को कोसना जुर्म है क्या
[ मेरे जवाब यहाँ ढुलमुल है - मैं कन्फेस करता हूँ कि मैं अपनी स्थापनाओं में यहाँ स्पष्ट नही क्योकि नारीवाद की तो ट्रेनिंग हमे ज्ञानीजन पग - पग पर दे देते है , पर पुरुष प्रधान समाज का वास्तविक अर्थ और उसका implication क्या है वह स्पष्ट नही है पर मर्दों को गाली देना निश्चित ही पुरुष प्रधानता नही है ]
सवाल कई है, कोई तयशुदा जवाब नही है - क्योंकि कंवल सेठी जैसे मंजे हुए निर्देशक ने कोई जवाब नही दिए है और वे हर शॉट पर सवाल दृश्यों और शास्त्रीय संगीत की आड़ में दर्शकों पर और उनके विवेक पर छोड़ते है - ताकि बजाय वे खुद जजमेंटल होकर कोई जवाब ना दें, बल्कि लोगों को अपने आसपास के परिवेश और समाज के इन जीवंत चरित्रों को देख समझकर और उनके साथ "वास्तविक जीवन मे हो रहें ट्रीटमेंट" को समझकर निर्णय लेने दें
मेरे लिए भी ये सिर्फ एकल स्त्री - पुरुष के मुद्दे, सेक्स या वासना के संजाल नही, युवा पीढ़ी के स्वप्न, उनकी ब्याह-शादी की बात नही, न्यूज़ आईटम या टीवी पर चल रही सनसनी की क्लीप्स नही - बल्कि जिम्मेदारी पूर्वक किये गए अवलोकन और एहसास है जहां एकल स्त्री अंत में बुरी तरह ठगी ही जाती है और पुरुष चार, पांच स्त्रियों के बाद भी छठी या सातवीं स्त्री की ओर उन्मुख होता है - यहाँ मंटो की कहानी याद आती है जहां एक व्यवसायी अपने घर के किसी निजी उत्सव में अपनी रखैल और कोठे वाली को बुलाता है और उसकी पत्नी उसे जब बख्शीश देती है तो कोठेवाली सबके सामने उसे नीचा दिखाने को कहती है कि " रहने दे तेरा ही मर्द तो मुझे रोज देता है " पर इसकी पत्नी भी तेज होती है वह नहले पे दहला मारते हुए कहती है "रोज तो उससे लेती है - आज घर की मालकिन से भी रख लें - तू भी क्या याद रखेगी कि किसी दिलदार से पाला पड़ा था " यहाँ पत्नी होने की ठसक को मंटो दिखाना चाहते है, कहने का अर्थ यह है कि पत्नी का स्थान कोई नही ले सकता - कम से कम भारतीय समाज में - मर्द चाहे एक छोड़ दस के पीछे पड़ा रहें अंत में वह लौटता पत्नी के पास ही है तमाम प्यार और समर्पण के बाद भी प्रेयसी को कानूनी अधिकार नही है
बहरहाल, मैं कोई निर्णय नही दे रहा पर मुझे लगता है कि सबका अपना जीवन है, मेरे रिश्ते नातों में, परिचितों में वैधव्य झेल रहें पुरुषों ने 60 के बाद शादियां की, प्रेम किया घर में पत्नी के रहते हुए, ऐसी स्त्रियों को भी जानता हूँ जिनकी सारी उम्र ऐसे तथाकथित प्यार और समर्पण में गुजर गई और अंत में वे सिर्फ ठगी ही गई और आज संसार मे वे बेहद अकेली है, बगैर शादी किये और धूर्त पुरुष के साथ रहकर थोपा हुआ "कृत्रिम वैधव्य" झेलना कितना भारी होता है - उन्हें देखकर समझा जा सकता है और उनका जीवन खौफ़नाक है इतना कि धूल के एक कण का बोझ वे अब नही सह सकती
यह फ़िल्म जरूर देखी जाना चाहिये - कम से कम उन लोगों के लिए जरूरी है - जो समाज को समझना - बूझना चाहते है या जतन कर रहें हैं कि स्त्री - पुरुष के संबंधों को, विवाह नामक संस्था को, परिवार के साथ - साथ समाज की सभी संस्थाओं, परंपराओं और रीति रिवाजों को टटोला जाएं और पुनर्मूल्यांकन किया जाए - यकीन मानिए - एकल स्त्री फिर भी अंत में ठगा ही महसूस करेगी और पुरुष कही भी मुंह मारता ही नजर आएगा
उत्कृष्ट अभिनय, सधा हुआ निर्देशन, ठुमरी के आलाप और मुम्बईया जीवन की रसभरी है यह फ़िल्म और मेरा तो मन चाहेगा कि इसे बार बार देखूँ क्योंकि अंत अंत है जाल से बचता नही कोई और हम सबको फंसकर क्रंदन करने में ही मजा आता है

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