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एक दीवार है जो गाढ़ी नीली रँगी है जब कमरा बना था तो इस पिछली दीवार को गाढ़ा नीला रंग लगाया था, ठीक पिछले पड़ोसी की दीवार से लगकर इसे कांक्रीट की छत पर उठाया था जो अब इस कमरे की जमीन बन गई है
तीन हल्के नीले रंगों के बीच गाढ़े रँगीले नीले रंग पर एक छोटा सा बल्ब भी टांग रखा है वो भी गहरा नीला है सिर्फ उजाले से ही नही बल्कि अपने होने से भी - बहुत पहले , शायद बरसो कोई एक नीला शर्ट हुआ करता था, एक कॉपी जिसका कव्हर नीला था और थोड़ा बड़ा हुआ तो स्कूल का पेंट भी नीला फिर कूची पकड़ी तो सफेद केनवास पर दो पेड़, एक नदी, एक झोपड़ी और नीले आसमान में उगते सूरज और पक्षियों को बनाते हुए नीले रंग की शीशी बहुत भाती थी, वो कभी ढुल भी जाती तो लाल पत्थर को नीला कर देती
इस नीले रंग को अपने भीतर की नसों में भी पाता हूँ, आठवी में धमनी शिरा में अंतर करते हुए अपने हाथ की चमड़ी के भीतर अशुद्ध रक्त को बहा कर ले जाती शिरा को देखता - फूली हुई सी , कभी बीमार पड़ता तो डाक्टर के पास जाने पर वह बाये हाथ की नब्ज़ पकड़ता और पंजे से कोहनी तक के सपाट हिस्सों पर नीली नसें फुल जाती और उनका नीलापन उभर आता
यह अशुद्ध नीला रंग कब मेरे दिल दिमाग़ में समा गया नही मालूम पर फिर नील, नीला आसमान, नीला फूल, नीलाभ, नीला समन्दर, नीली नदियाँ, नीली आँखों वाली लड़कियां और हर कुछ जो नीला था क़ायनात में सब अपना हो गया , एक बार किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, फूलों का , गिलहरी या चींटी का तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया - नीला
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हम सब अपने एकांत में बेहद क्रूर और दुराचारी होते है और भीड़ में बेहद डरपोक और शिष्ट, याद आता है कि कैसे एक शांत नदी अपने उदभव से निकलती है तो छोटी सी लकीर होती है पर ज्यों ज्यों पहाड़, कंदराओं से गुजरती है तो उच्छृंखल और बेख़ौफ़ होते जाती है क्योंकि वह अपने उदभव को और जड़ो को छोड़ चुकी है और अब मस्त होकर वह सब कुछ हासिल कर लेना चाहती है, आसमान भी नीला दिखता है पर जब इसी आसमान को भेदकर कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ आसमान के भीतर पहुंच जाता है तो सफ़ेदी से भरे रुई के लच्छे यहाँ वहाँ ठहरे दिखाई देते है मानो किसी ने उन्हें सजाकर रख दिया हो या कोई अनंतिम सज़ा दी हो प्रेम करने की
अपने कमरे की इस नीलिमा से कभी मुक्त नही होता हूँ , मुझे नीले परिवेश में डूब जाना इतना भाता है कि मैं कभी कभी सारे दिन दीवार से टिककर खड़ा रहता हूँ, रात में गाढ़े नीले रँग में डूबे अंधकार में अपने दोनो पाँव दीवार से सटा देता हूँ कि वह नीली रोशनी पाँवों को भेदकर मेरे भीतर समाहित हो जाये और अपने शरीर के ऊपर से त्वचा में धंसी हुई नसों में बहता अशुध्द रक्त अंदर संजाल के रूप में बिछी हुई धमनियों में भी समा जाएं और जब धमनी शिरा का रक्त अपने पूरे स्वरूप में नीला हो जाएगा तो फिर भीतर की दीवारें भरभराकर टूट पड़ेंगी
कोई मिलता है तो पहचान नही पाता, यह उम्र का असर हो या चेहरे पर आई समय की झारियाँ या हो सकता है चांदनी के फूल अब कही और खिलें हो मोगरे की झाड़ी में पर एकाएक लोग कहते है कैसे हो गए, बदल गए तो मैं हंस देता हूँ और हंसते समय लगता है एक जहर से पूरा शरीर नीला पड़ रहा है और पतली सी जुबान निकालकर अभी सामने वाले को डस ही लूँगा - पीछे हट जाता हूँ बहुधा और चुप भी हो जाता हूँ - एक अदृश्य दीवार उठा लेता हूँ जिसकी अब आदत हो गई है मुझे ..
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इसी गाढ़ी
नीली दीवार के पीछे लटका है माघ के शुक्ल पक्ष का चांद जो पूनम से होते हुए आज चौथ
पर एक चौथाई कम हो गया है और बस यही, हाँ यही चांद मुझे पसंद है - पूनम का बड़ा सा खिला
खिला दूधिया रोशनी में नहाता चांद मुझे पसंद नही है जिसे सारी दुनिया देखती है -
आज के चांद को देखने वही लोग देर तक जागते है जो उपवास करते है, हिम्मत
से भूखे रहकर बाट जोहते रहते है कि कब आसमान में चौथ का उदय होगा और चांद निकलेगा
यह
उदासी और संताप के बीच हल्की सी खुशियाँ बटोरता - बिखेरता चांद है जो अपनी कलियां
बिखेरते हुए आहिस्ता आहिस्ता कम होता जाएगा , इसमें वो प्रचंड आशावाद नही कि अब कभी अमावस की ओर
प्रस्थान नही करूँगा - सारी रात मैं निहारता हूँ और सोचता हूँ कि काश चांद की आभा
भी नीली होती सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता
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दूर
कही एक वीरान घर में एक बूढ़ा हारमोनियम बजा रहा है जिसकी पत्नी अभी अभी बहरी हुई
है और उसके बच्चे घर से लड़कर निकल गए है - वो सारी उम्र एक चादर में अपनी पुश्तैनी
हारमोनियम को बांधे रहा और किराए के मकान दर मकान में भटकता रहा - अपनी आत्मा को
ज्यों शरीर की गठरी में दबा रखा था यमदूतों से बचाकर ठीक उसी तरह इस हारमोनियम को
एक मैली चादर में बांधकर समेटे रहा सारी उम्र, इस
उम्मीद में कि कभी उसकी अपनी छत होगी - पक्की दीवारों के घर, एक आंगन वाला घर जिसके बाहर पीपल , नीम , सुबबूल और गुलमोहर के पेड़ होंगे - मोगरे और मधुमालती
के साथ रात रानी महकेगी और वह एक टाट बिछाकर मालकौंस गायेगा और धीरे धीरे भैरवी पर
आकर उसकी सांसें धौंकनी की तरह चलने लगेगी और भोर के शुक्र तारे को देखकर वह एक
पतली सी गोदड़ी ओढ़कर सो जाएगा
हारमोनियम
जीवन में काली चार से आगे गया ही नही, बहुत
सुर साधे, खूब हवा भरी इतनी कि उसके फेफड़े शुष्क हो गए, कभी पानी भर गया , कभी बलगम निकलता रहा और कभी इन्हीं फेफड़ों को जिंदा
रखने के लिए दिल दिमाग़ को गिरवी रखना पड़ा और फिर भी हारमोनियम के काले सफ़ेद बटनों
के पीछे दबे तारों को साध नही पाया , एक सुर है, एक
चांद और गाढ़े नीले रँग में डूबी दीवार जैसे मरघट के चारो ओर ये बिम्ब उसके लिए ही
खड़े किए गए है अभेद्य किलों की तरह
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अचानक कभी आमेर का किला दिखता है, कभी कुशलगढ़ कभी गोलकुंडा या कभी खम्मम में बना
चालुक्य वंश का लम्बा किला या मैसूर के किले पर बैठे हुए कबूतर जो हमेशा अनिष्ट
होने की घोषणा करते है, समुद्र किनारे उसे किलों के ध्वंसात्मक स्वरूप दिखते
है, नेमावर में नर्मदा के बीचोबीच बना वो किला याद आता
है जहां सूखी घास है चारो ओर पानी होने पर भी आग लग जाती है या काजीरंगा के जँगलों
के बीच टूटा हुआ वो बड़ा सा मकान याद आता है जहां बरसो से कोई नही रहता और अब वहाँ
जाना भी खतरे से खाली नही, मण्डला में गौंड राजाओं के किले में चमगादड़ों से भरा
हाल याद आता है तो उसकी बदबू से विचलित हो जाता है और उनकी आवाजें उसे सोने नही
देती
कितना
घूमा हूँ मैं अब कोई कह दें कि एक बार फिर चले जाओ एक जीवन और देते है तो हिम्मत
ना हो शायद क्योकि इस गाढ़े नीले रँग की दीवार से नीला इश्क हो गया है
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उजालों
में अंधेरे देखने का आदि था वो, जब दुनिया जागती उसे लगता कि अब सूरज ढला है, रातभर
नदी के बहते पानी में पांव डालकर बैठे रहना और फिर उसे याद आता अपना कमरा और वह
नीली दीवार - गाढ़े नीले रंग में पुती हुई एक दीवार जो तीसरे माले पर बनी थी - कमरे
के ठीक पीछे अपनी नीलाई की रोशनी में पूरी ताकत के साथ ज़िंदा थी
नदी का
पानी धरती के इस भू भाग पर अविचल बह रहा है - निर्बाध और उद्दाम वेग से - वह अदभुत
है , पानी
में घुटने के नीचे से पांव के पंजे तेज़ बहाव में दो चार मीटर बह जाते लगता कि शरीर
का ऊपरी हिस्सा स्थूल और स्थिर ना होता तो पानी के साथ पता नही कहाँ से कहाँ पहुंच
जाता वह
अंतरमन
की गहराईयों में जब भी ध्यान लगाकर बैठता तो उसे सबकुछ अर्थहीन सा लगता और फिर उसे
अपने भीतर एक अनहद नाद सुनाई देता - अपने को सही समझने और बाकी सबको ख़ारिज करने
में जीवन का लगभग सारा हिस्सा चला गया और अब जब इस नदी के बहते स्वच्छ कल - कल जल
को देख रहा है - जो कीच के संग जंगली लकड़ियों के बड़े डूंड से लेकर नाजूक नरम
पत्तियां और असंख्य जीव लेकर बहता है, फिर
भी उसकी पावन पारदर्शिता, पवित्रता और निर्मलता कम नही होती - हम जीवन में भी
ऐसे ही झंझावतों से गुजरते है - असंख्य स्मृतियाँ, लोग, सुख - दुख के तिलिस्म और चर चराचर जगत के दृष्टांत
लेकर, पर हर जगह हर किसी से चिपके रहते है, निर्मोही नही हो पाते शायद इसलिए कि हम इन सबसे सुख
या दुख का गहरा नाता जोड़ लेते है - निस्पृह नही हो पाते कभी
यह पानी
उस कमरे की गाढ़ी दीवार को क्यों नही रौंद देता जो चट्टान की तरह अडिग खड़ी है - यह
सिर्फ प्रश्न नही एक कोलाहल है जो बेचैन करता है मुझे और मैं तय करता हूँ कि अपने
अवशेषों में जीवाश्म बनकर जीना चाहता हूँ अब और लगता है कि जब अर्थ, उद्देश्य और विभीषिकाएँ खत्म हो गई है, जीवन से वसन्त की विदाई हो रही हो तो पतझड़ का आगमन
प्रफुल्लित करता है; इधर धूप फिर सुनहरी से तीखी होने लगी है, नीली गाढ़ी दीवार से पचास कदम पर जर्जर हो रहा
गुलमोहर रोज़ क्षितिज निहारता है और सुबह - शाम दर्जनों चिड़ियाएँ चहकती रहती है पर
पत्ते झरने से शाखें सूखी और सूनी हो गई है
इस नदी
के प्रवाह को उस गुलमोहर की जड़ों में प्रवाहित कर धारा को मोड़ना चाहता हूँ, पर अब ना चिड़ियाओं का रंग याद आ रहा है और उनके नाम
- अपने होने की निरर्थकता के मायने भी अब स्पष्ट होने लगे है , एकाकीपन इतना एकाकी हो जाएगा कि खुद पूरा खाली हो
जाऊंगा - यह अकल्पनीय तो नही था, पर
उन्नीसवें सावन के निर्णय का प्रतिसाद एक ठीकठाक से मकाम पर इस तरह से विलोपित
करना आरम्भ करेगा - यह सोचा नही था सम्भवतः कल्पनातीत रहा होगा
और इस
सबमें प्यार - नीले गाढ़े रंग को कभी फिर से देखना - खून से ज़्यादा सुर्ख और खतरनाक
लगता है - अभी शेष हूँ तब तक नीलाई में डूबा रहूँगा
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पूरा
जीवन राय बनाने में, विचारों
को संश्लित करने में, सघन
अनुभूतियों की जमीन को उर्वरा बनाने में ही निकलता नज़र आ रहा है - यह प्रक्रिया उस
एकांत से बार - बार गुजरी जिसने एक बड़ी समझ बनाने में मदद की पर जब भी कही कुछ
दिखा, लगा
और भीतर से महसूस किया तो तन मन शीतल ना हो पाया - एक अगन में , ज्वर में
भावनाएं उफनती रही और अपनी समझ से कुछ कह दिया
यह कहने
में दिल - दिमाग में कुछ भला ही रहा होगा पर विचार जब शब्दों से होते भाषा के बहाने
प्रकट हुए तो अपने अर्थ और गुणवत्ता खो बैठे और फिर तमगे लगते रहें मानों सलीब पर
टँगे शरीर पर जो आया वो एक कील ठोंककर चला गया, ये
कीलें इतनी ज्यादा थी कि आत्मा के भीतर तक किरचियो की तरह चुभती रही - इस सबसे जो
सबसे ज्यादा उभरा था वह था असंतोष, नैराश्य
और संताप
लगातार
गूँथने और मथने से अंदर ही अंदर जुगुप्सा, ईर्ष्या
और द्वैष ने जन्म लिया जिसकी परिणीति यह हुई कि हाड़ मांस के भीतर महत्वकांक्षाएं
जागने लगी अपने भीषणतम स्वरूप में और सफ़र की मंजिलें दुश्वार होती गई, इतनी कि एक पल लगा कि जगत मिथ्या ही सर्वोच्च सत्य
है और इसी को पा लेना जीवन का प्रारब्ध है - एक हतोत्साहित व्यक्तित्व का हश्र इस
कदर बौना साबित होगा - यह अंदाज़ नही था
इस सबमें
नीले रंग के नीचे बहुत सुकून मिला, नीले
आकाश से नदी तक, नदी से समुंदर तक और शाम के समय गाढ़े नीले रंग में
बदलती शाम ने जब भी आसमान के एक कोने से दीवार उठाना शुरू की तब कही जाकर एक हंस
अकेला दिखा , यम
के दूतों ने पुकारा और लगा कि जो धर्मी धर्मी थे वो पार हो गए और पापी चकनाचूर -
यही से कबीर घर कर गए और बुल्ले शाह याद आये जो अपने दरवेश से - अपने खुदा से
मिलने जा रहे थे तो घाघरा पहनकर चले गए और बोले मौलाना - तू मेरे बीच ना आ; वो कहते है " इस घट अंतर बाग बगीचे इसी में
पालन हार ", फिर वो बुल्ले शाह हो, गोरखनाथ, मछंदर या कबीर हो - सबने यही कहा और समझा भी यही कि
बाहर कुछ नही सब अंदर है - मूरत भी, सीरत
भी और सूरत भी - और इसी को अब पलटना है - मुड़ना है जैसे मुड़ जाते हैं घुटने पेट की
तरफ; दूसरों की ओर देखने के बजाय अपने अंतस में झाँके, उंगलियां अपने भीतर डालकर खंगालें और देखें कि ज्ञान
की जड़िया कहां है - सद्गुरु तो हर कोई है - सबमें सब है परम अंश भी और परमार्थ भी
पर अब एक बार भीतर झाँकने की बेला है ये
गुरु भी
छूटेगा और छोड़ना ही पड़ेगा - यह जतन से भरी जोत है इसे प्रज्ज्वलित रखने को भीतर से
जलना होगा, इतना कि अपने भीतर का कोलाहल शांत हो जाये - अनहद
नाद भी सुप्त हो जाये इतनी बेचैनी हो उस विशाल शांति को पाने की और तमस जो भीतर
बाहर पसरा है वह गाढ़े नीले रंग में बदल जाये तभी मुक्ति सम्भव है - मत कर अभिमान
सिर्फ गाने से या कहने से नही चलेगा - इसके लिए खपना होगा - सबके बीच रहकर
जिन
जोड़ी तिन तोड़ी ...... रास्ते कही नही जाते उन्हें अपने मन के चक्षुओं से मोड़ना
पड़ता है और जब मुड़ गए तो सब सध गया ....
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कहानियाँ
रास्तों में बिखरी पड़ी थी,
कविताएँ पेड़ों पर लदी रहती थी, धूल के हर कण में चलते फिरते चरित्र नज़र आते थे
और लगता कि रचना बहुत सरल है और इसी राह पर चलते चलते वह एक दिन इतना विपुल रच
देगा कि शायद संसार में किसी को पढ़ना सम्भव ही नही हो पायेगा, पहले का रचा बुना गया सब व्यर्थ हो जाएगा
वो
उन अभिन्न पलों का साक्षी रहा है जो जीवन ने उसे भरपूर मात्रा में दिए कि वह
सहेजते हुए ही उम्र के उस पड़ाव पर आ गया कि सब कुछ विरल हो गया मानो - इस यात्रा
में उसे इतना मिला कि उसकी झोली भरते भरते
खाली हो गया एकदम विरक्त और विलोपित
हर जगह
जो मिला,
जैसा मिला वह सम्मोहित हुआ, एक महीन तंतु से उसने नेह का तागा हरेक से जोड़ा, स्मृतियों के लम्बी कतार में जब पलटकर देखता है तो
सन सत्तर से दो हजार बीस तक की लम्बी श्रृंखला में कीड़े मकोड़े सी लम्बी कतार है और
वह हरेक के पास जाता है मिलता है और आगे बढ़ जाता है - यहाँ उसने अपनी यात्रा आज से
शुरू कर पीछे की ओर बढ़ाई है और जहां तक नजर जाती है वहां भीड़ है और उसके पास समय
नही है कि अब हरेक के पास जाकर अपनी बात कह सकें हरेक के साथ बीते हुए पलों को
साझा कर कह सकें कि मैंने बहुत समय संग बीताया तुम्हारे, हो सकता है सुख दुख के साथ कुछ कांटे भी छोड़ दिये
हो जिससे तुम्हारे जीवन में कलुष आया हो, मैं
आज उस सबकी मुआफ़ी मांगने आगे से पलटकर पीछे आया हूँ - मुझे मुआफ़ कर दो- हाथ जोड़ता
हूँ,
कातर भाव से देखता हूँ , काँपता हूँ और अश्रुओं को अपने हाथों से पोछकर आगे
बढ़ता हूँ - पीछे पलटकर देखने की हिम्मत नही होती
मैं आज
जहां हूँ वहाँ सब समेटकर अपनी देह में यूँ छुपा लेना चाहता हूँ जैसे सबकी बद्दुआएं
दिखी नही किसी को और अंदर ही अंदर इन्हीं बद्दुआओं ने शरीर को छलनी कर दिया और
क्षीण होती ज्ञानेंद्रियों को खत्म, अब
सिर्फ बची है तो सोचने की शक्ति और मस्तिष्क पर हावी और तारी होते जा रहा बोझिलपन
और इसी उद्दाम भाव से सब कुछ चलता रहा तो शायद आप तक मुआफ़ी मांगने पहुंच ही नही
पाऊँगा
कहानी, कविताओं से इश्क रहा है पर अब जब यह समय हाथ से
छूट रहा है - बूंद बूंद अब गल रहा है, रंगों
ने फीका होकर भक्क़ सफेद होना शुरू कर दिया है तो कबीर बहुत याद आते है - जहाँ
बैठूं उत छाया जी ....
7
यह
भी शुरुआत ही है और लगता है कि सब कुछ खत्म हो गया, जीवन
कुल चार मकानों के इर्द-गिर्द समेट कर रख लिया है मानो - पहली धुंधली स्मृति रज्जब
अली खां वाले रोड के मकान की है, दूसरी बजरंग पूरे में हनुमान
मंदिर के सामने वाले मकान की, तीसरी जच्चा खाने वाले रोड के
मकान की और चौथी इस स्थाई मकान की - जहां से लगता है अब विदाई का समय करीब आ गया
है और जैसे कबीर कहते है - "चार जना मिल माथो उठायो और बांधी काठ की घोड़ी
"
जाने
के पहले बहुत कुछ करना चाहता हूं, बहुत कुछ कहना चाहता हूं, बहुत कुछ लिखना चाहता हूं , बहुत कुछ पढ़ना चाहता हूं - इन दिनों अपने आप को
इस दस बाई पंद्रह के कमरे में समेट कर रख लिया है और यह मकान का सबसे ऊँचा स्थान
है जहाँ नीरभ्र आसमान,
असंख्य तारे, चहूँ
ओर फैली पहाड़ियों की श्रृंखलाएं स्पष्ट नजर आती है - भोर में शुक्र तारा देखकर
अपने लिए मौत की भीख मांगकर सोने का उपक्रम करता हूँ
यहां
पर मैं हूं - कुछ किताबें हैं , चौबीसों घंटे बड़बड़ाने वाला
वाला एक टीवी है,
हाथ मे एक चलबोला जो कभी भी चीख देता है, और जिससे मैं दुनिया से और घर के लोगों से
जुड़ता हूं - मुझे लगता है कि यह पर्याप्त है जो बाहरी दुनिया से जुड़ने और कटने
का जरूरी माध्यम है,
यूं तो जिंदगी के सफर में इतनी यात्राएं की हैं
- इतनी यात्राएं कि उनका कोई हिसाब नहीं है कमोबेश हर सातवें दिन एक नया आशियाना
खोजा है अपने सफ़र में मैंने, एक नये आसमान के नीचे रात
बिताई है,
एक नई सुबह का संगीत सुना है और हर बार नई
मिट्टी से वास्ता पड़ा है - चाहे वह लाल मिट्टी हो, भुरभुरी
मिट्टी हो,
काली मिट्टी हो, पथरीली
हो,
उसर मिट्टी हो, चिकनी
या बालू रेत वाली मिट्टी हो - हर सातवें दिन नये भँवरों के गीत सुनें है, नए झिंगरुओं के सुरों में डूब कर नए जुगनूओं के
साथ रात बिताई है,
हर सातवें दिन नये आसमान के नीचे नया चांद दिखा
है और हर सातवें दिन सूरज को नए कोण से चढ़ते और डूबते देखा है
अपनी
नौकरियों के दौरान भी लगातार मैं बाहर रहा हूं - दड़बे नुमा कमरों से लेकर
बड़े-बड़े से हवादार मकान - जिनमें खूब बड़े-बड़े बरामदे थे, बबूल, इमली, गुलमोहर और पीपल के पत्ते सूखते तो उड़कर सीधे घर
में चले आते थे,
नीलगिरी के पत्तों की सुवास घर के हर कोने में
घूमती रहती थी,
हर मकान में चूहों के बिल, चीटियों की कतारें मेरे साथ हमेशा रही, आंगन में फुदकने वाली रंगबिरंगी चिड़ियाओं ने
कभी अकेला नहीं रहने दिया,
बरगद के पेड़ पर तोतों का समूह जब शाम ढले उड़कर
आता तो लगता कि घर में मेहमान आ गए हैं और गिलहरियां सारा दिन फुदक - फुदककर मेरी
रसोई का सामान गिराती रहती थी, मैंने कभी भी इन बेजुबान
जानवरों,
पक्षियों को घर से बाहर नहीं किया, कभी चूहा मारने की दवाई नहीं रखी, कभी चीटियों पर हल्दी- कुंकु नहीं डाला- क्योकि
माँ कहती थी काली चीटियां शुभ होती है, इसके
बावजूद भी बीस साल जिन घरों में मैं शहर - दर - शहर भटकता रहा - उन्हें घर नहीं कह
पाया
मेरे
लिए घर की चार इमेजेस है जो इस शहर में है और मैं आज भी अपने इस कमरे से निकलकर उन
तीन घरों में माह में एक बार जाकर घूम आता हूं, पुराने
मोहल्लों की बसाहटें,
आत्मीयता और निरपेक्षता मुझे बेहद आकर्षित करती
है- यद्यपि वे घर अब घर नहीं रहे, उनका आधारभूत ढांचा ही बिगड़
गया है - अब कहीं दुकान है,
कहीं बहुमंजिला इमारत, कहीं खाली पड़ा मैदान और उसके आसपास रहने वाले
लोग अचंभे से मुझे देखते हैं - एकाध कोई बहुत पुराना परिचित निकल आता है तो वह
हाल-चाल पूछ लेता है,
कहता है - कभी आ जाया करो जब तक ज़िंदा हो, एक कप चाय पी कर जाना - रज्जब अली खां मार्ग पर
इमरान मियां अपनी खातून आयशा के साथ बेतकल्लुफ़ी से मिलते हैं और आयशा के हाथों बनी
नमक वाली चाय पीकर जब मैं लौटता हूं तो अपने अंदर से और अकेला हो जाता हूं - बेहद
अकेला,
यह अकेले होने की त्रासदी नहीं - बल्कि एक ऐसे
समय में उन विराट स्मृतियों को समेटने की पुरजोर कोशिश कर रहा हूँ - जिन्हें हम
वक्त के साथ भूलते जा रहे हैं, मैं नहीं चाहता कि जीवन में
अब तक जो भी मैंने किया है,
जैसा भी जिया है उसे मैं भूल जाऊं, मैं वक्त के एक - एक कतरे को इतना मजबूती से
पकड़ना चाहता हूं कि जब मेरे पिंजर से आत्मा निकले तो उसे निकलने में भी बहुत
मुश्किल हो,
कराह निकले और इस कराह की गूंज सदियों तक ब्रह्म
नाद की तरह इस व्योम में भटकती रहें
8
पानी
नीला था,
पानी नदी में था, नदी
धरती पर थी,
धरती पर पेड़ थे - पर पेड़ हरे भरे थे, धरती के ऊपर एक आसमान था - आसमान नीला था, आसमान में पक्षी जो उड़ते थे - वे रंग-बिरंगे थे
- कोई काला,
कोई नीला, कोई
हरा,
कोई बैंगनी, कोई
जामुनी,
कोई लाल और कोई - कोई इन सब रंगों से मिला जुला
हुआ करता था
सभी
पक्षी छत के ऊपर से निकलते तो मेरे आसमान का नीला रंग छुप जाता और उनकी छाँह पानी
में नजर आती तो पानी का नीला रंग भी छुप जाता, पानी
और आसमान के बीच में उड़ते उन्मुक्त पक्षी जीवन की राह दिखाते थे और बार-बार रूसो
की याद दिलाते जो कहता था कि "मनुष्य स्वतंत्र रूप में जन्म लेता है परंतु हर
जगह बेड़ियों में पाया जाता है" - ये बेड़ियां किसने बनाई थी - वह कभी समझ ही
नहीं पाया,
जब भी बचपन से अपनी स्मृतियों को टटोलता है तो
उसे लगता है हर दिन,
हर पल एक बेड़ी उसे जकड़ती जा रही थी, जब साल गुजरता तो उसे साल की आखिरी रात को
बेड़ियों का एक झुंड नजर आता - वह लाख कोशिश करता कि यह सब तोड़ दे और नए साल की
सुबह एकदम उन्मुक्त हो जाए - रंग बिरंगे पक्षियों की तरह - जो कहीं से कहीं पर
जाने के लिए स्वतंत्र थे,
परंतु जीवन में ऐसा कहां हो पाता है - काली
खोपड़ी में बंद दिमाग मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन है जो उसे बारम्बार बेड़ियों की
जकड़न में ले जाता है और मनुष्य खुश होता रहता है कि मैं मुक्त हो गया हूं, उन्मुक्त हो गया हूं और अब मुझ पर कोई बंधन नहीं
है
पांच
दशक पूरे करने के बाद छठवें दशक के मध्य में खड़ा होकर मैं जब पलट कर देखता हूं तो
अपने आप को इतना जकड़ा हुआ पाता हूं कि कहीं से भी एक तिल बराबर सांस लेने की
आज़ादी नहीं है - बावजूद इसके कि मैंने घर, परिवार, समाज और यहां तक कि अपने आप से बगावत करके अपनी
तरह से जिंदगी जीने की कोशिश की है , गुरुदेव
कहते हैं "एकला चलो रे" और मैं एकला चलता रहा - चलता रहा, हर बंधन को तोड़ते हुए, हर बार उन्मुक्त होने की कोशिश की - परंतु इस
अकेलेपन में भी बंधनों का एक साया मेरे साथ लगातार बना रहा और संसार के वे बंधन
जिन्हें हम माया भी कहते हैं - वे शायद इन बंधनों से बेहतर थे - परंतु जो जीवन
चुना जो था वह अपना निर्णय था - किसी ने कुछ कहा नहीं था, इसलिए इस मोड़ पर आकर किसी को दोष देना बहुत ही
गलत होगा
मैं
मानता हूं कि मैंने इस खिलंदड़पन में जिंदगी को बहुत हल्के से लिया है और जितना
मस्त जिया - उतना भुगता भी है अज्ञेय कहते हैं - "मैं मरूंगा सुखी - मैंने
जीवन की धज्जियां उड़ाई है" और मैं कहता हूं कि मैं मरूंगा सच में सुखी, क्योंकि जीवन मैंने अपने तरीके से जिया है, आज यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि उस नदी के
नीले पानी और आसमान के नीले रंग के बीच असंख्य मनुष्यों की भीड़ में अपनी जगह
बनाने की मैंने पुरजोर कोशिश की, बहुत कुछ किया - बहुत कुछ
दिया,
पर अब लगता है सब व्यर्थ था, संसार में मेरे जैसे लोगों की संख्या बहुत ज्यादा
है - जो अपने तरीके से जीते हुए बहुत कुछ करना चाहते थे, परंतु इस सब के बाद भी वे सब उस पार है और
संख्या में ज्यादा है जहां सबको एक दिन जाना है और जहां से लौटकर कोई नहीं आता
मुझे
नहीं मालूम कि वहां पर कौन सा रंग है, परंतु
मैं अपने पूरे शरीर में अपने पूरे दिलो - दिमाग में इस गाढ़े नीले रंग को भर लेना
चाहता हूं - अंदर अंदर तक,
ताकि यदि यहां से कुछ ना भी ले जा सका तो मेरी
स्मृतियों में,
मेरे जेहन में एक नीले रंग की छाप सदा बनी रहेगी
और मैं जानता हूं कि संसार जब तक है - तब तक नदियों का पानी, आसमान का रंग, पक्षियों
का रंग नीला बना रहेगा
9
सामने
एक मराठी परिवार था जिसमे एक बुजुर्ग साथ रहते थे, बाद
में मालूम पड़ा कि वे अकेले ही थे - जीवन संग्राम अकेले ही लड़ते रहे और अपना जीवन
परिजनों के सुख के लिए समिधा बना दिया , एक
कड़कती बरसात की रात में देह छोड़ गए, अगले
दिन सुबह जब हम सब लोग भीगते हुए श्मशान पहुँचे तो सूखी लकड़ियों में लाश रखी पर
शाम तक देह जल नही पाई ,आखिर अधजली देह को छोड़कर आ गए, कहते है जो जीवन में अकेले रह जाते है उन्हें
अंतिम समय में जलाने से अग्नि देव भी मना कर देते है
एक
बुजुर्ग है जिनके छह बच्चे है - पत्नी के निधन को पचास साल हो गए लगभग, सब है सम्पत्ति, नगदी
पर आए दिन बच्चों के पास घूमते रहते है एक बोझ की तरह, एक बूढ़ी महिला को देखता हूँ जो अपने ही घर मे
क़ैद कर दी गई है उसके कमरे में कुछ रूखे टोस्ट होते है, परमल और माह में एकाध बार उसे गीले चावल नमक
डालकर दे दिए जाते है - उसके कमरे में रखा सूखा खाना भी चूहे खा जाते है और वह रोज
अपने परमात्मा से प्रार्थना करती है कि मौत उसे उठा लें पर " निर्दयी और
धूर्त ईश्वर उसे नही उठा रहा "
घर
की छतों पर,
अंधेरे बंद कमरों में, सीलन भरी छतों के नीचे मच्छरों, कीड़ों और चींटियों की प्रताड़ना सहते असंख्य एकल
लोगों को देखता हूँ जो कभी समाजोपयोगी रहें - हंसते खेलते, मुस्कुराते और अपनी उपस्थिति से सबको भाव विभोर
कर देने वाले,
परंतु अब वे स्वयं भी अपने को इतना बोझ समझने
लगे है और चिंतित रहते है कि हफ्तों खाना भी नही खाते और कोई यदि मनुहार करके खिला
दें तो खाने पर पेट भी बगावत कर देता है और सारा अन्न तुरंत बाहर फेंक देता है
यह
दृश्य घर - घर से लेकर बड़े बड़े वृद्धाश्रमों में देखता हूँ - मौत के लिए करुणा के
आप्त स्वरों पुकार की लम्बी श्रृंखला है जो धरती के हर कोने से स्वर्ग नरक तक पंक्तिबद्ध
है - पर हर कही सन्नाटों की वृहद गूंज है और कही से जवाब नही आते, एक मातम हर जगह पसरा है, मौत की राह तकती नज़रें बेबस है और संसार के ये
एकल स्त्री - पुरुष इतनी भीड़ में भी बेहद अकेले हो गए है
कोई
कोई हिम्मत वाले होते है जो सब दूर से थक हारकर खुद ही कड़ा दिल करके मौत को
आलिंगनबद्ध कर लेते है और मुक्ति पा जाते है - अपने अकेलेपन से मुक्ति पाना सरल है
और इस शाश्वत तरीके की पुरजोर वकालत भी करते है , क्योंकि
कांपते हाथ - पाँव,
कमज़ोर नजरों, लड़खड़ाती
जीभ,
खत्म हो चुकी घ्राण और श्रव्य शक्ति के साथ
स्मृतियों को याद कर करके बरबस रोने लगते है
उन्हें
अपने से बिछड़ कर संसार के दानावल में भस्म हो चुके माँ बाप याद आते है, हर दोस्त और उस शख्स को याद करके रोते रहते है -
जो जीवन के किसी मोड़ पर आया, टकराया, मिला और विशाल भीड़ में खो गया - एकांत में जब वो
सब याद आता है तो फिर सोच और शक्ति पर कोई नियंत्रण नही रहता - बेलगाम सी उद्दाम
वेग से स्मृतियाँ बेख़ौफ़ होकर रेत सी छूटती है और इस यात्रा के अंत में जो नज़र आता
है छोर पर - वो है सिर्फ मौत
एकल
संसार में चुके हुए लोगों की भीड़ में एक जोड़ हाथ कमज़ोर नजरों के साथ आज और उठ गए
है - एकांत में कोलाहल और चीत्कार के बीच विलोपित होने को बेचैन एक देह ने आज फिर
व्योम में प्रार्थना के स्वरों में बहुत कोमल आवाज़ में पुकारा है कि " हे
ईश्वर यदि कही हो तो मुझे सच में अपने पास बुला लें - यह अकुलाहट अब सहन शक्ति के
बाहर है "
इन
प्रार्थनाओं के मुखर स्वर मेरे चारों ओर गूँजते है और मैं इनमें एकाकार होते जाता
हूँ - होठों पर बुदबुदाहट है और आँखें बंद होते जा रही है, आवाज़ें क्षीण हो गई है और अपने भीतर मंद सप्तक
में अपनी ही बेचैनियों की थरथराहट सुनने की कोशिश में पांव ठंडे पड़ गए है, सांस धौंकनी की तरह तेज हो गई है और पसीने को
पूरी देह पर महसूस कर रहा हूँ और लगता है प्रार्थनाएँ सफल हो गई है
मैं
थककर मौत का इंतज़ार नही करना चाहता, अभी
इस पल में जो दुर्दैव से आया है, में समाप्त हो जाना चाहता हूँ
10
चल
खुसरो घर ...
एक
संतरा सामने है,
एक सेवफ़ल, एक
बड़ा सा पपीता,
एक कीवी, कुछ
बेर रखें है - मैं सोचता हूँ कि आज भोजन ना करूँ और इन चीज़ों से अपनी क्षुधा
मिटाऊँ - आम का मौसम नही है इसलिए थाली से आम गायब है , केले बाजार में बहुतायत में है पर मुझे पसंद भी
नही और उनकी तासीर मेरे जिस्म से मेल नही खाती, अमरूद
मौसम में बहुत खायें और अब जामुन का इंतज़ार है
संतरा
छीलता हूँ तो उसके छिलकों से जो रस निकलता है उससे आंखों में पानी आ जाता है, फिर भी छीलता हूँ, आहिस्ते
से हर फाँक के रेशे निकालता हूँ और हर फाँक को खोलकर बीज बाहर निकालता हूँ फिर
मुंह मे रखकर उसका रस चूसता हूँ, कुछ फाँक बगैर बीज के निकलती
है पर उनमें रस उतना ही होता है जैसे अन्य में - मन विचलित होता है - जो सामने है
उसे पाकर संतुष्ट नही - आम और जामुन का इंतज़ार है, अमरूद
और बाकी जो उपयोग कर लिया उसकी भी संतुष्टि नही है - क्या ये जीवनानुभव किसी और
समझ के परे है जो नजरिया विकसित करते है - पता नही पर इच्छाओं का कोई ठौर नही
पपीता
काटता हूँ तो पूरी सावधानी के बाद भी कही कही छिलका रह जाता है जो कसैले स्वाद के
रूप में आता है जब चबाता हूँ , कभी ढेर बीज निकलते है कभी
बिल्कुल नही,
पीला ज़र्द होने के बाद भी मिठास नही होती या
फीके स्वाद से भरा होता है अक्सर और कभी इतना मीठा कि लगता है बस सब कुछ ऐसे ही
बना रहे जीवन के आरोह अवरोहों में
सेवफ़ल
का अपना सबब है,
बीज तो लगभग सबमें है पर जो गूदा है उसका वह
हरेक के भीतर
जुदा - जुदा है और जब मैंने छिलके के रंगों को
भी देखा तो सहसा यकीन नही हुआ कि हम सेवफ़ल का सामान्यीकरण कर लाल सेब कह देते है
जो कि सर्वथा अनुचित है - लाल और क्रीम रंगों में गुँथा यह छिलका इतनी विभिन्नताएं
लिए हुए है कि हम लाल कह ही नही सकते
बेर
तो ख़ैर बहुत ही उपेक्षित से फ़ल है जिनका मोल भीड़ में ही आंका जाता है, एकांत में कांटों के बीच सूनी सड़कों पर बगैर
पानी और देखरेख के खड़ी झाड़ियां कितनी ढिठाई से खड़ी रहती है पर फ़ल आने पर उसमें
कांटों की परवाह किये बगैर कोमल और मेहनतकश उंगलियां घुस जाती है और तोड़ लाती है
खट्टे मीठे अनुभवों का संसार
अपने
कमरे के बरक्स यह सब सोचता हूँ तो लगता है क्षुधा ने कहाँ से कहाँ लाकर छोड़ दिया, जब माँ थी तो कभी भूखा रहा हूँ याद नही पड़ता, अपने ब्रेन ट्यूमर के ऑपरेशन के समय रात को भी
पूछा कि खाना खा लिया,
मन नही था पर कभी झूठ नही बोला था माँ से , वो समझ गई -उस अस्पताल के कैंटीन से सैंडविच
मंगवाया और खिलाया और जब तक पूरा नही खा लिया -देखती रही, चार घण्टों बाद उसका दुष्कर ऑपरेशन होना था और
शायद वही मेरे जीवन का आख़िरी भोजन था - ना माँ रही, और
ना मैं खाने लायक रहा - संताप , अवसादों और तनावों ने शरीर को
मधुमेह का स्थाई घर बना दिया
अब
ये फल,
कड़वे काढ़े, दवाईयां, पक्षी भोजन और परहेज ही जीवन का पर्याय है पर
अपने एकांत में बहुत गहन चिंतन - मनन करता हूँ, संयम, अनुशासन और अपने आपसे जूझते हुए शरीर को ऊर्जा
देने वाले भोजन के बारे में सोचता हूँ , प्रायः
भूख से अपने को प्रताड़ना देता हूँ - कबीर कहते है " क्या तन माँजता रे, एक दिन माटी में मिल जाना "
इस
सबमें एकांत बहुत जँचता है मुझे और लगता है कि यह एक चरम अवस्था है सोच विचार की
और दृढ़ संकल्पों की पर इसी काया में मोक्ष मिलने की बात , द्वैत -अद्वैत, सगुणी
- निर्गुणी,
आस्तिक - नास्तिक के द्वंदों में फंसा खिलंदड़
जीवन अब इस सबसे बुरी तरह ऊब गया है और वैतरागी बनकर यहाँ से निकलकर अपनी गाढ़ी
नीले रंग में डूबी दीवार में समा जाना चाहता हूँ
हिम्मत
बहुत बटोर ली है,
अंतर्मुखी संसार में किसी का भी प्रवेश वर्जित
है ,
प्रव्रज्या और इसी तरह की शब्दावली और आडंबरों
से दूर होकर सब कुछ तिक्त कर विलोपित होने की हिम्मत आ गई है - लगता है अपना खाने
पीने का कोटा खत्म हो गया है - साँसों की धुरी पर स्पंदित होता जीवन दो बांस के
डंडों में बंधी रस्सी पर अटका है - अब गिरें कि तब और फिर जैसे पाँख गिरे तरुवर के
.....
11
यहाँ
आसमान में कड़क बिजलियां चमक रही है, बादलों
की गड़गड़ाहट में किसी की आवाज सुनाई नही देती, बरसात
की बूंदें बड़े ओलो के रूप में गिर रही है
खेतों
में गेहूं कटा पड़ा है,
चना मुस्तैदी से खड़ा है, सेम से लेकर बाकी सब्जियां झूम रही है और काले
बादल देखकर किसान की आँखें रो रही है - वह खेत मे बिजूका बनकर रह गया है बस
उसकी प्रार्थनाएँ
ईश्वर,अल्लाह तक नही पहुंच रही, क्षत विक्षत आत्मा को वह धिक्कार रहा है, मानसून में अति वर्षा ने उसकी मक्का, धान, सोयाबीन
को खराब कर दिया था और अब चार माह जी तोड़ मेहनत से गेहूं के सुनहरे गोशे जवान किये
थे,
चनों में दूध आ ही रहा था कि इस बरसात ने सब
बर्बाद कर दिया
दूसरी
ओर सम्पूर्ण धरा पर हाहाकार मचा हुआ है - एक छोटे से जीव ने सम्पूर्ण विकास और
जंतु जगत की सबसे विकसित कौम यानि मनुष्य को ही अपने पंजे में जकड़ लिया है - हर ओर
से चीत्कार,
चीखें और बेबसी के स्वर सुनाई दे रहें है
हमने
ही किया है यह ध्वंस और दोहन - इतना मथा धरती, जल, अग्नि, वायु
और आसमान को कि सब कुछ छीन लिया, अपनी महत्वकांक्षा बुझाने के
लिए छीज दिया सबकुछ और अब जब क्रूर प्रतिफ़ल मिल रहे हैं तो आँसू कम पड़ गए है इस
दानावल में
मैं
देख रहा हूँ - खूब बोलता हूँ, खूब सोचता हूँ, खूब विरोध सहता हूँ और दुर्भाव भी सहता हूँ पर सच
कहने और बोलने से चूकता नही हूँ , अपने एकांत में भी हरदम यही
एकालाप चलता रहता है,
कल्याण शब्द और वसुधा, आसमान, अग्नि
या वायु को नही जानता पर लगता है कि बस अपने आसपास को ठीक रख सकूँ, दो लोगों के लिए भी इस धरा को सुंदर बना सकूँ तो
शायद कुछ कर पाने और मनुष्य जीवन जीने का श्राप पूरा हो सकें और मुक्ति मिलें
बाहर
पानी तेज़ हो गया है - विपदाएँ और जीवन संघर्ष पटरी पर समानांतर रूप से चमक रहा है, नीला आसमान काला हो गया है और बड़े बड़े ओलों के
बदले अब तेज़ बरसात हो रही है - मैं आज ही जाखनौद के एक खेत में गेहूँ काटती
महिलाओं से बात कर रहा था,
उनकी आँखें बार - बार घूँघट हटाकर आसमान को देख
लेती थी और इस क्षण में मैंने ख़ौफ़ देखा था चेहरों पर उनके, कटे हुए गेहूँ के पुआल को वो अपने सीने से लगाकर
जब ज़मीन पर रखती थी तो वात्सल्य भाव देखते बनता था, उन
महिलाओं और किसानों पर आज की रात कैसी बीत रही होगी - यह कल्पना कर ही कांप रहा
हूँ
किससे, किसके लिये, कितनी, कैसी प्रार्थनाएँ करूँ - यह हिम्मत भी खोते जा रहा
हूँ - चहूँ ओर मौत ही मौत है , आवाजों के शोर बढ़ रहे है, मौत का अट्टाहास पूरी बेशर्मी से सम्पूर्ण धरती पर
फैलता जा रहा है,
चेहरों पर उपजे भय की लकीरें मेरे कमरे के गाढ़े
रंग से गहरी हो गई है और अकुलाहट में मैं बदहवास हो गया हूँ , कातर स्वर, थमे
से ऊपर उठे हाथ और मजबूर कदम - उफ़ , ये
क्या हो रहा है सब - लगता है हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार है और जहाज डूब
रहा है और कुछ लोग अभी भी एक घेरे में संगीत बजाकर अपने शौक पूरे कर रहें है और
दुनिया में लोग छोटी कश्तियाँ लेकर मौत से बचने के उपक्रम में लगे है
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अड़सठ
घाट भीतर है कहाँ जाना है - ना गंगा - ना यमुना, सुमिरन
कर ले मेरे मना,
मन चंगा तो कठौती में ही गंगा है - बीती जा रही
है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नही है - इसी घट अंतर और बाग - बगीचे है पर
भागना रुक नही रहा है - सोचने समझने को तैयार नही है
हमने
कंदराओं में बैठे साधु देखें, जमीन की तलहटी में ईश्वर, पहाड़ों पर देवियाँ, नदियों की धार में साक्षात प्रकृति की लीला ,समुद्र का रौद्र रूप, आसमान से बरसता नेह और आग भी - चमत्कारों के बीच
अपने पैदा होने को भी प्रारब्ध माना और जब
मौत के आगोश में समाएँ तो शाश्वतता और क्षण भंगुरता समझ भी आई
दौड़ते
- भागते हुए सब कुछ पाने की अनंत इच्छा ने हमें बहुत क्रूर और भावुकता के बीच झुला
दिया - देह चंद्रमा और सूरज की गति के मध्यमान में धरती और आसमान के अक्ष पर घूमती
रही और अंत में जब समय पूरा होने को आया तो आत्मा के सवालों से जूझने लगें
अपने
को भीड़ में रखा,
सबके बीच सबके साथ होकर सब सा बन जाने को सदैव
आतुर रहें - काम ,
क्रोध, मद
और लोभ निवारण के लिए किंचित भी प्रयास नही किये और जब सब शिथिल होने लगे अंग और
इन्द्रियाँ तो प्रार्थना में डूबने लगे - संतों की खोज करने लगें कि मोक्ष पा जाएं
और फिर समझ आया कि या जग में कोई नही अपना - गुरु भी डूबा है दर्प और माया के जाल
में
फिर
देह की चादर पसारकर मन के तम्बूरे से भजन गाने लगे, सुमिरन
करने लगे पर देर हो चुकी है , नदियों की धार में अब वो उद्दाम
वेग नही बचा,
सप्तपर्णी के फूल झर चुके है, कचनार पर बहार नही है , बबूल शबाब पर है और बरगद ने छाँव देने से मना कर
दिया है और यह घर ही सबसे न्यारा है देह का - इसकी परवाह में ऐसे लगें कि फिर
संताप अवसाद ओढ़ लिए
पहाड़ों
की चोटियों पर निर्जन होता ही है पर वहां जाने पर जो पूर्णता का एहसास होता है -
सुख - दुख ,
पाप - पुण्य और दिन- रात का भेद ही समाप्त हो जाता
है - पर अब वो भी रीतता सा लग रहा है - ज्ञान, जप, तप, प्रव्रज्या
और कर्मों से भी मुक्त होता लग रहा है
पूर्णता
ही खोखलेपन का सर्वोच्च और अनंतिम सत्य है - मेरा मानना है कि शरीर में जब पांच
तत्व आपस में घुलमिल जाते है सम्पूर्ण रूप से तो हम पूर्णता को प्राप्त होते है और
बस इस ठीक इसी हिमांक बिंदु पर सब जमता भी है और फिर गलता भी है आहिस्ते से
नीले
गाढ़े रँग को जब भी गहराई से देखता हूँ तो लगता है यह एक उद्दीपन भाव से भरा हुआ
रंग है - न्यारा है और विभेद करने का श्रेष्ठ संयोजन है पर इसे अंदर तक उतरते
देखता हूँ तो कुछ नही कह पाता - कबीर कहते है जब राम निरंजन न्यारा रे तो मुझे सब
कुछ धुन्ध में धुँधला होता दिखता है - आवाजें तेज़ होकर मंद होते जाती है और चहूँ
ओर उठते हाहाकार के स्वर,
मौत के दृश्य हैरान करते है
सुनता
है गुरु ज्ञानी ,
गगन में आवाज हो रही झीनी झीनी...
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रास्ते
की धूप में खुद ही चलना पड़ता है, चाहे नरम धूप हो या कड़क सब देह को ही सहना है, धूप जब
भीतर आत्मा तक छनकर पहुंचेगी तो हम छाँव की तलाश करेंगे और किसी घनी छाया वाले पेड़
के नीचे जाएंगे - यह मौलश्री का हो, बबूल या देवदार का - छाया का कोई रंग नही होता -
धर्म और विश्वास तो बिल्कुल नही
पर
रास्तों पर तो चलना ही होगा अपने पूरे एकांत और तन्मयता के साथ, इसलिए जब
भीतर से ठंडे हो जाओ और लगे कि अपने दोनो पग फिर तैयार है तो निकल पड़ो फिर से पर
ध्यान रहें - पेड़ की छाया का दायरा है और पेड़ स्थिर है - छाया कुछ दूर तक चल सकेगी
जब तक पेड़ की धुरी रहेगी पर दुखद यह है कि पेड़ की छाया पेड़ के साम्राज्य के साथ ही
बंधी रहती है वो पेड़ को नही छोड़ सकती - लिहाजा एकांत के इस निर्जन पथ पर अकेले ही
निकलना होगा
एक भीड़
चलती है हमेंशा संग साथ - बाहर और भीतर - यह हम पर निर्भर करता है कि हम कहाँ और
किसके साथ चलते है - शायद हम कभी - कभी अपने आपके साथ भी नही चल पाते है और वितान
बुनते रहते है कि आगे खतरे है, सतर्क रहें, छुपते रहें और आवाज़ करते हुए डर भगाएं पर हम अपनी ही
आवाजों के इको से टकराते है बारम्बार
कोलाहल
है, हलचल
है, एक
डर है, अवसाद
के सायों में टकराती छायाएं हैं - जो सर्वकालिक है पर इस सबसे बचते - बचाते हुए
हमें निकलना है - एक खोल में बंद करके अपनी देह को यूं बचा ले जाना है जैसे नृत्य
करती क़ाया बचा लेती है - महीन से महीन आवाज़ जो घुँघरुओं के बजाय सांसों के आरोह
अवरोह को पहचानती है - नियंत्रित करती है और छोटे से मंच पर घूमने का दायरा तय
करती है पर यही दायरा हमें वृहद बनाता है - यश और कीर्ति की पताकाएँ फहराता है
लम्बी
दूरी कई बार सड़कों, वायु
या जलमार्ग की ही नही होती, यह
दूरी अपने भीतर से अपने आपको सच दिखाने और स्वीकारने की भी होती है और यह सब करने
और उस मकाम तक पहुंचने के लिए अपने अंदर के ख़ौफ़ मारना पड़ते है - सामने आने के लिए
भीषण प्रतिज्ञाएँ लेना होती है और तभी हम यह सब पाट भी पाते है - सर्वज्ञ या
पारंगत होने की ज़रूरत नही - बस सहज होने की आवश्यकता होती है
अपने
एकांत को अपने भीतर ही समझने की ज़रूरत है, बगैर किसी को कोई स्पष्टीकरण दिए, बगैर
किसी तरह के कंफेशन्स किये, अपनी
निजता को बनाये रखते हुए और स्वयं को आगाह करते हुए कि यह सब मेरा निज है और यही
मेरे साथ जायेगा - जितना बहिर्मुखी बनकर अर्जित किया था वो यही रहना है - अपने
किसी नामित को हवाले करते हुए हम सब कुछ दे देते हैं, पर जो
भीतर है, जो
लगातार बज रहा है, चेता
रहा है और सतर्क कर रहा है और भीतर ही भीतर संचित कर एक बड़ा ढूह बना दिया है जिसे
खुद ही बाँटना है और अपने साथ ले जाना है - क्योंकि जैसा कि बोला लंबे रास्ते पर
अकेले ही चलते जाना है
इस समय
जब हर कही से आवाज़ों का शोर हावी हो रहा है, अफरा तफरी मची है - एक स्वार्थ सब पर तारी हो रहा है
तो हमें अपनी यात्रा, धुरी, धूप, छाँव और
रास्ते के पेड़ों के बारे में सोचना जरूरी है - इस आपाधापी में हम निकल तो पड़े है
पर अपने नामित के नाम हमने कुछ किया है या नही, अपने भीतर झाँककर देखा है कि नही, लंबे सफर
के लिए प्रार्थनाओं की गठरी भरी है या नही, मन के मैल को धोकर सुखाया भी है या नही, दिल -
दिमाग़ में वो सूफी संगीत की लहरियां कंठस्थ कर ली है जो विपदा में होठों से
बुदबुदाना है, हाथों
में झाँझ और मंजीरे है, पीठ
पर अपने ढूह का बोझ और एक श्वेत शुभ्र महीन वस्त्र जो सिर पर डाल सकें - ताकि
हमारे सारे कर्म छुप जाएं, संग
रख लिया है ना
मैं निकल
पड़ा हूँ इस भीड़ में रहकर भी अपने एकांत के साथ - मालूम नही कहाँ पहुँचूँगा पर इतना
विश्वास है कि कम से कम अपने आपको इस मोड़ पर स्वीकार कर लिया है और इससे मैं खुश
हूँ ....
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जवाहर
चौक में एक ही बड़ी सी दुकान थी झंवर सुपारी सेंटर, मंगरोली सुपारी वही मिलती थी, जिसे
काटो तो नारियल जैसी लगती थी, घर में एक सरोता था जिसकी धार कुंद हो चुकी थी, माँ को
आदत थी सुपारी खाने की - एक बैठक में आधी सुपारी खा जाती थी, एक बार
उसी सरोते से सुपारी काटने लगा - उंगली कट गई खून बहने लगा - घबराए तो सब थे - मैं
भी पर डरा नही था
शिमला
में था - एक सम्मेलन में गया था वैज्ञानिकों के, सड़कों पर चलते चलते थक गया था, पत्थर से
टकरा गया - अपनी धुन में चलते हुए - एक दोस्त वही बना था जो मेडिकल के पहले साल
में था - मुझे उठाया - घुटने से बहते खून को रोकने के लिए मिट्टी लगाई - बोला
"हमारी मिट्टी में सेवफ़ल का रस है - घाव जल्दी ठीक हो जाएगा " - अमन
डबीर नाम था, उससे
वादा किया था कि उसकी डिग्री मिलने का जब कन्वोकेशन होगा तो आऊंगा जरूर, यह बात 1996 की होगी
सम्भवतः, पर
गया नही फिर कभी - ना जाने क्यों पर आज लगता है अमन डॉक्टर बन गया होगा कभी का और 40 - 45 का होगा
अब - अगर अचानक चला गया उसके सामने तो क्या वह पहचानेगा, आज भी
सेवफ़ल के रस वाली मिट्टी से इलाज करता होगा - उसे याद दिलाऊंगा तो हंसेगा वो -
कितनी गोरी थी उसकी माशूका और वह भी , अपने ही साँवले रंग से पहली बार नफरत हुई थी मुझे
मसूरी
गया था - धनौल्टी भी, वहां
एक जीप से टकरा गई थी ठोडी - सब लोग बादल बरसात और पहाड़ देख रहें थे और मैं खून की
धार जो मुंह के भीतर बह रही थी कुल्ला करता पर खून रुक नही रहा था वैसे ही फोटो
खिंचवाई थी पर उनमें खून नही दिखता आज कही
1978 की बात होगी स्काउट का कैम्प था देपालपुर के पास
बनेडिया में - किसी तालाब किनारे था कैम्प 15 दिन का, वही एक जैन मंदिर था शाम को चला जाता था,उन लोगों ने अपरिग्रह और अहिंसा
सिखाई और बाद में सचिन ने सम्यक दर्शन ; जंगल मे नित नए अभ्यास, काम और
तकनीकें सीखाई जाती थी - एक दिन कैम्प में देर रात लौटने में आते समय किसी कीड़े ने
काट लिया - दाई आँख के ठीक ऊपर, आंख सूज गई , फिर अगले दो दिन में पका घाव, मवाद और
खूब खून निकला - मैंने ही मोटा सुआ घुसा लिया था - दर्द सहन नही हो रहा था आखिरी
दिन आईना देखा तो लगा सब ठीक है - लौट आया घर पर उस जैन मंदिर के एक नागा भिक्षु
की बात याद आती है - "अपने हाथ से अपनी आंख में सुआ घुसाने के लिए बहुत
हिम्मत चाहिए - तुम कुछ अलग करोगे - सबके जैसे मत हो जाना "
ग्यारहवीं
में था तो बगल में गांठ पड़ गई , दर्द देने लगी थी - एक दिन चाकू से फोड़ ली, अभी
पिछली बरसात में भी पाँव का घाव ठीक नही हो रहा था तो गर्म चाकू से काटकर साफ कर
दिया था सब - आठ दिन में चलने लगा जमीन पर
कबीरधाम
जिले के पंडरिया ब्लॉक में जमीन से 1400 फीट ऊपर बैगाओं की बस्ती - आठ दिन तक सिर्फ कोदो
कुटकी, महुआ
और इमली का पानी - शरीर की क्षमता दम भरने लगी, एक दिन दोपहर में जब एक आदिवासी लड़की निमरानी के साथ
उसके गांव से लौट रहा था तो अचानक डिंडोरी और कबीर धाम जिले के बीचोबीच वाले गांव
में अंधेरा छा गया आंखों के सामने - निमरानी जोर से चिल्लाई कि आपको भूत आया है
शरीर में - आंखें लाल हो गई थी और मैं गिर गया था नीचे - उसने लोगों को बुलाया और
पता नही उन लोगों ने क्या खिलाया कि दो घँटे बाद ठीक हो गया - बाद में मुझे
भौरमदेव के मंदिर ले गए और वह आदिवासी पुजारी मेरे रक्त को देर तक शुद्ध करता रहा
- आखिर में आते समय बोला - "बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों
का खून नही हैं, आज
तो खुद बाबा भौरमदेव को मूर्ति से निकलकर आना पड़ा - तुम्हारी आँखों मे उतर आये खून
को पीने, मैं 20-30 साल और
जियूँगा - तब तक मत चढ़ना इस मंदिर की देहरी, वरना सब भस्म हो जायेगा "
पिताजी
मनावर में थे ; गर्मी
की और दीवाली की छुट्टियों में माँ हम तीनों भाइयों को लेकर देवास से वहाँ चली
जाती थी, निमाड़
की गर्मी तब और भयावह होती थी, मंगला देवी का मंदिर मनावर शहर से तब बाहर हुआ करता
था - एक टेकड़ी पर , एक
दिन पीतल के स्टोव पर चाय उबल रही थी - छोटा भाई मजाक में लोहे का कड़छा लेकर उसे
गर्म करने लगा - जब खूब गर्म हुआ तो उसने मुझसे पूछा लगा दूं पांव पर - मैंने हां
कह दिया, उसने
वो भभकता हुआ लाल लोहे का गर्म कड़छा मेरे दाएं पैर की जांघ पर लगा दिया - मैं
देखता रहा - कड़छा चिपक गया था चमड़ी जल गई थी - माँ ने देखा तो चिल्लाई , जोर से
रोने लगी, फिर
होश आया तो पानी से भरी गगरी उँड़ेल दी पाँव पर खींचकर कडछे को अलग किया , शाम को
डाक्टर के यहाँ से पिताजी सायकिल पर बैठाकर मंगला देवी में मन्दिर ले गए - पुजारी
हैरान था " साहब , यह
लड़का बहुत जीवट है - इसका कोई कुछ नही बिगाड़ सकता, बस सनकी है धूनी रमाये बैठेगा तो सब कुछ ठीक - नही
तो आपके बाप के भी बस नही आएगा - घाव पाँव पर आज भी है - दुर्योधन की जंघायें
कमज़ोर रह गई थी ना , मेरे
छोटे भाई ने मेरी जंघायें मजबूत की है - जो खून उसने उस गर्म कडछे से जमाया था -
वो संसार के ताप से आज तक नही पिघला है - भाई , अलबत्ता संसार छोड़कर चला गया कभी से
अपने
भीतर से स्मृतियों के चंद वो कतरें है जो रह रहकर अपनी मजबूती की याद दिलाते है -
पिताजी को छैगांव माखन में सन 1974 में किसी ज्योतिषी ने पुखराज बेचा था 3500 रुपयों
में -सोचिए 1974 के 3500 रुपये - यह कहकर कि आपके तीनों में से एक लड़का आप पर
भारी पड़ेगा, यह
पहने रहिये - कुछ नही होगा और लड़का भी इससे मजबूत रहेगा - मरने तक लड़ते रहे वो, 1989 में जब
मरें तो लाश को जलाते समय किसी ने उनकी अंगूठी उंगली से उतारकर मुझे पहना दी -
पीला ज़र्द सोने से जड़ा हुआ चमकता पुखराज मेरी धरोहर है - बड़े सालों तक उसे पहना
फिर अचानक क्यों उतारा याद नही कही सम्हालकर रख दिया था
अभी जब
सब सामान बांटने बैठा तो पुखराज दिखा सामान में , इधर कही रखा मिल गया था तो सोचा दे दूँ या बेच दूँ -
आभूषणों से मोह नही रहा अब ,जब
सुनार के पास ले गया तो बोला - यह असर खो चुका है और खंडित भी हो गया है , अब इसका
ना प्रभाव शेष है और ना ही यह किसी को कुछ दे सकता है - बेहतर है कि आप किसी विधि
विधान से इसे नर्मदा या गंगा में खमा दें पर बगैर पूजा के ना खमाना अन्यथा अनर्थ
हो जायेगा - मैं हंस पड़ा, मुझसे
बड़ा पंडित कौन - ज्ञान, जाति, कर्म और
विधान से पर जल्दी ही जब सार्वजनिक जीवन में आया तो ये सारे मोहपाश तोड़ दिए और अब
जाति से भले पंडित होऊँ जो मेरे बस में नही था - पर कर्म से मनुष्य बना रहूँ यही
पर्याप्त है
आज वो
पुखराज क्षीण हो गया है - चमक और आभा में , मजेदार यह है कि सुनार के कहने के अगले ही दिन शुगर
की जाँच करवाई थी तो 740 निकली
थी, मेरे
डॉक्टर्स मेरे पीछे पड़े रहते है कि अस्पताल में भर्ती हो जाओ और मैं यायावरी करता
रहता हूँ
खून खत्म
हो गया है, घर
के सामने 1979 में लगाया गुलमोहर का तना सड़ गया है - दीमक लग गई है
- जो मेरी ताकत था, पुखराज
का पीलापन गायब है, पहले
पिता, फिर
माँ , फिर
छोटा भाई - एक एक करके सब चले गए है - अब खून में ताकत भी शेष नही - मैंने लिखा था
ना शुरुवात में ही कि अशुद्ध खून गाढ़ा नीला होता है और शरीर की उभरी और ऊपरी सतह
पर शिराओं में चलता दिखाई देता है
अपनी
शिराओं को खाली आंखों से देख रहा हूँ -एक बार फिर आंखों में खून उतर आया है और मैं
पुखराज के टूटे हिस्से को देखता हूँ - गुलमोहर के सूखे पेड़ से लौटती छोटी नीली
चिड़िया को देखता हूँ और कबीर याद आते है
धन
रे, जोबन, माया
अमर तेरी काया
भोला मन जाने रे
16
शोर
में बहुधा एकांत छिन जाने का खतरा रहता है, पर
कुछ शोर मन को बहुत भाते है मसलन - चिड़ियों की चहचहाट , टिटहरी की चीख, मुंडेर
पर कौवों का क्रंदन,
नदियों में उद्दाम वेग से बहते पानी का कलकल भरा
आलाप,
समुद्र में चिंघाड़ भरती लहरों का शोर, किसी शँख को कान में लगाकर देर तक अनहद नाद को
सुनना,
जंगल में किसी सूनी पगडंडी से गुजरते हुए
पत्तियों और झूमती मदमस्त शाखाओं का संगीत, मंडला
में गौंड राजा के बने किले में असँख्य चमगादड़ों का शोर जो उजालों से घबराकर सदियों
से एक कमरे में भटक रहे हैं, पहाड़ों के उत्तुंग शिखर पर
चढ़ते हुए पत्तों और घास की सरसराहट या अपने कमरे में टकटकी लगाई आंखों से छत पर
लटके पंखे की ध्वनि,
सालारजंग संग्रहालय में निर्जीव पड़ी धरोहरों की
फुसफुसाहटें और चींटियों की कतार में उनकी बातचीत के मद्धम स्वर
चैत्र
माह में शुक्ल पक्ष की नवमी हैं - बाहर रह रहकर आवाज़ें गूँजती है, अंधेरे में प्रकाश दिखाई देता है और उसके बाद
ध्वनि प्रस्फुटित होती है - उत्सवों की बेला है और कमोबेश हर छह माह में आकाश इसी
तरह से भर जाता है - अपने मन की शांति, ध्यान
और समर्पण को त्यागकर इस वातावरण में अपने को ढालने का प्रयास करता हूँ और पाता
हूँ कि यह बाहरी शोर मेरे अंदर के उस निर्वात तक नही पहुंच पाता जहां सब कुछ थिर
हो गया है - एक रस हो गया है कोलाहल, शोर
और पूर्ण शान्ति
एक
भीतरी शोर है और एक बाहरी - बाहरी तो क्षणिक है जो हर हाल में थम ही जायेगा और फिर
यदा कदा बजता रहेगा पर भीतरी शोर है उसे साधना बहुत कठिन है - वह प्रज्ज्वल अग्नि
की तरह सदैव धधकता है और निरंतर कुछ ना कुछ समिधा के रूप में मांगता रहता है - कभी
दर्प जलाया,
कभी अहंकार, कभी
अनंत इच्छाएं,
कभी वासनाएं, कभी
क्षुधा,
कभी क्षोभ, कभी
अवसाद,
कभी परिग्रह, कभी
धन -संपदा और कभी अपना चित्त भी - जब कुछ अर्पित करने नही मिला तो अपने सुख भी
तिरोहित किये - आज जहां हूँ वहाँ से पलटकर देखता हूँ तो जीवन अग्निखण्डों मे बंटा
दिखता है - हर कदम पर एक लाक्षा गृह था और उसमें से निकलना था और इस सबके बीच ही ' अपने एकांत को निर्वासन में बदलकर आनुषंगिक
बनाना था '
- एकालाप को चुप में बदलना कितना मुश्किल है यह
समझना सात जन्मों के बलिदान के बराबर है
एक
लंबे अभ्यास के बाद मोहमाया से मुक्त हुआ और सब छोड़ा - पहले संसार का मोह, जीवन की अनंतिम इच्छाओं से मुक्ति मिली फिर
प्रेम और साहचर्य की डोर तोड़ी, भावनाओं के पुल पार करके इस
ओर आया,
पर यहाँ भी कड़े बंधन और बड़े आकर्षण थे जिन्हें
अबाधित रूप से पार किया - कुछ पाने की, यश
और कीर्ति पताकाएँ लहराने की प्रत्याशा अभी भी मन के किसी कोने में शेष थी -
लिहाज़ा फिर मुड़ा पर जल्दी ही विमुख भी हुआ - रंगों के प्रति आसक्ति शेष थी
जब
माया और आसक्ति का सम्मिश्रण प्रारब्ध से ज्यादा आकर्षक लगने लगे तो मान लीजिए कि
शोर अन्तस् में कही गहरे समा गया है और इसे पाटने में माही, ताप्ती, रेवा, नर्मदा, कावेरी
या गंगा का पानी भी कम पड़ेगा - अपने भीतर आवाजों और शोर का गोमुख होता है जिसकी
दिशा हम ही तय करते है - हालांकि यह देख - समझ पाने की स्थिति आने में उम्र का
लम्बा हिस्सा चला जाता है पर जिसने जितनी जल्दी समझकर आत्मसात कर लिया - समझो वो
सारे शोर से दूर होकर व्योम में अदृष्यमान हो गया
यही
है जो हमें पाना है,
एक ब्रह्मनाद जो लगातार बजता भी रहें और सुकून
भी दें,
अपने भीतर हम पहचान सकें कि आवाज़, शोर, शांति, सुकून, सरसराहट
और झींगुरों के महीन संगीत का क्या फर्क है, शाम
को डैनों पर लौटते कबूतरों की आवाज़ का अर्थ क्या है - अमावस को रंगीन बनाने के लिए
पहले प्रकाश की लड़ियों और उनके पीछे की आवाजों की व्याकुलता क्या है
कबीर
कहते है -
" इस घट अंतर बाग बगीचे
इसी
में सिरजनहारा
इस
घट अंतर सात समंदर
इसी
में नौ लख तारा
इस
घट अंतर पारस मोती
इसी
में परखनहारा
इस
घट अंतर अनहद गरजै
इसी
में उठत फुहारा
कहत
कबीर सुनो भाई साधु
इसी
में साई हमारा "
अपने
भीतर के शोर को सुनता हूँ - फिर सुनने गुनने में लग जाता हूँ - दूर कही पदचाप
सुनाई देते है - वा घर सबसे न्यारा ..
और
उठता हूँ - चलने की तैयारी करता हूँ ...
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रास्ते
थे,
सड़के थी, नदियाँ, पहाड़, हवाई
किलों से गुजरने वाले पथ और चलने वाले असँख्य पाथेय - जो अपनी अपनी छाप देकर वहां
चले गए है जहां की आबादी आज की धरती पर बसे इन ज़िंदा लोगों से बहुत - बहुत ज्यादा
है,
सक्षम , दक्ष
और अनुभवी है - बस इतना है कि वे सब सदैव के लिए चुप हो गए है - उनके नामों का
डंका जरूर आज भी गाहे बगाहे लोग पीट लेते है पर उनमें से कोई आज हुँकार नही भरता
एक
ओर तवांग लिखा था,
कही कोहिमा, कही
नड़ियाद,
कही गजपति, किरन्दुल, कोंडागांव , सुकमा, गरियाबंद, अलैपी, कोदमंगलम, आलुवे, त्रिचि, सत्यमंगलम, डिंडौरी, बालाघाट, छोटा उदयपुर , सातारा, चोपड़ा, शिंगणापुर, धुले, खम्मम, वारंगल, मैसूर, या कन्याकुमारी - हर रास्ता कही से आ रहा था और
कही जा रहा था - ठहरे हुए थे तो वो सूचना फलक जो यात्रियों को मंजिलों की दूरी
बताते थे
पीठ
पर अतीत का बोझ,
आंखों में खोजने का सुरूर, दिमाग मे कौतूहल और पाँवों पर चलने का दबाव लिए
जीवन बढ़ते जाता था - कभी चंबल के बीहड़ पार किये , कभी
अबूझमाड़ के जंगल,
दुधुआ का बड़ा जंगल या काजीरंगा के गैंडों से भरा
रोमांचित करने वाला सघन वन,
मांदल की थाप सुनते हुए पगडंडियों पर से गुजरा
तो महुआ और ताड़ी का स्वर्गिक स्वाद लेते हुए झूमकर हलमा देखा , आसाम के जँगलों के बीच से चिंघाड़ते ब्रह्मापुत्र
का रौरव देखा,
तो सूखी हुई महानदी को देखा, कूनो के किनारे सहरियाओं को भूख से मरते देखा तो
माही,
रेवा , ताप्ती
किनारे लोगों को निश्छल हंसते देखा, नर्मदा
क्षिप्रा में लाशों के ढूह जलते देखें तो गंगा के मणिकर्णिका घाट पर लाशों को
इंतज़ार करते देखा ,
कृष्णा - कावेरी किनारे अघोरियों को नर मूंड की
माला फेरते जीवन से भरपूर तृप्ति से सरोबार देखा
सोमनाथ
के समुद्र से क्या सीखा याद नही पर रामेश्वरम के चारो ओर खारी धरा पर मीठे पानी के
कुण्ड देखें,
महाबलीपुरम में रेत के अटल महल और कलाकृतियां
देखी तो कन्याकुमारी में बीच समुद्र में खड़ा योगी का तपस्या स्थल देखा, अरविंद की साधना जिस रेत में समा गई वो
पांडिचेरी का समुद्र देखा और कोच्चि के पानी का उद्दाम उछाल देखा , चंद्रभागा के किनारे से कोणार्क के आधे अधूरे
मन्दिर का जीर्ण शीर्ण भाग्य देखा
हर
रास्ते पर दिशाएं थी - दाये , बाये, सीधे, मुड़िये, पलटिये, घूमिये, रुकिए.... आँखों, पाँवों
और हौंसलों के सहारे बीत्ते भर कदमों से दुनिया नापने की भरपूर कोशिश की - दुनिया
में रंगों की कमी नही थी - एक हरे या कि नीले या लाल के इतने प्रकार और भिन्नताएँ
थी कि उन्हें ही समेटने की कोशिश करता तो सहस्र जीवन कम पड़ जाते - हर जगह के सूरज
और चाँद अलग थे - हर सुबह,
शाम और रात का अपना नशा था और हर मध्य रात्रि और
भुनसार में शुक्र तारे की जगह अलग थी - मैं हर भोर में एक अलग आलाप में प्रार्थना
के स्वरों में बुदबुदाता था और निश्छल मन से आगे बढ़ जाता कि आज का सूरज किसी और
मिट्टी से उगता देखूँगा
हर
जंगल से गुजरते हुए हर बार नीलकंठ की आकृति छोटी बड़ी दिखाई देती और हर बार दिखने
पर मैं पूरी बेशर्मी से मांग लेता था बहुत आप्त और कातर स्वरों में - कई बार बल्कि
बहुधा नदियों किनारे और समुद्र के असंख्य लंबे रेत पसरे दुरूह मार्ग पर दौड़ता
नीलकंठों के पीछे कि एक बार हाथ मे पकड़ लूँ कसकर और उसकी आँखों मे आँखें डालकर
पूछूँ कि मेरी प्रार्थनाएँ कहाँ है - वो सुगठित दुआएँ और मांगे गए सभी अनमोल वचन
कहाँ है - बता नीलकंठ इस गरल विष का रहस्य क्या है - क्या मेरे सारे प्रश्न यही
कही क़ैद है या उनके भी कही बोर्ड लगे है - दाए , बाये
,आगे , पीछे
या आगे खतरनाक मोड़ है - जैसे कुछ चिन्ह जिन्हें मैं चीन्ह नही पा रहा
आगे
इतना आ गया हूँ कि अब ना ऊंचाई दिखाई दे रही और ना तराई , ना बीहड़ है स्वच्छ आसमान के नीचे कोई संकरी राह, धरती का अक्ष भी अपनी धुरी पर नही लगता है और
मेरी प्यास बढ़ रही है - एक अक्षुण्णता , अभय
की वेदना,
पीड़ाओं के संताप , कोलाहलों
का प्रलाप,
बेचैनियो की गल्प कथाएं मुझे फिर घेरकर नर्मदा
किनारे ले जाने को बेबस कर रही है , कोवलम
के तट,
मुन्नार के जंगल, कालाहांडी
की भूख,
जोरहाट की बाढ़, कोशी
का गन्दला पानी,
तवा किनारे टकरा गए लाशों के ढेर और गौहाटी के
छिन्नमस्ता देवी के कामाख्या मन्दिर के मंदिर के पुजारी का प्रश्न याद आता है जो
भोलेनाथ मन्दिर के बाबा बालकदास महाराज ने भी मुझसे कभी पूछा था -
" बाबू
चलने और दौड़ने के लिए तो उम्र पड़ी है - जोश , ताकत
सब है तुम्हारे पास पर सड़कों पर , पगडंडियों पर, पानी मे, समुद्र
की ऊंची लहरों और हवाओं की पीठ पर लिखे दिशाओं के बोर्ड पढ़ना जानते हो ना - यदि
कभी पढ़ नही पाएं तो सोच लेना वही थमना होगा "
इस
बवंडर में उड़ती धूल और कचरे के बीच अपनी आँखों को आहिस्ते से पोछता हूँ - कोरो पर
लुढ़क आये आँसुओं के स्वाद को चखता हूँ - मुझे दिशाओं का ज्ञान नही हो रहा -
विस्मृति का एहसास हो रहा है और सब कुछ धुंधलाता जा रहा है
मैं
किसी को थामना नही चाहता - ना कांधा और ना हाथ - मेरे कमरे के गाढ़े नीले रंग की
दीवार दिखती है बस....
18
कल
एक बहुत प्रिय मित्र को एकांतवास में भेज दिया गया, उसका
बेटा भी संग में इस काल मे ग्रसित हो गया, कल
ही एक मित्र ने बताया कि मात्र 34 बरस का एक युवा यहाँ भर्ती कर
लिया गया है,
भोपाल में एक मित्र के माता पिता अकेले रहते है
- दिन रात समाचारों की आंधी से भड़भड़ाकर वे मान बैठे है कि काल उनके दरवाज़े पर
दस्तक दे रहा है,
चलते फिरते उन्हें लगता है कि कोई कह दें, यह घोषित कर दें कि वे अब ज़्यादा समय रह नही
पाएंगे ,
एक मित्र आशंका में अपना सब कुछ खोलकर बैठ गए
बही खातो से लेकर कपड़े और जेवरात भी - घर मे उपस्थित लोगों को बांट रहें है - हाथ
की अंगूठी और गले से चैन निकालकर दे दी - निर्मोही हो गए और सारा दिन बरामदे में
लटके झूले पर बैठे रहते है कि मौत आये और अपने पंजो में दबोचकर ले जाये
अभी
एक सब्जी वाला निकला है - भरी धूप में, उसके
ठेले पर सिर्फ आलू है और अपने जीवन को जो दांव पर लगाकर बाहर निकलता है , वह कहता है - " क्या है बाबूजी, जब तक जीना - तब तक सीना - मेरे बूढ़े माँ बाप, एक विकलांग बच्चा और मूक पत्नी - उनके लिए ही तो
करना है सब,
यदि इस समय में नही किया तो फिर कब अपने आप से
निगाह मिलाऊँगा ,
जिंदा हूँ तो करना ही पड़ेगा सब और ना रहा जिंदा
तो फिर मुक्ति मिल ही जाएगी ना - गरुड़ पुराण में सुना है स्वर्ग होता है "
मैं कुछ नही कहता उससे ,
बस दूर जाते हुए देखता हूँ
कितनी
सारी कहानियाँ लिखना बाकी है अभी - पेशेवर काम की , अपनी, अनुभवों की, और
दुनिया जहान की ,
पर मन उचट गया है - सबको पूछता हूँ कि क्या हाल
- जवाब आते है कि लिखने पढ़ने में मन नही लगता, एक
गिल्ट - अपराध बोध हावी होता जा रहा है - सुबह उठो, खाना
बनाओ,
खाओ, सुस्त
से पड़े रहो,
फिर शाम का इंतज़ार और रात फिर जो कुछ डिब्बों
में बचा है उसे टटोलकर स्वांग करते हुए बेशर्मी से खा लो और नींद से दो - दो हाथ
करते रात गुजरती है
फोन
पर बात करने की इच्छा नही होती अब, अपने
एकांत को खुद चुना था पर कल जब से मित्र का सुना तो सन्न रह गया हूँ, कबीर कहते है " ज्यों की त्यों धर दीन्ही
चदरिया " पर इतना आसान है क्या - जन्म के समय ही मैली थी - मैल से ही जन्में
और मैल में ही लोट लगाते हुए जीवन को पखारा - निखारा, उजलेपन की तलाश में कालिख में धंसते गए, भोग, विलास, हवस, वासना, लालच, संचय, अनासक्ति और संसार के भंवरजाल में ऐसे उलझे कि
चादर को गन्दला करते गए - जब लगा कि अब मुश्किल हो रही तो मुखौटे ओढ़ लिए और फिर
तैयार हो गए - इस निर्लज्जता में एक दिन ऐसा आया कि सब कुछ बिसारकर निसंग हो गए
श्रद्धा
और सबुरी सिर्फ कही लिखा हुआ नही था बल्कि ये पढ़ - समझकर हमने इसके विलोम में एक
वितान रच लिया और मकड़ी की तरह जाला बुनते गए , अपने
आपको वृहद संजाल में पाकर ख़ुश हुए , पर
यह भूल गए कि यही और ठीक इसी जगह हमें अपनी चादर छोड़ना होगी सबको छोड़कर जाना होगा
कितने
काम अभी शेष है - साधना की क़िताब टेबल पर पड़ी है - वर्षों का अथक श्रम बिखरा पड़ा
है - इसे एक सूत्र में पिरोकर बाँधना है चलने के पहले, अंतिम यात्रा की कहानियाँ आरती के लिए पूरी करके
देना है,
संजीव की किताबों को पढ़ा है पर उनपर कुछ नही
पाया था,
दराज़ों से झाँकते ख़त मुकम्मल करने है, उन सभी शोकपत्रों को जवाब देने है जो असमय काल
के गाल में समाएँ है ,
अपने आपको रीतना है कुछ यूं खंगालते हुए कि सब
कुछ शेष निःशेष हो जाये
चिड़ियाओं
के लिए खुली छत पर दाना रखना है जिन्होंने इन लंबे दिनों और तप्त रातों में जागने
का मौका दिया,
गुलमोहर के पेड़ पर बैठे उस अनजान चमकदार पक्षी
का शुक्रिया अदा करना है जो भोर में शुक्र तारे के उदय तक मेरे साथ जगा और मेरे
विचारों के प्रवाह को बाधित नही होने दिया , उन
चींटियों के लिए कुछ शक्कर के दाने महफ़ूज रखने है जो शरीर पर उस समय अथक कतार में
रेंगती रही जब लगा कि अब सब कुछ त्याग चुका हूँ और तिरोहित हो चुका हूँ
मैं
सोचता हूँ अभी क़ाया पर बोझ बहुत है - सांसारिक नही पर अपने जाये दुखों का, बहुत से कन्फेशन खुद से ही करने है - यह जिंदा
रहने का मोह नही - पर ज्यों की त्यों धरने से पहले दाग धब्बे मिटाना है और इसके
लिए तो कुछ क्षण चाहिये ही होंगे, लोग असल में गलतियों को माफ़
नही करते,
जानबूझकर भूल जाते है - विस्मृति एक बड़ी नेमत है
और मैं मुतमईन हूँ कि एक दिन मैं भी भूला दिया ही जाऊँगा, इस नश्वर देह के धरे का दंड भी यही है
" जगी
असा सुखी कोण " और यही समझने में जीवन निकल गया समूचा और अब चादर बदलने की
बेला आई है तो लगता है रँगरेजा से जाकर पूछूँ कि कौन से पानी में तूने कौन सा रंग
घोला है ,
इसलिए आज कबीर के साथ तुकाराम याद आते है जो
कहते थे -
' तुका म्हणे उभे राहवें
जै
जै हुई तै तै पाहवे '
19
1982 में
तिरुपति बालाजी चढ़े थे तो पैदल ही चढ़ना होता था, वहाँ
बहुत लोगों को कबीट ( कैथा ) के माफिक सर मुंडवाते देखा - हिंदी बोल रहे थे तो खूब
मार खाई -एक गंजी स्त्री ने उन सबका मुकाबला किया और भीड़ को समझाया था तेलगू भाषा
में कि बच्चे है जाने दो,
हिंदी यही इसी देश की भाषा है, इसी यात्रा में राष्ट्रपति पुरस्कार लेना था -
तत्कालीन मद्रास के यंग मैन क्रिश्चियन एसोसिएशन [YMCA] के
मैदान पर 15
दिन रुककर कैम्प किया था, आने में कन्याकुमारी देखा पहली बार, रामेश्वरम और मण्डपम के बीच खुलने वाला समुद्र
किनारे का पुल बना ही था नया नया, वहाँ के लोगों की हिम्मत कमाल
थी पता नही था कि यहाँ का कोई बन्दा राष्ट्रपति बनेगा एक दिन
सत्यमंगलम
के घने जँगलों में जब उपर चढ़े तो लगा कि लौट पाऊँगा या नही, वीरप्पन जिंदा था - वहाँ खेतों की बागड़ पर बिजली
के तारों की लटें देखी कि फसल हाथियों से सुरक्षित रहें - एक दिन दोपहर में जंगल
मे भूख लग आई तीन बजे तक कुछ मिला नही था, एक
झोपड़ी किनारे एक बूढ़ी माई वड़ा बेच रही थी, गया
तो बोली " खा लो,
पैसा मत देना भले, पर
ये खराब ना हो जाये,
अकेली रहती हूँ, उस
बदमाश के कारण कोई आता नही" तो फिर -मेरा प्रश्न था वो बोली - " फिर
क्या उम्मीद तो होती है ना - जैसे तुम आ गए आज "
गौहाटी
- जोरहाट में भयानक बाढ़ थी,
खूब पानी था एक गांव में फंसा हुआ था एक हफ्ते
से,
गृह स्वामी सिर्फ चावल का मांड दे रहा था पीने
को क्योकि उसके पास ही कुछ नही था, एक
शाम जब उसकी छोटी सी बिटिया ने परेशान देखा तो भरी बरसात में कही गई और शाम मांड
पीते समय अपने हाथ में दो हरी मिर्च लेकर मुझे बोली - बड़ी मुश्किल से मिली है
दोस्त के घर से लाई हूँ,
जब मुश्किल समय हो तो मिर्च भी खा लेना चाहिये
किरन्दुल
,
कौन्डागांव और बस्तर में घूमते समय पेट खराब हो
गया,
गोपीनाथ साथ थे, बड़े
चिंतित - हल्बी गोंडी दोनों को नही आती थी, एक
पहाड़ी कोरबा ने चेहरा पढ़ लिया, जंगल से गुजर रहे थे तो रुकने
का इशारा किया और जंगल मे घुस गया, लौटा
तो हाथ में कोई जड़ी थी - मेरा हाथ पकड़कर वो जड़ी पकड़ा दी और अभिनय कर चबाने को कहा, पहले तो तैयार नही हुआ फिर मैंने सोचा मरना तो
है ही - आज ही सही ,
मुंह मे उस कसैली जड़ी को रखकर चबाया - पांच
मिनिट ऐसा लगा कि शरीर से सब रोग भाग गए है - उस आदमी की आंखों में चमक थी और मेरी
पलकें झुकी थी
मंडला
के मवई ब्लॉक के किसी दूरस्थ गांव में था, रात
आने में गाड़ी खराब हो गई,
जो साथी बाइक चला रहा था उसने घोषणा कर दी कि अब
रात यही गुजरेगी और वह कच्ची धूल भरी सड़क पर गमछा बिछाकर सो गया - मैं घबरा रहा था, रात डेढ़ बजे के करीब दो युवा सायकिल से गुजरे तो
और पसीना आ गया - वे क्या बोल रहे थे पता नही पर अचानक उन्होंने मेरा बैग उठाया और
हाथ पकड़कर खींचने लगे - मेरे पास उनके साथ जाने के अलावा चारा भी नही था, लगभग सात किलोमीटर चलकर पहाड़ी पार एक गांव आया -
उनका घर,
चूल्हा जलाया, गर्म
पानी किया एक बाल्टी में नमक डालकर मुझे इशारा किया कि पाँव डाल दूँ, थोड़ी देर में चावल बनाकर लाये और बाड़ी से दो हरे
टमाटर तोड़कर मुझे खाने को दिए - अगले दिन मुझे मवई लाकर छोड़ा, जब मैंने रुपये देना चाहे तो नोट को अलट - पलट
कर देखते रहें और मुस्कुराकर वापिस कर दिए और लौट गए
तवांग, अरुणाचल , में
एक बार एक गांव में सुबह से भूखा था - काम करता रहा शाम तक शुगर कम हो गई, चक्कर आने लगे - शक्कर तो दूर कुछ ऐसा नही था कि
जल्दी से मीठा खाकर इस हायपो ग्लासोमिया को ठीक कर लूँ, लगा कि आज राम नाम का सत यही लिखा है - एक
बुजुर्ग महिला देख रही थी - घर मे घुसी और पता नही कोई पत्तियां ले आई और मेरे
मुंह में ठूंस दी- कड़वी थी पर थोड़ी देर बाद मिठास घुलने लगी और चक्कर आना बन्द हो
गया,
भूख भी गायब थी - देर तक उसी गांव में था, उस महिला से नाम भी पूछा पत्ती का पर भाषा का
बंधन था
अमरवाड़ा
- छिंदवाड़ा के दूरस्थ गांवों में चार ( चिरौंजी ) बीनती आदिवासी महिलाओं को पूछा
कि अस्पताल दूर है तो क्या दिक्कत होती हैं - बोली बाबू खूब काम करते है सुबह चार
बजे से देर रात तक,
कड़ी धूप में रहते है, पैदल चलते है, नदी
तालाब का पानी पीते है और कोदो कुटकी मड़िया खाते है तो बीमारी नही होती, जचकी घर करवा लेते है बहु बेटी की तो अस्पताल का
क्या करना हैं - वो फिर चार बीनने जँगलों में घुस गई थी
पचमढ़ी
में गुप्त महादेव से ऊपर चढ़कर आओ तो उस पगली को देखा ही होगा जो चट्टानों के बीच
बैठी जोर जोर से गाती रहती है या चित्रकूट में सती अनुसूया के मंदिर जाओ तो बीच की
नदी किनारे एक पगली गाती रहती है बिंदास, इन्हें
फर्क नही पड़ता,
मांडू ने रूपमती के महल की चढ़ाई पर नीचे एक बूढ़ा
प्रेम के खतरों से सबको आगाह करता चिल्लाता रहता है और उज्जैन के राम घाट पर एक
अघोरी को जीवन से निराश देखा था, ट्रैफिक सिग्नल पर कई
विकलांगों को गाड़ी धकेलकर भीख मांगते देखा है पर ये सब जीवन से हताश नही है - एक
उदात्त भाव से लड़ रहे हैं और इन्हें कोई बड़ा संकट तो क्या यह विषाणु मार नही
पायेगा
अब
मेरे पास सब व्यवस्थाएँ किसी मजबूत और भारी भरकम असले की तरह पिट्ठू बैग में रहती
है ,
ज़्यादा चौकन्ना भी रहता हूँ पर उतना ही शंकित
रहता और डरता हूँ कि कही कुछ हो ना जाये, मौत
का डर अब ख़ौफ़ के मानिंद तलवार की तरह लटका रहता है, खिलंदड़पन
अब खत्म हो गया,
जोखिम लेने से दूरी बनाकर रखता हूँ , उत्तरार्ध का समय है और चलाचली की बेला
रोज
किसी स्कोर की भांति मौत के आँकड़े डराते है, इतने
विचित्रताओं वाले देश में अभी वो लोग सुरक्षित है जो आधुनिकता के भँवर जाल में नही
फंसे है और प्रपंचों से दूर हैं, वे आज भी सड़के नाप देते है, पहाड़ उलाँघ जाते है, नदियों को पार कर जाते है, जँगलों की खाक छानकर जीवन का रस बटोर लेते है, आसमान के नीचे महज चावल का मांड पीकर सदियों से
जिंदा है,
तमाम असुविधाओं में जिन्होंने जीवन को सुंदर बनाया
और निश्चल भाव से जीते हुए हारी मुसीबतजदा लोगों के सुख दुख में काम आते है
मैं
सोचता हूँ क्या यही फ़लसफ़ा है, क्या उम्मीद इसी का नाम है, क्या कन्याकुमारी के समुद्र में स्टीमर में
बैठकर सिक्के फेंककर उन्हें बीनते हुए बच्चों को हम मौत का यह भय दिखा पाएंगे और
रोज गोते लगाने से रोक पायेंगे या गंगा किनारे बनारस में मणिकर्णिका के डोम नही
जानते एक सांस के रुकने का अर्थ और काजीरंगा, बांधवगढ़
या कान्हा के जँगलों में ड्यूटी कर रहा एक युवा वन रक्षक जिसने जीवन की शुरुवात ही
खतरों से की है और जिसे मौत कभी भी दबोच सकती है सेकेंड्स में और वो स्वाहा हो
जायेगा - पर वो सुनहरे सपनों के साथ मुस्तैदी से तैनात है वहाँ कि जब आप जाये तो
वो आपको अपनी जान जोखिम में डालकर बचा लें
उस
सड़कों,
पुलों, नावों
और हवाई सफर को याद करता हूँ तो झुरझुरी होती है, हिम्मत
नही होती कि उस सब को पुनः जियूँ और एक बार दौड़ पडूँ नंगे पांव कि सत्य मंगलम की
वो बूढ़ी अन्नपूर्णा याद आती है , गरियाबंद की वो नदी जहाँ से
निकाला था उन गंवार आदिवासियों ने जिन्हें हम पिछड़ा कहते है, और पीठ पर मुक्के मार मारकर नवजीवन दिया था - आज
मेरे अंदर फिर पानी भर गया है भवसागर का और मैं सांसें नही ले पा रहा हूँ
अफसोस
कि ना उलीच पा रहा हूँ और ना पीठ पर मुक्के मारने वाला नजर आता है, इस बाजारू दुनिया के ख़ौफ़ से उस अनजान भाषा की
दुनिया शायद मेरी अपनी थी
जो
सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पायेगा
20
अभी
किसी से फोन पर बहुत लंबी बात हुई - आवाजों के शोर के पीछे जो आंसूओं का दर्द था
वो मैं महसूस कर पा रहा था,
हम दोनों में पिछले एक दशक से एक अबोला प्रेम था
- निश्छल,
अबोध और बगैर अपेक्षाओं वाला - हम व्यक्त करने
में बहुत समय लेते है इसलिए जब हम किसी को सुनते है तो एकाग्र होकर सुनें और अपनी
ओर से कुछ ना जोड़े,
बल्कि यदि कहना भी हो तो इतना ही कि बस सामने
वाले को लगे कोई है जो सुन गुनकर मेरे साथ है
बात
संसार,
स्मृतियों, अपेक्षाओं, उम्मीदों पर खरा उतरने और महत्वकांक्षाएं पूरी
करने और किसी के लिए अपने को कुर्बान करते हुए साबित करने की थी - जब बात हो रही
थी - तो मैं अपनी ओर से हूँ हाँ कर रहा था, पर
अपने भीतर ही भीतर मथ रहा था कि ऐसी ही झड़प मेरी जब किशोरावस्था में था तो पिता से
हुआ करती थी,
भाई से, रिश्तेदारों
और दोस्तों से हुआ करती थी,
अपने शिक्षकों से भी उलझा रहता था - फिर एक समय
बाद इश्क और कालांतर में नौकरी में भी झड़प होना स्वाभाविक था
पर
आज इस एकांत में अपने इस गाढ़े नीले दीवार वाले कमरे में बैठा हूँ तो लगता है क्या
बदला - पिता नही बदले - धीरे धीरे उन्होंने बात करना कम दिया, इतना कि बस जरूरतों पूरते बात होती और जब वे
अस्पताल में लंबे - लंबे समय रहते तो माँ को कहते - उसे पूछ लो कुछ चाहिए तो नही, ऑपरेशन की आख़िरी रात को माँ ने भी सिर्फ इतना
पूछा था जब वो पूरे होश में थी कि एक बात कहना थी ... पर छोड़ , घर आने पर बताऊंगी और वो कभी घर नही आ पाई , उसे लगा कि मैं फिर झड़प करने बैठ जाऊँगा, दोस्तों से भी कई बार बात करना छोड़ दिया कि रहने
दो कोई मतलब नही,
38 साल की नियमित नौकरियों में बहस करता रहा और फिर
जब लगा कि अब सम्भावना नही है कोई, तो
सब कुछ स्थगित कर छोड़ दिया , इस तरह से 12 - 15 नौकरियां की और अंत मे स्थाई रूप से निरापद हो
गया इधर आठ वर्षों से,
जीने की अपनी समस्याएं है पर जुगाड़ हो जाता है
रोते झीकते
लगता
है प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है आपको बनाकर छोड़ती है - आप चाहे जो कर ले, धीरे - धीरे एक श्रद्धा अपने आपके प्रति उपजने
लगती है,
एक आस्था जन्मती है - अपने कही बहुत भीतर कि आप
ठीक हो,
संसार में बहुत कुछ हो रहा है जो आपके अनुकूल
नही है,
पर अंत मे सिर्फ यही कहकर हम हर बार खत्म कर
देते है कि किया क्या जाए - अब ऐसा है - तो है
शायद
यह अभी हमारी बातचीत में भी उभरा - हम जोर से हंस दिए थे दोनों और भीतर जो पिघल
रहा था हम दोनों के वह निकल आया, बहने लगा निर्बाध - यद्यपि
विश्वास और भरोसा एक दूसरे पर हम अपने आप से भी ज़्यादा करते है पर फिर भी बहुधा यह
कहकर हम एक बार टटोल लेना चाहते है कि 'यह
बात हम दोनों तक ही रहें',
एक कोमल तंतु से बंधे ये रिश्ते ना बहुत सख्त
होते है जो हल्की सी चोट से क्षणभंगुर होकर बिखर सकते है
कई
मौके जीवन मे आये जब बिखरा,
टूटा और सम्भला पर हर बार विश्वास और आस्थाएं थी, झड़प और बहस ने ताकत दी दृष्टि दी - इन्हीं से
सीखा कि पूरा होना क्या होता है और इसी सबमें कब सम्पूर्णतावादी हो गया { Gestald Theory } पता नही चला - धीरे - धीरे यही जिद और अड़ियलपन
कब मुझे विरक्त कर संसार से इस बियाबान में ले आया पता नही चला पर जब यहाँ से उस
भरेपूरे संसार को देखता हूँ - तो हर शख्स मुझे अमर बेल सा लगता है किसी ना किसी पर
आश्रित - यह आश्रय नौकरी या आजीविका का नही - परन्तु विचार, अभिव्यक्ति, भावनाओं
के संतुलन और आस्थाओं का है
लम्बी
- लम्बी बातचीत में हर बार सब ठीक है और मिलते है - के साथ एक विराम लग जाता है और
लगाना ही पड़ता है - क्योंकि किया क्या जा सकता है - हम सबके अपने ट्रेक है , अपनी - अपनी कांस्टीट्यूएन्सी है जिसमे किसी और
का दखल हमें पसंद नही होता,
पर हमेंशा से ये जरूर लगता रहा है कि हम मुक्त
ही पैदा हुए है और सदैव मुक्त रहते है - बंधन हम पर पहले थोपे जाते हैं, फिर हम खुद ओढ़ते है और अंत मे उनमें ही रहने की
आदत पड़ जाती है हमे,
प्रकृति जैसा हमे गढ़ना चाहती थी - गढ़ ही लेती है
और हम निराकार उस साँचे में ढलकर एकनिष्ठ हो जाते हैं
यही
जीवन है ,
यही सार है, इसलिए
झड़प होना बहस होना,
मतभेद होते रहना यानि ये सब जीवन को हिमांक पर
ले जाने के चरण है,
यही है जो आस्था और विश्वास के तागे से जोड़ता है
और अंत मे उस रूप में ले आता है जिस रूप में प्रकृति हमें वापस चाहती है
हम
जब इस रूप में आते है तो खत्म हो चुके होते है - मेरे जानने वालों में कई जौहरी, सुनार, कपड़े
पहचानने वाले,
चाय का स्वाद पहचानने वाले, मसालों की खुशबू से पहचान करने वाले लोग थे - जो
अपने हुनर के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचते- पहुंचते इतने बूढ़े और निस्पृह हो गए कि वे
खुद को भी पहचान नही पायें
संगीत
के कई उस्तादों को जानता हूँ जो आरोह अवरोह की धार में से आलाप लगा पाते तब तक
उनकी स्वर लहरियाँ ही बिखर गई, कच्ची उम्र से तबले और पेटी
पर हाथ साधते कलाकारों को देखा - जब तक माध्यम उनके बस में आता वे विलोपित हो गए -
पता नही क्यों हर अच्छे गोताखोर को डूबकर मरते देखा है, अच्छे डाक्टर को तड़फकर मरते देखा और अच्छे इंसान
को लाचारी में मरते देखा
एकांत
में सोचिएगा कि आपको जब प्रकृति ने जन्म दिया था - आप कैसे थे और पिछले वर्षों में
आप कैसे - कैसे रास्तों से गुजरे है और अब प्रकृति आपको कैसे वापिस लेना चाहती है
- क्या आप तैयार है इसके लिए और क्या भरोसा, आस्था
और प्यार के रस में पगी हुई वो चाहत आपमें अभी धड़कती है
मौत
के इस समय में एक क्षण विचार करिये कि प्रकृति आपको कैसे वापिस लेना चाहती है और
आपमें वो देख पाने की क्षमता है
मैं
अपने को देखता हूँ तो बस लगता है जितना सरल और पारदर्शी हो सकूं - वही पर्याप्त है
,
हाथ खाली है, दिमाग
का बोझ रीत ही रहा है - मोह के धागे कभी नही थे, सो
अकुलाहट और लालच कुछ नही है, बस शनै: - शनै: तिरोहित हो
रहा है - एक भरपूर जीवन का प्रतिफल और क्या होना चाहिये इससे बेहतर
21
पैदा
होने के बाद ग़लत स्कूल में चला गया जहां तीन ग़लत प्राचार्यों और पचास साठ ग़लत
शिक्षकों ने ग़लत पढ़ा दिया - गणित के बदले जीव विज्ञान विषय गलती से भर दिया प्रवेश
फॉर्म में तो भुगतना पड़ा आजतक जीवन में - माध्यमों के खेल में असली खेल सीख ही नही
पाया कभी
एक
दिन जवाहर चौक देवास में ग़लत जगह खड़े होकर केरल से आये नुक्कड़ नाटक के दल का भोपाल
गैस त्रासदी पर नाटक देख लिया और जीवन देखने की दृष्टि ही बदल गई
उस
दिन एक गलत बस में बैठा था और वह बस मुझे उस गांव ले गई जहां से बदलाव और विकास का
नया रास्ता चुना मैंने
कुछ
ग़लत दोस्तों की सोहबत का असर था कि पटरी ग़लत चुन ली और फिर जीवन की रेल किसी मकाम
पर नही पहुंच सकी - उन ग़लत दोस्तों को आजतक ढोता रहा और अब वे मेरी आत्मा पर
प्रेतात्माओं की तरह नृत्य कर मेरी शांति भंग करते है
ग़लत
किताबों ने उल्टे पुल्टे सिद्धांतों से दिमाग़ खराब किया, ग़लत विचारधारा अपनाने से मार्ग अवरुद्ध हुआ और
उन रास्तों पर चला गया जहां काँटे ज़्यादा और पत्तियां कम थी - फूल तो छोड़ ही
दीजिये आज रॉबर्ट फ्रॉस्ट को याद करता हूँ तो मुस्कुराकर "रोड नॉट टेकन"
कविता गुनगुना लेता हूँ - "द टेबल टर्नस " कविता आजतक नही समझ पाया -
"कुबला खान" की तरह विचार मानो खलबली मचाते है हर पल
सब
समान थे - यह अजीब लगा,
बजाय इसके कि मैं हर जगह अलग और ग़लत क्यों दिखता
हूँ - सब भीड़ में है ,
संग साथ है हर कोई, हर किसी के और मैं भीड़ में होकर भी अकेला क्यों
हूँ
जब
लोग सहस्र धाराएं नर्मदा के किनारे खोजते थे, पक्के
घाटों पर सौंदर्य निहारते थे - चाहे वो नर्मदा का महेश्वर घाट हो, होशंगाबाद का सेठानी घाट या गंगा का असी घाट या
लखनऊ में गोमती का किनारा - पर मैं रेत घाट या मणिकर्णिका पर लाशों के जलने की
पीड़ा को महसूसता था
पूरी
भीड़ जब तंत्र मंत्र और भविष्य जानने को उत्सुक थी - साधु संतों के द्वारों पर, तो मैं श्मशान में सिद्धि सिद्ध कर रहें
अघोरियों के बीच हड्डियों के खेल देखता था आधी रात को अकेला और उनसे कभी नही डरा
पचमढ़ी
का धूपगढ़ हो या कन्याकुमारी का समुद्र तट - एक भीड़ उगते सूरज से ऊर्जा पाने और
देखने को लालायित रहती थी और मैं मरीना बीच, ब्रम्हापुत्र
के किनारे,
सूखी महानदी या खत्म होती माही नदी के किनारे
खड़ा होकर डूबता सूरज देखता था
लोग
पूजा आरती के समय सीधे हाथ के पंजे को बाये पंजे पर पीटकर ताली बजाते है और मैं
बाये हाथ के पंजे से सीधे हाथ के पंजे पर पीटते हुए ताली बजाने की कोशिश करता हूँ
पर निराश नही होता - ठीक वैसे जैसे गोल होठ करके या दोनो हाथों की उंगलियों को
पूरा मुंह फाड़कर भी सीटी नही बजा पाता आजतक - कहा ना मेरी अयोग्यताओं की कोई सीमा
नही है इस जीवन में - अस्तु ना मैं रहूँगा ना मेरा बीज इस संसार में - सब कुछ मेरे
साथ ही खत्म हो जाएगा
तैर
नही पाया आजतक - कितनी बार कितनी नदियों- तालाबों और समुद्र में उतरा पर तैर नही
पाया - शायद यह सब संसार होने के पर्याय ही थे - जहां वही शख्स तैर पाता है जिसमे
हिम्मत होती है - इस पार से उस पार तक सांस रोककर जाने की, गहरे पानी मे डूबकर हाथ पांव हिलाते हुए संतुलन
बनाकर झटके से निकल जाने की
पर
बोला ना - पूरा बचपन ही ग़लत जगहों में रहा, ग़लत
संगत से घिरा और आधी अधूरी यात्राओं में बैठता रहा - इसलिए अपने भीतर वो साहस और
जज्बा पैदा ही नही कर पाया,
हर जगह से अपने को हकालते - धकेलते यहाँ तक चला
आया हूँ - जहां जिंदगी एक बार फिर चार कमरों की दीवारों में कैद होकर रह गई है -
वैसे ही बिलख रहा हूँ जैसे पैदा होते ही सम्भवतः रोया था
यह
सब करने के लिए भी बहुत हिम्मत चाहिये थी - जो नकारात्मक ऊर्जा के कारण संचित होती
रही और आज वह इतनी हो गई है कि एक ढूह सी होकर मेरे भीतर समा गई है - यह नैराश्य
और यह नश्वरता का संजीदा भाव इन सघन अनुभूतियों के भीतर मुझे मथता है , कोई है जो मेरी आत्मा पर एक बोझ बनकर हरदम मेरे
भीतर लम्बी परछाई सा पसरा रहता है - डाँटता डपटता - हरदम खाल खींचता सा
इस
अंधेरे बंद कमरे में मेरी देह के साथ कोई रहता है निस्तेज और अविचल सा जो झकझोर कर
कहता है कि सब कुछ गलत था - यही प्रारब्ध था तुम्हारा और यही अब शेष भी है
कही
सुना था कि ग़लत रेल कभी सही मंजिल पर भी ले जाती है पर अब लगता है कि जीवन गलतियों
का ही दूसरा नाम है और हम सब कही ना कही ग़लत है - बस यह सोचकर हम चुप हो जाते है
कि यदि हमने इस सच को स्वीकार कर लिया तो हमारी राह में उजाले खत्म हो जाएंगे
हम
उजालों से इसलिए मुतमईन हो जाते है कि हम वहाँ सुरक्षित है, फूलों के आंगन में अपनी घिन और बदबू छुपा सकते
है ,
पर जीवन उजालों और सुवास का पर्याय ही नही मात्र
- हमारी यात्रा लम्बी और अनथक है और इसमें अंधेरे और सीलन भरे कक्ष है जहां
चींटियों की कतारें हैं,
उल्टे लटकते चमगादड़ है, मुंडेर पर बैठे गिद्ध है जो सिर्फ हमारे "
बॉडी " बनने का इंतज़ार कर रहें हैं ताकि भरपूर नोच सकें
मैं
अपने को आज इन सबके हवाले करता हूँ और यह कहता हूँ अपने आपसे कि उजालों का अर्थ
अंधेरे से दूर होना नही - बल्कि अँधेरों के अस्तित्व पर एक चादर ओढ़कर आश्वस्त होना
है,
कि जीवन जुगनुओं और सितारों के बरक्स ज़्यादा
महफ़ूज है ,
कि गलतियों में ही जीवन मुकम्मल है और कि हमारी
राह यही से निकलेगी
सुबह
हो जाने से रातें खत्म नही होती जैसे सूरज के उग जाने से अँधेरों का साम्राज्य
खत्म नही होता,
किसी को लगता है कि यह सब इतना सहज है तो एक बार
फिर से पिछली साँझ में लौटकर निरभ्र आकाश में उड़ती एक अकेली चिड़िया को देख लेना
चाहिये
मैं
गलतियों से सीखना नही - गलतियों को दोहराने का माद्दा रखने में यकीन करता हूँ
22
आज
शाम मौसम अचानक बदल गया,
दूध खत्म हो गया था फ्रिज में, बहुत हिम्मत करके बाहर निकला और गुमटी से दूध
लिया,
उसे जब रुपये दिए तो वापसी के लिए उसके पास
चिल्लर नही थी - मैंने कहा " कोई बात नहीं बाद में कर लेंगे हिसाब " तो वह
बोला " नहीं भैया जी - ले जाओ बाद में मैं भूल जाऊंगा " मुझे समझ नहीं
आया कि मात्र तीन रुपए की चिल्लर के लिए उसने अपने आप को प्रश्नों के घेरे में
खड़ा कर दिया
घर
लौट रहा था तो रास्ते में कई परिचित और अपरिचित चेहरे दिखें -जिन पर स्मित मुस्कान
चस्पा थी और हल्का सा अजनबीपन भी - एक बाइक से कोई गुजरा तो हाथ लहराते हुए चला
गया और मैं पहचानता - उसके पहले वह ओझल हो गया
यहाँ
देखता हूँ,
मित्रों से बात करता हूँ तो वे याद दिलाते है कि
अलाना - फलाना बोल रहा हूँ,
यह बात आपको बताई थी पिछली बार, आपको कहा था, आपसे
घर मिलने आया था - आदि,
आदि
स्मृतियों
को बिसरना मेरे स्वभाव का हिस्सा नही - बल्कि एक फ़ितूर है कि भूलूँ नही सब याद हो
- उस हर बात को याद रखूँ जो इस सृष्टी में मनुष्य होने के नाते सभ्यताओं की दौड़
में विकास के क्रम में हम सब तक पहुंची है - जिससे हम सबका होना तय होता है , जो हमारी सांझी विरासत और थाती है
वो
पेड़,
वो गलियां, नदियां, पहाड़, समुंदर, कूएँ, बावड़ियां, तालाब, जंगल
कौंधते है,
चिड़ियाओं के भिन्न स्वरों में टिटहरी की कर्कश
आवाज पहचान लेता हूँ,
तोतों की भीड़ याद आती है - जो बिलासपुर रेलवे
स्टेशन के बाहर शाम पड़े उमड़ती है पुराने बरगद पर, कटक
के बस स्टैंड पर वो चाय वाला बेसाख्ता याद आता है - जिसके दो रुपये देना मैं 1991 में भूल गया था - जब रायगढ़ की बस पकड़ने की जल्दी
में सब भूल गया और बस पर चढ़ गया - मानो बहुत बड़ा कर्ज रखा है माथे पर
अभी
होली पर मनोज की रांगोली में रमेश राठौर माड़साब का पोट्रेट देखा तो याद आया कि वो
गुजर गए और मैं जा भी नही पाया, नयेपूरे की वो बूढ़ी असहाय
शर्मा बहनजी याद आती थी जो माँ के साथ स्कूल में थी और रिटायर्ड होने बाद कभी
खटिया से उठ ही नही पाई ,
बड़े बाज़ार के दत्त मन्दिर वाली गली के उस मकान
को भूल गया - जहाँ दो जीवट महिलाओं ने अपनी उम्र भर की कमाई से धर्मशाला बना दी थी
- पलटा ही नही कभी फिर देखने उन्हें कि जाकर शुक्रिया ही बोल आऊं
खूँटि
और पाखुर के उन लोगों की अब स्मृति ही नही रही - जिनके कोदो और मड़िया को खाकर लंबे
समय तक जीवित रहा,
कर्नाटक की फीलोमीना और केके को कैसे भूल गया
जिन्होंने बैंगलोर वाले रविशंकर के साधना केंद्र के थोड़े ही आगे के बहुत अंदर वाले
चट्टानों से घिरे गांव में पानी से भरी बाल्टी में सिर डुबोकर मेरा डर खत्म किया
था - यही दोस्त बना था जर्मनी का सेन मैक्स सेवेज जो पागलों की तरह काम करता था और
खूब हंसता था - बरसों उससे चिठ्ठी पत्री होती फिर मैं ही भूल गया शायद उसे
वासद
के उस खुले मैदान में आठ दिन रहकर झुग्गी के बच्चों को भूल रहा हूँ जिनसे गुजराती
सीखी थी - ठेठ गुजराती,
उसी सबमें बड़ौदा आने जाने का, प्रेम और फिर यह एहसास करना कि प्रेम तो था ही
नही - कैसे भूल गया,
भुला नही तो बैतूल के जंगल - जो पहावाडी, शाहपुर, बमीठा, पाडर , घोड़ा
डोंगरी के जँगलों में घूमते हुए प्यार भूला और एक माह तक छक कर सिगरेट पी- गुजराती
प्यार को भूलने गया था और उसी शाहपुर के चर्च में एक अनजान गुजराती लड़की से मिला
यकायक - जो सयाजी राव गायकवाड़ विवि, बड़ौदा
के महिला बाल विकास विभाग में पढ़ रही थी और उस सरकारी स्कूल के अहाते में गर्मी की
सुबहें उसके श्रीवेंकट स्त्रोत से शुरू होती - उस तमिल लड़की की याद है - आज भी रोज
सुबह सुब्बालक्ष्मी के भज गोविन्दम और श्रीवेंकट स्त्रोत से मेरी सुबह होती है - 1994 से रोज सुन रहा हूँ, पर आजतक याद नही हुआ - पता नही उस तमिल लड़की को
- जो गुजराती,
हिंदी, अंग्रेजी
और मराठी भी बोल लेती थी - कैसे याद हुआ था
उसी
घोड़ा डोंगरी के स्टेशन के बाहर सरदार लाभ सिंह अभी है या नही जो जंगल के ठेकेदार
थे और उनका घर किताबों से भरा था, अपनी स्टडी में ले गए थे और
न्यूयार्क टाईम्स अखबार जीवन मे पहली बार देखा था उनकी स्टडी में , बीजी यानि उनकी पत्नी ने सरसो की भाजी के साथ जो
रोटी परोसी थी वो भूल गया,
पीतल के बड़े ग्लास में दही फेंटकर ताजी वैसी ही
लस्सी फिर उसी तरफ सिबलून के घर पी थी - 1992 के
बाद 2005
में जब महिला सरपंचों के साथ कुछ शोध कर रहा था
पांडिचेरी
के अरविंद आश्रम में फ्रांसीसी मूल का इदय वेंदन मिला था - जो एक दिन अपने घर ले
गया था - अपने शराबी पिता से मिलवाने जो मूल फ्रांस के थे, पत्नी सिंहली थी और यह बेटा उनके प्यार की
निशानी था,
उसने बताया था कि उसके नाम का अर्थ तमिल में
फूलों का राजा होता है,
उसके पिता देर तक शराब पीते रहे फिर मुझे पता
नही क्यों पांडिचेरी के किसी जीवनन्दा हायर सेकेंडरी स्कूल के मैदान में छोड़ गए -
अपनी पुरानी फियेट में,
मैं उस बिहारी सायकिल रिक्शा वाले को भूल गया जो
अरविंद आश्रम छोड़ गया था बगैर एक रुपया लिए हुए, जब
मैं लगभग रो ही दिया था,
पास ही बने यूथ होस्टल में रह रही बुल्गारिया की
एक महिला अलीशा कैथी ने मुझे उस रिक्शा वाले की मनुष्यता का बखान कर अपने ही भारत
देश को समझाने में मदद की
त्रिचूर
के कट्टाचीरा ब्रिज के पास रहने वाले सनील के. एस. को भूल गया - त्रिचूर के केरला
वर्मा कॉलेज में दोस्त बना था, और मेरे लिए घर से मलयाली
व्यंजन लाता था - दो हफ्ते तक और जिसने मलयालम सीखाई थी, सनील के पिता उसी कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाते थे
और आज लगता है कि उनके मलयाली स्टाइल में अंग्रेजी एक्सेंट बोलने का ही प्रभाव था
कि 1987
में लौटकर मैंने एमए अंग्रेजी साहित्य में करने
की ठानी और किया भी
स्मृतियों
पर बहुत गर्व था कि वे मेरे वश में है और मैं स्मृति विहीन नही हूँ - पर आज जब शाम
को मौसम बदला,
दूध वाले ने कहा कि तीन रुपये लौटाना भूल जाऊँगा
तो सब कुछ साफ होने लगा - दिल दिमाग़ में - अभी शिवपुरी की गुड्डी, हरमू हाऊसिंग कॉलोनी राँची की विनीता, 24 परगना का अरिंदम भट्टाचार्जी, कोलकाता की सुदेवी, भावनगर की देविका, तंजावुर
की पी. उमा और ना जाने कौन - कौन बेतहाशा याद आ रहें है - जो मेरी स्मृति पटल से
गायब थे और जगमारा,
खंडागिरी - भुवनेश्वर के निखिल पटनायक की तो याद
आ गई पर गजपति,
बोलांगीर के दोस्त भूल रहा हूँ, जम्मू के उस खूबसूरत बगीचे की याद है - पर वो
लड़की नही याद आ रही जो मेरे साथ कटरा तक गई थी एक सफेद अम्बेसडर में बैठकर और खूब
चिप्स खाती थी
स्मृतियों
पर धूल का साम्राज्य जम रहा है और मैं एकांत के इस निविड़ में शांत चित्त होकर
बुद्ध को याद करता हूँ - जिन्होंने राजकुमार सिद्धार्थ के रूप में ' राहुल ' का
अर्थ आत्मसात करने में मदद की और जब नया धर्म संसार को दिया तो यह सीखाया कि लम्बी
दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वजन रखकर चलो
स्मृतियों
का वजन कितना होता है - यह कहाँ रखा जा सकता है - लगता है कि मंज़िल आ गई है और
इसके आगे यहाँ से देह भी साथ नही देगी तो सोच रहा कि क्या - क्या भूलना है , क्या संग साथ रखना है और कब तक चलना है
23
मैं
कुछ और हूँ और होना कुछ होना चाहता था, और
होने और हूँ के बीच जीवन की लड़ाई अभी भी जारी है
---
मेरे
कमरे में जब सुबह धूप आती है तो बहुत गुनगुनी होती है दोपहर तक परवान चढ़ती है और
शाम फिर ठंडी पड़ने लगती है - लगता है जीवन में दुख यूँ ही आते है
---
शाम
का तापमान कभी एक समान नही देखा मैंने अपने जीवन मे जबकि सुख और दुख हर दिन समान
थे एकदम किसी अटल पहाड़ के समान
---
सुरंगें
अक्सर उजालों भरी ही होती है - असल में हमें उस पार उजाला देखने के भ्रम सीखा दिए
गए है
---
जिंदगी
लम्बी या बड़ी नही होना चाहिए बस अभी जो है , वैसी
ही होना चाहिये - अपने पूरे आकार और स्वरूप में - ताकि जो सांस अंदर जा रही है
उसके साथ ही इसे आत्मसात कर सकें - पता नही हम अगली सांस में हो ना हो
---
नदियों
, तालाब ,समुद्र
और बादलों का वही रिश्ता है जो हमारी इंद्रियों का आपस में है, बस निर्भर करता है कि कौन पानी को मीठा, कड़वा या खारा बना कर संचित रख पाता है या कलकल
बहने देता है उद्दाम वेग से या प्रचंड गर्जना के साथ लहरों में बदल देता है
---
मुझे
फिल्में बहुत पसंद है कि वहां गम्भीरता नही है और जो गम्भीर है वो समानांतर है और
इतिहास के एक कोने में अलग संरक्षित कर दिया गया है उन्हें, अपना जीवन क्यों अलग रखना अलग थलग सा - यह सीखा
जाना चाहिए
---
मौत
जीवन ,
मौत जीवन, मौत
जीवन और इस सबके बीच की लड़ाईयां, द्वंदों का समुच्चय और फिर एक
कोष्ठक में सबको झोंककर किसी ऐसी सँख्या से गुणा कर दो या भाग लगा दो कि प्रतिफल
शून्य ही आये
---
कहने
से डरो,
बात करने डरो, चुप
रहने से डरो - इसलिए इतना बोलो, इतना कि तुम्हारी आवाज़ हर जगह
दर्ज हो जाये और कोई सुने तो उसे वहशत के मारे नींद ना आये और वो मौत की कल्पना
करने लगें
---
सब
कुछ कह देने से सब कुछ साफ और स्पष्ट नही हो जाता , बल्कि
कुछ ना कहने से ही जीवन पूर्णता को प्राप्त करता है
---
अपनी
कामनाओं और हवस को इतना कौतुक से ना देखों - ये अनंतिम है, शाश्वत और सनातन भी और जिसने भी यहाँ जन्म लिया है
वो इनके पार होकर ही पार पहुँचा है इसलिए औचक बनो और इन्हें प्यार से निहारो, इनके लिए प्राणों की बाजी लगा दो कि जीवन फिर ना
होगा
---
मनुष्य
होना बड़ी बात नही - बड़ी बात है कुछ होकर मनुष्य के रूप में एक दिन मर जाना - जाओ
तुम्हे मैं आज अभयदान देता हूँ कि मनुष्य होने के बजाय कुछ होने में जीवन लगा दो
---
अपने
आप मे हम सब अकेले है इतने कि कभी कभी ही नही, बहुधा
हम अपने आप से ही डर जाते है - पर यही डर हमे आगे बढ़ाता है और उन अभेद्य किलों पर
जीत दिलवाता है जिसे संसार सुख या सफलता कहता है - इसलिए डरो इतना कि एक बिल्ली की
आँख देखकर तुम्हे हृदयाघात हो जाये
---
एक
चींटी भी सम्पूर्ण आयु में लालच से आमुख होकर अथक चलती है, बतियाती है और हमेंशा एक शक्कर के दाने के लिए
बेचैन रहती है - हम तो मनुष्य है - हमारा प्रारब्ध भव्य और विराट है - इसलिये यदि
कोई कपट,
लालच या संग्रह करता है तो उसे आदर्श मानो और
अनुसरण करो
---
देने
को मेरे पास श्राप है,
सुनाने को कहानियाँ और बाँटने को सस्ते किस्म के
अनमोल दुख - यदि तुम्हे चाहिये तो मेरी कुटी में उग रहें इन सबके नवांकुर ले जा
सकते हो - ले जाओ और उन्हें बो दो जहान में हर जगह ताकि वे वटवृक्ष बनें - सुन लो
मित्र - फूलों का जीवन एक दिन ही होता है और सुवास भी क्षणिक ही अच्छी लगती है
---
मरना
सबको है जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जायेगा वह मर जायेगा
24
दिन
के चौबीस घण्टों में एकांत यूँही आता है टुकड़ों में और हम उसमें एक सार होते है और
फिर जीवन मे लौट जाते है जहां शोर है और सन्नाटा
---
कभी
दूध को गर्म करिये अपनी आंखों के सामने, बहुत
एकाग्रता लगती है फोकस करना पड़ता है और अक्सर इन दोनों के होने के बाद भी उफनकर
बाहर निकल जाता है - जीवन मे मौके ऐसे ही होते है प्रायः
---
सब
कुछ पा लेना है - नाम,
यश, धन, कीर्ति, पताकाएँ, समृद्धि, शांति, मोक्ष और वो सब जो कोई नही पा सका पर लगातार इस
सबको पाने की होड़ में हम खत्म होते जाते है यह भूल जाते है - साठ सत्तर बरस की
छोटी सी उम्र में संसार जीतना चाहते है और वहां नाम लिखना चाहते है अपना जहां कोई
पढ़ भी ना सकें
---
पहाड़ी
पर चढ़ते हुए,
नदियों को पार करते हुए, समुद्र की लहरों के संग मचलते हुए हम यह भूलते है
कि ये अमर है,
अजर है और इनके होने से ही प्रकृति है और सौंदर्य
भी पर हम होड़ लेते है और इनसे जीत लेना चाहते है - भोलेपन की कोई सीमा नही
---
मुझे
एक साथी शिक्षक की पत्नी का दुखद निधन हमेंशा याद आता है जब वह भोपाल के एक रेलवे
क्रासिंग पर शाम को लौट रही थी और फाटक बंद होने के बाद भी नीचे से झुककर पार होना
चाह रही थी अपनी आदत के अनुसार, पर उसे ना आती हुई रेल दिखी और
ना शोर सुनाई दिया और वह सैंकड़ो लोगों के सामने तेजी से आ रही रेल के सामने कट कर
मर गई - घर पर उसके बच्चे और पति इंतज़ार कर रहें थे - आदतें कही का नही छोड़ती वे
आपकी तन्द्रा भंग कर जीवन खत्म कर देती है
---
मद्रास
[ अब चेन्नई ] के अपोलो अस्पताल का वह दृश्य भूले नही भूलता जब माँ को बायपास
सर्जरी करवाने ले गया था 1992
में, एक
22 साल का लड़का गौहाटी से आया था अपने बड़े दिल के साथ
क्योकि वह ज्यादा सांस लेता था और उसका दिल सामान्य आकार से दो गुना बड़ा था पर वह
बच नही पाया था - दिलदार या बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा यह निश्चित नही
है
---
अक्सर
श्मशान में वे लाशें पूरी तरह जल नही पाती जो जीवन मे एकल रह जाते है या जिनकी
इच्छाएं अधूरी और अतृप्त रह जाती है - घी, लकड़ी, कपूर, आटे
के गोले,
समिधा की सामग्री, काले
तिल और सही दिशा में बहती हुई हवा भी शरीर को भस्म नही कर पाती - अपने को ही
स्वीकारना होगा,
मुक्त करना होगा स्वयं की बनाई सीमाओं को तोड़कर ही
हम हद तोड़ सकते है तभी कबीर कहते है - हद तके सो औलिया, बेहद तके सौ पीर / हद बेहद दौउ तके वो ही संत फकीर
---
डूबते
वो है जो बहुत अच्छा तैरना जानते है जिसे नही आता उसे कोई भी खींचकर बचा लेता है
दो झापड़ मारकर होश में भी ले आता है पर जो सब जानता है वह डूब भी गया तो कोई बचाता
नही यह समझकर विलोपित होने देते है कि प्रतिफल नही पाया होगा इसलिए इहलीला समाप्त
कर ली होगी और पानी ने बाहर भी फेंका तो कोई ध्यान नही देता - अज्ञान बेहतर और
अचूक है
---
जीवन
मे तनाव,
काम और लक्ष्य कम नही होंगे - आपके लिए जिसने भी
जो कुछ निर्धारित किया है वह किश्तों में आता रहेगा और इतना ही आएगा जितना करने की
क्षमता होगी आपमें - यह मत सोचना कि आपको ही ज्यादा मिला और किसी को नही - सुख, दुख, धन, वासना या स्मृतियाँ - ये सब सबको समान मिली है जो
भी इस मार्ग से गुजरा है बस फर्क यह है कि दृष्टि का उपयोग सबने अपनी अपनी
आवश्यकता के अनुसार किया है
---
एकांत
में बुदबुदाना,
किसी परम शक्ति को ध्यान करके हरदम माँगना ग़लत कतई
नही है,
नास्तिक भी एक मौके पर किसी सत्ता और परम शक्ति की
बात करता है - फूलों की घाटी, जोशीमठ से ऊपर जाओ या बद्री नाथ
केदारनाथ के रास्तों से गुजरो या उत्तर पूर्व की पहाड़ियों से सूर्यास्त के बाद
लौटते है तो मन के विश्वास डगमगाते ही है पर वही जीवन मे लौटकर कुछ सार्थक करने की
प्रचंड आशा और विश्वास हमें सुरक्षित ले आते है दुनिया जहान में - हम मूल रूप से
भागते हुए लौटने का नाटक करने के अभ्यस्त है इसलिए सदैव दुखी रहते हैं
---
मरना
ज्यादा आसान है और यह एक सेकेंड के लाखवें हिस्से का खेल है - पर जीना पचास से
सत्तर बरस की यातना है जिसे अपनी तसल्ली के लिए हम भाषाई शब्दों, मुहावरों और कुछ कथनों के आसपास गूँथकर जीने का
अभ्यास करते हुए प्रक्रियागत रिवाज़ पूरे करते है और जो इन रिवाज़ों के परे होकर जी
लेता है उसका नाम उस पहाड़ी पर लिखा जाता है जहां अभी भी प्रार्थना की घण्टियाँ किसी
मधुर मालकौंस के राग की तरह बजती रहती है
---
शाम
और रात के बीच का पहर खतरनाक होता है इसमें सतर्क रहने की आवश्यकता है
---
जिसने
भोर में उठकर शुक्र तारा नही देखा कभी वह हंस भी नही सकता
25
यूँ
तो रोज ही छुट्टी है इन दिनों पर रविवार का अपना मजा है, सोचा कुछ बटन टूट गए थे, उन्हें टांक लूँ कमीज में - सुई धागा खोजा पर मिला
ही नही,
दोपहर याद आया - फिर जब सुई धागा मिला तो बटन नही
मिलें,
बटन अभी मिलें तो इसमें से लाल बटन गायब है जिसकी
जरूरत है ,
अंत वो कमीज ही भूल गया जिनके बटन टूट गए थे -
जीवन में हर खोज का अर्थ एवं अंत एक नई खोज को जन्म देता है और हम तमाम उम्र इसी
तरह व्यस्त रहने का स्वांग रचते रहते है - इसी में सुख है
---
कई
दिनों से गमलों में खरपतवार उग आई है, मिट्टी
साफ नही की,
खाद अच्छा बन गया है पर उसे भी गमलों में डाल नही
पाया हूँ,
पंखे पर धूल, आलमारी
पर धूल,
कमरे में धूल, किताबों
पर धूल अर्थात हर जगह धूल का ही साम्राज्य है पर मैं नही हटा रहा - धूल का हर जगह
होना शुभ है - यदि हटा दूँगा तो चीज़ें मूल स्वरूप में सामने आ जाएंगी और मैं या हम
सब मूल बातों,
मुद्दों या अतीत से बेहद डरते है इसलिये धूल
बर्दाश्त करते है फिर वो चीज़ों पर पड़ी हो, स्मृतियों
के फलक पर या मन के किसी कोने में
---
तीसरे
माले पर पानी की टँकी है जहां मैं रहता हूँ एक नीले कमरे में जिसकी दीवारों पर
गहरा गाढ़ा नीला रंग पुता है - पानी जमीन के अँधेरों तलों से लम्बी यात्रा कर आता
है - लम्बे ,
लम्बे लगभग चार सौ फीट के पाइप है, बिजली की ताकत जाया होती है पानी को इतने ऊपर लाने
में - दिन में दो बार यह पानी खींचा जाता है ; जमीन
के गहरे अंधेरे तल से,
पर जब पानी ऊपर आता है टँकी में तो मेरा मन पुलकित
हो जाता है - मैं कुछ देर अपने हाथ के पंजे उस पानी की धार में डुबो देता हूँ और
पानी की ठंडाई को महसूस करता हूँ - यह समझ साफ बनी है कि बहुत अंदर से जब कुछ बड़ी
ताकत के साथ आता है तो वह पुलकित तथा प्रफुल्लित कर देने वाला और ठंडा होता है
जिसे छूकर या जिसमे डूबकर हम अपना संताप, अवसाद
भूल जाते है - हमे अपने जीवन मे वह खोजना होगा - जिससे हम प्रफुल्लित हो जाये और
जिसमे डूबकर मन किसी बच्चे सा सहज हो जाये
---
मेरे
छत पर दो पिंजरे है,
इनमें लव बर्ड्स की जोड़ियां थी - जो भतीजे ने लाकर
उपहार में दी थी ;
जब वे पढ़ाई करने मुंबई जा रहे थे कि बच्चे घर में
नही होंगे तो हमारा मन लगा रहेगा, तीन साल पहले ऐसी ही भीषण गर्मी
में एक एक करके सब मर गए - पहले एक मरा, फिर
उसकी याद में शेष ची ची ची करते रहते, फड़फड़ाते
रहते,
धीरे - धीरे वो भी मर गए - अब शेष रह गए है पिंजरे, जब इस मकान में रहने आये थे तो एक कुत्ता पाला था
अल्सेशियन नस्ल का था - आठ साल बाद वह मर गया, फिर
एक डाबरमैन पाला - वह भी मर गया, अब एक लेब्राडोर है, पंछियों को मुक्त नही किया, कुत्ते मरते रहें - लोहे की साँकलो में जकड़े जीवन
काट दिया - अब पिंजरे और मोटी साँकलें शेष है घर में जो अक्सर याद दिलाती है कि जब
जीवन था तब जियें ही नही,
मुक्त नही हुए अपनी ही वर्जनाओं और बंधनों से और
सब कुछ मिलता रहा समय समय पर - तो कुछ नही किया और अब जब जीवन ही खत्म हो गया तो
हम उन सबको याद कर द्रवित हो रहें है - पिंजरे हो या साँकलें हमें ही तोड़ना होंगी
- क्योकि तापमान तो स्थिर नही है , मौसम
का अर्थ ही बदलना है और मिट्टी का अर्थ ही है सबको अपने भीतर समाहित कर लेना तो
फिर इन पिंजरों और साँकलों को कौन तोड़ेगा - जीना है तो यह रिस्क लेना ही होगा
---
बहुत
दिनों से एक काम कर रहा हूँ शुरू से कहा था कि नही कर पाऊँगा पर बार - बार अपने को
समझाता रहता हूँ कि हो जाएगा, कर लूँगा - जब जीवन मे मुश्किल
घड़ियाँ गुजार ली,
तीन - तीन मौतों को अपनी गोद में देखा तो लगा कि
यह काम तो बहुत आसान है पर काम भी नही हो पा रहा, और
मना भी दृढ़ता से नही कर पा रहा, पर अब सोचा है कि कर लूँगा और
इसके बाद जीवन मे ऐसा कुछ स्वीकार नही करूँगा जिससे तनाव हो और चौबीसों घँटे अपराध
बोध या ग्लानि होने लगें,
वैसे ही 54 वर्षों
में भरपूर जीवन जिया,
यायावरी की और एक बेहद सामान्य बुद्धि का मनुष्य
होने के नाते सब सही - गलत किया - जो सब करते है ; अब
यह कहने में कोई गुरेज़ नही कि बेहद टुच्ची हरकतें भी की और मैं इस बात के लिए
मुतमईन हूँ मरते समय अन्य लोगों की तरह कई सारे राज, अपराध
बोध,
सुख और दुखों की गठरी छाती पर लिए गले मे फँसती
सांस और घुर्र घुर्र की आवाज़ के साथ मरूँगा पर अब ना कहने की हिम्मत जरूर आई है -
यदि आप ना कहने का साहस अपने भीतर जुटा लें तो जीवन के उत्तरार्ध में कभी पछतावे
के पुलिंदे उठाने का साहस करने की जरूरत नही पड़ेगी
---
हम
सब याचक है कितने भी शक्तिशाली हो बहुत छोटा सा अदना कद है हमारा, पर अपनी उच्च आकांक्षाएं और हमारे छोटे - छोटे काम, व्यवहार और प्रेम से बोले गए दो मीठे बोल ही हमें
बड़ा बनाते है
---
मैं
कुछ किसी को दे नही सकता सिवाय उम्मीदों और दुआओं के - जिनके बिना किसी का जीवन
नही चल सकता - वो सब आपको देता हूँ
---
माफ़ी
मांगने से कुछ नही होता पर गठानों को खुलने का रास्ता मिल जाता है
26
जीवन
में जब होने,
खोने और पाने के मायने जल्दी समझ आ जाते है तो
समझदार व्यक्ति ही आगे जाने या खुद को खत्म करने का निर्णय लेता है
---
आत्महत्या
हल नही परन्तु कम से कम अपने आपको तो इन सब प्रपंचों से दूर रख ही सकते है
---
हम
जितने वाचाल,
बहिर्मुखी होते है - अंदर से उतने ही एकाकी और
दुखी होते है
---
जीवन
मे नाटक सीखते और करते हुए भी यदि हम अपने एक एक दिन और एक एक पल को किसी स्टेज की
भांति नही मान सकते,
अपने जीवन में मिलें और प्रकृति प्रदत्त रिश्तों
को चरित्र मानकर उनसे संवाद स्थापित नही कर सकते तो हमारा नाटक में होने से यवनिका
में चले जाना ही बेहतर है
---
फिर
कहता हूँ पीछे छूटे हुए लोग वंदनीय है जो सब कुछ भूलकर फिर से जीवन के कड़े संघर्ष
पथ पर लौट आते है और चलने का पराक्रम करते है
---
हम
सब स्मृतियों में लंबे समय रह सकते हैं और उस सबको याद करके घण्टों जीवन के उन
स्वर्णिम पलों को जी सकते है जिनसे हमने ऊर्जा पाई थी पर इससे हल नही निकलेगा - सब
कुछ छोड़ना ही पड़ता है एक दिन
---
एक
फूल को तोड़ना भी हिंसा है तो अपने आपको खत्म कर लेना तो भयानक हिंसा है और शायद
पूरी प्रकृति के खिलाफ एक मनुष्य का उदघोष भी, पर
इसके लिए उसकी तारीफ की जाना चाहिए जो रस्सी का फंदा लगाकर झूल गया और सब छोड़ गया
---
हम
सबको एकांत में रहने की,
अपने आप से जूझने की और एकालाप के दौरान लड़कर
जीतने के प्रशिक्षण की ज़रूरत है जो हमें एक मनुष्य होने के नाते नही मिलती और एक
दिन अपनी ही बनाई हुई कंदराओं में भटक कर खत्म हो जाते है
---
सबसे
ज्यादा दुख हमे अपने लोगों से मिलता है पर अफसोस हम कह नही पाते, अपने आप से जूझते रहते है, नाटक करते है खुश और दुख होने का और अंत में एक
दिन थक हारकर अपने को खत्म करने के अलावा कुछ भी शेष नही होता
---
हम
अपने लोगों को भी कुछ कह नही पाते, अपने
हमे सुन भी नही पाते,
अपने हमारे वस्तुतः है ही नही - वे सिर्फ अपने है
इस टैग को ढोते हुए हम और वो एक भ्रम में आखिर तक जीते रहते है
---
मरना
सहज है और जीना जटिल पर जब कोई मरने का निर्णय लेता हैं तो उसका सम्मान किया जाना
चाहिए इसलिए नही कि लोक मान्यता है कि मरें को कोसते नही , बल्कि इसलिए कि साहस के साथ मौत को गले लगाना भी
संसार में बिरले लोग ही कर पाते है
---
आत्महत्या
को महिमामंडन नही करना है पर कम से कम मरने वाले का अनादर ना हो यह हमें ध्यान
रखना होगा - एक वयस्क का निर्णय सर्वोपरि होता है और उसका सम्मान किया जाना चाहिये
---
आईये
हम उन सबके लिए मौन रखें जो यहाँ से विदा हो गए है जीने की उद्दंड आशा के खिलाफ
बगावत करके
[ कल एक युवा अभिनेत्री की आत्महत्या को पढ़कर ]
27
हम
सब अधूरे है, आधे
अधूरे काम करते है, अधूरेपन
में जीते है और अधूरे रहकर ही जीवन समाप्त करते है - अपने अधूरेपन के कारण ही जीवन
मुकम्मल हो पाता है
---
हम
अपने आपको इस कदर अधूरा छोड़ते है कि किसी ना किसी को उसे पूरा करना पड़ता है, जो पूरा करने के मुगालते में जीता
है वह भी बहुत संत्रास में जीता है - पुरापन असल मे कुछ होता ही नही है
---
जो
चीज़े अपने भव्य और सम्पूर्ण स्वरूप में दिखाई देती है वह किसी समय सीमा और हड़बड़ाहट
का अंतिम परिणाम नही बल्कि किसी तरह से खत्म कर नए अधूरे को थामने की पुरजोर कोशिश
है क्योंकि मानव मन एक ही जगह लंबे समय तक टिक नही सकता
---
अपने
अधूरेपन को अंततः एक दिन पूर्णता का मुलम्मा चढ़ाकर हमे मुक्त होना ही पड़ता है -
इसलिए नही कि हम कुछ भी पूरा नही कर सकते बल्कि इसलिए कि पुरापन सापेक्ष है और हर
व्यक्ति के लिए अलग होता है इसलिए आप जितना पूरा होने की कोशिश करते है उतने ही
रीतते जाते है
---
पूर्णता
को लेकर वेद , ऋचाओं
से लेकर सम्पूर्णता वादियों , जेस्टॉल्ड वादियों और शुचिता के नियामकों ने बहुत
कुछ कहा है पर जितना इसे पढ़ो , समझो और आत्मसात करने का प्रयास करो वह अपूर्ण और
अधूरा लगता है - इसलिए झटके में जो हो जाता है वही पूर्ण है
---
हम
सब जीवन मे एक समय के बाद उद्देश्यहीन हो जाते है या हमारे पास करने को कुछ नही
होता - हर जगह से विलोपित किये जाने का दुख सालता है और मुक्त कर दिए जाने का
एहसास शिद्दत से यह याद दिलाता है कि अधूरेपन का पूर्ण इलाज एक ही है और हम उद्दंड
आस में दिवास्वप्न देखते हकीकत भूल जाते है
---
जब
लगें कि अब सब कुछ खत्म हो गया है, सब कुछ नष्ट कर दिया है और रिवीजन की संभावना वैसे
ही जीवन मे सम्भव नही तो जीवन भी खत्म कर देना चाहिये - अपने साथ अपने वे सारे
अधूरेपन खत्म कर देना चाहिये जिनसे हम पूर्णता की उम्मीद करते है
---
यहाँ
कोई किसी को याद नही रखता, ना
रखना चाहता है और ऱखना भी नही चाहिये - क्योंकि हम सब पर संसार के दैनंदिन बोझों
के अलावा एक अदृश्य बोझ से तारी है जिसको मुक्त हुए बिना नही समझा जा सकता इसलिये
अधूरेपन की चिंता मत करो - सब अपने अपने हिसाब से सब कुछ पूर्ण कर लेंगे - संसार
के उदगम से आज तक कोई भी पूर्ण होता तो यहाँ तक कि यह बेहद थकाऊ उबाऊ और असहनीय
पीड़ा कैसे व्यक्त होती
---
किसी
को यहाँ स्थाई नही रहना है - सबको आना जाना है तो कैसे कोई किसी को पूर्ण करने का
दावा कर सकता है, बेहतर
है सबको Disown करना
शुरू करो, निर्मोही
हो जाओ, असंपृक्त
हो जाओ और यही शेष रखेगा चेतना को अंतिम समय तक - जब होवेगी उमर पूरी - कबीर कहते
है ना
---
अधूरेपन
में जीवन है और यही सबसे बड़ा सच है , जो लोग आपको अधूरा कहते है, पूरा करने का श्रेय लेकर दर्प से
भर जाते है वे यह भूलते है कि वे जो कर रहें है पूर्ण करने या होने के दावे वे भी
किसी और पर अवलम्बित है और उनकी नज़रों में ये अपूर्ण है - यह घोर आसन्न संकट है कि
हम पूर्ण किसे माने
---
अधूरापन
जीवन है और पूर्णता एक वायवीय कल्पना
28
सुनता
है गुरु ज्ञानी ,
गगन में आवाज हो रही झीनी झीनी.
------------------
अड़सठ
घाट भीतर है कहाँ जाना है - ना गंगा - ना यमुना, सुमिरन
कर ले मेरे मना,
मन चंगा तो कठौती में ही गंगा है - बीती जा रही है
सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नही है - इसी घट अंतर और बाग - बगीचे है पर
भागना रुक नही रहा है - सोचने समझने को तैयार नही है
हमने
कंदराओं में बैठे साधु देखें, जमीन की तलहटी में ईश्वर, पहाड़ों पर देवियाँ, नदियों
की धार में साक्षात प्रकृति की लीला ,समुद्र
का रौद्र रूप,
आसमान से बरसता नेह और आग भी - चमत्कारों के बीच
अपने पैदा होने को भी प्रारब्ध माना और जब मौत के आगोश में समाएँ तो शाश्वतता और
क्षण भंगुरता समझ भी आई
दौड़ते
- भागते हुए सब कुछ पाने की अनंत इच्छा ने हमें बहुत क्रूर और भावुकता के बीच झुला
दिया - देह चंद्रमा और सूरज की गति के मध्यमान में धरती और आसमान के अक्ष पर घूमती
रही और अंत में जब समय पूरा होने को आया तो आत्मा के सवालों से जूझने लगें
अपने
को भीड़ में रखा,
सबके बीच सबके साथ होकर सब सा बन जाने को सदैव
आतुर रहें - काम ,
क्रोध, मद
और लोभ निवारण के लिए किंचित भी प्रयास नही किये और जब सब शिथिल होने लगे अंग और
इन्द्रियाँ तो प्रार्थना में डूबने लगे - संतों की खोज करने लगें कि मोक्ष पा जाएं
और फिर समझ आया कि या जग में कोई नही अपना - गुरु भी डूबा है दर्प और माया के जाल
में
फिर
देह की चादर पसारकर मन के तम्बूरे से भजन गाने लगे, सुमिरन
करने लगे पर देर हो चुकी है , नदियों की धार में अब वो उद्दाम
वेग नही बचा,
सप्तपर्णी के फूल झर चुके है, कचनार पर बहार नही है , बबूल शबाब पर है और बरगद ने छाँव देने से मना कर
दिया है और यह घर ही सबसे न्यारा है देह का - इसकी परवाह में ऐसे लगें कि फिर
संताप अवसाद ओढ़ लिए
पहाड़ों
की चोटियों पर निर्जन होता ही है पर वहां जाने पर जो पूर्णता का एहसास होता है -
सुख - दुख ,
पाप - पुण्य और दिन- रात का भेद ही समाप्त हो जाता
है - पर अब वो भी रीतता सा लग रहा है - ज्ञान, जप, तप, प्रव्रज्या
और कर्मों से भी मुक्त होता लग रहा है
पूर्णता
ही खोखलेपन का सर्वोच्च और अनंतिम सत्य है - मेरा मानना है कि शरीर में जब पांच
तत्व आपस में घुलमिल जाते है सम्पूर्ण रूप से तो हम पूर्णता को प्राप्त होते है और
बस इस ठीक इसी हिमांक बिंदु पर सब जमता भी है और फिर गलता भी है आहिस्ते से
नीले
गाढ़े रँग को जब भी गहराई से देखता हूँ तो
लगता है यह एक उद्दीपन भाव से भरा हुआ रंग है - न्यारा है और विभेद करने का
श्रेष्ठ संयोजन है पर इसे अंदर तक उतरते देखता हूँ तो कुछ नही कह पाता - कबीर कहते
है जब राम निरंजन न्यारा रे तो मुझे सब कुछ धुन्ध में धुँधला होता दिखता है -
आवाजें तेज़ होकर मंद होते जाती है और चहूँ ओर उठते हाहाकार के स्वर, मौत के दृश्य हैरान करते है
सुनता
है गुरु ज्ञानी ,
गगन में आवाज हो रही झीनी झीनी...
29
"You have to fight for your life. That's the chief condition
on which you hold it"
● Saul Bellow
अभी
धूप भी थी और बरसात भी ,
बचपन में हम कहते थे चिड़ा चिड़ी का ब्याह हो रहा है
- बड़ा प्रतीक था,
मौसम का यह फ्यूजन अटपटा भी और विचित्र भी पर जीवन
अक्सर ऐसा ही होता है चिड़ा और चिड़ी मात्र प्रतीक है और धूप में बरसात की बूंदे
असली सच
आस्था
और भरोसा ही हमे कल की सुबह का सूरज देखने को आश्वस्त करता है, हम आज से जीकर ऊब चुके होते है इसलिए हर रात को आज
की स्मृतियों को दफन करते है, एक आह के साथ उन सभी स्मृतियों
को ठीकठाक करके एक तह में लपेटकर तकिये के नीचे रखकर सो जाते है कि भोर तक वे
फुर्र हो जायेंगी पर सच यह नही होता, वे
रातभर में मंजकर गाढ़ी और दुरूह हो जाती है
हमें
विरासत में विस्मृति कभी नही मिलती है, हम
जूझते है आशाओं और नैराश्य के बीच पर लगता है पार नही लग पाते - संसार मे जन्म के
साथ ही यायावरी के अश्व पर सवार होकर हम जीतने का हौंसला लिये निकलते है - हर बार
तैयार होते है तन मन से पर फिर हारते है, गिरते
है और थक हारकर बैठ भी जाते है पर कोई आता है सम्हाल लेता है , धीरे से कंधे पर हाथ रखता है और उठाकर राह पर खड़े
कर देता है सीधे सूरज की ओर मुंह घूमा देता है कि जाओ अभी रास्ता शुरू हुआ है
मैं
सिलसिलेवार याद करता हूँ उन सबको तो दर्जनों जोड़ी आँखें, हाथ और मुस्कुराहटें चौंधिया जाती है बरबस ही और
मैं झुकता हूँ कृतज्ञ भाव से और भांप नही पाता किसी भी चेहरे को - अधिकांश बल्कि
सारे चेहरे विलुप्त हो गए हैं, खो गए हैं और भीड़ में जो अब
पहचान में आते है उन्हें देखकर सहम जाता हूँ - पर उन विलुप्त चेहरों की ऊष्मा मेरे
तन को दीप्त करती है मन के अंधेरे कोनों को झिलमिला देती है और किसी प्रकाश पुंज
सी रोशनी में निखरकर सँघर्ष की राह पर फिर निकलता हूँ - शायद यह कहानी हम सबकी है
वस्तुतः
हम सब की लम्बी और बड़ी कहानियां है , अपने
जीवन मे हम सब मर्द है जो लड़ भिड़कर सब कुछ वो पा लेते है जिसे पाने का हम माद्दा
रखते हैं बस बहुत सूक्ष्मांश में वो रह जाता है जिसे हम पाकर भी कुछ हासिल नही कर
सकते थे,
पर जो हमारे पास है हम उसकी परवाह ना कर उस अलभ्य
के पीछे आतुर और संताप ग्रस्त रहते है जिसके होने ना होने का कोई अर्थ नही है - पर
हमारे दिवास्वप्नों में भी किसी चराचर जगत की तरह सोते जागते वह अप्राप्य मौजूद
रहता है और हम बेचैनियों की कंदराओं में विचलन करते रहते है
हम सब
उम्मीदों के यात्री है और विशाल गगन पर फैले हुए प्रकाश पुंज, हमारे होने से ही सुख और दुख है, यातनाएं और प्राप्तियां है, हम सबको चलना ही होगा - सड़क पर कभी गर्मी होगी, ठंड या बरसात पर बस सड़क और पांव के पंजे के बीच जो
आकर्षण है उसे बनाये रखने की जिम्मेदारी हमारी होगी, मैं
जानता हूँ कि हम सब घायल है इस समय और क्लान्त भी पर हमें सबसे पार पाकर खुद से
लड़कर भी आगे निकलना होगा
हम सब
अपनी अपनी लड़ाई अपनी अपनी जगह लड़ रहे हैं - रोज तानों से लेकर गलीज किस्म की
गालियाँ सुनते है,
अपनी पसंद का काम ना कर पाने का दुख सबको सालता है, हम अपनी पहचान छुपाते हुए जीवन जीने के उपक्रम
मुखौटों की आड़ में कर रहें हैं पर चल रहे है लहूलुहान होकर यह तसल्ली और सुकून की
बात है,
शोर के बीच अपनी साँसों के आरोह अवरोह को महसूस कर
पा रहें हैं यह भी बेहद संतोषजनक है
अपने
मन पर बोझ है,
लम्बी दूरी तय करनी है - तथागत कहते है लम्बी दूरी
तय करना हो तो सिर पर कम बोझ रखकर चलो - पर वो समय अलग था, आज का कड़वा सच सर्वथा भिन्न है यह बात प्रासंगिक
नही और फिर इन दो द्वंदों में मुझे जो व्यवहारिक लगता है वह यह है कि निर्मोही बन
जाओ,
निस्पृही भी , यथास्थिति
बनाये रखना भी प्रायः एक भली और सादी प्रक्रिया है जिससे गुज़रकर हम हर कुछ से
विरक्त हो सकते हैं
मैं
जीवन में जीने की नही जीवन के चक्र से शीघ्र गुज़रने की कामना करता हूँ
पहचान
बनाने के संघर्षों में सदैव हार जाना एक अच्छा रणनीतिक कदम होता है
पहचान
खोना अभेद्य किले को जीतने सा है
30
आसमान
में जब भी देखा हमने एक नही हजार आकार नजर आएं भिन्न भिन्न प्रकार के और किसी ने
उसके हूबहू चित्र बना दिये,
किसी ने मिट्टी से गढ़ा इन आकारों को और किसी ने
देखकर छोड़ दिया और कुछेक ने ऊपर आसमान नहीं देखा और कुछेक को दिखा ही नही
वो
साथ चलते थे तो बहुत तेज चलते थे, अचानक रुक जाते और जमीन पर
घूरने लगते,
घर मे घुसने के पहले चप्पल जूतों की ओर ना जाने
क्या देखा करते थे,
घर के कचरे में खोजा करते थे कुछ आकार और दृश्य और
यह सब करते करते कब उन्हें एक टूटी चप्पल में मोनालिसा मिल गई, आम की फेंकी हुई गुठली में रवींद्रनाथ टैगोर और
बुहार दिए गए मूंगफली के छिलकों में एक वृहद ग्रामीण परिवार और नही मालूम वो कला
के बड़े फलक से इस कचरे की कला के उस्ताद हो गए पता नही चला और जब अंतिम सांस ली थी
तो लोगों ने कहा गुरुजी चले गए
वो
मालकौंस गाते ,
वसन्त बहार , यमन, या मल्हार पर उनकी उंगलियां यूँ नाचती हाथों के
साथ कि गाने से ज्यादा वही दृश्यमान होता, कोहनी
से उठते हुए दोनो हाथ और चेहरे की मुख मुद्रा आसमान में ताकती मानो सुर उन्हें दिख
रहे हो और संगीत की लहरियाँ वलयाकार में किसी अदृश्य स्लेट पर लिखी हुई हो और
उन्हें पढ़ते जा रहें हो और गा रहें हो - और जब परम्परा के रागों से पढ़ना छूटा तो
अपना ही लिखित गांधी मल्हार बना लिया, और
जब ये भी तृप्त ना कर पाया तो कबीर को पकड़ा और हिरण को देखा - एक , दो बार नही दर्जनों बार और अब जब वो नही है तो
रिकॉर्डिंग्स देखता हूँ तो लगता है कि गाने और देखने के बीच बहुत रोचक संयोजन है
तेरे खाल का करेंगे बिछौना जब गाते है तो लगता है वे उन व्यथा में फँसने जा रहे
हिरनों को सचेत कर रहें हैं
संतूर
बजाते हुए उन्हें देखता हूँ तो लगता है वे बात कर रहें है उन महीन तारों से या जल
तरंग पर सुर उभरते है तो लगता है वे उन्हें हक़ीक़त में देख रहें है, शहनाई की गूंज में नसों की तान और महीन आवाज की
ठसक दिखाई देती है खां साहब को और जब डग्गे पर हाथ पड़ता है और तीन ताल या कोई
अप्रतिम बंदिश उस्ताद बजाते है तो आँखे मूंद लेते है मानो डग्गे और तबले पर धीन
धीन ताक ताक नृत्य करते मंच से गुजर रहे है
घुंघरुओं
की थाप की आंखों की भौहों के साथ जुगलबंदी के समय भी वे मूंद लेते है आँखें , खजुराहो के मंदिर की पृष्ठभूमि में केलुचरण
महापात्रा की रचना और पदों को डूबकर आँखे बंद करती नृत्यांगना भी मानो कुछ अदभुत
देख रही हो और उसी के वशीभूत होकर मंच पर झूम जाती है , मुझे बैले याद आते है जिसमे गोल गोल घूमती
स्त्रियां मंच पर थिरकते समय आंखे बंद रखती है और अपने दर्शकों को मंत्र मुग्ध कर
देती है
मैं
सड़क याद करता हूँ,
जिन लाहौर नी वेख्या याद करता हूँ, शांतता कोर्ट चालू आहे याद करता हूँ, हयवदन याद करता हूँ, अदरख
को पंजे याद करता हूँ ,
आषाढ़ का एक दिन याद करता हूँ तो अब लगता है कि सभी
कलाकार एक रौ में आँखें संवाद खोलकर बोलते है एक दूसरे को देखते ही है पर उनके
सामने मानो कोई विशाल मंच और है उस मंच से परे जहां वे संवाद स्थापित कर अपने को
व्योम में स्थापित करना चाहते है सदैव के लिए
शिशु
का क्रन्दन और शिशु की बेख़ौफ़ हंसी देखिये जब वो तकता है कही तभी अपने सर्वश्रेष्ठ
स्वरूप में होती है और यह कि जब वह देखता है तो पढ़ता है एवं गुनता और बुनता है -
तभी दे पाता है खुशी और अबोली उपस्थिति इस संसार को
हम
सबको भी पूर्वानुमान होते है - कभी कोई दृश्य देखता हूँ तो लगता है यह देख चुका
हूँ इससे पहले भी,
कुछ घटित होता है तो लगता है कि यह तो मुझे पता था, अनेक चेहरे बेहद परिचित लगते है , सबसे खतरनाक होता है मृत्यु का दिख जाना, किसी अमंगल का घटते हुए दिख जाना - जो हममें से
बहुतेरे लोगों को दिखता हो शायद, मुझे प्रायः दिख जाता है - एक
अनजान दृश्य में डूबे हुए हम जो भी करते है - लगता है यह सब हम देखते सुनते हुए कर
रहें हैं - बात सिर्फ इतनी है कि आप इस सबको महसूस भी करते है या नही अपने भीतर तक
, भीतर से और भीतर के लिये
देखना
सहज है और उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने
यह साध लिया वह विष्णु चिंचालकर, कुमार गंधर्व, बिस्मिल्लाह खां, केलुचरण
महापात्रा,
बिरजू महाराज , शिवकुमार
शर्मा,
हबीब तनवीर, मोहन
राकेश या गिरीश कर्नाड बन गया
देखना
ही गुनना और बुनना है और एकांत इसे व्यापक और दीर्घ बनाता है
31
हम सब
स्तब्ध है,
निशब्द है और दिमाग़ पंगु हो गया है और यदि आप इस
समय कोई जरूरी मुद्दे या काम की बात कर ज्ञान - विज्ञान या समाज संस्कृति या समाज
अर्थ की बात करते हुए राजनैतिक बिंदुओं पर अपनी पारंगतता को दर्शाना चाह रहे हैं
तो माफ़ करिये आप मनुष्यता की सीमा से परे हो चुके है
अभी
अभी हमने सड़कों पर छाले लिए चलती लाशों के हुजूम देखें है, गर्भवती, धात्री
एवं सद्य प्रसूताओं के साथ नवजात शिशुओं को देखा है जो किसी काँरवे में चल रहे थे
और हमारे देखते - देखते ही तड़फ कर गिर पड़े और उनकी इहलीला समाप्त हो गई
करोड़ों
हाथ ठंडे पड़े है जिनके पास करने को कुछ नही है, करोड़ो
स्वर घूँ - घूँ कर कराह रहें हैं, आँखों के सामने घटाटोप है -
आवाजों का शोर बढ़ता जा रहा है और मुझे कलिंग के मैदान में फिर एक बार अशोक के
करोड़ों सिर प्रार्थना के स्वरों में डूबे और खड़े दिख रहें है - बेबस और मजबूर पर
उसके साथ असुरों की एक मजबूत फ़ौज भी है जो अट्टाहास कर लाशों का सौदा कर रही है, क्रंदन का अब यहाँ कोई अर्थ शेष नही रह गया है और
जितनी जोर से आवाजें आती है उतनी ही जोर से इको होता है और लौट आते है आप्त स्वर
यह एक
भूभाग की कहानी नही वरन इस वसुंधरा की भयानक कहानी है - हो सकता है नूह की नाव, डायनासौर के अस्तित्व के खत्म होने और सौ सौ बार
धरती के विनाश और विध्वंस की कथाएँ कभी सच रही होगी पर हमने तो गल्प ही माना था पर
आज हम अपने आपको डूबते देख रहें हैं, यह
किसी नाटक का दृश्य नही है कि अभी पर्दा गिरेगा और सब ठीक हो जायेगा
आत्महत्या
इलाज नही पर बहुत हिम्मत चाहिये करने के लिए, जीवन
के मंच पर हम सब अभिनेता है और सबके जीवन मे ऐसे क्षण आते है जब हम हिम्मत ही नही
जीवन भी हार जाते है और ठीक उसी समय मौत उकसाती है, पुचकारती
है प्यार से,
लालच देकर पुकारती है और यदि आप अकेले है, अपनों से दुखी है और कोई कंधा नही - जिस पर आप सिर
टिकाकर अपनी बात कह सकें,
अपनी भावनाएं व्यक्त कर सकें या अपने बिखरे
अस्तित्व और पहचान को खुद ही समेट ना सकें तो मौत के अलावा कोई विकल्प है क्या
किसी
भयानक शोर में ऐसा कदम उठाया जाता है, भीड़
में ही अकेला हुआ जा सकता है और फिर से आस्था, विश्वास
और हिम्मत बटोरकर खड़े होकर फंदे को चूमा जाता है
करोड़ों
दिलों पर राज करने वाले हीरो कभी मरते नही है, वे
अमर हो जाते है,
मुक्त हो जाते है, और
अपना किरदार निभाकर यवनिका में चले जाते है - ख़ुश रहो, दोस्त जहाँ भी हो - अभिनय के मंच पर सदैव झाँकते
रहना,
अभी बहुत लोग पंक्तिबद्ध खड़े है , मैं मानकर चल रहा हूँ कि इतना ही रोल था तुम्हारा
इस संसार में - बहुत जानदार अभिनय करके विदा हुए हो, मौत
उत्सव है - देखो सब तुम्हारी बात कर रहें हैं, हर
जगह उत्सव की बेला है और लोग उत्सुक है सब कुछ जानने को
इस बीच
एक नही,
दो नही बल्कि तीन लोग याद आ रहे है जिन्होंने इस
बीच संसार से रुखसत ली और विदा कहा - एक उम्रदराज़ होकर मरा, एक कैंसर से ग्रस्त था और एक ने रास्ता चुन लिया
फंदे पर झूमकर,
इसके अलावा एक तरुणी याद आती है जो यही पड़ोस के
जिले की थी और नाट्य कला में दक्ष थी, प्रवीण
थी और जब उसने भी यही मुक्ति का मार्ग चुना तो लगा कि महामारी सिर्फ वह नही जो
दिखाई दे रही है कागज़,
शोर और सड़क पर चलते लोगों में बल्कि महामारी युद्ध
की विभीषिका से भारी है और इसकी जितनी तहें है - उनकी थाग लगा पाना असंभव है, महानगरों में रहने वाले लोग व्यथित है, उन्हें नियमित खर्चो और काम के अवसाद ने तोड़ दिया
है बुरी तरह,
क्योकि काम के नियम कायदे वही लागू है - बल्कि
ज्यादा कड़े नियम है,
जो सामान्य दिनों में पालन करना होते थे- पर इस
समय तनाव के बीच काम करना है - इस पर बात ही नही हो रही कही, सब एक अजीब संजाल में कैद है और रिहाई की संभावना
न्यून है और यकीन मानिए यह तोड़ रहा है लोगों को
किसी
अभिनेता की आत्महत्या से किसी को फर्क नही पड़ता पर सामने जो रंगीन संसार था और चमक
- दमक थी,
उसकी हक़ीक़त देखना हो, हिम्मत हो - तो उस अभिनेता की लाश के फोटो देख
लीजिए जो अपने ही मुहल्ले या घर के किसी बरमूडा पहने युवा की भांति ही नजर आ रहा
है और बिछौना भी वही साधारण सा है जिस पर हम आप रोज सोते है एक दस बाय दस के कमरे
में
जीवन
में अतीत की अच्छी स्मृतियाँ ही इस समय हमें हौसला दे रही है, वर्तमान से हम पूरी ताकत लगाकर जूझ रहे है और
भविष्य के बारे में किसी को सोचने का समय नही है, कोई
महिमा मंडन नही मौत या आत्महत्या का - ना ही किसी बात का समर्थन या खंडन पर आंखों
देखी,
कानों सुनी बात तो सच के स्वरूप में कहना पड़ेगी ना
कबीर
कहते है - क्या तन माँजता रे - एक दिन माटी में मिल जाना
32
अभी
धूप भी थी और बरसात भी ,
बचपन में हम कहते थे चिड़ा चिड़ी का ब्याह हो रहा है
- बड़ा प्रतिका था,
मौसम का यह फ्यूजन अटपटा भी और विचित्र भी पर जीवन
अक्सर ऐसा ही होता है चिड़ा और चिड़ी मात्र प्रतीक है और धूप में बरसात की बूंदे
असली सच
---
आस्था
और भरोसा ही हमे कल की सुबह का सूरज देखने को आश्वस्त करता है, हम आज से जीकर ऊब चुके होते है इसलिए हर रात को आज
की स्मृतियों को दफन करते है, एक आह के साथ उन सभी स्मृतियों
को ठीकठाक करके एक तह में लपेटकर तकिये के नीचे रखकर सो जाते है कि भोर तक वे
फुर्र हो जायेंगी पर सच यह नही होता, वे
रातभर में मंजकर गाढ़ी और दुरूह हो जाती है
---
हमें
विरासत में विस्मृति कभी नही मिलती है, हम
जूझते है आशाओं और नैराश्य के बीच पर लगता है पार नही लग पाते - संसार मे जन्म के
साथ ही यायावरी के अश्व पर सवार होकर हम जीतने का हौंसला लिये निकलते है - हर बार
तैयार होते है तन मन से पर फिर हारते है, गिरते
है और थक हारकर बैठ भी जाते है पर कोई आता है सम्हाल लेता है , धीरे से कंधे पर हाथ रखता है और उठाकर राह पर खड़े
कर देता है सीधे सूरज की ओर मुंह घूमा देता है कि जाओ अभी रास्ता शुरू हुआ है
---
मैं
सिलसिलेवार याद करता हूँ उन सबको तो दर्जनों जोड़ी आँखें, हाथ और मुस्कुराहटें चौंधिया जाती है बरबस ही और
मैं झुकता हूँ कृतज्ञ भाव से और भांप नही पाता किसी भी चेहरे को - अधिकांश बल्कि
सारे चेहरे विलुप्त हो गए हैं, खो गए हैं और भीड़ में जो अब
पहचान में आते है उन्हें देखकर सहम जाता हूँ - पर उन विलुप्त चेहरों की ऊष्मा मेरे
तन को दीप्त करती है मन के अंधेरे कोनों को झिलमिला देती है और किसी प्रकाश पुंज
सी रोशनी में निखरकर सँघर्ष की राह पर फिर निकलता हूँ - शायद यह कहानी हम सबकी है
---
वस्तुतः
हम सब की लम्बी बड़ी कहानियां है , अपने जीवन मे हम सब मर्द है जो
लड़ भिड़कर सब कुछ वो पा लेते है जिसे पाने का हम माद्दा रखते हैं बस बहुत
सूक्ष्मांश में वो रह जाता है जिसे हम पाकर भी कुछ हासिल नही कर सकते थे, पर जो हमारे पास है हम उसकी परवाह ना कर उस अलभ्य
के पीछे आतुर और संताप ग्रस्त रहते है जिसके होने ना होने का कोई अर्थ नही है - पर
हमारे दिवास्वप्नों में भी किसी चराचर जगत की तरह सोते जागते वह अप्राप्य मौजूद
रहता है और हम बेचैनियों की कंदराओं में विचलन करते रहते है
---
हम
सब उम्मीदों के यात्री है और विशाल गगन पर फैले हुए प्रकाश पुंज, हमारे होने से ही सुख और दुख है, यातनाएं
और प्राप्तियां है,
हम सबको चलना ही होगा - सड़क पर कभी गर्मी होगी, ठंड या बरसात पर बस सड़क और पांव के पंजे के बीच जो
आकर्षण है उसे बनाये रखने की जिम्मेदारी हमारी होगी, मैं
जानता हूँ कि हम सब घायल है इस समय और क्लान्त भी पर हमें सबसे पार पाकर खुद से
लड़कर भी आगे निकलना होगा
---
हम
सब अपनी अपनी लड़ाई अपनी अपनी जगह लड़ रहे हैं - रोज तानों से लेकर गलीज किस्म की
गालियाँ सुनते है,
अपनी पसंद का काम ना कर पाने का दुख सबको सालता है, हम अपनी पहचान छुपाते हुए जीवन जीने के उपक्रम
मुखौटों की आड़ में कर रहें हैं पर चल रहे है लहूलुहान होकर यह तसल्ली और सुकून की
बात है,
शोर के बीच अपनी साँसों के आरोह अवरोह को महसूस कर
पा रहें हैं यह भी बेहद संतोषजनक है
---
अपने
मन पर बोझ है,
लम्बी दूरी तय करनी है - तथागत कहते है लम्बी दूरी
तय करना हो तो सिर पर कम बोझ रखकर चलो - पर वो समय अलग था, आज का कड़वा सच सर्वथा भिन्न है यह बात प्रासंगिक
नही और फिर इन दो द्वंदों में मुझे जो व्यवहारिक लगता है वह यह है कि निर्मोही बन
जाओ,
निस्पृही भी , यथास्थिति
बनाये रखना भी प्रायः एक भली और सादी प्रक्रिया है जिससे गुज़रकर हम हर कुछ से
विरक्त हो सकते हैं
---
मैं
जीवन में जीने की नही जीवन के चक्र से शीघ्र गुज़रने की कामना करता हूँ
---
पहचान
बनाने के संघर्षों में सदैव हार जाना एक अच्छी रणनीतिक कदम होता है
33
न्यूटन
में राजकुमार राव दूरस्थ आदिवासी गांव में चुनाव करवा रहे हैं और बूथ पर अपने
सहयोगियों से पूछते है क्या वे निराशावादी है, जब
वे अंजली पाटिल से पूछते है तो वो जवाब देती है "नही सर मैं आदिवासी
हूँ" - और राजकुमार राव चुप हो जाते है ; इस
जवाब का क्या मतलब है - इसका मतलब है कि जो जल जंगल जमीन पर निर्भर है, जिसने प्रकृति से जीवन को जोड़कर अपने को दुनिया से
मुक्त कर लिया है,
जिसने न्यूनतम साधनों से जीवन की लय को जोड़कर मस्त
रहना सीख लिया है,
कबीर कहते है "जब मन मस्त हुआ तो फिर क्या
बोले" - आशा यही से उपजती है
---
आजकल
बाजार जाओ या घर रहो पके हुए आम की स्वर्गिक खुशबू आपके मन मस्तिष्क को बौरा देती
है और एक अजीब से नशे में बंधे आप आम के लालच में खींचे चले जाते है आम की ओर, याद कीजिये जब बौर आ रहे थे, तेज हवाएँ थी, कड़ी
धूप में गुठली से आम बनने की प्रक्रिया कितनी जटिल रही होगी, हम तेज हवाओं के कारण बौर के टूट जाने को लेकर
चिंतित थे - पर वो नन्हे से बौर पेड़ से जुड़े रहें महीन तंतुओं से पेड़ से हिलगे
रहें और कड़ी धूप में आम बनते गए, जितना आवरण झीना हुआ उतना रस
भरता गया,
गुठली का जितना भार कम हुआ उतनी महक पकती गई और एक
दिन ऐसा आया कि वो बौर जो हवा में कांप रहा था - वो पक गया अपने पूरे आकार में और
चमकदार बन गया - हमारे गहरे नैराश्य को धता बताकर आम पक कर हमारी झोली में टपक गया
और अब वह हमें जिव्हा से आत्मिक सुख दे रहा है - आशाओं का यह बेहद छोटा सफर था, मात्र तीन से चार माह का
---
आज
सुबह जल्दी उठ गया था तो दूर खेतों की ओर निकल गया, मुझे
लगा था कि भुनसार में मैं ही हूंगा अकेला औचक सा धरती को निहारता हुआ, सूर्योदय को देखता हुआ, पर जब गया तो पसीने से लथपथ लोग वहां काम संपन्न
कर घर जाने को तत्पर थे - पूछा तो बोले बोअनी कर रहें है, पानी आएगा और अबकी बार झूमकर, फिर सोयाबीन और मक्का लहलहायेगी, मक्का के दानों में जब दूध फूटेगा तो चैन पड़ेगा
हमें
- यह किस प्रचंड आशा की बात कर रहें थे वे लोग -
कहते है जागती आंखों से देखे भोर के सपने सच होते है - मैं लौट रहा था बुदबुदाते
हुए प्रार्थना के शिल्प में कि सदियों से जमा उनका विश्वास खारिज ना हो कही और
उनकी भुनसार की मेहनत व्यर्थ ना चली जाए कही
---
घर
के गुलमोहर के आधे हिस्से को पड़ोसी ने कटवा दिया आज सुबह - फूल झरने लगें है , टिड्डियों के हमले के बाद भी फूल आये थे और अभी भी
इस गील सूख के बीच ,
धूप और बूंदों के बीच फूल उगते है, झरते है पर अब खाली हो गया है गुलमोहर, पत्तियां बेजान और उसकी टहनियों के बीच से धरती -
आसमान दोनों को ताका जा सकता है - बस नजरों का फर्क रखना होगा कि वे ऊपर हो या
नीचे,
बीच में तो एक व्योम बन गया है, हर साल फूल आते है - टेसू हो या गुलमोहर - एक चटक रंग साल में एक बार जरूर
खिलता है - यह आशा नही आस्था है जिससे डिगा नही जा सकता
---
मैं
लगातार चौवन वर्षों से अपने रेशा रेशा शरीर में, आत्मा
में आम की खुशबू और स्वाद को महसूसता हूँ, गुलमोहर
के चटक रँग देखता हूँ,
हर बार मुतमईन रहता हूँ कि अगले बरस इससे बेहतर
स्वाद,
खुशबू और रंगीनियत को जियूँगा - पर अब दिल नाउम्मीद
है कि जीवन में ये खुशबुएँ , ये स्वाद जो इंद्रियों को
उत्प्रेरित करते है,
ये रँगों की महफिल और अपने इस गुलमोहर के फूलों को
फिर देख पाऊँगा,
यह निराशा नही वरन एक सतर्कता भरी आशा है
---
जीवन
कड़ी धूप में आवरण पतला होने साथ भारहीन होते जाने का नाम है - ताकि स्वाद, रंग और खुशबू की सम्पूर्ण परिपक्वता सबको सही समय
पर सही मात्रा में मिल सकें और यही आशाओं का दीप्त संसार है जो विरासत में छोड़कर
जाना है
---
मैं
अगले जन्म में एक गुलमोहर का फूल, पका सा महकता हुआ रसीला आम होना
चाहता हूँ,
मैं मक्का के दानों का दूध बनकर धरती पर बिखर जाना
चाहता हूँ और इसके लिए एक जन्म और लेना होगा और यह निराशा नही, आशा है - प्रचंड आशा
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बोलपुर
के स्टेशन की आधी रात थी,
पुरानी बात थी - छोटा सा स्टेशन और मुसाफिरखाने
में सात आठ यात्री इंतज़ार कर रहे थे - झपकी ऐसी लगी कि मेरा सहयात्री मुझे जगाता
रहा पर मैं नही जागा और वह चला गया सदा के लिए - कुछ यात्राएं कभी पूरी नही होती -
वे भीतर ही भीतर चलती है और छोड़ती नही अपना दारुण्य और वैभव - उस बोलपुर स्टेशन पर
जो बोल कंठ में अटक गये थे वे आज भी नही फ़ूटते कभी - सब कुछ दफ़न कर दिया है - कोई
प्रत्याशा शेष नही है,
बहुत कुछ सहा और सुना मैंने पर रांची जाने वाली
वो ट्रेन ना पकड़ पाने का अफसोस रहेगा और नजरों के सामने से धड़ - धड़ करती ट्रेन
जीवन के प्लेटफॉर्म को सदैव के लिए सूना कर गई
सांगली
में भी ऐसी ही एक अधूरी किंतु साहसिक यात्रा छोड़कर आया था, गलती से सीधे आने के बजाय पूना पहुंच गया और
जीवन मे गफलतें कभी पीछा नही छोड़ती यह समझ बनी, एक
विदाई का दृश्य दिल दिमाग़ पर इतना हावी हो गया था कि यंत्रवत सा स्टेशन आया और ग़लत
ट्रेन में बैठ गया - गलतियां परेशान जरूर करती है पर ठोस और स्थाई सबक सीखाकर जाती
है
एक
बार गजपति से कालाहांडी जा रहा था, रास्ते
मे गाड़ी खराब हो गई - हम तीन लोग थे, मैंने
पैदल चलना शुरू कर दिया,
घने जंगल में ऊंचे पेड़ो को देखकर कौतुक हुआ तब
लगा कि ऊँचाई और सघनता को देखने से ज्यादा महसूस करना महत्वपूर्ण है, कोई इतना ऊँचा और सघन कभी नही हो सकता कि हमें झीना
कर दें बौना बनाकर,
नदियाँ क्यों बहाव के साथ बहती है सोचने के बजाय
उनके बहाव के साथ खेलते हुए जीना जरूरी है, कोणार्क
के पास चन्द्रभागा में समझा कि समुद्र की लहरों से डरकर भागने के बजाय उन पर सवार
होना जरूरी है तभी हम निर्मलता, पारदर्शिता, संयम और हिम्मत क्या है सीख सकेंगें, कोणार्क के मंदिर पर गुम्बज नही रखा गया - कायदे
से वह सम्पूर्ण नही है पर आज भी कहते है सूरज की पहली किरण उस खंडित मन्दिर के
भीतर पड़ती है,
खजुराहो में राजा राम का भव्य मंदिर सूनसान है -
सम्पूर्णता एक मिथ है और आधा अधूरा रह जाना सच्चाई - यह भी दर्शनीय हो सकती है
बशर्ते इसमें कोई कहानी हो जो भीतर से भिगो दें
छग
के गरियाबंद जिला मुख्यालय से दस किलोमीटर दूर एक विशाल पत्थर को शिवलिंग की
विशालतम प्रतिमा कहते है,
भोपाल के भोजपुर में भी यही सुना, खजुराहो के मतंगेश्वर में भी यही सुना - हो सकता
है सब सच हो,
पर गरियाबंद का शिवलिंग कम से कम खजुराहो और
भोजपुर से कम से कम सौ गुना बड़ा है - जनश्रुतियां हमें आस्था, सम्बल और भरोसा दिलाती है - यात्राएं इस बात को
पुख्ता करती है कि मन के निर्जन में हम स्मृतियों का वृहद संसार बुनते चलें - ताकि
जब निविड़ एकांत में जब अवसाद से घिर जाएं तो ये सब अपने भीतर झाँककर संचित सम्पदा
को समझने का मौका दें और हम जीने को उन्मुख हो सकें
कोचीन
के समुद्र में एक बार स्टीमर डूबने को ही था, सबकी
जान आफत में आ गई थी पर फिर लगा कि कुछ है जो अभी शेष है - एर्नाकुलम के कोदमंगलम
लौटकर आया तब लगा कि अपने हाथों कुछ घटित होना बाकी था, खत्म भी हो जाता तो कोई फर्क नही पड़ना था - वे
तीन माह जीवन के मुश्किल भरे माह थे - जैसे बहुत बाद में मराठवाड़ा के तुलजापुर में
बीतें - इतनी चुनौतियां थी कि हर सांस में एक अनुभव होता और दर्जनों सीख मिलती -
अंत में यही सीखा कि जीवन को समझा नही जिया जाना चाहिए, पंढरपुर की नदी और किनारे बने विट्ठल और रखुमा
बाई की मूर्तियों को देख समझा कि क्यों इतना बड़ा वारकरी समुदाय उनमें अपना सर्वस्व
खोजता है या गोंदवलेकर महाराज के मंदिर में लगे पेड़ पर आस्था ज्यादा है बनिस्बत उस
मूर्ति के - अपने कर्मों की सज़ा और अपने प्रायश्चित तब खत्म होंगे जब आप सिर्फ जो
हो रहा है उसे होने दें - जैसे नदी को, हवा
को,
गति को बहाव के विरुद्ध ना मोड़े - एक नवांकुर
जाहिर है सूरज की ओर मुड़कर ही वृद्धि कर सकता है - आप बोन्साई बनाएंगे तो वह बढ़ेगा
तो सही पर अपने सम्पूर्ण आकार को नही प्राप्त कर सकेगा
हम
सब जीवन को जीने के बजाय समझना चाहते है - जबकि यह कभी भी सम्भव नही है, हम एकांत से उकताकर भागना चाहते है पर एकांत के
आनंद को महसूसना नही चाहते,
हम हर उस चीज को मोड़ना चाहते है जो अपनी गति से
एक निश्चित दिशा में बहाव के संग बह रही है - क्योंकि हम सच देखने के आदी नही है -
हमें क्षणभर के भंगुरमय जीवन को ऐतिहासिक एवं अमर करने का, यशस्वी बनाने का गहरा और बड़ा लोभ है, अपने भीतर के ययाति को मारे बिना सभी प्रकार की
वासनाओं से मुक्त नही हुआ जा सकता और इसके लिए जीवन को जीना होगा - समझने के बजाय, मैं यह बार - बार इसलिए कह रहा हूँ कि हम सब
जीने का जतन करते है,
दिखावा करते है मगर जीते नही है
तमाम
तरह के दुख,
अवसाद, चिंताएं, तनाव, धन, यश, प्रतिष्ठा
और वर्जनाओं के बोझ लिए हम हर रोज जीने के बजाय मरने का उपक्रम करते है और एक दिन
जब सब कुछ छूटने लगता है तो निस्पृह होकर त्याग और समर्पण की बात करने लगते है, मुक्ति की कामना में नश्वरता नजर आने लगती है -
तब तक वस्तुतः हम अपने आपको खो चुके होते है - तमाम तरह के बोझ, संजाल और तंत्र में और डर सताता है हमें - जीवन
को आनंद से ना जी पाने का प्रायश्चित्त सालता है - इसलिए मुझे लगता है हमे जीने का
अभ्यास करना होगा और जब यह सीख जायेंगे तो कौशल, ज्ञान
और दक्षता अपने आप ही सध जायेगा जिससे जीने की न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी हो सकेंगी
अंततः हमें चाहिए ही क्या और कितना - यह हमने अभी सीख ही लिया है इस आपदा में
मरने
की कामना में ही जीने की कला समाहित है - जिसने यह समझ लिया वो भरपुर जी लिया
35
किसी
के भी अतीत में जाओगे तो कीचड़ के सिवा कुछ भी नही मिलेगा, मेरे अतीत से लेकर तुम्हारे अतीत में इतना कीचड़
है कि हम यह पूरी धरती दस बार ढाँक सकते है इसलिए बस वर्तमान में रहो, जब भी किसी से मिलो मुस्कुरा दो - अपना और उसका
वही चेहरा ज़ेहन में रहें जो अभी सांस ले रहा है - थोड़ा भी दिमाग पर जोर डालोगे तो
दिक्कत होगी
हम
सब एक दूसरे के व्यवहार से परेशान है, हम
सबके पास एक दूसरे के व्यवहार के दर्जनों किस्से है - खराब, उपेक्षा, जली
कटी बातों के घाव नासूर की तरह भीतर ज़िंदा है और हमारे पास कहने को बहुत है सुनने
को कुछ नही - जब भी किसी से मिलें - जुले, यह
मान लीजिये कि यह पहली और आखिरी मुलाकात है और इसके बाद कभी नही मिलेंगे, इसलिए बस मिल लीजिये, कुछ कहना हो तो जज्ब कर लीजिए, सुनना हो तो यूँ सुने जैसे चींटी चींटी से कहते
समय सुन लेती हैं यन्त्रवत और आगे बढ़ जाती है, खरगोश
और गिलहरी का शोर कही दर्ज नही होता, पहाड़
चुपचाप खंडित हो जाते है और जो आवाज़ करते है - नदी , समुद्र
या हवाएं वो जल्दी ही इतिहास बन जाते है
हम
सबको दूसरों से शिकायतें है इतनी कि गिनती नही है पर रुकिए आपसे भी सबको असँख्य
शिकायतें है और आजकल तो इस वर्चुअल माध्यम और सोशल मीडिया पर हम सबको एक दूसरे से
इतनी शिकायतें है कि हम अगले हजार जन्मों तक उन शिकायतों को प्रत्यक्ष नही कह सुन
पायेंगे फिर भी हम बेशर्मी से हर किसी को नकारात्मक, एटीट्यूड
वाला,
अख्खड़, घमंडी, फर्जी, बदतमीज
और ना जाने क्या - क्या कहकर और अधिकतम फतवे जारी कर सुखी होने के स्वांग भर लेते
है - मैं तो नही बच पा रहा मनुष्यगत कमजोरियां होने से, आप बच सकें तो बच जाए - शायद जीवन का उद्धार हो
जाये
हम
तर्कवान है पर बुद्धिहीन एवं परपीड़क है और इसमें जीवन का सर्वाधिक समय जाया करते
है ,
सारी ऊर्जा और ताकत दूसरों को ओछा और बेवकूफ
साबित करने में लगा देते है, अपने दिन का डबल यानि 48 घँटे का समय हम षड्यंत्र रचते है, कुतर्क की नैया पर खिवैय्या बनकर भव सागर पार
करना चाहते है - यह स्वाभाविक है क्योंकि हमें बचपन से सीखाया गया है कि हम जानवर
से श्रेष्ठ है पर कभी अपने भीतर के जानवर को ही देख समझ लें और पशु वृत्ति अपना
लें तो सम्भवतः कम से कम मनुष्येत्तर मनुष्य बन पाएंगे
वस्तुतः
हम समावेशी नही है किसी भी प्रकार का इनक्लूजन हमे दुख देता है और इसी से हम अवसाद
में रहते है क्योंकि हर समावेश आपके कम्फर्ट को चोट देता है, आपसे सवाल करता है, भिन्न प्रकार से सोचने को मजबूर करता है , बदलाव को अपनाने की बात करता है और हम इस सबसे
बचना चाहते है - सीखने के लिए रीत जाना होता है और रीतने में रिक्तता है जो हमें
सूक्ष्मता की ओर ले जाती है जबकि हम मूल रूप से स्थूल और सब्जेक्टिव है
हम
करना चाहते हैं - प्रयोग,
नवाचार, या
आविष्कार परन्तु किसी बंधन में बंधना नही चाहते क्योकि ये सब नियमितता की बात करता
है,
कड़ा अनुशासन और प्रतिबद्धता की मांग करता है
जबकि मनुष्य मूल रूप से एडवेंचर पसंद जीव है वह इतनी जल्दी उकता जाता है कि अपने
एक विचार या एक सत्य पर एक सेकेंड भी कायम नही रह पाता है और कुछ अलग, कुछ नया करने के जुनून में खपा देता है हर बार
अपने को - चिंता यहाँ से शुरू होती है - माया के संग मस्त रहकर मोह त्यागना चाहता
है - एक पत्नी व्रत लेने के बाद भी चार पांच सम्बंध बनाकर भी उसकी भूख शांत नही
होती
इसलिए
हम थोपते है इसलिए समाज मे हायरार्की बनी रहती है, जाति
से लेकर विभिन्न ढाँचे बनें रहते है, ऊंच
नीच और अमीरी गरीबी की विभेदक रेखा हर बार वृहत्तर और भव्य स्वरुप में बढ़ते जाती
है - हम सब यही चाहते है और यही हमारा प्रारब्ध भी है
हम
सुधरना नही चाहते हम मनुष्य बनकर मनुष्यता को नष्ट करने के नित नए औजार खोजते है, उन्हें पैना करते है और फिर एक दिन अपने को चाक
करके अमर हो जाना चाहते है इसलिए कि कोई हमारे बारे में, हमारे भले चेहरे और सद्कर्मों के बारे में दो
घड़ी ठहरकर बोलें
हमें
क्यों सम्बन्धों के जाल में फंसना चाहिए
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जिनसे
उम्र भर लड़ते भिड़ते रहते है वे एक दिन हम सबको छोड़कर बिछड़ जाते है या सदा के लिए
संसार त्याग देते है,
हम दुख मनाते है, मातम
में रहते है और धीरे धीरे पटरी पर लौटते है और फिर से सुख खोजते है, खुशियाँ तलाशते है पर यह भूल जाते है कि खुशियाँ
रिश्तों में नही है,
सम्बन्धों में नही बल्कि हमारे भीतर है
हम
सब यह उपक्रम करते है और बार बार हर कदम के संघर्ष पर लगता है कि हम मिसफिट है -
कई बार छन्न से बिखर जाते है टूटे कांच की तरह एकदम से पर यह याद नही रहता कि हम
जो बाहर खोज रहें थे वह वस्तुतः है ही नही कुछ, भीतर
की लड़ाईयों से मुंह मोड़कर हम एक तलाश में अपने से ही दूर निकल आते है - लौटना होगा
अपने ही भीतर या उस तलाश में जाना होगा जहाँ हम अपने आपसे रूबरू हो सकें
हवा
को उल्टा बहते देखा कभी,
नदियाँ पलटकर बहने लगें या समुद्र की लहरें भीतर
ही भीतर कसमसा जायें और पहाड़ धँसने लगें जमीन में तो क्या होगा - प्रकृति का यह
रूप हम देख नही पाएंगे - अलबत्ता इसकी कल्पना करके हम यह समझ सकते है कि ऐसा होना
सही नही है और शायद हम स्वीकार भी ना कर पायेंगे पर हम अक्सर अपने व्यक्तित्व के
साथ प्रायः यही करते हैं और यह करते हुए बिल्कुल असहज नहीं होते - क्योकि इसका मूल
कारण यही है कि हम अलभ्य पाना चाहते है और बाहर की खोज हमें यायावर बनाती है -
विचित्र है हम - जाना भीतर है और चलते बाहर है दबे पाँव
इस
सबके लिए जीवनानुभवों से पका दृष्टिकोण चाहिए - एक ऐसा नज़रिया विकसित करने की
आवश्यकता होती है जो हमे सुनना और देखना सही बिंदु से हो यह सीखा सकें और
सुनिश्चित कर सकें,
पर हम देखना और सुनना क्या है - इसे इतना सरल और
नैसर्गिक मान लेते है कि इसे सीखने की ज़रूरत क्या है - यह धारणा बना लेते है जबकि
बोलने पर तो कुछ नही कहूँगा पर देखना और सुनना एक अभ्यास से आता है - दुनिया भर
में धर्म,
आध्यात्म से लेकर नृतत्वशास्त्र और विज्ञान इसी
सबको लेकर सदियों से काम कर रहा है और यदि यहाँ पारंगत होने में किंचित भी सफल हो
गए तो बोलने के बारे में एक बार सोचा जा सकता है फिर - एक जीवन मे इन तीनों को साध
पाना असंभव है - जिसने एक को भी साध लिया - वह बाकी दो में कच्चा रह ही जाता है
प्रेम
से इन तीनों को थोड़ा - थोड़ा करके हासिल किया जा सकता है - क्योंकि हम इस अवांगर्द
समय मे चारो ओर दृश्यों,
कोलाहल और आवाजों से घिरे हुए है और इस सबमें
प्रेम कहीं नही है इसलिए हम अशांत है, निस्पृह
होने की चेष्टा करते है पर हम असफल होते है - क्योंकि हमारे भीतर भी प्रेम समाप्त
हो गया है ,
हम दुर्दांत हो गए है - संसार के जंगल मे अपनी
पगडंडियों को बनाकर - मिटाते हुए चल रहे हैं - क्रोध, ईर्ष्या, वैमनस्य, प्रतिस्पर्धा और अस्तित्व की लड़ाई में बहुत
निम्नतर हो गए है और अपने जाये इन दुखों से उम्मीद करें कि हम कुछ पा जायेंगे तो
असम्भव है
क्षमा
के बारे में सुंदर व्याख्याएं हमारे पास है, हम
क्षमा करना भूल गए है,
यह विदित है ही कि जब क्षमा का भाव उपजेगा तो
अहंकार,
दर्प, क्रोध, आसक्ति और अवसाद विदा होंगे और एक जगह ऐसी बनेगी
जो व्योम से बड़ी होगी अपने भीतर , उस खाली जगह पर प्रेम की बाड़ी
उपजेगी और तभी हमे नए रास्ते भी नजर आएंगे और हम रिश्तों - नातों और देखने - सुनने
से बाहर निकलकर अपने भीतर की प्रकृति से एकाकार हो पायेंगे - तमस मिटेगा, कटुता कम होगी और हम एक दूसरे को समझ पायेंगे
अपने
कमरे में गाढ़े नीले रंगे कमरे की दीवारों में जब सुनने की कोशिश करता हूँ तो अपने भीतर मुझे पक्षियों की आवाज सुनाई देती है, मानवीय स्वर नही सुनाई देते - जब देखता हूँ तो
आसमान में रँग बदलते बादल और दूर उगते - डूबते सूरज की लालिमा दिखाई देती है और
स्तब्ध कर देने वाली रातें,
उजली सी भोर, सन्नाटों
से भरी ऊँघती दोपहरियाँ और उचाट शाम ही नजर आती है, मन
के भीतर पसरे हुए जंगल,
पहाड़ों की उन्नत चोटियाँ, समुद्र के गर्जन - जो किसी अनहद नाद की तरह बजते
है और नदियों की आवाजाही ही याद आते है - चेहरों की भीड़ में अपने को खोजता हूँ तो
सिवाय दुर्गम रास्तों और जगहों के कुछ याद नही आता, सब
चेहरे अवसाद ग्रस्त है,
करुणा की आस में घूमते इन चेहरों पर भयावह छाया है
जो अशान्त और उद्धिग्नता दर्शाती है - मैं दृश्यों को पहचानने की कोशिश करता हूँ
पर भटक जाता हूँ,
भ्रमित हो जाता हूँ और अंत मे परेशान होकर सब छोड़
देता हूँ
एक
अनजान सफर पुकारता है और उसके आकर्षण में खींचा चला जा रहा हूँ - सब कुछ मद्धम हो
रहा है - आहिस्ते से और मैं निर्विकार भाव से उस दृश्य में विलोपित हो रहा हूँ
डूबना
अक्सर पा लेना भी होता है
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दो बार फोन लगाया पर नही उठाया, आखिर रख दिया, सोचा कि अगला ड्यूटी पर होगा और जब
समय मिलेगा तो खुद कर लेगा
आखिर रात में स्क्रीन पर नाम चमका
तो लगा कि चलो जवाब तो आया
बात शुरू की तो कुछ समझ नही आ रहा
था, जैसे कोई गम्भीर हकलाने वाला हो और
आवाज़ लथड़ रही हो - बहुत हिम्मत करके वो लगभग चार मिनिट में इतना ही बोल और समझा
पाया कि टेक्स्ट मैसेज से बात करो, आवाज़ एक लम्बी सुरंग से आ रही थी हाँफती और लथपथ
कुछ समझा नही, तुरन्त वाट्सएप खोला और पूछा तो पता
चला डेढ़ माह से गम्भीर बीमार है, दिमाग़ ने नियंत्रण खो दिया और बोला नही जाता, चलना फिरना मुश्किल है और कई न्यूरो
सर्जन का इलाज चल रहा है इस समय ठीक होने की पूरी कोशिश चल रही है पर समस्यायें है
,
"अब सब याद आ रहा है तो आज याद किया
आपको भी" - कांप गया यह संदेश
पढ़कर
जल्दी ही बात बंद कर दी मैंने अपनी
ओर से क्योकि अगला थक गया होगा टाईप करते करते
स्मृतियों के जंगल मे यादें कभी नही
मरती, भोपाल गया था मैं 2005 में और पत्रकारिता विवि में आना
जाना लगा रहता था, बहुत से बच्चों से बातचीत , अपने काम की शेयरिंग , मिलना जुलना होता था - उनमें से एक
था जो बहुत लाड़ला बन गया था एकदम अनुजवत या औलाद की तरह, खूब बातें खूब बहस और लिखना पढ़ना, खूब सारे बच्चे, दोस्त, प्राध्यापक मेरे घर आते और कहते कि
खाना बनाओ, खिलाओ और मैं झिड़कता कि भागो -
हलवाई समझ रखा है पर वे मानते ही नही, रात दो बजे आते और कहते "अच्छा पोहा ही बनाकर खिला दो भूख लगी
है " सुबह से चाय कॉफी का दौर शुरू हो जाता
इन बच्चों की डिग्री के बाद
नौकरियां लगी, यहाँ - वहाँ घूमते रहते इस अखबार से
उस अखबार और अपने अनुभव बांटते रहते, इनके शादी ब्याह हुए , मैं गया भी उनकी खुशी में शामिल हुआ, फिर उनके भी बच्चे हुए और इस तरह एक वृहद दुनिया मे इन सबसे सम्बंध
प्रगाढ़ होते गए
गाहे - बगाहे बात होती थी - मीडिया
की लाइन ही तनाव की है - देर रात तक काम और आधी रात को लौटना, पर दुआ सलाम हो जाती है हफ्ते में
एक दो बार फोन पर
इसकी हमेशा शिकायत होती कि भोपाल
आये और घर नही आये और मैं एकदम से जवाब देता - "अगली बार तेरे घर ही रुकूँगा, बहु के हाथ बना खाना खाऊंगा, बिटिया के साथ खेलेंगे दिन भर, कही घूमने चलेंगे सब साथ "
कोरोना ने बहुत संत्रास दिए, इसे अखबार ने अस्पताल जाकर कव्हरेज
को कहा था , मैं रोज डाँटता कि मत जाओ, ख्याल रखो - दो बार अपनी कोरोना
जाँच करवाने भी गया पर नम्बर नही लगा - काम और दबाव ने तनाव और अवसाद से जीवन भर
दिया
कल जब यह सब बात हुई तो रात सो नही
पाया - पूरा दृश्य सामने से गुजरता रहा 2005 से कल रात तक का, ये सब तो अभी खुद ही बच्चे है और
इनकी जिम्मेदारियां है पर इस कोरोना ने जो अवसाद और ये जीवन भर का प्रतिसाद दिया
है - वह वाकई सोचने वाला है कि क्या मीडिया में काम करने वाले, करवाने वाले एकदम शून्य हो गए है, भोंथरे हो गए है या जिंदा लाशों में
बदल गए है - सारी तनख्वाह काटकर दस हजार पकड़ाना और उपर से तनाव की रस्सी पर करतब
करवाना कहाँ का सामाजिक न्याय है
वो बच्चा तो मेरा है ही, मेरी दुआओं में आप सबकी दुआएँ भी
शामिल हो - ये अनुरोध है पर , एक बात अपने सभी मित्रों से कहूँगा ऐसी नौकरी छोड़ दो - जो आपके
शरीर, दिल और दिमाग़ को बर्बाद करने पर
आमादा कर दें - शरीर ही नही रहेगा तो जीवन कैसे चलेगा , आप अपने परिवार और दोस्तो को समय
नही दे पा रहे जो आपकी ऊर्जा और ताकत है - तो क्या मतलब है नौकरी का
भाड़ में जाएं मैनेजमेंट, टारगेट और कव्हरेज - अपना जीवन और अपना परिवार सर्वोच्च
हो, मित्रों से शेयर करो, और यदि बात करनी है तो मुझसे करो -
कभी भी कॉल करो कम से कम हम खुलकर बात तो कर ही सकते हैं
"आओ सब अंधेरे में सिमट आओ
हम यहाँ से रोशनी की राह
खोजेंगे"
मेरे लाड़ले बच्चे, दुआ है कि तुम्हे मेरी उम्र लग जाये
- जल्दी ठीक हो जाओ - भोपाल की बड़ी झील पर बत्तख देखते हुए स्टीमर पर घूमेंगे और
जहाँनुमा में रात का भोजन करेंगे और फिर घर आकर सब मिलकर खूब गप्प करेंगे , बिटिया के साथ खूब खेंलेंगे, भोजपुर और भीम बैठिका घूमने जाएंगे
हम सब - जल्दी से ठीक हो जाओ ... हिम्मत मत हारना और नौकरी गई भाड़ में ...
सब ठीक होगा - जल्दी ही हम फिर
मुस्कुरायेंगे
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एक मीना बाज़ार लगता था, हर वर्ष नवरात्रि में - उसमें घूमने
जाने का मज़ा ही कुछ और होता था, बड़े बड़े झूले उसकी पहचान थी , कई बार हिम्मत की कि किसी एक झूले में बैठूं पर अंदर का डर हमेंशा
हावी रहा - ऊँचाई, चक्राकार गति और कर्कश आवाजें नीचे
से ही सुनकर भयभीत हो जाता था, रोपवे पर आज बड़ी हिम्मत के बाद बैठ पाता हूँ - नीचे देख नही पाता -
ऊंचाईयां नीचे देखने से मना करती है और जुगुप्सा रूपी भय दर्ज करती है दिलों -
दिमाग़ पर, इसलिए ऊँचाई कभी पसंद नही आई
गौहाटी में ब्रह्मपुत्र में स्टीमर
में घूमा, भोपाल के बड़े ताल में, तवा का तट हो, नर्मदा का, माही का या गोदावरी का - पानी
कमज़ोरी जरूर है पर उतरना, तैरना और फिर डूबना एक सम्पूर्ण
प्रक्रिया नुमा लगता है, इसलिए कभी तैर नही पाया और डूबा भी
नही - शायद यही वजह थी कि प्रेम को कभी गम्भीरता से महसूस ही नही कर पाया क्योकि
उसके लिए तो डूबना होता है - निष्ठुरता का बड़ा पाठ इससे सीखा और जाने अनजाने
निष्ठुर , निर्मोही भी इसलिए बन ही गया यहाँ
तक आते आते
हवाई जहाजों में बहुत यात्राएं की -
अंदर बैठने पर एक धुकधुकी हमेशा बनी रहती थी कि ये सफ़र आखिरी साबित होगा, चेहरे पर स्निग्ध मुस्कान लिए हर
कोई एक हल्के से झटके से काँप जाता है और दूसरे को हौले से देखकर मुस्काता जरूर है
और अंत मे उतरते वक़्त सबमें कृतज्ञता का भाव सबके लिए होता है , भले ही दर्प इसकी इजाज़त ना दें कि
उसे भद्दे रूप में प्रदर्शित करें - सीखा यही कि झटकों में जिन्होंने मुस्कुराकर -
भले ही दूर से, सहयोग दिया - उनके प्रति सचेत रहकर
अंत में साधुवाद तो देना होगा ना , क्योकि जब आप उड़ रहे हो एक वृहद या सीमित समुदाय या वर्ग विशेष के
साथ - तो झटके सभी को लगते है पर यह
मुस्कुराने और भलमनसाहत ज्ञापित करने की शिष्टता तो रखनी ही चाहिये
अब तक के जीवन में हिसाब लगाऊं तो
अनगिनत रास्ते और दूरियाँ तय की है - धूप, छाँह, बरसात में और कच्ची - पक्की
पगडंडियों से लेकर चित्ताकर्षक दस बारह शाखाएँ फैलाएं मजबूत चमकते रास्तों पर चला
हूँ, कई बार पाँवों में छाले पड़े, लहूलुहान हुआ, थक गया इतना कि आँखे मूंद गई चलते -
चलते, पर उन सबका शुक्र गुजार हूँ
जिन्होंने तेज आवाज़ के उपकरणों और कर्कश स्वरों से मुझे दुर्घटनाओं से बचाये रखा, सावधान किया और अपनी चाल सुस्त रखने
को आगाह किया, कई बार छोटी - मोटी टक्करें भी हुई
तो हाथ, पाँव या हड्डियाँ टूटी - पर इससे
सम्हलने का मौका मिला - पतली, कच्ची पगडंडियां साँप और बिच्छुओं से भरी हो सकती है, खरपतवारों से भरी भी और साफ़ लंबे, मजबूत रास्ते एक हल्की सी ठोकर
मारकर जीवन की इहलीला समाप्त कर सकते है - मुस्तैद दोनों जगह रहना है - ताकि जिस
ओर चलने का उपक्रम किया है वहाँ भले ना पहुँचे , पर कम से कम एक संतुलन देह, आत्मा और लक्ष्य का बना रहे - तालमेल और संयोजन महज मूल्य नही -
वरन अपनी हर सांस में घटते हुए इन्हें देखना है क्योंकि जीवन के रास्ते विचित्र है
डर हर जगह काबिज़ है - भीतर, बाहर, ऊपर, नीचे, स्थिरता में, गतिमान अवस्था में या कि नींद या जागृत अवस्था में , कबीर कहते है ना - "जागते रहना, नही तो चोर आयेगा" और वह चोर
कोई और नही - अपने भीतर पसरे ये सब डर के प्रकार ही है - जो भिन्न - भिन्न आकार , प्रकार , विचार, व्यवहार और नवाचार लेकर आते है
संश्लिष्टता को अपने जीवन की पोटली
में गाँठ बाँधकर तैयार हो जाये - सारी लड़ाईयां खुद ही लड़नी है - हर लड़ाई में अपनी
हार तय है, क्योंकि इन सबका अनंतिम परिणाम इन
डरों का सामूहिक आक्रमण ही है - मन वाचा और कर्मों पर - जो अंततोगत्वा हमें खत्म
ही कर देंगे और सारे दुस्साहस यही रह जायेंगे
अंत को स्वीकारना एक सही कदम है
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एक मैय्यत में गया था आज, घर में तो सब ठीक था, रास्ते मे भी दुख उमग रहा था, पर श्मशान में मुखाग्नि से कपाल
क्रिया के बीच फुर्सत के घण्टों में हम सब लोगों ने उस मृतक को इतना ग़लत साबित
किया कि यदि वह सुन लेता तो शायद जन्म के क्षण ही मरने का निश्चय कर लेता और
मजेदार यह है बाहर निकलते समय श्मशान वैराग्य का टैग सबके मन मस्तिष्क और आत्मा पर
नत्थी था
जीवन मे आपको ग़लत साबित करने वाले
बहुत मिलेंगे, पर हम कभी ग़लत नही होते, हमने जो भी किया, सोचा, विचारा और कहा - अतीत, वर्तमान या भविष्य में करेंगे - वो हमारा निर्णय था, किसी को जज करने का अधिकार नही है -
इसलिए जो ग़लत साबित कर रहें हैं उन्हें तत्काल त्याग दो - जीवन की उम्र भले ही
छोटी हो पर दायरा बहुत बड़ा है
हम सब एक न एक बार झूठ बोलते है रोज, हर समय और यही झूठ हमे जिंदा रखते
है, हमे किसी के सामने सच बोलने की
जरूरत भी नही है, और ना ही झूठ को सच साबित करने की, वस्तुतः झूठ ही परिस्थिति का बखान
है और परिस्थिति की जाणीव वही कर सकता है जो उसमें या तो फंसा हुआ है या उससे गुजर
रहा हो, इसलिये हमारा बोला गया शब्द या
वाक्य या वर्णन हमारे द्वारा कहा गया एक शब्द चित्र है, एक आख्यान जिसमे कभी पूरा कभी कहा
ही नही जा सकता और हर बार बहुत कुछ छूटता है, इसलिये पश्चाताप करके मन मत छोटा करिये कि मैने झूठ बोला और इसलिए
कहता हूँ कि यदि कोई आपसे कुछ कह रहा है तो उसे भी अपूर्ण समझे और तत्काल भूल
जायें - क्योकि जो देखा, सुना और कहा गया है - वह महज झूठ का
एक पुलिंदा है एक कृत्रिम परिस्थिति का वर्णन मात्र
जीवन में कभी स्पष्टीकरण मत दीजिये, अपने आपको सबसे ज्यादा देना पड़ते है हमें - क्योकि बाकी सबसे तो हम
बदतमीजी या ओछेपन से निपट लेंगे, पर अपने आपको अपने किये धरे का स्पष्टीकरण देना पड़ता है - मनुष्य
ने स्वप्रताड़ना के अनेक उपकरण ईजाद किये है और कन्फेशन, स्पष्टीकरण उनमें से श्रेष्ठ ईजाद
है - जबकि होना तो ठीक उल्टा था - अपनी बात कहिये, अपने मन मस्तिष्क में जोर से कहिये और इतनी ताकत से कहिये कि फिर
कभी पलटना ना पड़े किसी पश्चाताप के लिए, पर, पछताने का कोई बहाना मत खोजिये -
मैंने किया और इस पर मुझे कोई खेद नही है - यह आपको जीत दिलवायेगा
सबसे सुन लीजिए - पर अपने को जैसा
लगता है वैसा ही करिये - अपना विचार, अपना जीवन, अपना कम्फर्ट, अपने स्वप्न और अपनी क्षमताओं से आप
वाकिफ है आपको क्या अच्छा लगता है, आपकी च्वाइस क्या है, आपकी प्राथमिकता क्या है और सबसे ज़्यादा क्या करने से खुशी मिलती
है - यह सब आपको ही मालूम है इसलिए अपनी मानो, दोनो कानों से आती व्योम भर की आवाजों का एक पथ निश्चित है - वे
आयेंगी मरने के बाद भी और एक सरल या तिर्यक रेखा में गमन कर निकल जाएंगी - पर इन
दो कानों के बीच जो अनहद नाद की तरह से आवाज़ें उठती है, गूंजती है, शोर मचाती है और आगाह करती है - उन
पर फोकस करना जरूरी है ताकि वे स्थिर हो जाये
किसी के कहने, सुनने से कोई फर्क नही पड़ता, लोग बोलेंगे - इस पर मुझे कुछ कहना
भी नही - क्योकि अपनी जिंदगी मैंने अपने पैमानों और रास्तों पर चलकर जी है - आसपास
के टुच्चे लोगों की बातों से फर्क नही पड़ता, जिनके साथ जीवन का लम्बा समय बीताया - उन्हें ही छोड़ दिया क्योंकि
वे प्रमाणपत्र बाँटने के ठेकेदार हो गये थे, जो लोग मुझे ठीक नही लगें किसी भी कारण से - उन्हें त्याग दिया
झटके से, तो फिर भीड़ की क्या परवाह करना -
अपने लोगों से बात किये दशक बीत गए, कुछ लोग संताप की हद तक शामिल थे - उनको विलोपित कर दिया तो फिर
क्या - अब बहुत शान्त भाव है और जब लगता है कि अपनी प्रसन्नता या दुख किसी और के
नियंत्रण में जा रहा हैं तो बगैर किसी लिहाज़ के उस बंधन को तोड़ देता हूँ - चाहे वो
कितना ही मजबूत, करीबी या भावनात्मक हो
जीवन में सब कुछ सीखते, सुनते, देखते, समझते हुए ही पांच दशक पूर्ण कर
छठवें दशक के आधे पर आ गया हूँ और फिर कोई कहता हैं कि "मैं यह समझा रहा था, आपको बता रहा था, या इसे यूँ समझे कि" तो लगता
है क्या अपनी कोई समझ नही, अपनी शिक्षा, दुनियावी चातुर्य भरे जीवन का कोई
मोल नही, क्या अब अपने अनुभव कालातीत हो गए ; याद आता है कि चंद रुपयों के लिए या
नौकरी के लिए ये समझौते बहुत किये, आठ वर्ष पूर्व नौकरी छोड़ी भी इसलिए थी और तब से बहुत कम संसाधनों
और सीमित खर्चों में अपने को समेट लिया था, पर कभी गरीबी का नंगा प्रदर्शन नही किया - और आज भी यही माद्दा है
- मेरे पास अब समय बहुत कम बचा है और अपने भीतर यही सुनना चाहता हूँ कि सब ठीक हुआ
, जो हुआ अच्छे के लिए हुआ, इस समय में यही हिम्मत बनी रहें, हाथ हमेंशा ऊपर बना रहे - आज तक
मांगा नही तो अब इस बीत्ते भर समय में पसारना ना पड़े, समय कम है और अब करने को कुछ भी शेष
नही है, रंग खत्म हो गए है और केनवास भर गया
है
इन गाढ़े नीले रंग की दीवारों वाले
कमरे में इसलिये घड़ी की सुइयाँ आपको नही मिलेंगी , यहाँ समय हावी नही होता - ना ही मैं समय के बंधन मानता हूँ - मुझे
मालूम है कि मेरे पास कितना समय शेष है और अब जितना भी है वह मैं अपने हिसाब से तय
करूँगा
हम सबको अपने स्पेस में रहना चाहिये
और जो हमारे स्पेस में आने की कोशिश करें - उसे बहिष्कृत कर आगे निकल लो
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भीड़भरे शहरों में अक्सर रहा हूँ
जहाँ ट्रैफिक सिग्नल को देखते समझते ही उम्र के दशक गुजरते जाते है, आप भीड़ में फंसे हो और सामने की
गाड़ियां सरक रही है, दस बार लाल - हरे सिग्नल को देखते
अधीरता भी खत्म हो जाती है, एक उकताहट सी होने लगती है, अंत में जब आपका नम्बर आता है तो
अक्सर आपको लाल एवं हरे के बीच पीले वाले समय मे क्रॉस करना पड़ता है, जीवन इसी का नाम है खतरों और
सुरक्षित घेरे के बीच से निकलकर पार हो जाना
यह सब दर्जनों बार होता है , बल्कि असँख्य बार पर कोई भी लम्हा
याद नही रहता, हम भूलते है - उस मुस्कान को - जो
उस ठहरे हुए ट्रैफिक में दिखी थी, उन चमकती आंखों को, चौराहे पर कार का शीशा बजाते बच्चों को, नंगे भूखे शिशु को गोद मे लिए करुणा
का स्वांग भरती स्त्री को , लकड़ी की गाड़ी को घसीटते अपाहिज बूढ़े
को, पसीना पोछती भीड़ को, ट्रैफिक हवलदार को और सिग्नल पर
गुटरगूं कर रहे कबूतरों को या किसी मूर्ति पर बैठे कौवों को या जेब्रा क्रोसिंग से
सहमती हुई भीड़ को भूलकर हम आगे निकल आते है - इसलिए नही कि हम जानबूझकर भूलना
चाहते है - बल्कि इसलिए कि हमारा उनसे कोई सरोकार नही है - याद रहता है तो सिर्फ
दर्द और वहाँ बीताये पलों का इंतज़ार - जीवन इसी सबको याद रखने और भूलने के बीच का समागम है - यदि हर
चौराहे की एक मुस्कान भी अपने साथ समेट पाएं तो इंतज़ार के वो दंश सांद्र नही होंगे
और स्मृतियों में बेहद हल्के होकर घुल जाएंगे
सब कुछ क्षणिक है, छिछला और पारदर्शी है - स्थाई, गुढ़ गम्भीर हमने बना लिया है
क्योंकि हमारी सारी ट्रेनिंग इसी को पारंगत करने में हुई है - सारी प्रक्रियाएं
इतनी ही सरल है कि एक फूल खिल जाएं सुबह और शाम होते होते खत्म हो जाये - किसी भी
ग्रन्थ, कविता या कहानी में इन खिले -
मुरझाये और विलोपित हो गए फूलों का ज़िक्र नही होगा - बहुत कम पढ़ा है पर यह आजतक
नजरों के सामने से नही गुजरा, और इन संख्याओं को कोई दर्ज कर भी लेगा तो क्या होगा - कुछ नही, पर एक क्षण भी जी लिए तो सब कुछ मिल
जाएगा, तृप्ति और संसार - पर हम देख समझ
नही पाते और दौड़ते रहते है, भिन्नाते रहते है - सिग्नल को देखते
हुए पर आसपास के दुखों और मुस्कानों को अनदेखा कर देते है - मैं एक क्षण का ही
जीवन चाहता था, यह कहने में कोई गुरेज़ नही कि मुझे
एक नही हजारों क्षण मिलें जिनसे तृप्ति मिली, नज़रिया और सीख भी - अपने आसपास नजर गड़ाये रखी मैंने और हर पल का
भरपूर मज़ा लिया , हर बार पीले समय मे भागते दौड़ते
अनगिनत चौराहों को पार भी किया पर आज जब सारे सिग्नल हरे हो गए है , सड़कों पर भीड़ नही है, जेब्रा क्रोसिंग खाली पड़े है और
रास्ते सूने है तो लगता है मेरी झोली में वो सब है जो मैंने बरसो बरस समेटा और
संजोकर रखा
सब कुछ पार कर सुरक्षित रह जाने के
लिए बहुत कुछ में धंस जाना या फँसना बेहद जरूरी है
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परछाइयाँ बहुत गहरी है, हम सब बहुत तकलीफ में है, उम्र का लम्बा पड़ाव बीत गया है और कुल जमा हासिल अगर यह था या ये
होने वाला था तो जिंदगी के सभी शर्तें नामंजूर है और मैं सब लौटाकर फिर से शून्य
पर लौटना चाहता हूँ, एक नई ताकत और जोश के साथ - नई
दिशाएं तलाशने और वो सब कुछ पाने को जो खिलंदड़पन से हासिल हो सकता है - मुझे नही
चाहिये ये ख़ौफ़, वहशत और अंधेरे बन्द कमरों की
सौगातें
होश सम्हाला तब से ऊंचे मकान, पतले से अंधेरे चढ़ाव और तपती सी
छतें मेरी साथिन रही, जिंदगी के आधे से ज़्यादा बरस इन
तपती छतों के नीचे गुजार दिए और उन अंधेरी सीढ़ियों को पार करते हुए ऊपर चढ़ते समय
हमेंशा ऐसा लगा कि ऊपर उठ जाने से समस्याएं खत्म हो जातीं है या कम से कम उनका असर
तो खत्म हो ही जाता है पर शायद हमेंशा की तरह गलत था मैं और ग़लत थी धारणाएँ - कभी
लगा ही नही कि झूठी संतुष्टि के लिए या मुगालतो के लिए कोई बात कभी सच हो जाएं
एक फ़ाख्ता मेरी छत पर रोज बेनागा दाने चुनने आता है, बहुत सतर्क होता है हरदम , बड़ी फुर्ती है उसमें, थाली में जो भी पड़ा हो वह बेहद तसल्ली से एक एक दाना चुनता है चोंच
में और उसकी गर्दन चहूँ ओर घूमती रहती है, मेरी नजर पड़ते ही वह और चौकन्ना
हो जाता है,
किसी और चिड़िया के आसपास मंडराने
पर वह थोड़ा शिथिल रहता है, बाज़ और कौव्वों को देखकर थोड़ा
विचलित और आशंकित भी पर वह दानों की थाली के साथ तादात्म्य नही छोड़ता, उसका अपने परिवेश से संयोजन और लगाव बराबर बना रहता है - मैं दिन
में बीसों बार अपनी खिड़की से निहारता हूँ बाज़दफ़े उसके बरक्स अपने को देखता हूँ और
हर बार हार जाता हूँ, बल्कि हारकर अपने को समझा लेता
हूँ कि उस एक बालिश्त जीव में और मुझमें बहुत फर्क है, मेरे पास मेधा है और चातुर्य पर बावजूद इसके मैं साध नही पा रहा
कुछ - कारण जो भी हो - ऊपर बाजों के विशालकाय डैने हो या फन फैलाएं सांपों के वृहद
घेरे - जो मेरे आसपास की ज़मीन पर फैले हैं , हवाओं में विषाक्त बातों के कहकहे
- मैं बेहद आक्रामक होकर भी कुछ नही कर पा रहा हूँ - वो फ़ाख्ता मुझे हर बार एक
दृष्टि देता है और मैं भूल जाता हूँ उसे निहारने में - लगता है जीवन दानों, थाली, बाज़, कौव्वों साँपों और सतर्कता के बीच साधने का नाम है - निहारने का
नही
देर रात सोने की आदत पड़ गई है , जब उठता हूँ आजकल तो आंखें चिपकी होती है भोर में, मलता हूँ तो कीचड़ निकलता है - जैसे सदियों की थकान सिर माथे लेकर
सोया था और फिर लगता है नींद ही कहाँ आई कल रात, नही - नही पिछले एक हफ़्ते से, नही - नही कुछ महीनों से, सालों से या दशकों से - और आँखों पर पानी के छींटे देते हुए लगता
है - जैसे एक बादल है जो इस दुरूह रास्ते से अंदर घुसे जा रहा है और रास्ते का जमा
कीच और मैल धुलता जा रहा है - जीवन आरामदायक एवं सहज लम्बी नींद का दूसरा नाम होना
चाहिये कि आप बिस्तर या कड़े फर्श पर गिरे और आपकी आँखें बंद हो जाएं और एक दिन ऐसा
हो कि आप यूँही पड़े रहें और मन के किसी कोने में व्योम से आती आवाज़ सुनाई दे कि
"रात को ठीक से सोया था यह शख्स पानी पीकर, उठा भी नही, ना चीख सुनाई दी और ना कराह सुनी
किसी ने और बहुत उठाया देर तक, पानी भी छींटा पर टस से मस नही
हुआ और तब शंका हुई और आखिर सब कुछ खत्म हो गया "
इन आवाज़ों को देखता हूँ, अपने दोनों हाथों से इन आवाज़ों की
आकृति को उभारते हुए टटोलता हूँ, अच्छा लगता है जब मुझे इन आवाज़ों
को टटोलने पर घेरे नज़र आते हैं, इन आवाज़ों की ठीक ठाक शक्ल देकर
देखता हूँ तो यह मेरे ही परिवेश के वे लोग है जो मुझे कभी हँसता हुआ नही देख पायें, मेरे क्रंदन में इन्हें सुख मिला और ये परपीड़क आज कितने भयभीत है
कि कभी इनका भी नम्बर आएगा, इन आवाज़ों की सुवास अपने भीतर
महसूस करता हूँ और इनसे अपने अकेलेपन में पूरी शिद्दत से बात करता हूँ - ये घेरे
कभी फ़ाख्ता बनते है, कभी मासूम चिड़िया, कभी बाज़, कभी कौव्वें और कभी विषैले सर्प
और मैं अपने को इनसे बहुत सघनता से गाँठते हुए गूँथता हूँ - नींद की आहट है , सपनों की प्रवेश प्रक्रिया शुरू होने को है और बिसरा दी गई
स्मृतियाँ अपने शैशव से पूर्ण स्वरूप में आकर ठकठकाती है द्वार और मनुहार करती है
कि चलो अब बहुत देर हो गई है - लौटना चाहिये और यकीन मानिए मैं बिल्कुल उदास नही
हूँ - बेहद प्रफुल्लित हूँ और संयमित हूँ
हम सब बेहद तकलीफ में है जरूर, पर रास्ते खुल रहें हैं - लौटना प्रीतिकर है और हम सबको लौटना है
नैहर की याद परिपक्व दिमाग़ की वो याद है जो सब कुछ बिसरा देती है
और हम सबका नेपथ्य में जाना ही नैहर है
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आसमान में एक लम्बी सफ़ेद धुएँ की लकीर रह गई है मानो कोई बहुत तेजी से गुजरा हो अपने पीछे पूरा गुबार छोड़कर , इस सबके साथ सफ़ेद बादलों का झुंड, घर लौटते पक्षियों के समूह जिनका रंग साफ़ नज़र नही आता, ऊँचे टॉवर, उनसे ऊँचे पेड़, और क्षितीज की तलाश में सूरज का पीछा करते जाना और अंत में जहाँ से मैं देख रहा हूँ - डूब जाना क्या यही हश्र रह गया है जीवन का
एक लम्बी पगडंडी याद आती है जो इतने भीतर ले जाती थी कि फिर बाहर निकलना बहुत मुश्किल था पर उस अंदर के भाग में सब था - सुकून, शांति, साफ़ दृष्टि, पावनता, और लम्बी उम्मीदें, साथ में था कलरव, रंग और अनंत आकाश जो पृथ्वी के हर कोने पर यूँ बिखर जाता मानो जीवन के हर पल में साँसों का सफर
बाहर कुछ नही था - आवाज़ें थी, शोर और आँखों के पोर में धँस जाने वाली वो धूल जो सब कुछ मिटा दें और जुम्बिश करते लोग जो आपका मतिभ्रम कर दें, एक अनंत ज्वार था जो उछाले मारता था और जब भी शांत होता सब कुछ समेट कर अपने संग ले जाता था - इतना तोड़ देता था कि आँसू डपटने पर भी फटकते नही थे
इस सबमें क्षण क्षण लाशों के अंबार बढ़ रहे है , हर पल एक ख़ौफ़ है जो इतना सताता है कि लगता है मौत आगे से आकर अपने आगोश में जकड़ लें और संत्रास में रखें - हम खुद ही समिधा बन जाये, समर्पित कर दें अपने आपको इस धधकते तांडव में और हर पल तारी रहने वाले डर को सदैव के लिए हरा दें
सुख भले ही एक - एक कर क्षण भर के लिए आते हो पर विपत्तियों की कोई मिसाल नही - वे कुनबे के साथ सप्तपदी लेकर जीवन में स्थाई निवास करने आती है और ध्वंस के साम्राज्य को स्थापित करके ही रहती है - खासकरके उस समय पर जब आप अति निर्बल होकर सब कुछ हारकर ऐसे चौराहे पर खड़े होते हो जहाँ हर रास्ता विनाश को जाता है और ठीक उसी जगह विपत्तियों का किसी पुष्पक विमान से उतरकर आपके संग साथ हो जाना आपको अधिक व्यग्र कर देता है
कभी लगता है कि जीवन को हल्के में लें और कभी लगता है कि हर सांस जो अंदर जा रही है उसे इतना बुहार दें कि कोई कलुषता की संभावना ना रहें - इसके बीच एक और रास्ता था जो अहर्निश था - उसे चुनकर भी अंत में लगा कि शेष कुछ रहता नही है - अंत में हम सब अकेले है और इस घनीभूत पीड़ा को महसूस करने के लिये जीवन से, अपनों से या परिवेश में जिस अपेक्षा से हम देखते है वह कभी पूरी नही हो सकती अपनी लड़ाई की हार जीत हमें ही स्वर्ण अक्षरों में लिखनी है
एक ग्लास में छूटी हुई शराब का आखिरी घूँट की तरह है जिंदगी - जिसको पीने से ना नशा कम होगा - ना बढ़ेगा पर हम है कि जैसे सिगरेट के गोल्डन कश को होंठ जलने तक पीते है, ठीक वैसे ही उस घूँट को काँपते हाथों से उठाते है , मुंह से लगाते है और फिर ग्लास फेंक देते है इस कसम से कि अब कभी नशा नही करेंगे
जीवन ना ही मिलता तो क्या हो जाता - यह सब भोगने से न होना बेहतर नही यह निर्णय लेने के लिए एक लम्बा जीवन जीने की ज़रूरत नही किसी को - सिर्फ एक बार खुलकर हँसकर देखना ही सबक सीखा देगा कि मायूस त्रासदियों और मोम की लाशों के बीच सन्नाटा भंग करने की सज़ा क्या है
मैं जीवन के ना होने का पक्षधर हूँ और जो है उसे खत्म कर देने की पैरवी करने का हिमायती
लंबित अनिर्णय भी एक मौत ही है
क्या अभी भी ज़िंदा रहने के दुःस्वप्नों का ज़खीरा है हमारे पास
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जीने की संभावनाओं के बीच हम जीने के बजाय अमर होने की चाह लिए रहते है, अपने हर कर्म, विचार को इस कसौटी पर तौलते है कि मेरे बाद मेरे साथ यह संलग्न ना रहें, या मुझे यश देकर अमर कर दें - इस सबमें जीने का मज़ा भूलते है - याद रखना चाहिये कि मरने के बाद तो हम कम से कम हजार वर्ष जिंदा रहेंगे ही जब तक कि हमारी स्मृतियाँ किसी ना किसी में क्षणांश भर के लिये भी बनी है , पर आज जो अपने जेहन में सुखद स्मृतियों के बजाय अवसाद, तनाव और कटुता एकत्रित कर रहें है उससे तो जीने का मज़ा ही खत्म हो जायेगा - सब भूलकर बस आनंद से जी लो, कोई किसी को न सुधार सकता है ना बिगाड़ सकता है और ना ही आप - हमपर किसी का प्रभाव होने वाला है
सीखना, कौशल, दक्षता, अधिगम, अनुभव और अर्जित ज्ञान सब थोथा है और मिथ्या का बड़ा जाल - हम वही सीखते समझते है जो हमारी आवश्यकताओं की क्षणिक पूर्ति कर दें और अचानक सामने खड़ी हुई समस्या से निजात दिलवा दें बाकी पारंगत और निपुण सबसे बड़े धोखेबाजी में रखने वाले शब्द है जिनके लिए हम अपनी जान तक गंवा देते है और जब आप धू धू कर विलोपित हो रहे होते है वही खड़े लोग आपको एक झटके में कच्चा खिलाड़ी, अनगढ़ या अपरिपक्व कहकर तिरोहित कर देते है
मैं श्राद्धपक्ष की इस कड़ी धूप में गुलमोहर को देखता हूँ जो अभी भी हरा बना हुआ है सम्भवतः उसे याद भी नही होगा कि अभी लाल फूलों से वह गुलज़ार था जो एक एक कर बिखर गए, मेरी स्मृतियों में उन फूलों की छटा हमेशा रहेगी पर गुलमोहर को याद ना हो, वाटर लिली के फूलों को पूरी बरसात निहारा और सँजोया है पर अब अगली बारिश तक इन्हें जतन से सम्हालकर रखना है पर उस पौधे को यह सब याद नही हो शायद और अगर सूख भी गया खाद पानी के अभाव में तो क्या उसके ज़ेहन में उन कुम्हला गए फूलों का दंश होगा - नही पता, पर आज वो अपनी नई हरी कोंपलों के साथ लहलहा रहा है
उन पक्षियों से पूछा दर्जनों बार कि क्या उन्हें वो पेड़, वो खेत, वो जंगल या वो आसमान याद है जहां से वे उभरे थे, दाना चुगकर लाये थे और अपने पंखों को ऊंची उड़ान देने के लिए किसी धरती के कोने से आगाज़ किया था - शायद याद नही पर वे आज उन्मुक्त है और हर बार लहूलुहान होकर भी उड़ान भर रहें है बगैर बंधन के - कोई सीमा बंध नही कोई पूर्वाग्रह नही
सब कुछ स्वीकार्य है शर्ते, स्थितियां, माहौल और असँख्य बातें जो आपके सामने और पीठ पीछे कही जाए पर क्या इससे उकताकर जीना छोड़ देंगे - नही, बंधनो में रहकर जीने की औपचारिकता तो हो सकती है पर जीना नही हो सकता - मौत का ऐसा भयावह ताँडव पिछले दस दशकों के इतिहास में ढूंढ़ना मुश्किल था - जो अभी था और अब नही और च च च करके अफसोस जता रहें है, काँप रहें हैं और एक भय हमारे हाड़ मांस और मज़्ज़ा में घुस रहा है और अंदर से यही आवाज़ आती है कि थोड़ा और समय मिल जायें तो कम से कम एक मिनिट ही सही जी तो लें
मरने के बाद हम जियेंगे असँख्य निर्वैयक्तिक स्मृतियों में बशर्ते आज हमने अपने आज और अभी को जी लिया , मैं डरता नही मरने से वरन हर क्षण मौत का दिलेरी से आव्हान करता हूँ कि आये और गले लगा लें उद्देश्य खत्म हो गए है जीने के,निर्लिप्त हूँ, निस्पृह हो गया हूँ और संसार को लेकर विशुद्ध तटस्थ , अब किसी बात का फर्क नही पड़ता मुझे
बस जीने का अभ्यास शुरू कर दिया है यह जानते हुए कि मौत दबे पांव अब दबोच लेगी - मैं मौत को साक्षात अपने भीतर महसूसता हूँ
बहुधा उजाले अंधेरों से खतरनाक होते है
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जन्मा ची मिरोली पालखी
दुखाचा सोहळा केला
होठातींन फुटले नाही
शब्दानचा सोहळा केला
वेदनेत ही लख लख त्या
इश्काचा सोहळा केला
आसमान खाली है , एक सिर्फ सूरज चमक रहा है, सुबह से सन्देश आ रहे हैं कि आज छह ग्रह एक पंक्ति में रहेंगे और यह समय 500 वर्षों बाद आया है - अर्थात फिर आयेगा - हो सकता है अगली बार हम सब ग्रह नक्षत्रों के साथ एक पंक्ति में साथ खड़े हो जाये और फिर सब कुछ खत्म भी हो जाये - मैं कल्पना करता हूँ कि किसी अज्ञात जगह और किसी व्योम में सब टँगे है और चर- अचर में भेद मिट गया है
सब बदलता है समय, दृष्टि, दृष्टिकोण , परिप्रेक्ष्य और निश्चित ही हम भी बदलते ही हैं आखिर पर बदलता नही तो संसार जिसके अपने नियम और कायदे होते हैं - हम सबके जेब इन्हीं सब कायदों से भरे हुए है खाली होते होते जीवन खत्म हो जाता है पर इनमें सही चीज़ नही भरी जाती कभी - यह देह से चिपकी हुई आत्मा है जो क्षण क्षण विदा होती रही पर ना इससे हम जुड़ पाये ना अलग हो पाए
इन दिनों कभी शाम होते होते बादल घिर आते है, खूब तेजी से पानी गिरता है और पूरा माहौल बेभान हो जाता है पत्तियां हरी हो जाती है भीगकर , फूल मानो नहा उठते है और देर तक अमृत की नेह बूंदे उनसे यूँ चिपकी रहती है जैसे किसी देह में बरसों बरस रही आत्मा देह जलते समय विलग होने से द्रवित हो जाती है , सुबह से असँख्य तितलियाँ आ जाती है और मै उन रँगों में जीवन ढूँढता हूँ
मैं इस कड़ी धूप में धरती के किसी कोने में अकेला खड़ा होकर अपना आसमान खोजता हूँ और निराश होता हूँ - मेरे उस टुकड़े पर पक्षियों का झुंड मंडरा रहा होता है और देर तक उन्हें देखता हूँ और लगता है उनमें ही शामिल हो जाऊं
अपने हिस्से का ना आसमान है और ना धरती - हम सब जा रहे है , सब बदल रहा है और इसकी शाश्वती है मुझे
अपने को सज़ा दी है मैंने - कभी वो भी कम लगती है , फिर धीरे से कबीर याद आते है -
देस - देस का वैद बुलाया
लाया जड़ी और बूटी,
जड़ी बूटी थारा काम ना आई
जद राम के घर से छूटी ..
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वहां इतना अंधेरा था कि हाथ को हाथ
नही सूझ रहा था, इतना कि ना नीचे जमीन दिख रही थी ना
आसमान ऊपर - जब गर्दन घुमाई टेढ़ी करके, एक मौन हर तरफ व्याप्त था और दूर कही उजाला था तो कुछ चिंगारियां
फुनगी नुमा थी जो उस राख में से फुदक कर उछल पड़ती थी, यह सब उस भीड़ से बहुत दूर था जिसके
पास हमेशा इस राख और इन चिंगारियों का भय व्याप्त रहता था और इस कटु सत्य को जानते
सब थे, मानना कोई नही चाहता था
रात में पेड़ आसमान की ओर दौड़ने को
बेताब रहते , छोटे पौधे इन विशाल वृक्षों के
सायों से लिपटकर शरण पाते और झींगुर ख़ौफ़ में भिनभिनाते हुए घूमते रहते, पक्षी पेड़ों की डगाल पर बेसुध पड़े
रहते और रेंगने वाले कीड़े - मकौड़े इतने स्तब्ध रहते है कि एक हलचल समूची पृथ्वी को
खत्म कर देगी, हर तरफ एक उद्दंड किस्म की व्यग्रता
भरी बेचैनी थी
नदियों का बहना रुक जाता, प्रचण्ड गर्जना करने वाला समुंदर
कोलाहल अपनी छाती में छुपा लेता, कुएं - तालाब, बावड़ियां और पनघट रीत जाते और इनके किनारे बैठे प्यासे मुसाफ़िर
पथराई आंखों से सब कुछ देखा करते , पर जीभ को जैसे लकवा मार गया हो, जड़ हो चुकी मेधा की गठरी का बोझ लिए अपने ही अस्तित्व पर वे सवाल
करते - जीवन इतना निस्पृह हो चुका था कि अब वाक शक्ति का कभी कोई अर्थ रहा होगा , विश्वास नही होता था- श्रवण और
घ्राण शक्ति कभी सभ्यता में रही हो - यह मुद्दा शक के निशाने पर होता
यह वो जगह थी जहाँ सब शीश झुकाकर
आते है, एक गहरे अवसाद, संताप और पीड़ा में - धू धू जलती
काया को देख अपने होने या ना होने की और वैराग्य की प्रबल भावना जितने उद्दाम वेग
से चढ़ती है - उससे दुगुने वेग से उतरती है और क्षण भर में इसी राख से फीनिक्स बनकर
निकली भीड़ पुनः मधुमख्खी के छत्तों से बिखरी मधु मख्खियों की तरह संसार में अमृत
की एक बून्द समेटने में लग जाती है
मैं हर रोज यहाँ आता हूँ सगुण को
निर्गुण में बदलने में देखने के लिए, देर रात तक यही रहता हूँ - जर्द उदास चेहरों की भंगिमाओं को बाँचने
का कुत्सित प्रयास करता हूँ , फिर लगता है इन मुखौटों के पीछे की गहराई क्या है, सच्चाई क्या है , शुभिताएँ क्या है, शुचिताएँ क्या है अस्तित्व की -, जो परस्पर मिलकर व्यक्त की जा रही
है एक दूसरे से - व्यथित होता हूँ, कलपता हूँ और मवाद से भर जाता हूँ - आँख, कान और नाक से मवाद बहने लगता है, सुन्न हो जाता है शरीर यह सोचकर कि
ये सब ना सगुण है - ना निर्गुण और जो है वह घृणास्पद है
भीड़ से भागकर अपने एकांत की अकुलाहट
में मैं यहाँ आता हूँ , पर इस श्मशान में जो अवागर्द भीड़ हर
रोज हुजूम में आती है, मौत की अंतिम रस्मों अदायगी का
पाखंड भिन्न - भिन्न तरीकों से करके लौटती है उसे देखकर लगता है ये सब मौन है और
भीड़ में रहकर सब भूल गए है - इन्हें पता ही नही है कि ये हर बार यहाँ आते है एक
मृत देह की लाश से बनी राख से फीनिक्स बनकर निकलते है और श्वेत बगुले बनकर भीड़ में
खो जाते है
इन्हें मैं अपना एकांत नही समझा
सकता क्योंकि मेरा एकांत, मेरी अकुलाहट - एक श्रम साध्य और
जटिल परिस्थिति से उपजा है, कठोर परिश्रम से इसे मैंने किसी सुख
की तरह हासिल किया है और आप कहें कि मैं भीड़ में इसे वर्णित कर समझाने का प्रयास
करूँ तो वह शव साधना की कसौटी के भी ऊपर की बात है जो किसी अघोरी के लिए भी असम्भव
ही होगा
हम सब अकेले है पर अपने एकांत को
दूसरे को नही समझा सकते और ना ही एक दूसरे से वरण कर सकते है - एकांत एक भोग भी है
जो यही भोगना है
अपने एकांत को जतन से सम्हालकर रखना
ही सच्ची साधना है जो अंततः सुयश की ओर अग्रसर करेगा , आप सबमें वह तडफ़, वह बेचैनी और अकुलाहट तीव्र हो, संवेग प्रखर हो - ये ही दुआएँ है
मछिंदरनाथ कहते है अड़सठ तीर्थ इस घट
भीतर
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मौत की खबरें अब विचलित नही करती, रोज़ किसी ना किसी के गुजर जाने की
सूचना मिलती है और ये सूचनाएँ एक आंकड़े में बदलकर दफ़न होती जा रही है - इन पर
बोलना, सोचना और कुछ करना बेमानी लगता है -
दुखद, नमन , श्रद्धांजलि या ओम शांति जैसे शब्द लिखना इतना मेकेनिकल हो गया कि
इलियट की कविता " द वेस्ट लैंड " याद आती है और सब कुछ धुआँ धुआँ होने
लगता है
आनंद का बाबू मोशाय हो या किसी बड़े
नाटक का कलावृन्द जो मौत के आख्यान पर बात करते हुए खत्म हो जाता है, श्रीकांत हो या मुझे चाँद चाहिये का
हर्ष, गुनाहों के देवता की नायिका सुधा हो
या 1084 की माँ - साहित्य
के पन्नों से निकलते है सभी चरित्र बारी - बारी से और फिर लगता है कि संसार में
लेमार्क और डार्विन के सिद्धांत तो हमेशा से रहें ही होंगे, अस्तित्व का संघर्ष कब नही रहा, आज ज़िंदा लोगों की तुलना में सामने
जल गए या महिका में गड़े हुए मृत लोगों की संख्या ज्यादा ही है
आत्मा अमर है - इसे भी मानें तो
चोला बदलकर क्यों बार बार मरने आ रही है - साठ - सत्तर बरस की पीड़ा क्या कम है
भुगतने और समझने को जो बारम्बार लौट आती है , आपदा - विपदा हमेशा से संसार मे रहें है , अस्तित्व स्थापित करने के लिए लड़ाईयां
युद्ध और हार जीत के किस्सों से दुनिया अटी पड़ी है पर लगता है हम उस सबको इसलिए
भूल बैठे थे कि मौत को इतने भद्दे ढंग से प्रदर्शित करने और वीभत्स तरीके से
व्याख्यित करने को कुछ था नही - दमदार किस्म का माध्यम - और अब हम सबके हाथ मे
उस्तरों की एक लम्बी श्रृंखला है - जाहिर है भौंडे पन और नौटँकीबाजी में मनुष्य से
बड़ा पाखंडी कोई नही है
बहरहाल, निवेदन यह है कि मौत की सच्चाई सबके
सामने है आज नही तो कल सबको आनी ही है बकौल जानी बाबू कव्वाल "चढ़ता सूरज धीरे
धीरे ढलता है , ढल जाएगा" तो क्यों ना हम
जीवित होने का - जब तक है - ख़ुश रहने का स्वांग भरते हुए मस्त रहें और सब चिंताये
छोड़कर जी लें बस अभी इसी वक्त
पिछले पूरे हफ़्ते कमोबेश रोज श्मशान
जाकर निष्ठुर हो गया हूँ, आज भी एक जगह गया था अब नींद में भी
लगता है कि कोई फोन आएगा, वाट्सएप पर एसएमएस पर सन्देश टपकेगा
कि अला - फलाँ गुजर गए और सामाजिकता के नाते कम से कम अंतिम काँधा देने का मोह छोड़
नही पाता क्योकि फिर हर लाश में अपना भविष्य दिखता है
श्मशान में जिस बेलौस और खिलंदड़पन
से लोग बातें करते है वह अप्रतिम है और अब एक आदत सी बन गई है उन " रिचुल्स
" का होना मानो जीवन की अनिवार्यता बनता जा रहा है - यह लिखना शर्मनाक है पर
इसके अलावा कोई चारा भी नही है , जबसे बड़ा हुआ था और स्वतंत्र रूप से अंतिम संस्कार में जाना शुरू
किया - जनाजे को कंधा देना या किसी कब्र पर जाकर मोमबत्ती जलाना साल में दो तीन
बार होता था, पिताजी के बाद माँ, फिर भाई और फिर घर के प्रतिनिधि के
रूप में हर जगह जाना पड़ता था - पर, इतना नही जितना पिछले मार्च से गया हूँ और अब ऐसा लगने लगा है मानो
यह एक कुल मिलाकर अनिवार्य काम है जिससे फ़ारिग होकर पुनः अपने ढर्रे पर लौटना है
श्मशान से लेकर कब्रस्तान में जो
देखता सुनता हूँ, उन तीन - चार घण्टों में जो बातें
होती है , सुनता हूँ, शामिल भी होता हूँ उस सब प्रपंच में
तो बाद में अपने से घिन आती है कि कितना नीच और घटिया हो गया हूँ - पर आज जब यह सब
सोच रहा हूँ तो लग रहा है एक औसत बुद्धि वाला और बेहद सामान्य परिस्थिति में जीने
वाला मनुष्य होने के नाते और क्या है मेरे बस में और यह सब करके, इतनी अंतिम यात्राएं निपटाकर और आम
जन से बड़ी हस्तियों की मौत का तांडव और आंकड़ों को देखकर क्या भावुक बनकर सहज रहा
जा सकता है हरदम, हर पल - पता नही पर अब मौत का जो भी
ख़ौफ़ था वह जुदा हो गया है और सिर्फ इतना कि
"
मौत तुझसे वादा है
वृहत्तर और पूर्ण स्वरूप में
एक दिन मिलूँगा जल्दी ही
और फिर कभी नही लौटूँगा "
....क्रमशः
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