कहे कबीर सुनो भाई साधौ, जिन जोड़ी - तिन तोड़ी
रोज शाम को यहां पर बैठ जाता हूं लगता है कि यह कर्ज है जो उतारना है , पहाड़ी के सामने से जब सूरज उगता है और यहां पर जलती लाशों को देखता हूं तो संसार का यथार्थ सामने आ जाता है , सब स्पष्ट हो जाता है और लगता है मानो किसी ने इस तरह से बनाया था कि सब यहीं उगे और यही खत्म हो, किसी भी तरह मन नही मानता कि जीवन यहीं से उगेगा - यहीं पर रहेगा -यही यात्राएं होंगी और यहीं पर अंत होगा
संसार के सारे सुखों से दुखों से मुक्त होते हुए एक दिन यहां पहुंचना है, यहां रोज एक पागल देखता हूँ आज भी वह बड़बड़ा रहा है - भाग जा, भाग जा, भाग जा, वह बदहवास हो कर राख को अपने चेहरे पर मलता है, चिताओं की लकड़ी से अपना बदन खुजाता है और कहता है जिस प्रकार मनुष्य पुराने कपड़ों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा जर्जर शरीर को छोड़कर नवीन भौतिक शरीर धारण करती है , वह कहता है - तू भाग जा, अभी क्यों आया है , तेरी काया को अभी और चमका , अभी इसेे और मांज , थोड़ा और तड़प संसार में जो दुख है - वह भी तूने देखे कहां है
सन्ताप, अवसाद, ताप, कुंठाओं और प्रतिस्पर्धाओं से भरे शरीर की आस कितनी थी, दौड़ ही रहा हूँ सब कुछ पा लेने को और इस सबमे यह भूल गया कि मैं कहाँ - कहाँ छोड़ता रहा, अपने से बात ही नही की, समझना ही नही चाहा कभी अपने को - सुबह उठता तो प्रचंड वेग और जोश से भागता, सबको पीछे छोड़ने की होड़ में कभी थकना सीखा ही नही, रात में अतृप्त स्वप्नों का संसार लेकर अधखुली आँखों से अपनी झोली में वो सब कुछ पा लेने की हवस थी कि लगता बस यह एक और मुकाम , एक और गला काट स्पर्धा का धावक बन जाऊं, अपने नन्हे पगों से इस वृहत्तर दुनिया को किसी वराहावतार की तरह मात्र तीन डगों से नाप लूँ पर इस सबमे भूलता गया कि हम सिर्फ एक निमित्त मात्र ही है
जन्म से लेकर यहां आने तक कितना दौड़ते हैं, हर तरह की उपलब्धि पाना चाहते हैं - हर वह पुरस्कार में प्राप्त कर लेना चाहते हैं जो हमारे बदी में लिखा था या नहीं, परंतु यह सच है कि हम लगातार यह भूलते जाते हैं कि हमें यही लौटना है - यही से जन्मे थे तो जाहिर है यही लौटना होगा और हमें याद भी नहीं रहता कि हम इस बियाबान में इन पेड़ों के बीच में , इन गेहूं की झूलती बालियों के बीच में - और टूट गए पतरों के बीच किन्ही चार लोहे के खंभों पर टिका दिए जाएंगे
बहुत कम सामान लगता था यहां तक आने के लिए है पर इतना कुछ जोड़ रखा कि जब घर से चले तो सिर्फ चार लोग लगे और चार बांस की खपच्चियाँ और एक मिट्टी की मटकी के पीछे जलती मद्धम आँच की रोशनी में सवार होकर झूमते हुए यहां पहुंचे है अभी - अब आगे सब साफ है - उजाले है और दीप्त है , धुला - धुला सा श्वेत और निरभ्र ; देखो ना अब - इतने मजबूत शरीर को जिसका नाम था, यश की कीर्ति पताकाएं थी चहूँ ओर - एक छोटी सी तीली की मंद आँच ने छन से जला दिया और कोई बुझाने भी नही दौड़ा, सब देखते रहें और आंखों ही आंखों में सब सह गए
एक उदास सभागार है और हम सब इंतजार कर रहे हैं कि कैसे यह धीरे-धीरे भर जाए और कोई सन्नाटा तोड़ते हुए हम सब को अंदर से भर दे - ठीक ऐसे जैसे महकते हुए फूल को अचानक कोई हवा का झोंका आकर कुचल देता है, एक कोमल कोंपल को मसल देता है अचानक, समुद्र की लहरें ऊंची और उद्दाम होकर आहिस्ते से उसके गर्भ में समा जाती हो जैसे, अँधेरों में एक जुगनू के मरने की आवाज भी ना आती हो जैसे
हमने शोर किया, बतियाये बहुत, नाद से आरोहण किया पर जब उस विराट ने यह देह छोड़ी तो एक आवाज़ नही हुई, कोई झांक नही पाया, किसी की स्मृति में उसकी किंचित सी छबि भी नही , हर बार गुबरैलों की तरह हर मौत पर इकट्ठा हुए पर कोई इस नश्वर देह को अजर अमरता का पट्टा नही पहना पाया
पागल अट्टाहास कर रहा है, कह रहा है "तो आज फिर आ गया तू, जा आज सात मुर्दे है भैरव खुश है काल का श्राप आज के लिए मिट गया है , अब जो मरेगा सई साँझ को वह कल आएगा, तू जा, जब कम होगा तब बुलाएंगे तुझे
मैं दरवाजे की ओर बढ़ता हूँ जो सिर्फ प्रवेश नुमा है कोई दरवाज़े नही है यहां - इधर से जाओ तो पीछे श्मशान है और आगे भविष्य , आशा और रंगीन संसार और उधर से देखो तो ठीक विपरीत
मैं सोचता हूँ कि दरवाज़ें कहाँ है - आत्मा के घाव पर लगे जख्मों पर मलहम लगाने को नितान्त एकात्म और एकांत की जरूरत है , मैं सहलाना चाहता हूँ पर तभी देखता हूँ कि एक लाश चली आ रही है, कुछ लोग मुंह नीचे किये चले आ रहें है - सबके चेहरों पर मलिन कांति है और निर्वात बन रहा है, सूरज डूब गया हैं पागल का अट्टाहास चरम पर है
मैं आज फिर कल लौट आने के लिए जा रहा हूँ -मुझे नही पता कहां क्योंकि जहां से आया हूँ वहां कोई दरवाज़ा नही है
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