"मैं मोबाइल नही रखता" - मैंने कहा।
"अजीब आदमी हो तो सम्पर्क कैसे करूँगा" उसने भयभीत होकर पूछा
मैं बोलता रहा - "पता नही इन दिनों मैं खुद अपने संपर्क में नही हूँ और जिस दिन संपर्क होगा या तुम्हारी भाषा में कहूँ कि कवरेज में आऊंगा तो जग जाहिर हो जाऊंगा और वायवीय भी - इसलिए डरता हूँ। अपना मोबाइल मैं उस दिन गंगा किनारे घूमते हुए मणिकर्णिका घाट पर फेंक आया था और यकीन मानो मेरा सब कुछ तिरोहित और विलोपित हो गया। बैंक, संपर्क, मेरे खाते, मेरा नेटवर्क, रिश्तेदार, दोस्त और सबसे महत्वपूर्ण मेरे सारे पासवर्ड। अब मैं खुला हूँ और किसी भी तरह से आंकड़ों के जाल में उलझकर पासवर्ड्स की दुनिया को बोझ की तरह से जीना नही चाहता"
मैं चला आया हूँ वहां से अभी - उसे अचकचा सा छोड़कर और यहाँ इस उजाड़ में जहां धूप बहुत कम आती है, में नीम के नीचे हरी कच्च तीखी खुशबू वाली कच्ची निम्बोलियाँ ढूंढ रहा हूँ। विश्वास है कि कड़वाहट के भीतर भी फूल, बीज और अंत मे फ़ल आ ही जाते है अक्सर! बस उसी का इंतज़ार करूँगा, मौसम का क्या है गुजर ही जायेगा !!!
हरी घास पागलों की तरह हंस रही थी, जो कुछ दिनों बाद झुलसकर खत्म होने वाली थी।
पुस्तक मेले (मैले) की सुगबुगाहट होते ही हिन्दी के लेखकों का मन बल्ले बल्ले उछलने लगता है, पुरानी सड़ी - गली और ना बिकी किताबों का प्रचार करने लगते है, ऐरे गैरु - नथ्थू खैरे से प्रायोजित समीक्षा लिखवाकर यहाँ चेंपने का मौसम है कि लोग माने कि वाह गुरु क्या लिखा था और पूछे कि नई किताब कब आ रही है. लिखने की और टैग करने की गति द्रुत हो जाती है तीन ताल में निबद्ध होकर रोज लिखने लिखाने का पापड बड़ी उद्योग शुरू हो जाता है घर घर.
प्रकाशक नामक महानतम व्यक्ति और धुर्तराज अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से लेखक को फांसता है, किताबों के पृष्ठ यहाँ चेंपकर ग्राहक फंसाने का जुगाड़ करता है, दूर दूर के लेखक समझने के मुगालते पालने वालों के फोन नम्बर खोजकर हाल चाल लेता है और उन्हें दिल्ली में बलि का बकरा बनाने को आमंत्रित करता है. लेखकों को समझाता है कि तुम लिखो और तुम्हारी किताब मै रिकॉर्ड तोड़कर बेचूंगा और तुम्हे रोयल्टी दूंगा ; बाद में ससुरा हिसाब भी नहीं देता कि कितने बिकी या कहाँ खपी . यह कहकर वह साल भर के लिए गायब हो जाता है और फिर नवम्बर में निकल आता है कुकुर मुत्तों की तरह बदबू फैलाते हुए.
हे सखी सावन आयो की तर्ज पर यह मुगालतों का मौसम है और भैंसों के पाडे जनने का सर्द मौसम है. खैर बने रहें स्वप्न बस हिंदी का विकास हो और पढ़ने की संस्कृति बढे बस और कुछ नहीं चाहिए........
जो भी हो परिणाम
पर सबको इससे सबक लेने की भयानक जरूरत है
पार्टियां, मीडिया, प्रशासन, चुनाव आयोग, सोशल मीडिया और मूर्ख उर्फ समझदार जनता को भी।
2017 जैसे अशुभ अंक वाले साल के अंत पर खड़े हम लोग यह भी समझे कि अगले बरस में उत्तर पूर्वी राज्यों में ही नही मप्र, राजस्थान, छग में भी चुनाव है और इशारों को समझने की जरूरत है।
अच्छी बात यह है कि डंडा सबको पड़ा है और जोरदार तमाचा भी बस इसे दिलेरी से स्वीकार कर आगे आना होगा, क्योकि अब भुलावे, वादों और जुमलों से काम नही चलेगा। अम्बानी, अडानी से लेकर उद्योगपतियों की चाटुकारी, दलाली और चापलूसी से सब वाकिफ हो गए है।
यह भी निहितार्थ है कि मंदिर, मस्जिद, धर्म, पाकिस्तान, गाय, गब्बर सिंह , बीफ , औरंगजेब या भरमाने वाले मुद्दों से कुछ होने वाला नही है।मुल्क की समस्याएं भिन्न है अगर यह समझ राजनेताओं की नही है तो मुआफ़ कीजिये आप लोग देश छोड़ दीजिए।
चुनावी मोड़ से बाहर आयें हम सब लोग और 2018 के संकल्प लें किसी के लिए नही बस अपने लिए।
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