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आयोजन वीर के किस्से और पत्रिकाओं का बुरा हाल पाखी जैसा है


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एक जगह मित्र लोग कुछ बड़ा आयोजन कर रहे थे। अच्छा कार्यक्रम था,सोचा जाऊं कुछ काम करेंगे - मेहनत मजदूरी का और कुछ सीखेंगे। आयोजक मित्र से बात हुई। उन्होंने बड़ी गर्म जोशी से कहा स्वागत है फिर बोले एक दो बातें बता दूं - मैंने कहा जी बताएं....
एक - आपका किराया हम नही देंगे।
मैं - जी, मैंने तो माँगा ही नही और ना माँगूँगा।
दो - हमारी रहने वाली जगह पर सब लोग, कलाकार रहेंगे, जगह नही है हमारे पास, आपको कोई सस्ता सा होटल दिलवा देंगे पर भुगतान आपको करना होगा। यदि आपका कोई यहाँ दोस्त रिश्तेदार हो तो टिक जाना । आपको महंगा नही पड़ेगा।
मैं - जी, वह मैं देख लूंगा चिंता ना करें ।
तीन - हम खाना लिमिटेड का बनाएंगे आपको....
मैं- नही जी, मैं खुद खा लूंगा - आप चिंता ना करें , आपकी चाय भी नही पियूँगा और पानी भी ले आऊंगा।
चार - आप कुछ आर्थिक सहयोग दे देंगे - पांच दस हजार तो मदद रहेगी और रोज के कार्यक्रम अटेंड करने के पांच सौ रुपये। क्या है ना - दिल्ली - मुम्बई से कलाकार आएंगे, स्थानीय कवि भी कविता पढ़ेंगे, कुछ विश्वविद्यालयों के बड़े बड़े लोग आएंगे तो भाषण देंगे - तो खर्चा होगा ना, वो हम कहां से एडजस्ट करेंगे ?
मैंने कहां और कुछ ? बोलें - नही भाई जी, आप आइये, बड़े सम्मानित हो हमारे लिये आपके आने से हिम्मत रहेगी और फिर आप तो घर के हो , हम सब आपको बहुत प्यार करते है। हमारी टीम को आपसे सीखने को मिलेगा। बोलिये कब आओगे ..... हेल्लो , हेल्लो ...हेल्लो !!!
मूर्खो और घटिया लोगों से संसार भरा पड़ा है। आज से इन महान कलावन्तों और पुजारियों का "फेडबुक" अपडेट देखना शुरू किया तो ख्याल आया और रिकॉर्ड की बातचीत सुनी अभी। चूतियों मेरे भरोसे पैदा भी हुए थे क्या ? भगवान की कसम एक से एक नमूने है और फेसबुक के बकलोल। कभी चले मत जाना यहाँ के अपडेट्स देखकर किसी कार्यक्रम में।
है ना गजब !!!
उनको बताना भूल गया कि मैं कोई आई ए एस अफसर नही जो कउता - कहानी लिखता हो .

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हिंदी पत्रिकाएं लापरवाह और अव्यवस्था की भारी शिकार है।
#पाखी के जून 2017 अंक में मेरी कविताएं छपी थी। आज तक अंक नही मिला - पारिश्रमिक तो दूर। सब विज्ञापन और हिंदी संस्थानों से अनुदान लेकर छापते है, पर लेखकीय प्रति पंजीकृत डाक से ही भेज दें ।
पता नही साहित्यिक समझ वाले सम्पादक है जो खुद भी इस दौर से गुजरे है वो भी इतने खुरदरे हो गए कि असर नही पड़ता । पाखी के सम्पादक साहब को 4 बार बोला, अब साल खत्म होने को है पर कोई एक्शन नही।
सरकारीकरण हो गया है सबका।
कई बार फेसबुक पर इसलिए लिखता हूँ कि यहाँ मित्र लोग पढ़ तो लेते है, तुम्हारी 400-500 प्रतियां तो ढंग से पहुंचा नही पाते देश मे सिवाय कमीशनखोरी के लोगों को , तो क्या पत्रिका आंदोलन जिंदा रखोगे ? एक लेखक को उसकी प्रति नही दे सकते तो दिल्ली में मैनेज कर रहे दफ्तर में बैठे निठल्ले और नाकारा लोग क्या खाक काम कर रहे है, एक पत्रिका पोस्ट नही कर सकते तो क्या अनपढ़ गंवार भर्ती कर रखी है सारी ? आज गुस्सा हूँ इसलिए कि यह पाखी की बात नही और भी लोगों की है।
शर्म आती है कि इतने गैर जिम्मेदार लोग हिंदी के मठाधीश होकर बैठे है और धंधा चला रहे है। 12 माह के चंदे में से आपको 5-6 अंक भी मिल जाएं तो आप गंगा नहा लिए यह मानिए।
खैर , इन्हें जब तक सार्वजनिक नही करेंगे नामजद तब तक कुछ नही होगा। ज्यादा से ज्यादा क्या करेंगे रचना नही छापेंगे - ना छापें कौनसा इनसे रोटी बेटी का सम्बंध करना है। जो लोग अपने दफ्तर की डाक व्यवस्था जिम्मेदारी से नही सम्हाल सकते वे क्या खाक हिंदी के साहित्य संसार को सँवारेंगें।

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