आलोक झा को 2017 का भारतीय ज्ञानपीठ का युवा लेखक पुरस्कार
ये है श्रीमान आलोक झा जो इन दिनों नवोदय विद्यालय, एर्नाकूलम , केरल में हिंदी के पी जी टी है और भले से आदमी है. मूल रूप से सहरसा, बिहार के रहने वाले है और बड़े पढ़ाकू और होशियार है - दिल्ली से पढ़े है इसलिए यह तो कह ही सकता हूँ. सच्चा और निश्छल प्रेम क्या होता है इनसे सीखना चाहिए - इसमें कोई शक नही है.
बात बहुत पुरानी है एक बार दिल्ली गया था शायद 2003 में - इंडिया हेबीटेट सेंटर में रुका था, मै भयानक बीमार पड़ गया तो होटल में देखभाल करने वाला कोई था नही. एक मित्र को फोन किया तो उसने कहा कि रुको किसी को भिजवाता हूँ, एकाध घंटे में झोला टाँगे एक युवा बल्कि किशोर चला आया और बोला "जी सर क्या हुआ आपको, हम ले चलते है डाकटर के पास " ले गया एक अभिभावक की तरह से और ले भी आया सम्हालकर होटल में, फिर दवा दिलवा कर वो चला गया. बात आई गई हो जाती पर दोस्ती और स्नेह की ऐसी गाँठ बाँध गया कि आज तक ससुरी टूटती ही नही फिर तो दिल्ली जाना हो और इनसे ना मिलें तो गजब हो जाए. दिल्ली में इनकी पढाई जब तक चलती रही ये मियाँ मकान दर मकान बदलते रहें -
पर यमुना के इस पार कभी ना आयें. फिर एम ए, बी एड और अंत में एम एड करते समय शिक्षा पर जबरजस्त बहस होती मुझसे क्योकि मै स्कूल में प्राचार्य था, नवाचार में संलग्न था और लिखता पढता था खूब उन दिनों . खूब बात होती व्यवस्था से लेकर कृष्ण कुमार और अनिता रामपाल के पढ़ाने के तौर तरीकों पर बातचीत. मेरे लिखने के पीछे जिन लोगों का बड़ा हाथ रहा कि लिखो, फ़ालतू काम छोडो उनमे से आलोक एक है. हमेशा डांटने वाला कि दादा क्या कर रहे हो समय निकल रहा है लिखो यार, यहाँ आ जाओ यहाँ लिखो..........
अपने पुत्र के समान और जवान होते इस लायक और बहुत लाडले मित्र के समान दुलार देने वाले इस शख्स को इस वर्ष भारतीय ज्ञानपीठ ने पैतीस वर्ष से कम उम्र के लेखकों की किताब छापने वाली योजना में चयनित किया है और पचास हजार की राशि से सम्मानित भी किया है. भारतीय ज्ञानपीठ की संस्तुति यह है;-
"भारतीय ज्ञानपीठ की नवलेखन पुरस्कार योजना के अंतर्गत वर्ष 2017 के लिए दिये जाने वाले पुरस्कार के लिए वरिष्ठ लेखक, पत्रकार विष्णु नागर की अध्यक्षता में गठित निर्णायक समिति द्वारा सर्वसम्मति से आलोक रंजन की दक्षिण भारत पर केन्द्रित यात्रा-वृतांत की पांडुलिपि को नवलेखन पुरस्कार दिये जाने का निर्णय लिया गया है।केरल में पदस्थापित श्री आलोक रंजन का यात्रा-विवरण दक्षिण भारत की सघन तस्वीर प्रस्तुत करता है। विशेष रूप से आलोक रंजन केरल के दुर्गमतम इलाकों में गये हैं। इस तरह के यात्रा और यात्रा-विवरण हिंदी में अब दुर्लभ हैं। आलोक रंजन के पास ग़जब का भाषा-संयम है और प्रकृति तथा लोगों से लगाव है। उनमें तमाम असुविधाओं में यात्रा करने का साहस है और चुनौती स्वीकार करने का माद्दा है। पुरस्कृत लेखक को 50 हज़ार का नगद पुरस्कार, प्रशस्ति-पत्र और वाग्देवी की प्रतिमा प्रदान की जाएगी। पुरस्कृत पांडुलिपि को भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित भी किया जाएगा। निर्णायक समिति के अन्य सदस्य थे- श्री मधुसूदन आनंद, श्री ओम निश्चल और श्री देवेन्द्र चौबे"
आलोक ने पिछले दिनों बहुत झटके सहें है, आज मुझे लगा कि झटके सहें बिना लेखन नही हो सकता. गज़ल या शायरी में तो बाकायदा इसे एक तजुर्बे की तरह से नसीहत की तरह से कहा जाता है. ये पुरस्कार या सार्वजनिक स्वीकृति आलोक के लिए बहुत छोटी तरह का पुरस्कार है परन्तु जिस लगन से वह अपना ब्लॉग, जनसता से लेकर विभिन्न शैक्षिक -साहित्यिक पत्रिकाओं में लगातार सक्रीय रहकर लिखता रहा है वह सिर्फ प्रशंसा के काबिल नही बल्कि स्तुत्य और प्रेरणादायी है. मै मजाक में कहता हूँ - " हे मेरी नालायक औलाद, मास्टर हो, फुर्सत होती है और फिर पढ़ाना ही क्या है बच्चों को गल्प और बस - लिखोगे नही तो क्या करोगे और फिर काम क्या है तुम्हारे पास, इतनी दूर हो कि साला आना हो तो दस बीस हजार का तो हवाई टिकिट ही आ जाता है, मेरे जैसे माह में 28 दिन यात्रा करके लिखों तो जानूं " पर आज यह खबर जब पढ़ी तो मैंने आलोक से अभी लम्बी बात की और लगा कि जब अपने किसी का कुछ, कही भी पुरस्कृत होता है तो जो शान्ति और तसल्ली मिलती है - वह अकल्पनीय है. मेरे लिए यह किताब का छपना और पुरस्कार मानो खुद को बुकर या नोबल मिल जाने जैसा है. यह ख़ुशी शायद शब्दों में व्यक्त नही हो सकती. इस साल ने जाते जाते मुझे परम सुख दिया है.
तीनों भाई विलक्षण है - मंझला राजीव दिल्ली में है नाटक कलाकार और लोक गायक है, जी करता है बस सुनते ही रहें और छोटे मियाँ रवि बाबू - जिन्हें पहलवानी का शौक है - शरीर सौष्ठव में सहरसा में सबसे आगे. आलोक - जाहिर है तीनों में सबसे बड़े है तो जिम्मेदारियां भी है और खुद भी बेहद संवेदनशील है घर परिवार समाज और रिश्तों को लेकर. हम दोनों ने अपने मुश्किल समय में घंटों बातें की है - संबल बनें है, एक दुसरे का और आज भी यही है सब. इस लड़के ने जीना सीखाया है बेख़ौफ़ और मस्त अलहदा सा जीवन - अभी जब यह सब लिख रहा हूँ तो बहुत भावुक हो गया हूँ और सिर्फ दिल से यही दुआएं निकल रही है कि मै तो बहुत कुछ लिखने - पढ़ने में कर नहीं पाया पर अब मेरी सारी उम्मीदें तुमसे है मेरे लाडले बच्चे और तुम वो फतह हासिल करो - जहां किसी ने कभी सोचा भी नही हो.
आलोक की वजह से मुझे बेहतरीन युवा दोस्त मिलें जो आलोक के ख़ास सर्किल में है - सुशील कृष्णेत, श्रीश पाठक, शरद, बलराम, अभिषेक सिंह खुशबू, श्रुति और ना जाने कौन कौन पर आज वे सब याद भी नही आ रहे बस आलोक का की किताब "सियाहत" जो करीब 180 के करीब पृष्ठों की लगभग होगी और एक जीवन यात्रा का वर्णन है. यह किताब मई जून तक आने की उम्मीद है.
गिरीश देख लो - "म्हारा छोरा किसी बड़े लेखक से कम है क्या?" मै और गिरीश अभी केरला जाने का कार्यक्रम बना ही रहे थे कि यह सुखद खबर आई है और अब इससे बेहतर क्या हो सकता है कि आलोक को खुद जाकर गले लगकर बधाई दी जाए और शुभाशिर्वादों की बरसात कर दी जाएँ. आलोक तुम भी आओ, देवास, भोपाल, होशंगाबाद जहां - जहां मै रहा यह खिलंदड बन्दा मेरे साथ मेरे दुःख बांटने हमेशा एक आवाज पर दौड़ा चला आया, क्या आपने ऐसा निश्छल और भोला स्नेह देखा है जो रक्त संबंधों से ज्यादा और पवित्र हो?
बहरहाल बधाई और अशेष शुभकामनाएं , तुम्हारे हिस्से में आकाश भर कीर्ति की पताकाएं आयें और किसी एक की छाँह में मै बैठा तुम्हे पढता रहूँ...........अब बहुत जीने की तमन्ना भी नही तुम स्थापित हो ही रहे हो आलोक............खुश रहो और खूब आगे बढ़ो
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