बया का जन - मार्च 16 अंक मिला । संपादकीय टीम का पृष्ठ देखकर थोड़ा आश्चर्य हुआ, खैर "प्यार तो होना ही था"।
संजीव बख्शी जी का उपन्यास अलग से छपा है फिर बया में देने का उद्देश्य समझ नही आया। सुरेश सेन निशांत की रचना प्रक्रिया और कविताएँ अच्छी है पर डा अरुण होता की टिप्पणी हमेशा की तरह बहुत लम्बी है और कही कही उबाऊ भी जिसे संपादित किया जा सकता था।
मण्डलोई जी कविताएँ एक मुहावरा किस्म की है जो मैं उजास इलाहाबाद से देख समझ रहा हूँ, मंडलोई जी एक अच्छे सम्पादक है अब, कविताएँ लिखकर छपवाने का मोह अब उन्हें छोड़ना देना चाहिए। अविनाश मिश्र जो आजकल फेसबुक पर नही है , कि कविताएँ आश्वस्त करती है कि तमाम विवादों और गंवईपन के बाद भी वो खरी बात कविता के बहाने कहता रहेगा।
कहानियाँ पढी नही पर स्व पंकज सिंह पर संस्मरण अच्छा है और आनंद स्वरुप वर्मा ने पुराने आंदोलनों के बहाने तत्कालीन युवा संघर्ष और मुद्दों को सही पकड़ा है।
भाई Gouri Nathi के सम्पादन में अंतिका प्रकाशन का यह अंक अच्छा है पर गौरी नाथ संपादकीय में कई बातो को छूकर निकल गए थोड़ी तसल्ली से कहते तो स्व राजेन्द्र यादव जी के तेवर दिखते अबकि बार । बहरहाल, बधाई
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