Skip to main content

स्त्री और जेंडर समानता में प्यार Gender Equality, Women Liberalization and Love 25 April 16

स्त्री और जेंडर समानता में प्यार


सारे जहां में घूमकर जब थक गयी तुम तो लगा कि एक बच्चा गोद ले लें, यह महिला आन्दोलन ही थे जहां तुमने बहुत काम किया था, माहवारी से लेकर प्रजनन जागरूकता के कामों से लेकर जन जागरूकता के काम, इस दौरान तुमने शादी जैसे उपक्रम में कभी बंधना नहीं चाहा, हालांकि यह भी सही था कि शादी कोई हल नहीं - एक सड़ते हुए समाज का आखिरी हथियार है आदमी को बाँध देने के लिए और हर बार प्यार और सीरियस रिलेशनशिप के नाम पर बचकर निकल गयी, बाप की अकूत संपत्ति थी, और बाकी तुमने यहाँ वहाँ घूमकर अपने जादुई हुस्न और हूनर से इतना इकट्ठा कर लिया था कि अब वैराग्य हो गया था वासना से , धनदौलत से और संसार के सारे पुरुषों से क्योकि इतना भोग लिया था तुमने कि अब यह बोझ बन गया था तुम्हारी आत्मा पर और दिलों दिमाग पर यह हावी हो गया था, और शादी के नाम पर भी तुमने प्रयोग किये जातीय - विजातीय छोटे बड़े उम्र के पुरुषों को दुहा और फिर उन्हें निकाल दिया किसी मख्खी की तरह जब तुम उकता गयी उसके साथ चार पांच महीनों में क्योकि स्त्री मुक्ति के बहाने तुम्हारे अन्दर पल रहे कीड़े कुलबुला रहे थे - फाईव स्टार होटलों की दुनिया, स्पा में मसाज का सुख, हवाई यात्राएं, अमेरिकन मफिन्स, कॉकटेल पार्टी, नित नए लोगों से - विदेशी सैलानियों से मिलना और उन्हें भोगना और बढ़ते बैंक बैलेंस के बीच "अलग" बनी छबि जो त्याग और कर्मठ होने का सुख देती थी, इस सबके बीच तुम रह नहीं पाई एक छोटे या बहुत उम्र दराज मर्द के साथ हालांकि डोरे डालकर तुम्ही लाई थी उसे.....पर फिर सारे प्रपंच छोड़कर तुमने फिर से गृहस्थन बनने का ख्वाब संजोया, इंदौर, महू, पूना, अमृतसर, रांची और दूरदराज के हिस्से खोजे जहां से एक बच्ची मिल सकें क्योकि दिल में तो जरुर बेटे की चाह थी पर जिन्दगी भर बेटी बचाओ की रोटी खाती रही लिहाजा बेटी गोद ली और एक शरीफ सी स्त्री बनकर अपना घर बनाया. गंभीरता से पूछने पर तुमने बताया कि बेटी विदा होने पर अपन फिर छुट्टे हो जायेंगे !!! यह है मुक्ति की कामना और समानता पर इसमे सबसे ज्यादा नुकसान जो हुआ वो समाज का नहीं उन अबोध बच्चों का हुआ जो तुम्हारी जिद में एकल स्त्री के हत्थे चढ़ गए और उनका लालन पालन प्रयोग और नवाचार के बीच हो रहा है, ये बच्चे जिनमे ज्यादातर लड़कियां है आज दुखी है अपनी माँ के रूप देखकर जो स्त्री समानता, समता के नारे बुलंद करती हुई रोज नए नए चेहरों मोहरों को देखती है, तुम्हारे छिन्नमस्ता रूप को देखकर चिंतित है अपने भविष्य को लेकर. तुम परित्यक्ता भी रही अपने घमंड में पति छोड़ आई और उस प्यार की निशानी को वाया अदालत ले आई पर क्या दे पा रही हो सच में वो सब जो एक बच्चे को चाहिए होता है?
स्त्री और जेंडर समानता में प्यार के बीच बच्चों का इस तरह से शोषित हो जाना कितना दुखद है.
*****
जब खबर मिली थी तुम्हारी कि दूर किसी देश में 44 वें माले पर अपने फ़्लैट में नितांत अकेले तुम्हारी मौत उस संडास के दरवाजे में दबने से हो गयी है क्योकि शराब के नशे में तुमसे ना दरवाजा लग पाया ना खुल पाया, उफ़, तो दुःख हुआ था, उससे बड़ा दुःख यह था कि आठ दिन तक लाश सड़ती रही और पड़ोसियों से जब सहा नहीं गया तो पुलिस को खबर दी, वहाँ से दूतावास से खबर तुम्हारे घर को आई और फिर प्रभावशाली और तुम्हे पूरी छुट देने वाले माँ बाप भाग कर गए वहाँ से और फिर लाश लाये या नहीं यह नहीं पता पर फिर वे लौटकर ऐसे गए कि दोबारा किसी को स्त्री मुक्ति का अर्ध्य नहीं पिला सकें. तुमने कितने प्यार किये थे और कितनों के साथ घूमती थी, नहीं, नही यह प्यार ही था हर बार कहती पर हर बार एक नया जवान या अर्ध विकसित लौंडा होता और कभी - कभी एक बुढा सा खत्म होता आदमी जो तुम्हारे भव्य ललाट पर फ़ैली बेतरतीब जुल्फों की आड़ में प्यार का नाटक कर चूम रहा होता. तुम्हे वहाँ जाकर शराब से क्या प्यार हो गया, सुना था वहाँ भी तुम नैपकिन की तरह से मर्दों को हर दिन बदलती रही प्यार के नाम पर और जब भी मुझसे बात करती यही कहती कि स्त्री मुक्ति का शंखनाद प्यार में इस्तेमाल से है चाहे मर्द करें या स्त्री औरअब हमारी बारी है. पर आख़िरी में ना घर में मरी ना बाहर - उफ़ संडास के स्वचालित दरवाजों में दबकर मरना , कार्ड भी स्वाईप नहीं कर पाई इतने नशे में थी और कोई छोड़कर गया था तुम्हे लिफ्ट में नीचे से ही, तड़फ तो रहीहोगी ना उस वक्त भी या स्त्री मुक्ति उस संडास के दरवाजों में आज भी झूल रही है और कोई कार्ड स्वाईप करने वाला नहीं है.

क्या यह सच में प्यार था साँसों के स्पंदन और जीवन के किसी निचले हिस्से से भटका हुआ प्यार ?
*****
पेशानी से पसीना टपकने तक और जन आन्दोलनों से बंद कमरे की बैठकों में स्त्री मुक्ति और दासता के बीच अनुदान देने वाले पुरुषों के बिस्तर गर्म करती और बेखौफ हंसती इन जवान कलियों ने बहुत कुछ देखा भोगा और सह लिया था, प्यार के नाम पर बार - बार छली गयी, यहाँ-से- वहाँ तक. भाषा में दक्ष और दुनिया जहां में उड़ने का हौंसला गजब का था पर इसी प्यार में जब वे घायल हुई हर बार तो लगा कि वे शायद प्यार के लिए बनी ही नहीं थी, जैसे मर्दों ने उन्हें भोग्या बनाया, इन्होने भी मर्दों को इस कदर निचोड़ा कि मर्दों की अपनी कोई दुनिया ही नहीं रही. अपने स्वाभिमान या तथाकथित मुक्ति के नारों में ये ना प्यार बन सकी ना प्यार का प्रारब्ध, एक एनजीओ की दुनिया थी जो खुले मैदानों से शुरू होती और अक्सर इस्तेमाल किये हुए कंडोम या सिर्फ मजे के साथ हाई रिस्क पर गाली के साथ इनकी दुनिया मर्द के साथ किसी कार्यशाला में बंद कमरे में खत्म हो जाती, ये इसे ही प्यार भी कहती और बाद में रात को अपने जैसी अभागनों के बीच शराब और सिगरेट के साथ पुरुष को कैसे इस्तेमाल किया यह बताती और फिर देर रात तक सुबकती रहती. एक नहीं, दो नहीं बल्कि हजारों स्त्रियों की दास्ताँ इस तरह के प्यार में जीते और आहिस्ते से खत्म होते देखा है.
याद है ना ग्यारहवी में घर से किसी फौजी के साथ भाग गयी, फिर उसने तुम्हे पूरी बटालियन में परोसा, वहाँ से भागी तो किसी समाजसेवक ने आसरा दिया और अज्ञात बाप से जन्मी बच्ची का जन्म करवाया, पढ़ाया पर छोड़ा तोउसने भी नहीं था तुम्हे - खूब प्यार दिया और आख़िरी में हकाल दिया, कुरुक्षेत्र में छोड़ दिया कि जाओ डूब मरो, छोड़ा किसी ने नहीं पर तुम प्यार करने के प्रपंच जान गयी थी और मर्दों को इस्तेमाल करना भी, बस वही गुण हाथ की रेखाओं में लिखवा कर सर्वगुण संपन्न बन गयी, पर तारीफ़ कभी उस पिता की नहीं की तुमने जो सबके बाद भी तुम्हे अपना कर घर ले आया बेटी बनाकर समाज को दुलत्ती मारते हुए. प्यार को हथियार तुमने बना कर इस्तेमाल किया या इस दुनिया में, एक बार तो सोच लेती जब अभी भी किसी आम्रपाली सी सज संवरकर, वैशाली की नगरवधु बनकर सत्ता के गलियारों में ग्राहक ढूंढने निकलती हो एक षोडसी की तरह जबकि तुम रूप लावण्य तुम उस तालाब में बहा आयी हो जहां मछलियाँ छोटे मोटे जीव - जंतुओं को निश्छल भाव से निगल जाती थी.
मुझे नहीं मालूम कि भोक्ता, भोग्या और मर्दों के इस्तेमाल में माहिर तुम प्यार को कभी छूकर संवेदनशीलता से समझ भी पाई?
*****
एक वो थी जो पति के पास आठ दिन नही रही, चालीस साला प्यार के बाद माशूक से शादी की और सातवें दिन ही छोड़कर चली आई मजबूत माशूक को और अब अपनी आलीशान दुनिया में मगन है । दूसरी यह है जो एक ऐसे बुझदिल से प्यार कर उसका जनाज़ा उठाये फिरती है जो दुनिया की मुश्किलो को हल करने के बजाय लटककर मर गया सदियों पहले, यह कहते हुए कि उसकी दुनिया, पसंद और ख्यालात इस दुनिया से जुदा है । तीसरी वह है जो पति के साथ एक साल रही, उसे छोड़ा - दुसरे, तीसरे और चौथे , पांचवें को खोजते खोजते अपनी महीन सी दुनिया को उजाड़कर भक्क् से दूधिया रोशनी में नहा गयी - इसे इस चमकीली दुनिया में सबने कौतुक से देखा, उपहास भी उड़ाया कि एक हवाई यात्रा की कीमत अपना जीवन और घर दफनाकर चुकाएगी और यह भी कि सबसे पुराने ज़िंदा वैध पति के होते हुए चार - चार बार दूसरों के पतियों के लिए विधवा विलाप करेगी और फिर अंत में एक खोखले हो चुके पेड़ की समिधा में चुपचाप अपने को खोने जा रही है । वह अभी भी प्रौढ़ होते पेड़ों को रिश्तों का वास्ता देकर अपनी क्षुधा बुझाने को रिझाती है।
प्यार को कहाँ कैसे मापें, पर एक बात तो तय है कि ये तीनों तो कम से कम प्यार नही है, कुछ और जरूर हो सकता है, कुछ कुंठा, अपराध बोध और कुछ अवसाद या कुछ अतिरेक की महत्वकांक्षाएं।

Comments

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही