आज शायद कोई जानता
भी ना हो
तुम्हारी दूकान को
या कि उस कोने को
जिस मीरा बावडी के
किनारे
चिमनाबाई कन्या शाला
के बाहर एक खोमचे में
लगती थी अदभुत चीजों
की दूकान
जिसमे कभी टोटा नहीं
पडा उन चीजों का
जो किशोरावस्था की
दहलीज पर कदम रखते हम
जैसो के लिए किसी
वरदान से कम नहीं थी
इमली की चटनी, खट्टे
बैर, अमचूर की चटनी, करौंदे
ढेर सारे कबीट, पेमली
बोर, मांडव की इमली भी दिख जाती थी
कभी कभी उस दूकान
में अनेक अचारों के साथ,
उस चौराहे से गुजरते
हुए खटास की महक
और खिलखिलाती हंसी अक्सर
एक दूसरे के पूरक लगते थे
तीन पैसों से जेब
में चार अठन्नी होना
दुनिया के किसी
अम्बानी से कम ना होता था
दस पैसे के एक कबीट
से लड़कियाँ पटा लेने का हूनर
हमसे भला कौन अच्छा
जानता था
कब बड़े हो गए और
कहाँ खो गयी खटास जीवन की
जो मिठास घोल देती
थी रंगीन सपनों में भी
एक दिन दूकान बंद हो
गयी खो गया कुंदन सेठ
मोहल्ले के लोगों ने
बताया कि पाकिस्तान चला गया था
कभी पूछ ना पाए उससे
कि कुंदन सेठ कहाँ और क्यों जा रहे हो
अब नहीं दिखते कबीट,
करौंदे, चारोली, इमली, बैर, याकि मांडव की इमली
लड़की पटाने के लिए अब
बाजार में साधन बहुत आ गए है
जेब भी इधर भरी रहती
है रूपयों से और उंगलिया
शातिरी से घूम जाती
है फटाक से मोबाईल पर
महंगे चमकदार चश्मे
से हरी दिखती है सब ओर की घास
पैदल चले हुए सालों
हो गए और
भाषा की बाजीगरी के
भी सिद्धहस्त खिलाड़ी हो गए हम
पर कहाँ खो गयी है
खटास, वो कबीट, वो लड़कियाँ
कहाँ हो कुंदन सेठ
जीवन की मिठास गायब
है तुम्हारी दूकान की तरह
Comments