नीचे धरती थी, ऊपर आसमान, आसपास दीवारें - आखिर जाते कहाँ हम ?
थोड़ा और फैलता हूँ तो पाता हूँ कि दीवार से ज्यादा सट गया और फिर धीमे से एक दीवार मेरे अन्दर उग आती है और चलना शुरू करती है -उन जगहों पर, जहां अँधेरे कमरे अपनी तमाम रोशनियों के बावजूद किसी कोने में धंसी एक छोटी सी खिडकी के एक पल्ले के खुलने का इंतज़ार मानो सदियों से कर रहे हो.
पानी की सतह जब दूर तक फैलती तो अक्सर बिम्बों में दीवारें नजर आती और हर दीवार में पानी की परछाईयाँ डूबती सी लगती मानो किसी ने ख्वाब तैरा दिए हो - एकदम साबुत और ज़िंदा ख्वाब.
खिड़की की परत में झीना आवरण था जो सब कुछ ढक लेता तो लगता मानो सब कुछ खिड़की ओट से दीवार में धंस गया.
यह दीवारें ही थी जिन्होंने जीना सिखाया, जिन्होंने दायरे में बांधकर जीवन में सुख-दुःख और फासलों का मतलब सीखाया, आज दीवारें अपने अन्दर तक महसूस होती है मानो किसी ने आसमान से धरती की एक बड़ी दीवार ढककर साँसों की डोरी को आहिस्ते से एक कनवास की भाँती रंग-बिरंगे रंगों में रंग दिया है, और अब इस बेदम पड़े शरीर में पोर-पोर तक दीवारें मेरे अन्दर उतरती जा रही है, एक मजबूत बंधन की तरह - ठीक ऐसा, जैसा तुमने कभी किसी सूने मंदिर में घंटियों के अनहद नाद की उपस्थिति में एक रक्षा सूत्र मेरे बाई कलाई पर बाँध दिया था और जब मैंने पूछा था तो सिर्फ यही जवाब व्योम में गूँज गया था कि दीवारें दायी ओर से हमारे भीतर सरकती है - सर्र सर्र सर्र...........
मै चलता तो दीवार ठहर जाती और मै रुकता तो दीवार चल देती यह रुकने चलने का क्रम सदियों से मेरे, उसके और हम सबके साथ चल रहा है और इस बीच ऊँची होती गयी है दीवारें! एक दिन मै दीवार बन जाउंगा और फिर सब ठहर जाएगा और धीमे से दीवार होती जिन्दगी खोखली होती जायेगी, जब एक छोटी सी दीमक इसके उस हिस्से पर पहुंचकर हावी हो जायेगी जिसे प्यार कहते है.
इन दीवारों के बीच और साथ चलते जीवन कब ख़त्म हो गया पता ही नहीं चला। गारे सीमेंट और रेत के बीच पानी जैसे उड़ जाता है कडा आवरण बनाकर वैसे ही खुशियाँ उड़ गयी है दीवारों के बीच बनते जीवन से.
एक सुबह थी, एक आसमान था और दिनभर हवा बहती और यादें इसमे से गुजर जाती. रह जाता तो सपाट बियाबान सा सब कुछ, और हम कुछ नहीं कर पाते, देर तक यहाँ-वहाँ दौड़ते और फिर थक हार कर बैठ जाते कि अब हवा चलेगी तो जमके पकड़ लेंगे- इन यादों के कारवां को और बीन लेंगे अपने लोग उसमे से और सहेज लेंगे, हमेशा के लिए छाती से चिपकाकर रख लेंगे, और फिर कभी नहीं छोड़ेंगे, अबकी बार आटे की लुगदी ऐसी शिजायेंगे कि पकड़ ढीली ना पड़े, खूब खदबदायेंगे चूल्हे की आंच पर और पानी भी सारा उड़ा देंगे पतीली से, या शायद देगची ही बदल दें ताकि लुगदी पक्की और मजबूत बनें. पर हर बार की तरह आसमान और धरती के बीच से हवा सर्र से निकल जाती और हम दीवारों के सहारे ही चलते चलते ऐसी जगह पहुँच जाते जहां धरती के कोने अक्सर ख़त्म हो जाते है और आसमान की छाँह भी.
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