संदीप नाईक, सी 55, कालानी बाग़, देवास, मप्र, 455001.
प्रश्न, चुनौती और यथार्थ- सन्दर्भ
युवा कविता
साहित्य, कलाएं और
अनुशासन संभवतः मनुष्यता के अंतिम हथियार होंगे जिससे एक सभ्य समाज में लड़ाई की
गूंजाईश मूल्य और सिद्धांतों को ज़िंदा रखने के लिए रखी जा सकेगी. यह महज एक दृश्य
के बिम्ब नहीं, किसी दस्तावेज का हिस्सा नहीं वरन हमारे समय के जीवंत प्रश्न है
जिनसे हम रोज दो चार हो रहे है. साहित्य और कलाएं आज जब उथल-पुथल भरे समाज में एक
बदलाव की भूमिका से बहुत दूर है, ऐसे में यह कल्पना एक सिर्फ गल्प के रूप में ही
सामने आती है कि साहित्य के भीतर भी खेमे है और ये खेमे विधागत होकर बांटने का
कार्य कर रहे है. कविता, कहानी, गद्य, निबंध, आलोचना, यात्रा वृत्तांत और ना जाने
कौन -कौन से हिस्सों में बंटा, चेतना के धरातल को छूता हुआ साहित्य सिर्फ आज ही
नहीं वरन हमेशा से अपने आप से जूझते हुए प्रश्न, यथार्थ और चुनौतियों से लड़ता आया
है. हिन्दी कविता का विकास अपने आप में एक वृहद् विषय है जिस पर लाखों शोध हो चुके
है और करोडो अक्षर कागज पर उकेरे जा चुके है परन्तु क्या ठीक ठाक ढंग से हिन्दी
कविता के प्रश्न सामने आये है, खासकरके युवा कविता के. हर तरह की कविता को हमारे
यहाँ देखा, पढ़ा, गुना और सुना गया है, यह सचमुच सराहनीय है परन्तु इसके साथ ही
सवाल भी उठाये गए है इसके होने, संरचना, शिल्प और अंत में प्रक्रिया के साथ कविता
के यथार्थ पर.
एक अच्छी कविता
लिखने की चुनौती ना मात्र एक युवा कवि के सामने है बल्कि आज मुक्तिबोध, नागार्जुन या
निराला भी होते तो उनके सामने भी होती. हम देखते है कि हिन्दी कविता में धाराएं
बहुत है और हरेक धारा की अपनी एक दिशा, खेवनहार और अनुयायी है जो पुरे बेड़े को सर
पर उठाकर या यूँ कहूं कि लादकर चलते है बावजूद इसके कि हम सब जानते है कि लम्बी
दूरी तय करना है तो सर पर कम वजन उठाकर चलना चाहिए. आज के माहौल में हिन्दी कविता
लिखी जा रही है बल्कि पहले की तुलना में ज्यादा लिखी जा रही है. हिन्दी पत्रिकाओं
के बहुतायत में प्रकाशन से, सोशल मीडिया या फेसबुक जैसे माध्यमों ने हरेक को जहां
यह अवसर उपलब्ध कराया है वही ब्लॉग जैसे माध्यमों ने थोड़े परिपक्व कवियों को अपनी
पुरानी रचनाओं से भी पाठकों को रूबरू कराने का अवसर दिया है. अखबारों के वेब
संस्करणों ने जहां रचनाकारों के लिए पर्याप्त स्पेस उपलब्ध कराया है वही मोबाईल पर
वाट्स एप जैसे माध्यम ने भी रचानाकारों को या यूँ कहूं कि एक आम आदमी को भी
साहित्य के साथ जुड़ना सिखाया है. यह एक तरह से सार्थक है पर इस सबके बीच कविता कही
खो गयी है हालांकि यह कहना भी अतिश्योक्ति होगा कि यहाँ इस सबमे कविता नहीं है.
जिस माध्यम पर लाखों की संख्या में रोज कवितायें, तुकबंदी और शेरो शायरी अपलोड की
जाती है वहाँ मुश्किल से दो चार ढंग की रचनाएँ पठनीय बन पाती है. पर लाईक और
कमेन्ट के इस माया जाल में फंसे हमारे कवि और हमारी रचनाएँ इस सबके बीच अपनी
अस्मिता और स्वीकृति के लिए बेचैन होती जाती है. दिक्कत यह भी है कि मै भी खुद भी
पहले और सीधे सीधे लेपटोप पर लिखे ड्राफ्ट को दोबारा पढ़ने को तैयार नहीं हूँ, और
पोस्ट करने की जल्दी है - पता नहीं कहाँ जाना है और जाकर भी क्या प्राप्त कर लूंगा,
जैसे प्रश्नो से बहुत दूर हूँ, बस लालच है कि उसकी पोस्ट से पहले मेरी पोस्ट लग
जाए और फिर शुरू करता हूँ चिरौरी करने का घटिया काम. ना हम दूसरी बार अपनी ही
कविता को पढ़ने को तैयार है, ना उस पर बैठकर संजीदगी से काम करने को तैयार है ऐसे
में कैसे प्रश्न उठाएंगे या चुनौती को देख पायेंगे. अतिआत्म मुग्ध होकर हम सब
मिलकर कविता की सामूहिक ह्त्या कर रहे है यह कहना गलत नहीं होगा.
दूसरा हिन्दी कविता
में हमारी आज की बहस में वाद ज्यादा हावी है अपने अपने खेमों और विचारधाराओं से
लैस हम लोग बहुत सॉलिड पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हम शब्दों को पकड़-पकड़ कर एक फार्मूलाबद्ध
कविता लिखने का अनुष्ठान कर रहे है इस सबके बीच युवाओं के साथ हमारी वरिष्ठ पीढी
टकरा रही है जो एक सिरे से इस अतुकांत और गद्यनुमा होती जा रही कविता को सिरे से
नकारती है और हर बहस का अंत छंद और अतुकांत के वर्तमान और भविष्य पर आकर ख़त्म हो
जाता है. ऐसे संवाद प्रायः बहुत ही कलुषित माहौल में ख़त्म होते है जो मतभेद के
बजाय मनभेद को बढ़ावा देते है जिससे युवाओं और अनुभव की कविता के बीच खाई इतनी बढ़
गयी है कि युवा कविता के तथाकथित तेजस्वी स्वर इस पुरी हिन्दी की कविता को बहुत ही
गलीज दृष्टि से देखते है चाहे वो कुकुरमुत्ता हो या राम की शक्ति पूजा और यह भले
ही ऊपर से उथला लगे पर हिन्दी कविता का अंततः नुकसान ही करता है. जरुरत इस बात कि
भी है कि शालाओं या विश्वविद्यालयों में पढाई जा रही कविता को एक बार फिर से देखा
जाए कि क्या कही किसी “बेलेंस” की भी जरुरत है, जो यह खाई बढाने के बजाय पाटने का
काम करें.
तीसरी महत्वपूर्ण
बात मुझे लगती है जो कि यहाँ कहना मुझे जरुरी लगता है कि सन सत्तर के बाद देश में
जो भी साहित्यिक या सामाजिक बदलाव हुए है उसमे पांच व्यक्तियों का बड़ा योगदान है-
कार्ल मार्क्स, चेग्वारा, डा आम्बेडकर, महात्मा गांधी और जयप्रकाश. ये वो पांच लोग
थे जिनकी विचारधारा ने सामाजिक बदलाव के साथ साहित्य की भी दिशा बदली है. दिल्ली
के जेएनयु से लेकर तमाम तरह की संस्थाओं से निकलकर जो लोग क्रान्ति का बीड़ा उठाए
गाँवों खेत और जंगलों की ओर चले गए और जमीनी लड़ाईयां लड़ी और जिस तरह से उन्होंने
ठीक-ठीक तो नहीं, पर लगभग रूस की तरह से साहित्य को या कविता को बदलाव का हथियार
मानकर काम किया वो भी एक प्रश्न तो है. गोरख पाण्डेय, वरवर राव, पाश या दुष्यंत के
यहाँ कविता की एक स्पष्ट दिशा दिखती है और अपने मकसद को भी वो प्राप्त करती है
परन्तु बाद की कविता खासकरके सन 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद हिन्दी की कविता में एक
फार्मूले का इजाद होना एक बड़ी घटना थी और दलित, साम्प्रदायिकता, महिला, शोषण,
आदिवासी और ऐसे तमाम तरह के जुमलों से कविता का एक पैटर्न उभरा और एक ढांचा तैयार
हुआ. इस ढाँचे में जो अपने को फिट कर गया वो नामी-गिरामी कवि हो गया और कालान्तर
में स्थापित कवि जिसके खाते में पुरस्कार और दर्जनों उपलब्धियां भी दर्ज थी परन्तु
कविता ना अपना असर छोड़ पाई ना इतिहास में दर्ज हो पायी और यही वह महत्वपूर्ण
प्रश्न है जिसे मै यहाँ रेखांकित करना चाहता हूँ कि क्यों हमारे यहाँ युवा की
कविता ने मुक्तिबोध, निराला या नागार्जुन सा असर नहीं छोड़ा बल्कि बेहद क्षणिक रूप
से भारत भूषण पुरस्कार मिलने के बाद या तो कवि ख़त्म हो गए या कविता दफ़न हो गयी और बच
गया तो एक ढांचा या फ्रेम जिसमे आप कुछ भी भरकर डाल दें एक कविता तो निकल ही आयेगी
यकीन मानिए. मुझे बहुत स्पष्ट तौर पर लगता है कि इसमे गलती हमारे युवा कवि की नहीं
है क्योकि उसके सामने ना मुक्तिबोध जैसा संघर्ष है ना उसके सामने नागार्जुन जैसा
यायावारी करने का माद्दा तो जाहिर है ना निराला जैसा बार-बार काम करने का जज्बा कि
अपने लिखे को काटकर फिर से बार बार लिखे. एक छदम विमर्श के तहत यह सब निकलना ही
था. और दुर्भाग्य से इस सबमे हमने और हमारी कविता ने बहुत अच्छे और संवेदनशील युवा
कवियों को कविता से दूर कर दिया मै खुद ऐसे दर्जनों नाम गिना सकता हूँ जिन्होंने अच्छी
कविता लिखी थी सन 90 से 95 और 95-2000 के समय में पर आज
उन्हें कहा जाए कि क्या लिखा है, पढ़ा है इन दिनों, तो वे कहते है छोडो ना भाई साहब
कुछ और बात करते है - यह शायद दुखद स्थिति है. हम अपनी कविता को केदार नाथ सिंह और
रघुवीर सहाय के पास ले जाकर सहज कविता तो लिख सकते है परन्तु मुक्तिबोध, निराला,
विनोद कुमार शुक्ल या बाबा नागार्जुन के पास जाना हो तो बहुत श्रम साध्य प्रक्रिया
है जिससे हमारी युवा कविता बच रही है इसलिए ना नए शब्द गढ़े जा रहे है, ना बिम्ब,
ना नई भाषा रची जा रही है बची-खुची कसर इंटरनेट ने पुरी कर दी है जहां शब्दों के
बेहरतरीन विकल्प बहुत कम मेहनत और निशुल्क उपलब्ध है. इस सबके बीच लाल्टू जैसे कवि
भी है जिन्होंने नया मुहावरा गढ़ने की कोशिश की और नया सच में रचा पर साहित्य में
उन्हें स्वीकृति लेने के लिए अभी कितना और काम करना होगा यह भी विचारणीय प्रश्न
है. मै लगातार देख रहा हूँ कि एक पैटर्न बन गया है और एक तयशुदा भाषा में लगातार
एक तरह का दोहराव कविता में मौजूद है. कवियों के लगातार संग्रह आ रहे है परन्तु
वहाँ एक से दूसरे संग्रह में विकास के बजाय ठहराव दिखाई देता है जबकि रघुवीर सहाय
का दसवा संग्रह आता है तो वह बिलकुल नौं संग्रहों से जुदा है और उसमे एक पेराडाईम
शिफ्ट दिखाई देता है जो आज के हमारे युवा कवियों में गायब है. बल्कि हमारे वरिष्ठ
कवियों के संग्रह भी चयनित, संकलित, प्रतिनिधि या दशक की चुनिन्दा कविताओं के नाम
पर एक तरह का दोहराव लिए ही छप रहे है जिसमे कविता नहीं बल्कि एक रिपीटेशन है.
दरअसल में लड़ाईयां
ख़त्म हो गयी है और कहा जा रहा है कि विचारधारा का अंत हो गया है परन्तु अभी
लड़ाईयां लड़ी जानी बाकी है एक ऐसे समय में जब पूरा देश एक तरह की मानसिक गुलामी और
एक छदम विकास के गहरे कूएँ में धकेला जा रहा है जहां जाना अपने आपको सिर्फ और
सिर्फ ख़त्म करना होगा, यहाँ हिन्दी युवा कविता के प्रश्न और तीखे और तीक्ष्ण भी होने
चाहिए क्योकि कविता ही है जो अंततः हमें बचायेगी और हमें यथार्थ और चुनौतियों से
मुक्ति दिलायेगी और निश्चित ही प्रश्न उठाना पड़ेंगे हम सबको और खोजना होंगे उत्तर भी ऐसे
कि उन उत्तरों पर फिर से सदियों तक याद रखे जाने वाले प्रश्न उठाये जा सके
बारम्बार. ऐसे मुश्किल समय में दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों से अपनी बात ख़त्म
करूंगा कि;-
हम पराजित है मगर
लज्जित नहीं
हमें अपने पर नहीं
उनपर गुस्सा आता है
जिन्होंने हमें
अँधेरे कूओं में धकेल कर कहा कि
लो तुम्हे आजाद करते
है
आओ सब अँधेरे में
सिमट आओ
आओ और करीब आओ,
हम यहाँ से रोशनी की
राह खोजेंगे.
(चौधरी चरण सिंह विवि, मेरठ के हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में दिनांक 30 मार्च 2014 को "प्रश्न, चुनौती और यथार्थ- सन्दर्भ युवा कविता" विषय पर पढ़ा गया पर्चा)
Comments