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माँ का होना , न होना और ज़िन्दगी का ख़तम हो जाना

माँ का नही होना जैसे खलता ही नही है
अभी पिछले हफ्ते ही एक साल पुरा हो गे उसे गए हुए , में ही तो गया था हरिद्वार में उसकी अस्थिया लेकर गंगाजी में , पर क्या सचमुच माँ चली गई है मैंने तो एक अस्थि अपने पास रख ली थी ताकि वो सारे योग क्षेम अपने ऊपर लेती रहे जसी पिच्च्ले बरस तक लेती रही थी अस्पताल की उस कोठारी में भी जिसे वार्ड कहते है । माँ के बारे में लिखना बहुत ही कष्टप्रद है मेरे लिए बस एक ही अफ़सोस होता है की मेरे जैसे कमीने के सपनो में एक भी बार नही आई तुम माँ ............ क्यो?
में जानता हू कि तुम मरने के पहले मेरे बारे में क्या सोच रही थी क्या क्या हुआ था उन पन्द्रह दिनों में और उस सुयश अस्पताल ने सिर्फ़ अपयश ही दिया मुझे ज़िन्दगी भर के लिए में अभी भी रातो में चौककर बैठ जाता हू कि मैंने तुम्हारा खून कर दिया न में डाक्टर को इजाज़त देता ऑपरेशन कि न तुम्हे उस मेडिकल तंत्र का शिकार होना पड़ता । पुरी लम्बी रातो में कितना बोलती थी तुम माँ अपने बारे में पापा के बारे में रिश्तेदारों के बारे में , अपनी बहनों के बारे में किस किस को यद् नही किया तुमने और किस किस से नाते नही निभाए तुमने पर क्या काम आया आखिर सबका मोह छोड़कर तुम चली गई न ............ कहा गई हो क्या बही भी मुझे देखती हो इन सारे पाप पुण्य के झंझावातों में ? क्या अब भी वही सब सोचती हो कि मेरा क्या होगा ....... बहुत बेशर्म हो गया हू में एकदम घटिया इन्सान , एक दम नीच पृकृति का , सिर्फ़ जीने के लिए सब कुछ कर लेने वाला दो कौडी का आदमी।
पता है मुझे लग ही रहा था कि मेरे अपने पापो कि सजा तुम्हे ही भुगतना पड़ेगी और वही हुआ आखिरकार तुमने अपनी जान दे दी बगैर बताये ही चली गई .............
अब मेरे लिए जीने लायक कुछ बचा ही नही है बस जैसे तैसे अपने काम पुरे कर रहा हू और बस एक दिन यू ही चला जाऊंगा उस जहाँ में , जहां तुम फ़िर से मेरे सारे सुख दुःख अपने ऊपर ले लोगी........
बहुत याद आती हो माँ
में अकेला नही रह सकता तुम्हारे बिना कोई है ही नही जिसके साथ में कुछ बोल सकू और कह सकू.....
अपने पास बुला लो माँ................


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