|| चलो मन वृन्दावन की ओर,
बनारस में अब रस नहीं ||
क्वांर जा रहा है कार्तिक माह आने वाला है, माँ भोर में उठ जाती, पूरे कार्तिक माह में रोज सुबह चार बजे ठंडे पानी से स्नान कर बाड़े में लगे तुलसी को पानी देकर पूजा करने बैठ जाती, पुराने जमाने का कोई टैप रिकॉर्डर था और एक फिलिप्स का रेडियो जो सुबह "ये आकाशवाणी है" से शुरू होता था, कभी टेप पर घिसे हुए कैसेट बजते तो कभी रेडियो पर शास्त्रीय संगीत बजता था, तब ना चेती की समझ थी, ना कजरी, ना ठुमरी ना दादरा की, बस नींद खराब होती और शास्त्रीय संगीत के आलाप गूंजा करते, 1973 मैं शायद पहली बार मैं देवास के महाराष्ट्र समाज में स्व पंडित कुमार गंधर्व को सुना था, दो-चार मिनट के बाद ही मैं हाल के बाहर आ गया था परंतु जो मेरी संगीत की समझ है वह उन्हीं को और वसु ताई को सुनते हुए विकसित हुई, कालान्तर में कलापिनी, मुकुल दादा, भुवनेश से भी संगीत की बारीकियां सीखने को मिली खासकरके मंच पर प्रस्तुति देते इन्हें नजदीक से देखा और इनसे बेधड़क सवाल पूछने का हक भी था, बाद में देवास में बड़े-बड़े आयोजन होते थे जिसमें बड़े गायको से लेकर महान वादकों तक ने शिरकत की है और मैंने शहनाई, बांसुरी, तबला, मृदंगम, ढोल, मैहर बैंड, विचित्र वीणा, मोहन वीणा, हारमोनियम या सितार जैसे औघड़ वाद्यों को सुना और समझा है
माँ के स्कूल की हेड मिस्ट्रेस थी हीरा दिवटे खुर्राट औरत थी हमारे पास ही रहती थी, कहती थी "बामण की औलादों को गाना बजाना, सुनना और नाटक करना बचपन से सीखा देते है तभी ये मराठी लोग बहुत आगे जाते है" , कितनी बात सही थी यह तो नहीं पता पर बचपन से संगीत संस्कृति के संस्कार घर में माँ से ही मिलें, उम्र के तीन दशक पूरे होते होते लगभग तत्कालीन सभी ख्यात गायकों और वादकों को प्रत्यक्ष रूप से सुन और देख चुका था
बिस्मिल्लाह खान साहब से लेकर तमाम गायक वादक और लिखने पढ़ने वालों को हमेशा घर में पाया - रेडियो टेप या किताबों में, समाज के कार्यक्रमों में और बाद में देवास शहर के भव्य सांस्कृतिक आयोजनों ने इनका विस्तार किया, मेरा ख्याल है उम्र के तीन चार दशक पूरा होने तक सभी जीवित लीजेंड्स को प्रत्यक्ष रूप से सामने प्रस्तुति देते देख लिया था, सुन लिया था, अभी उस दिन वसुंधरा ताई की दसवीं पुण्यतिथि पर जब धनश्री राय पंडित से मैंने स्व शोभा गुर्टू जी की यादें ताजा की और उनपर लिखी अपनी कविताएं साझा की तो वे आश्चर्य चकित थी कि किसी की स्मृति में कोई व्यक्तित्व इतनी मुखरता और ताज़गी से जिंदा रह सकता है और मेरे अनुरोध पर उन्होंने "हमरी अटरिया पे आओ रे सजनिया" सुनाया
बनारस अपने जीवन में चार या पांच बार गया हूँ, दो बार अकेले तसल्ली से सिर्फ घाट घूमने, और दो बार मित्रों के साथ बीएचयू में कविता पाठ करने और कुछ काम से, एक बार पिता की अस्थियां गंगा जी में प्रवाहित करने पर मन नहीं भरा, हालांकि बनारस एक ओवर रेटेड शहर है : पहली दो बार जो सिर्फ यायावरी के क्षण है वे बिस्मिल्लाह खान साहब ,अप्पा और छन्नूलाल जी को देखना, सुनना, बतियाना और प्रत्यक्ष रूप से उनके गायन वादन को सराहना रहा है, नाव में बैठकर बिस्मिल्लाह खान साहब की ठहाकों वाली बातें, अस्सी घाट पर अप्पा के हाथ से लगाए हुए बीड़े और फिर खखारकर गला साफ करते हुए गाना सुनना, या किसी मंदिर के ओसारे में छन्नूलाल जी से कजरी सुनना और फिर कचौड़ी के साथ लस्सी पीना
कैसे अदभुत लोग थे ये, देवास में स्व कुमार जी की सहजता, वसु ताई का वात्सल्य, पूना जाने पर कही भीमसेन जोशी जी मिल जाते तो कहते, "आला बाळ, परवा माझ गाण आहे, अईकूनं जा परत" जयपुर जाता तो जवाहर भवन में विश्व मोहन भट्ट जी मिल जाते तो कोने में दुकान पर जाकर काफी पिलाते पर अब ना जयपुर - जयपुर रहा, ना पूना - पूना, ना देवास - देवास रहा, कल मोहन वर्मा भाई से बात कर रहा था कि हमारे देखते ही देखते शहर बदल गया
ख्यात गायक द्वय पंडित राजन साजन मिश्र जी में भी बड़े भाई अब नहीं रहे, इतने उम्र दराज होकर भी पंडित साजन मिश्र जी गत वर्ष देवास आए थे कुमार जी के शताब्दी वर्ष में प्रस्तुति देने और देश के हालातों पर बहुत दुखी होकर उन्होंने गाया था "चलो मन वृन्दावन की ओर", एक संगीत के मनीषी को अपने लिए अपने साथ अपने स्तर के कलाकार ही लगते है और साजन मिश्र जी के बेटे से जब मैं बात कर रहा था तो बनारस की खत्म होती आभा पर भी बात हुई थी
छन्नूलाल जी, बिस्मिल्लाह खान साहब, अप्पा यानी गिरजा देवी के बिना बनारस कोई बनारस है क्या अब
क्या फायदा उन गलियों में जाकर - बनारस अर्थात ही ये त्रयी और अब दुर्भाग्य से हमने आखिरी कड़ी को खोकर बनारस होने को ही खो दिया
मणिकर्णिका को घंटों निहारने का या रात को गंगा जी की आरती का वैभव विस्मय से देखने का मोह ही खत्म हो गया है, कल हमने छन्नूलाल जी को खोकर बनारस जाने का जो अंतिम कारण बचा था उसे भी खो दिया
सबको सादर नमन
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हिंदी फिल्म उद्योग अतिश्योक्ति और अतिरंजना का शिकार है यह तो मालूम है लगभग पांच दशकों से, पर इक्कीसवीं सदी के पच्चीस वर्ष बीत जाने के बाद भी #धड़क-2 जैसी मजाकिया फिल्म बनाता रहेगा - यह कल्पना से परे था
दुनिया भर के कानूनी प्रावधान और तमाम तरह की सरकारी एवं गैर सरकारी सुविधाओं को लेने, उपभोग करने के बावजूद यदि नायक को इतना डिप्रेशन, एंजायटी और गंभीर किस्म का अपराध बोध है तो भाई चंदा कर लें अपनी जात बिरादरी में, कोई फेलोशिप जुगाड़ लें, आजकल सब जगह बैनर लिखें है कि आओ और ले जाओ - बस काम मत करना, आखिर में कोई सॉलिड बहाना बना देना, अंत में पासपोर्ट बनवा लें और निकल जा किसी और देश जहां तेरा प्यार, पहचान और मूर्खतापूर्ण हरकतें जिंदा रहें
एकदम बकवास और घटिया फिल्म, सिद्धार्थ चतुर्वेदी से बहिष्कृत कौम के हीरो का रोल करवाना भी एक उल्टे सिर पैर वाले जन जनावर का ही काम हो सकता है, पूरी फिल्म में एक भी सीन या संवाद ऐसा नहीं मिला - जो मुद्दे की गंभीरता या विषय की अकादमिक ना सही सतही समझ रखता हो, एक उजबक किस्म का लंपट लौंडा कुल मिलाकर एक ऊंची जात की बीबी पाने के लिए उंटपटांग हरकते कर दलित मुद्दों को उभारने की जुगाली करता है, काश कि दलित बनाम सवर्ण की लड़ाई इतनी ही आसान, सस्ती और फिल्मी होती, 1983 - 1992 तक और फिर अभी 2018 - 2023 तक पुनः महाविद्यालय में नियमित पढ़ा, कक्षा में अधिकांश बहुजन वर्ग के ही संगी साथी रहें पर जो मूर्खताएं सन 2025 में आकर निर्माता निर्देशक दिखला रहे है वह किसी और आकाश गंगा में ही होता होगा
दुनिया गधों से नहीं समझदारों से त्रस्त है - सैराट हो, ठाकुर का कुंआ, जूठन हो, अक्करमाशी हो या ये घटिया धड़क-2
बहुजनों या अल्प संख्यकों को फंसाकर धंधा करना वैसा भी कौन नई बात है, सलमान, शाहरुख, आमिर, संजय, अक्षय, रणवीर या कोई अन्य या इनमें क्या फर्क है, हर साल होली, दिवाली, ईद या क्रिसमस पर लोगों को बेवकूफ बनाकर इन मूर्खों की जेबें भरती है
घर में फ्री का नेटफ्लिक्स हो तो समय बर्बाद करें - वरना इस तरह की दो कौड़ी की फिल्मों को देखकर सामाजिक क्रांति की दरियादिली ना दिखाएं
[ जिसे दलित मुद्दों की जमीनी समझ हो - वो ही तथ्यपूर्वक मुद्दों की बात करें, फिल्में देखकर डॉक्टरेट लेने वाले, लम्बा - लम्बा कॉपी पेस्ट लिखने वाले चोट्टे यहां ज्ञान ना दें ]
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भीतर का तो नहीं पर बाहर के बने इस रावण को जलाकर लौटा हूँ
छह दशक पूरे हो जायेंगे अप्रैल में अबकी बार, पर हर बार यही सोचता हूँ कि जला दूंगा अपने भीतर के रावण को भी, पर मानवीय प्रवृत्तियां है - खत्म नहीं होती ,बल्कि दुगुने या चौगुने वेग से बारम्बार उभरती है, रावण में तो कम अवगुण थे, पर समय के साथ तकनीक और सोशल मीडिया ने हम सबको अवगुणों की खान बना दिया है, लिहाज़ा अब तो सच में समिधा की तरह जलकर ही सब खत्म होगा अंत में एक दिन
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जिंदगी में कभी अफसोस मत कीजिए - अपने कर्मों को लेकर, अपने अतीत को लेकर और अपने वर्तमान को लेकर - बहुधा आम, अमरूद या मीठे फलों के लगाए हुए पौधे बड़े होकर बबूल या बेशर्म में तब्दील हो जाते है और आपको इन्हें देखकर दुख होता है कि आपका जीवन इन्हें पालते और पोसते हुए निकल गया और आप पछतावे में हाथ मलते रह जाते है
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