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कोजागिरी पौर्णिमा 6th oct 2025

 चाँद किस खिडकी में रहता था - दीवार की या आसमान की




बचपन सावन और हरेपन से भरा था. बरसात शुरू होते ही सब हरा हो जाता था – पहले मन, फिर तन और अंत में सारी प्रकृति. बचपन में हरा, नीला या लाल समझ नही आता था. आज जब उम्र के छठे दशक में हूँ तो समझ आ रहा है कि हरापन क्या होता है. माँ थी तो बरसात थी. पिता की और माँ की नौकरी में सब ओर हरा -ही - हरा था. नब्बे - ढाई सौ के वेतनमान में दोनों की तनख्वाह से घर चलता और बहुत मजे से चलता था. आज हम लोग पांच अंकों में कमा रहें है तो अकाल है. अकाल - अक्ल का भी और खुशियों का भी. अकाल - सुखों का और दृष्टि का भी. अकाल - जीवन में हरियाली का भी और हरेपन का भी. कारण एक नहीं, अनेक है. और सबसे बड़ा कारण हरेपन की अपेक्षा का भी है. उस मिट्टी के सौंधेपन का भी जिसके होने से हरापन होता है.
बरसात में त्यौहार आते. त्यौहार आते तो रंग - बिरंगी भाजियां आती, हरी और बेहद ताज़ी. ढेरों उपवास करती थी माँ, जो दादी और नानी ने उस पर थोप दिए थे. बड़ी बहु होने के नाते करने ही पड़ते. बडो का जीवन समर्पण, संघर्ष और मूक रहकर ही निकलता है. मूक रहने से ही ताकत मिलती है. ईश्वर का उपवास करना मतलब भी ईश्वर के समीप रहना है. मैं खुश रहता क्योकि उपवास में और त्योहारों में रौनक होती है घर से बाहर तक. तीज, सावनी सोमवार, गणपति, हरियाली अमावस्या और ना जाने क्या - क्या. और जब त्यौहार खत्म होने को होते तो श्राद्ध पक्ष आ जाता. पंद्रह दिनों में हर दूसरे या तीसरे दिन खीर बनती दूध की. दूध भी अच्छा मिलता था, अगर पानी की मिलावट होती तो पिताजी राधेश्याम को बहुत डांटते. उसकी शिकायत तक करने की धमकी देते. हम दादी को पूछते कि तू कब मरेगी ताकि अगले वर्ष से जो दिन खाली जाता है उस दिन खीर बने, तेरा श्राद्ध हो. दादी हंसती और चुप रहती.
श्राद्ध पक्ष खत्म होते ही नवरात्रि और फिर जीवन में खुशियाँ लौट आती. नौ दिन घर मेहमान आते, उनके लिए पकवान बनते. वे हमें जाते समय दो रूपये या पांच रूपये दे जाते. वे दो रूपये या पांच रूपये मिटटी की किसी गुल्लक में जीवन का चाँद होते थे. गुल्लक में दर्ज़ कहानियों की बात फिर कभी. जब गुल्लक टूटती थी ना - तो सब कुछ बिखरकर खत्म हो जाता था, आज बैंक है, पर खाते खोलना और बंद करना कितना मशीनीकृत हो गया है. चाँद की अपनी कहानी थी. चाँद बचपन का ही था, कभी जवान नहीं हुआ. किशोरावस्था में मोहल्ले में किसी सुकन्या को देखकर कोई नहीं गाता था. "चाँद को क्या मालूम", जैसा गाना सुनना अपराध तो नहीं पर रेडियो बंद कर दिया जाता.
नवरात्रि पर दशहरे के दिन नए कपडे पहनते. अक्सर पिताजी ही खरीद कर सिलवा देते थे. एक दो बार चाचा ने सिलवाये तो बहुत दिनों तक माँ भुनभुनाती रही थी. दशहरा दशहरा की तरह होता. हम हर बार रावण मारकर आते. घर पर थाली में माँ चावल का रावण बनाती और अपनी इकलौती सोने की अंगूठी उसके पेट में रखती. हम चाकू से काटकर सोना निकालते. गिलकी के भजिए खाते और अगले वर्ष के लिए रावण को याद कर सो जाते. अगले दिन सोना पत्ती तोड़कर सबके घर जाते. मोहल्ले में रिवाज था. बच्चों की टोली को मिठाई, नमकीन मिलता. बिहारी सेठ की बूढ़ी माँ जो पाकिस्तान से आई थी और अब यही रहने लगी थी एक या दो पैसे का सिक्का देती. दशहरा खत्म होता तो उदासी छा जाती. स्कूल चालू हो जाते, पर मन नहीं लगता था. फिर अचानक से शरद पौर्णिमा यानि कोजागिरी का मालूम पड़ता. कोजागिरी में घर पर खालीस दूध बनता है. हम मराठी लोग उसे बासुन्धी कहते है. बासुन्धी में खूब सारी चारोली पड़ती है. चारोली गर्मी में खरीद कर रख ली जाती थी - जब वो हरी-हरी होती थी. पत्तों पर मोहल्ले में बिकने आती. गुदा खाकर बीज सुखा लिए जाते थे. बच्चों को खेलने के साथ सूखे बीजों से चारोली निकालने में मजा आता था. यही चारोली के दाने कोजागिरी के दूध में डालकर पकाए जाते और स्वाद लिया जाता.
मराठी ब्राह्मण परिवारों में बड़े बेटे या बेटी की कोजागिरी के दिन चाँद के सामने पूजा की जाती है. दूध पकाकर खुले में चाँदनी रात में छत पर रख दिया जाता. फिर दूध ठंडा होने पर चाँद की पूजा और बड़े बेटे की पूजा होती. फिर उसी दूध का भोग लगाया जाता. छत पर घर के बच्चों के साथ मोहल्ले के छोटे - बड़े लोगों को कप में या कांच के छोटे ग्लास में दूध परोसा जाता. समाज में हल्दी कुंकू का भव्य कार्यक्रम होता. सुगम संगीत गाये जाते. नाटक होते थे, जिसमे हास्य ज्यादा रहता था. वर्षों तक यह परमपरा रही. पापा की मृत्यु के बाद भी माँ ने यह परम्परा निभाई. बड़े भाई की चाँद के साथ पूजा का सिलसिला जारी रहा. अब बड़े भाई को पूजा के समय दस रूपये से बढ़ते - बढ़ते सौ का नोट तक माँ देती थी. घर परम्पराओं से बंधा था. फिर भाई की शादी हुई. परम्परा जारी रही. मालवा में सँझा और गुलाबाई बिठाने की समृद्ध परम्परा भी थी, सँझा तो दिख जाती है पर गुलाबाई अब नहीं दिखती. पता नहीं हम क्या पकड़कर क्या छोड़ रहे हैं
नये मकान में आये तो कॉलोनी में घर कम थे. कम घरों में प्यार बहुत था. प्यार था तो लोग मिलते थे. त्यौहार मनाते थे. शरद पौर्णिमा का दूध भी हर घर में बनता था. बंगाली, मराठी, मलयाली, तमिल, उर्दू बोलने वाले इस्लाम धर्म के लोग भी दूध बनाते घरों में और रात को पूरी टोली हर घर जाती, कभी जाति नही देखी हमने. दूध के साथ पकौड़े का रिवाज बढ़ा. फिर साझा कार्यक्रम होने लगे चंदा लेकर. बड़े कढाव में दूध पकता और खूब मस्ती होती एक जगह. सब ठीक चल रहा था. सन 1984 में जब इंदिरा गांधी को मारा गया था. उसी वर्ष कोजागिरी फिर आई थी बड़े से चाँद के साथ. पर तिवारी जी के घर में शरद अग्निहोत्री रहते थे. बेंक में थे स्टेट बेंक जिसमे काम नही होता. नई - नई शादी करके रीवा से दुल्हिन लाये थे. हमसे उम्र में दस साल बड़े होंगे. अचानक शरद पौर्णिमा के दिन ही दिमाग में कुछ हुआ और शाम को ही गुजर गए. तब ब्रेन हेमरेज का नाम पहली बार सुना था. उस दिन दूध उबलता रहा. किसी के घर दूध का नैवैध्य नहीं दिखाया गया. भाई की पूजा भी माँ ने चुपचाप की कि अशुभ नहीं हो कुछ आगे. शरद पौर्णिमा के दिन शरद गुजर गया. उस दिन का चाँद अभी तक याद है. आसमान में खूब बड़ा था चाँद. लालिमा लिए हुए था जैसे शरद का खून पीकर बड़ा हुआ हो. उसकी पत्नी फिर रीवा गई तो कभी नहीं लौटी. तिवारी जी का वो कमरा फिर खाली ही रहा. कोई किरायेदार नहीं आया. अब तो तिवारी जी खुद नही रहें. घर भी जमींदोज कर दिया है. कोजागिरी फिर आई है. अब घर में बहुत सारे बड़े और बच्चे है. बड़ा भाई, सिद्धार्थ, शरविल , ओजस यानि अमेय, अर्निका. उधर अमेरिका में मोहित है, अपूर्व है.
दूध अभी भी पकता है. पूजा अभी भी होती है - सबकी यानि बड़ों की, पर चाँद का कही नहीं पता. अब चाँदनी रात में इस शरद के चाँद के आलोक में सुई से धागा निकालने की होड़ नहीं रहती. अब कोई नहीं कहता कि नारायण कुटी पर जाओ तो वहां के दूध से दमे का पक्का इलाज हो जाएगा. दूध भी नकली है. इतनी कड़ी और गाढ़ी मलाई होने के बाद के बाद भी स्वाद नहीं आता. कोई बताएगा कि चाँद ने क्या जादू किया हमारे जमीन के दूध पर.
शरद की याद आई आज तो चाँद दिखा. चाँद जब निकल रहा था तो मैं बहुत दूर था. एक खेत में जहां जंगल था, जमीन थी, पहाड़ थे और हरियाली थी. ये चाँद जो अभी आसमान में बड़ा हुआ है, वह मेरे सामने निकला है. मैं बहुत ही खराब दूध लेकर आया हूँ. मलाई तो बहुत है पर स्वाद नहीं है. हो सकता है कि एक सूनी छत पर अकेला होकर एक कढाही में बहुत थोड़ा सा दूध बनाकर रखा है बगैर शक्कर का. सब दूर है और यह कलमुआ चाँद भी. सुख अब दूर है इतनी दूर जैसे चाँद हो. पर कोजागिरी तो मनेगी. माँ ने जो संस्कार दिए है - तीज त्योहारों के वो रहेंगे - कम से कम मेरे होने तक. मेरे तक ही दुनिया है जब मैं नहीं तो मुझे दुनिया से क्या, होता होगा चाँद अमर
पता नही दीवार में जो खिड़की रहती थी - उससे चाँद दिखता था या नही.
[ Kushal Pratap Singh के लिए यह गद्य, जिससे अभी विकुशु की बात हुई, पुरानी स्मृतियों की बात हुई, वो भी दिल्ली में खीर पका रहा था, मैने कहा चावल मत डालना, बस मेवे डालकर पकाओ और पियो ]

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