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Khari Khari, Man Ko Chiththi, Drisht Kavi and other Posts from 6 to 12 Oct 2025

जो बीत गया वो इतिहास है
जो रच गया वो विश्वास है

यदि आपको लगता है कि इंजीनियर, डॉक्टर, प्राध्यापक, मीडिया, न्यायाधीश, वकील और पढ़े - लिखें लोग बुद्धिजीवी है, नीति निर्माता या समाज में असर पैदा करने वाले इन्फ्लूएंसर हैं तो आप बहुत मुगालते में है, ये लोग विशुद्ध मूर्ख और जाहिल है - इन्हें समाज, दुनिया या वैश्विक मुद्दे तो दूर अपने क्षेत्र की बहुतेरी समस्याओं का भी भान नहीं है, सदियों से अपने कोरे और थोथे ज्ञान से सिर्फ रूपया कमाने में ये लोग लगें है, इन्हें सरल सा भाषा ज्ञान नहीं - अपनी माईबोली, अंग्रेजी, हिंदी या अपनी मातृभाषा समझना तो दूर - सही उच्चारण नहीं कर सकते और किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में ये इतने उथले और थोथे होते है और यह जानना हो तो चार पंक्तियों का लिखा हुआ कोई उद्बोधन या वक्तव्य पढ़वाकर देख लीजिए
समझ के स्तर पर ना इनकी कोई राजनैतिक विचारधारा है और ना ही कोई ठोस विकल्पों वाली समझ, सिर्फ मै, मै और मै तक सीमित ये लोग बेहद खोखले और आत्म मुग्धता में डूबे हुए है, मजेदार यह है कि अधिकांश इनमें से नशे में धुत्त है और चौबीसों घंटे अपने स्वयं के दर्प में गले - गले तक फंसे हुए ये लोग कूपमण्डूक है और नीचता में व्यस्त रहते है, दुर्भाग्य से इनके पास गलत तरीकों से कमाया हुआ अकूत रूपया है - जिसके कारण ये हर बात को मजाक समझकर और रूपया चढ़ाकर अपना काम निकलवाने में माहिर और पारंगत है , आप जरा सा इन्हें आईना दिखा दें तो ये गाली - गलौज या चरित्र हनन पर उतर आते है
पिछले चालीस वर्षों में इन अलग - अलग लोगों के साथ काम करके कम से कम मेरे जैसे अल्पज्ञानी की तो यही समझ पुख्ता हुई है कि यदि आप किसी छोटी सी समस्या या नीति निर्देश के लिए इनकी ओर देख रहे है भूल जाए इन घाघ लोगों को - बेहतर है आप चौराहे पर बैठकर किसी मजदूर, खेत में काम करते किसान, या किसी फैक्ट्री में काम करते श्रमिक से दो घड़ी बात कर लें क्योंकि उसके पास विजन, मिशन और समाधानों के ढेरों विकल्प होंगे - जो आप अपनाकर अपना जीवन ठीक कर सकते हैं, यही वे लोग है जो न्याय, कानून से लेकर शिक्षा और राजनीति की सबसे श्रेष्ठ समझ रखते है, ये तथाकथित फर्जी और एक्सीडेंटल रूप से पेशे में आए लोग शून्य है और मानसिक रोगी है
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१ - महाकाल की पूजा इसलिए होती है कि वह सबकी सुनता है और निर्णय करता है, न्याय करता है न्यायाधीश भी महाकाल का ही स्वरूप है - वे सुनकर निर्णय करते है और न्याय करते है
- हम सब रूल ऑफ लॉ के पक्षधर है और हमें इस पर गंभीरता से विचार करना होगी कि न्याय के रूप में इसे कैसे परिणित करें
३ - वकीलों के सामने तकनीकी की चुनौती सबसे बड़ी है और इसके लिए हमें बच्चा बनकर सीखना होगा, चैट जीपीटी और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का अति उपयोग हो रहा है, सुप्रीम कोर्ट में एक जजमेंट भी लिखा जा चुका है - इसका इस्तेमाल करते हुए, इससे डरने की ज़रूरत नहीं बल्कि दिमाग का इस्तेमाल करते हुए इसका उपयोग करिए, न्याय का सिस्टम प्रक्रिया नहीं अनुभव बनकर सामने आए
४ - वकीलों को तैयारी करके आना होगा ताकि निर्णय सही आयेंगे, वकीलों को बहुत पढ़ना होगा,समझना होगा और अपने आप को अपडेट रखना होगा
श्री जितेन्द्र कुमार माहेश्वरी
न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट, नईदिल्ली
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तिरी ज़मीं से उठेंगे तो आसमाँ होंगे
इन जैसे लोग ज़माने में फिर कहाँ होंगे
- इब्राहीम अश्क
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हिंदी के तमाम प्रयासों के बाद भी हिंदी फिर नोबल से दूर रह गई, अफसोस हिंदी पर नहीं - जिन लोगों को हिंदी के नाम पर लाखों रूपये चढ़ाएं जाते है, क्विंटलों कचरा प्रकाशक छापते है, हिंदी के नाम पर बैंक से लेकर तमाम संस्थानों में पांच अंकों में तनख्वाह पाने वाले नौकरशाह है अरबों रूपयों का बजट है और इस सबके बाद भी यदि एक बार भी कोई तुर्रे ख़ां इस जगह नहीं पहुंच पाता तो ये सब इसके लिए दोषी है और अपराधी है
शर्मनाक है कि एक बड़े भूखंड और दूसरे नंबर सबसे बड़े जनसंख्या वाले देश की संपर्क भाषा को फिर अपमानित होना पड़ा, तमाम वे नाम जो हवा में उछल रहे थे - वे औंधे पड़े हुए आज जमीन पर और अब सही समय है कि ये सब लेखन से मुक्त होकर अपने बचे - खुचे दिन निकालें एकांत में, कचरा लिखना कम से कम बंद करें और हम सबको अपने दिमाग़ी घटिया कूड़े कचरे से बख्श दें
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23 बच्चे रोजी रोटी दे गए सबको
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तेईस बच्चे मर गए दवा पीने से
कही कोई संवेदनशीलता नहीं
कोई धरना प्रदर्शन नहीं
कोई विरोध नहीं
सरकार पूरी बेशर्मी से लगी है उत्सव मनाने में
मीडिया दीवाली मेले कर रहा है
राजनेता व्यस्त है छबि बनाने में
बच्चों के लिए काम करने वाले एनजीओ भी अपने प्रकल्पों में व्यस्त है
दान और अनुदान देने वाली संस्थाओं को अगले पांच सालों के लिए कच्चा माल मिल गया
खूब पकेगी धन की फसल इन मौतों पर
नए प्रोजेक्ट्स बन रहे है - नए आंकड़े मिल गए है
बच्चों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले फेलो मजे में है आंकड़े और फोटो जुटा रहे है कि नई फेलोशिप ली जा सकें
पत्रिकाएं पन्ने तय कर रही हार्लिक्स के विज्ञापनों के साथ
ब्यूरोक्रेट्स तय कर रहें कि जिम्मेदारी किसकी है
डाक्टर कभी भी जवाबदेही नहीं लेते वे निर्दोष कौम है धरा पर
कंपनियां नए कमीशन तय करेंगी अब सरकार से
बच्चे किसी गणतंत्र के नागरिक नहीं है
जिस दिन वो वोट देने के उत्तराधिकारी हो जाएंगे तो सब शुरू होगा
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"अग्यारह वर्ष पूर्व मेरे कविता संकलन पर झा जी टिप्पणी लिखें थे और वो "अज्ञात कलम" में छपी थी, उन्नीस वर्ष पूर्व मेरे उपन्यास पर सतविंदर जी ने टिप्पणी लिखी और वह "साहित्य के उल्लू" में छपी थी......" लाईवा बोल रहा था
"अबै कितना जिंदा बचें तेरे आलोचक और बाद में उनको किसी ने छापा क्या कही", मैने पूछा
"मैं अपना नया संग्रह लेकर आया हूँ कि आप इस पर लिखें...." लाईवा उत्साहित था
"अबै निकल सुबह - सुबह आ गया ससुर अपना पनौती जैसा मुंह लेकर, पता नहीं दिन कैसा जायेगा, साला पुराने आलोचक जिसने भी लिखा तुझपर उनका फिर कही नहीं छपा, बेचारे बेमौत मर अलग गए, अब मेरे पास आया है निकल साले या कुत्ता छोडूं तुझपे" मोती की चैन छोड़ने चला था मै
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चाँद किस खिडकी में रहता था - दीवार की या आसमान की
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बचपन सावन और हरेपन से भरा था. बरसात शुरू होते ही सब हरा हो जाता था – पहले मन, फिर तन और अंत में सारी प्रकृति. बचपन में हरा, नीला या लाल समझ नही आता था. आज जब उम्र के छठे दशक में हूँ तो समझ आ रहा है कि हरापन क्या होता है. माँ थी तो बरसात थी. पिता की और माँ की नौकरी में सब ओर हरा -ही - हरा था. नब्बे - ढाई सौ के वेतनमान में दोनों की तनख्वाह से घर चलता और बहुत मजे से चलता था. आज हम लोग पांच अंकों में कमा रहें है तो अकाल है. अकाल - अक्ल का भी और खुशियों का भी. अकाल - सुखों का और दृष्टि का भी. अकाल - जीवन में हरियाली का भी और हरेपन का भी. कारण एक नहीं, अनेक है. और सबसे बड़ा कारण हरेपन की अपेक्षा का भी है. उस मिट्टी के सौंधेपन का भी जिसके होने से हरापन होता है.
बरसात में त्यौहार आते. त्यौहार आते तो रंग - बिरंगी भाजियां आती, हरी और बेहद ताज़ी. ढेरों उपवास करती थी माँ, जो दादी और नानी ने उस पर थोप दिए थे. बड़ी बहु होने के नाते करने ही पड़ते. बडो का जीवन समर्पण, संघर्ष और मूक रहकर ही निकलता है. मूक रहने से ही ताकत मिलती है. ईश्वर का उपवास करना मतलब भी ईश्वर के समीप रहना है. मैं खुश रहता क्योकि उपवास में और त्योहारों में रौनक होती है घर से बाहर तक. तीज, सावनी सोमवार, गणपति, हरियाली अमावस्या और ना जाने क्या - क्या. और जब त्यौहार खत्म होने को होते तो श्राद्ध पक्ष आ जाता. पंद्रह दिनों में हर दूसरे या तीसरे दिन खीर बनती दूध की. दूध भी अच्छा मिलता था, अगर पानी की मिलावट होती तो पिताजी राधेश्याम को बहुत डांटते. उसकी शिकायत तक करने की धमकी देते. हम दादी को पूछते कि तू कब मरेगी ताकि अगले वर्ष से जो दिन खाली जाता है उस दिन खीर बने, तेरा श्राद्ध हो. दादी हंसती और चुप रहती.
श्राद्ध पक्ष खत्म होते ही नवरात्रि और फिर जीवन में खुशियाँ लौट आती. नौ दिन घर मेहमान आते, उनके लिए पकवान बनते. वे हमें जाते समय दो रूपये या पांच रूपये दे जाते. वे दो रूपये या पांच रूपये मिटटी की किसी गुल्लक में जीवन का चाँद होते थे. गुल्लक में दर्ज़ कहानियों की बात फिर कभी. जब गुल्लक टूटती थी ना - तो सब कुछ बिखरकर खत्म हो जाता था, आज बैंक है, पर खाते खोलना और बंद करना कितना मशीनीकृत हो गया है. चाँद की अपनी कहानी थी. चाँद बचपन का ही था, कभी जवान नहीं हुआ. किशोरावस्था में मोहल्ले में किसी सुकन्या को देखकर कोई नहीं गाता था. "चाँद को क्या मालूम", जैसा गाना सुनना अपराध तो नहीं पर रेडियो बंद कर दिया जाता.
नवरात्रि पर दशहरे के दिन नए कपडे पहनते. अक्सर पिताजी ही खरीद कर सिलवा देते थे. एक दो बार चाचा ने सिलवाये तो बहुत दिनों तक माँ भुनभुनाती रही थी. दशहरा दशहरा की तरह होता. हम हर बार रावण मारकर आते. घर पर थाली में माँ चावल का रावण बनाती और अपनी इकलौती सोने की अंगूठी उसके पेट में रखती. हम चाकू से काटकर सोना निकालते. गिलकी के भजिए खाते और अगले वर्ष के लिए रावण को याद कर सो जाते. अगले दिन सोना पत्ती तोड़कर सबके घर जाते. मोहल्ले में रिवाज था. बच्चों की टोली को मिठाई, नमकीन मिलता. बिहारी सेठ की बूढ़ी माँ जो पाकिस्तान से आई थी और अब यही रहने लगी थी एक या दो पैसे का सिक्का देती. दशहरा खत्म होता तो उदासी छा जाती. स्कूल चालू हो जाते, पर मन नहीं लगता था. फिर अचानक से शरद पौर्णिमा यानि कोजागिरी का मालूम पड़ता. कोजागिरी में घर पर खालीस दूध बनता है. हम मराठी लोग उसे बासुन्धी कहते है. बासुन्धी में खूब सारी चारोली पड़ती है. चारोली गर्मी में खरीद कर रख ली जाती थी - जब वो हरी-हरी होती थी. पत्तों पर मोहल्ले में बिकने आती. गुदा खाकर बीज सुखा लिए जाते थे. बच्चों को खेलने के साथ सूखे बीजों से चारोली निकालने में मजा आता था. यही चारोली के दाने कोजागिरी के दूध में डालकर पकाए जाते और स्वाद लिया जाता.
मराठी ब्राह्मण परिवारों में बड़े बेटे या बेटी की कोजागिरी के दिन चाँद के सामने पूजा की जाती है. दूध पकाकर खुले में चाँदनी रात में छत पर रख दिया जाता. फिर दूध ठंडा होने पर चाँद की पूजा और बड़े बेटे की पूजा होती. फिर उसी दूध का भोग लगाया जाता. छत पर घर के बच्चों के साथ मोहल्ले के छोटे - बड़े लोगों को कप में या कांच के छोटे ग्लास में दूध परोसा जाता. समाज में हल्दी कुंकू का भव्य कार्यक्रम होता. सुगम संगीत गाये जाते. नाटक होते थे, जिसमे हास्य ज्यादा रहता था. वर्षों तक यह परमपरा रही. पापा की मृत्यु के बाद भी माँ ने यह परम्परा निभाई. बड़े भाई की चाँद के साथ पूजा का सिलसिला जारी रहा. अब बड़े भाई को पूजा के समय दस रूपये से बढ़ते - बढ़ते सौ का नोट तक माँ देती थी. घर परम्पराओं से बंधा था. फिर भाई की शादी हुई. परम्परा जारी रही. मालवा में सँझा और गुलाबाई बिठाने की समृद्ध परम्परा भी थी, सँझा तो दिख जाती है पर गुलाबाई अब नहीं दिखती. पता नहीं हम क्या पकड़कर क्या छोड़ रहे हैं
नये मकान में आये तो कॉलोनी में घर कम थे. कम घरों में प्यार बहुत था. प्यार था तो लोग मिलते थे. त्यौहार मनाते थे. शरद पौर्णिमा का दूध भी हर घर में बनता था. बंगाली, मराठी, मलयाली, तमिल, उर्दू बोलने वाले इस्लाम धर्म के लोग भी दूध बनाते घरों में और रात को पूरी टोली हर घर जाती, कभी जाति नही देखी हमने. दूध के साथ पकौड़े का रिवाज बढ़ा. फिर साझा कार्यक्रम होने लगे चंदा लेकर. बड़े कढाव में दूध पकता और खूब मस्ती होती एक जगह. सब ठीक चल रहा था. सन 1984 में जब इंदिरा गांधी को मारा गया था. उसी वर्ष कोजागिरी फिर आई थी बड़े से चाँद के साथ. पर तिवारी जी के घर में शरद अग्निहोत्री रहते थे. बेंक में थे स्टेट बेंक जिसमे काम नही होता. नई - नई शादी करके रीवा से दुल्हिन लाये थे. हमसे उम्र में दस साल बड़े होंगे. अचानक शरद पौर्णिमा के दिन ही दिमाग में कुछ हुआ और शाम को ही गुजर गए. तब ब्रेन हेमरेज का नाम पहली बार सुना था. उस दिन दूध उबलता रहा. किसी के घर दूध का नैवैध्य नहीं दिखाया गया. भाई की पूजा भी माँ ने चुपचाप की कि अशुभ नहीं हो कुछ आगे. शरद पौर्णिमा के दिन शरद गुजर गया. उस दिन का चाँद अभी तक याद है. आसमान में खूब बड़ा था चाँद. लालिमा लिए हुए था जैसे शरद का खून पीकर बड़ा हुआ हो. उसकी पत्नी फिर रीवा गई तो कभी नहीं लौटी. तिवारी जी का वो कमरा फिर खाली ही रहा. कोई किरायेदार नहीं आया. अब तो तिवारी जी खुद नही रहें. घर भी जमींदोज कर दिया है. कोजागिरी फिर आई है. अब घर में बहुत सारे बड़े और बच्चे है. बड़ा भाई, सिद्धार्थ, शरविल , ओजस यानि अमेय, अर्निका. उधर अमेरिका में मोहित है, अपूर्व है.
दूध अभी भी पकता है. पूजा अभी भी होती है - सबकी यानि बड़ों की, पर चाँद का कही नहीं पता. अब चाँदनी रात में इस शरद के चाँद के आलोक में सुई से धागा निकालने की होड़ नहीं रहती. अब कोई नहीं कहता कि नारायण कुटी पर जाओ तो वहां के दूध से दमे का पक्का इलाज हो जाएगा. दूध भी नकली है. इतनी कड़ी और गाढ़ी मलाई होने के बाद के बाद भी स्वाद नहीं आता. कोई बताएगा कि चाँद ने क्या जादू किया हमारे जमीन के दूध पर.
शरद की याद आई आज तो चाँद दिखा. चाँद जब निकल रहा था तो मैं बहुत दूर था. एक खेत में जहां जंगल था, जमीन थी, पहाड़ थे और हरियाली थी. ये चाँद जो अभी आसमान में बड़ा हुआ है, वह मेरे सामने निकला है. मैं बहुत ही खराब दूध लेकर आया हूँ. मलाई तो बहुत है पर स्वाद नहीं है. हो सकता है कि एक सूनी छत पर अकेला होकर एक कढाही में बहुत थोड़ा सा दूध बनाकर रखा है बगैर शक्कर का. सब दूर है और यह कलमुआ चाँद भी. सुख अब दूर है इतनी दूर जैसे चाँद हो. पर कोजागिरी तो मनेगी. माँ ने जो संस्कार दिए है - तीज त्योहारों के वो रहेंगे - कम से कम मेरे होने तक. मेरे तक ही दुनिया है जब मैं नहीं तो मुझे दुनिया से क्या, होता होगा चाँद अमर
पता नही दीवार में जो खिड़की रहती थी - उससे चाँद दिखता था या नही.
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धर्म और सनातन के नाम पर गुंडागर्दी सिर्फ हम आप और मुहल्ले के गरीब लोग ही नहीं सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधिपति को भी झेलना पड़ रही है, देखिए इस इकहत्तर वर्षीय वकील को जिसने कम से कम पचास साल तो न्यायालय परिसर में लगा दिए होंगे और तमाम कानून पढ़कर भी दिमाग़ वही रहा - जड़ का जड़ , मतलब हद है कि अब बात करना तो दूर सोचना भी मुश्किल है, मेरे जैसे व्यक्ति को यह सब बात करने पर बदनामी के ठीकरे से लेकर पंथ निरपेक्ष तक कहा जाता है तंज में, इस वकील के पास जो नोट मिला - उसे पढ़िए और समझने का प्रयास करिए कि संविधान के पहले पृष्ठ का क्या अर्थ है
संविधान में वर्णित अनुच्छेद 14 के बाद भी एक वंचित वर्ग के न्यायाधिपति को इस तरह से अपमानित करना कितना बड़ा दुस्साहस भरा कदम है - वह भी उस व्यक्ति के द्वारा जो कानूनन न्याय दिलवाने का सशक्त माध्यम है - "He (Lawyer) is the officer of the court" यह कहा जाता है और दिन में दस बार सुनता हूँ, मतलब इस वकील और सड़क छाप गुंडे में कोई फर्क नहीं है, संघ और जनसंघ ने सौ वर्षों में हर जगह अपने ऐसे गुर्गे फिट किए है कि हर जगह स्पष्ट और साफ रूप से दिखने वाले घेटो नजर आ जायेंगे और न्याय के मंदिरों में, यह सिर्फ हिन्दू - मुस्लिम नहीं दलित, वंचित, ब्राह्मण, बनिया, ठाकुर या कायस्थों में या इन जातियों की उपजातियों में भी आप यह विभाजन स्पष्ट देख सकते है, सबके अपने ग्राहक है और अपने समाज और अपने न्यायाधीश भी
अफसोस कि हमने सब मिट्टी ने मिला दिया है और भाजपा जैसी सरकार के लिए इतिहास में कभी माफी शब्द नहीं होगा, आजादी के बाद धर्म और पाखंड धीरे - धीरे थे कम होना था, खत्म होना था, पर यह सन 2014, बल्कि 1992 के बाद इतनी तेजी से बढ़ा कि देश अघोषित रूप से हिंदू राष्ट्र हो गया और मूल्यों का भयानक पतन हो गया जिसकी नैतिक जिम्मेवारी कोई नहीं लेता
शर्मनाक और धिक्कार

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