हम कब तक डरते रहेंगे और कुछ ना करेंगे - यह मत करो, वह मत करो - इससे यह होगा उससे वह - पर इस सबसे निकलकर खतरे मोल लेना ही होंगे और यह भी सच है कि आख़िर में जीतना मौत को ही है , सौवीं बाजी मौत की ही जीत है पर हम निन्यानवें बार तो लड़कर जीत ही सकते हैं ना
#IWanttoTalk शुजीत सरकार की फ़िल्म है जिसमें अभिषेक बच्चन ने अपने उम्दा और कालजयी अभिनय से गहरा प्रभाव छोड़ा है, अहिल्या बामरू, जॉनी लीवर, जयंत कृपलानी और क्रिस्टीन गोडार्ड जैसे गिने चुने कलाकारों के साथ बनी यह अदभुत फ़िल्म एक कैंसर सरवाइवर पर बनी है जिसे डॉक्टर्स ने मात्र 100 दिन की उम्र बख्शी थी पर वह 20 सर्जरी के बाद भी दस हजार दिनों से ज़्यादा जिया
अमेज़ॉन प्राइम पर है देख लीजिये - मुझे तो एक ही बात समझ आई कि जिंदगी के दौड़ की 99 बाजी हम जीतेंगे - बाकी मौत को आख़िर में जीतना ही है, खाओ - पियो, घूमो - फिरो मज़े करो - ज़िंदगी ना मिलेगी दोबारा, एक ही जीवन है यारां - इसे अपनी शर्तों और पसन्द से जीयो
भाड़ में जाये सलाह - मशविरे, नियम - कायदे और सिद्धांत - उसूल और रिश्ते - नाते
Just live and enjoy
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IIT की पढ़ाई को इतना महत्व देना ठीक नही
लगभग 40 वर्षों में घूमते - देखते - समझते हुए मैंने वहां एक से एक गधे,गंजड़ी, चरसी और भंगड़ी देखें है - रूड़की, मुम्बई, खड़गपुर, चेन्नई,कानपुर, इंदौर हो या कोई और, एक स्कूल में प्राचार्य था - उस स्कूल के मालिक के बेटे को रूड़की में नशे में धुत्त देखा है और अंत में दोनो तथाकथित आईआईटी बेटों के कारण उस दम्पत्ति को अपना सर्वस्व देवास, भोपाल, चंडीगढ़ से बेचकर विदेश भागते देखा है, सैंकड़ो को यहाँ- वहाँ दर - बदर होते देखा है, निजी जीवन में अव्यवस्थित देखा है और डिप्रेशन में बर्बाद होते देखा है, एकलव्य संस्था में काम करता था वहाँ विज्ञान प्रशिक्षण के लिये IIT कानपुर, दिल्ली, मुम्बई से बहुतेरे नगीने आते थे - जो घोर पाखंडी और अंधविश्वासी थे, और उनकी बकवास सुनकर सिर पीट लेते थे हम, उनसे बेहतर समझ रीजनल कालेज ऑफ एजुकेशन, भोपाल के उस व्यक्ति की हुआ करती थी - जो मेस में दिहाड़ी पर काम करता था और ये IIT नाम को भुनाते ही थे - बाकी तो गोबर गणेश थे, इसलिये महाकुम्भ में लल्लन टॉप ने जिस अभय नामक IITian बेवकूफ को आगे कर रूपया कमाया - वह शोचनीय है और सौरभ द्विवेदी जैसे लफ्फाज की समझ पर भी शक है
कोचिंग का रट्टा मारकर वहाँ घुसने वाले, आरक्षण से घुसने वाले और फिर दस - दस साल तक पड़े रहने वाले देखें है और मेरा मूल रूप से मानना है कि व्यक्ति में स्कोप होता है - किसी पढ़ाई, विषय, संस्था या पृष्ठभूमि में नही, IIT से बेहतर और दक्षता कौशल से परिपूर्ण तो ITI वाले होते है जिन्हें हाथ काला करने में कोई शर्म नही, बल्कि किसी उद्योग की बुनियाद ही ये है
इसलिये यदि आप वहां के किसी अभय जैसे फ़र्जी साधु या नगीने को महत्व दे रहें है या किसी को चढ़ा रहे है - महज इसलिये कि वह IIT/IIM से है तो आपको एक बार जाकर वहां देखना चाहिये कि नगीने और भी बड़े वाले है और जीवन में वो क्या झंडे गाड़ रहें है, क्या हडफ़ रहें है समाज से, किसको बरगला कर या इस्तेमाल करके पूंजीपति बन गए है, क्या विचारधारा है, किस तरह से टेक्नोलॉजी को इस्तेमाल करके सत्यानाश कर रहे है, किन फर्जी लोगों की मार्केटिंग कर या नकली छबि बनाकर अकूत धन दौलत बना रहें है या विदेश भाग गए है और वहां एय्याशी कर जीवन बीता रहें है - वह विचारणीय है और ये सब पेट, सम्पत्ति और यश - कीर्ति के लिये बुरी तरह से आत्म मुग्ध होकर अपने - आपको तक बेच रहे है इन दिनों
मैं तो यदि कोई कहता है कि अलाने - फलाने संस्था से हूँ तो उसकी मेधा और कुतर्की प्रतिभा को मन ही मन श्रद्धांजलि देकर नमस्ते कर लेता हूँ कि जा भाई, जा बहन निकल लें मुझे माफ़ कर
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एक दिन अभाव थे और इतने थे कि उनके होने से ही ज़िन्दगी थी, उनके होने से ही गर्व होता था, उनको खुलकर बताते थे और अपनी खुशियाँ जाहिर करते थे, ये अभाव इतने ताकतवर थे कि एक बहुत बड़े - मतलब वृहद समाज से एक झटके में अलग कर पहचान बना देते थे, चीन्हना बहुत आसान था - किसी को खोजना नही पड़ता था कि कौन, क्या है, कहाँ है और किस हाल में है, वह दुनिया बहुत सुकून वाली थी - जब कुछ नही था तो कोई गलाकाट स्पर्धा नही, कोई होड़ नही - दौड़ नही, कही आने - जाने की जल्दी नही, किसी से जलन नही, बैर और ईर्ष्या का सवाल नही - बस जो मिलता था - उसी में संतोष था, उसी में सुख था - सुख जो किसी कच्ची दीवार में बना दिये गए तिकोने से आले की गोद रहता - दिन में धूप, शाम को गर्माहट और रात में किसी अलाव सा दीया बनकर जीवन के आँगन में जलता रहता, यह नही पता था कि इस छोटे से सुख के लिये भी माँ - बाप का खून उसकी लौ को जिलाये रखने के लिये चौबीसों घण्टे जल रहा है
जब संसार को देखना भोगना और महसूस करना शुरू किया तो सब कुछ इकठ्ठा करने की प्रवृत्ति जागने लगी - एक सुई से लेकर धागा,चम्मच, कपड़े, और वो सब जिसे जर, सम्पत्ति या माया कहते है इकठ्ठी करने में लग गए - धरती के विशाल कैनवास पर अजस्र योजन सेना को खड़े करने लायक मैदान पर सफ़ेद चुने की एक पँक्ति पर खड़े होकर देखा कि यह दौड़ बहुत छोटी है, बस क्षणभर में सारी बाधाएं पार कर सोने का तमगा हासिल कर लेंगे तो बगैर किसी सीटी के या इशारे के दौड़ना शुरू कर दिया - हर जगह, हर बाधा को तोड़ने का जोश और हर जोश के बाद उपलब्धियों की शोहरत की ऐसी चरस चख ली कि नशा उतरता ही नही, दौड़ता रहा, भागता रहा और अभी भी मन नही भरा है जबकि अपनी बाज़ी के सारे खाने उठ गए है - कोई तयशुदा मैयार नही, माज़ी का अवसाद सर चढ़कर बोलता है कि बस करो - एकदम चुप, पर कहाँ ....
सब कुछ खोता गया - घर, परिवार, जीवन, सुख, शांति, भीतर का चैन, उजियारा, मन को तृप्त करने वाला दृश्य, क्षुधा मिटाने वाला हर वो अमृत पेय या पदार्थ जिसको छककर जीवन को बचाये रखना था, वितृष्णा हो गई - पर नही, इस सबमें वह सब जमा हो गया - जिससे शरीर ही नही, आत्मा के घावों में छाले पड़ गए और अब वे टींस दे रहें है तो पलटकर देखने की इच्छा नही होती - अपनी सजी हुई उपलब्धियों की दुकान, जर - ज़मीन को देखकर अपनी ही परछाई खोज रहा हूँ - जो इस सबके बीच खो गई है और अब जब परछाई को ओढ़कर जीने का स्वांग भरना है, तो लगता है सब कुछ लूटा दूँ, छोड़ दूँ यह सब और सिर्फ़ अपनी एकमेव सम्पत्ति यानी परछाई को संग लेकर चल दूँ कही - उसी अभाव की बेफ़िक्र दुनिया में ताकि जब फांकाकशी में पालथी मारकर किसी धूप के टुकड़े पर बैठूँ तो प्रकृति से निशुल्क मिलें बेशकीमती हवा, पानी और प्रकाश को भोग सकूँ
मन ऊब गया है, बैरागी हो गया हूँ और शरीर - काया का गुमान छोड़ रहा है अपने अनंत में मिल जाना चाहता है, रक्तरंजित आत्मा अपने ही बोझ से दबी जा रही हैं, किसी निर्धारित दिन पर एक ऐसे समय जब धरती थम रही हो, आसमान हाँफ रहा हो और इस पृथ्वी पर कोई चैतन्य अवस्था में ना हो ..... छोड़कर चल दूँगा
सबके बावजूद भी ज़िन्दगी खूबसूरत है कि इतने मौके दिए और यह समझ भी कि भले - बुरे, अपने - परायों को पहचान पा रहा हूँ और यह सब सोचने - समझने - लिखने की शक्ति दी है बस यह बनी रहें और पूरे होशोहवास में दम निकलें चलते -फ़िरते, किसी का मोहताज ना बनूँ
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डेढ़ दो माह में इलाहाबाद नरक बन जायेगा, 40 करोड़ लोगों [ हवाई आँकड़ा ] के मल मूत्र और इनके द्वारा किये गए कचरे का निस्तार कैसे कब और कौन करेगा - मैं अगले दस साल उस प्रदूषित शहर नही जा रहा
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल, पर्यावरण मंत्रालय और हर छिछोरी बात पर ज्ञान बाँटने वाला सुप्रीम कोर्ट गंगा सफ़ाई और इस प्रदूषण पर क्या विचार रखता है और इनकी प्रतिक्रिया क्या है - या किसी हर्षा रिछारिया या फर्जी मक्कार आईआईटियन अभय सिंह के टेंट में गांजा भाँग पीकर पड़े है अधिकारीगण
[ ज्ञानीजन अपना ज्ञान अपने पास रखें, या मैं जिस बर्तन में हाथ धोऊँ - उस पानी से कुल्ला करके बताये पहले फिर बकवास करने आये ]
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|| वा घर सबसे न्यारा ||
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बस एक हार की और देर है, वैसे तय यह भी है कि टँगेगा अब जेई बाला
मज़ाक अलग ,पर किसी बहुत प्यारे एवं होनहार कलाकार और लाड़ले अनुज ने अपने टेबल पर यह रखा है बनाकर और मैं जाकर ला नही पा रहा
लानत है मुझ पर
बहुत शुक्रिया
जल्दी ही लेकर आऊँगा तो नाम उजागर करूँगा
पर रहा नही जाता
पियार करने वाले और सम्मान देने वाले हमारे लाड़ले कला संकाय में पीएचडी कर रहे सिद्धार्थ बाबू की करामात है ये - लड़का और लड़की यानी बहुरानी Pragya जादू है जादू- स्नेहिल और केयरिंग
Sohan Dixit की भीत से बहुत दुखद सूचना अभी मिली है कि कृष्ण कुमार अष्ठाना जी का देहावसान हो गया है
कृष्ण कुमार जी मेरा परिचय सन 1987 का है जब मैं देवास में एक निजी विद्यालय में पढ़ाता था और वे देवपुत्र के सम्पादक भी थे और धार के एक शिक्षक प्रशिक्षण में मिलें थे, सब लोग उन्हें अष्ठाना जी कहते और मैं अकेला कृष्ण कुमार जी कहता, एक बार किसी ने कहा कि आप नाम मत लो तो वे बोले कि बोलने दो, मुझे अपनी माँ के बाद कृष्ण कुमार कहने वाला कोई तो है, वे सबको कहते - "संदीप जैसे दस लोग मुझे मिल जाएं तो मैं मप्र में शिक्षा में कुछ बेहतर करके दिखा दूँगा, स्याग जी [ डॉ रामनारायण स्याग, एकलव्य देवास के तत्कालीन प्रभारी ] आपने मेरा आदमी छीनकर एकलव्य में ले लिया" ; अभी दो साल पहले मराठी जत्रा में इंदौर में मिलें तो वही पितृभाव और स्नेह था और पीठ पर धप्पा मारते हुए बोले -"लौट आओ, हमें अब ज़्यादा जरूरत है आप जैसे लोगों की" और मैंने कहा - "मैं हर अच्छे काम में आपके संग साथ हूँ - आदेश करिये", देवपुत्र के सम्पादन के लिये हमेशा उनका आग्रह रहता था और मैं कहता कि मेरे आने के बाद किसी का हस्तक्षेप नही होगा क्योकि इधर एकलव्य में "चकमक" को एक बालमुखी पत्रिका बनाने पर काम कर रहें थे
विचारधारा अलग होने के बाद भी वे सम्मान देते थे और कई दफ़े संवाद नगर स्थित स्व विष्णु चिंचाळकर गुरूजी, स्व प्रभु जोशी के घर जाने पर या किसी कार्यक्रम में मिल जाने पर कुशल क्षेम पूछते और घर आने का आग्रह करते - टिमरनी के स्व भाऊ साहब भुसकुटे से लेकर शशिकांत फड़के, अष्ठाना जी तक की पीढ़ी के वे लोग थे जिनसे कभी भी आप खुलकर बात कर सकते थे, अपना भिन्न मत रख सकते थे और ये लोग उतने ही धैर्य, संयम और निष्ठा से समझाने का जतन करते थे, कभी कोई बात थोपने या जबरन मनवाने का दुराग्रह नही करते थे और शायद यही वजह थी कि उस समय की हिन्दू विचारधारा इतनी हिंसक नही थी जितनी आज हो गई है
बहुत संयमी, विनम्र किन्तु दृढ़ स्वभाव के कृष्ण कुमार जी को सादर नमन और श्रद्धांजलि
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जैसे शब्दों को मिलाओ तो कविता बन ही जाती है, सवाल यह है कि ये ज़िक्सा पज़ल कौन जोड़ रहा है - जोशी, तिवारी, शर्मा, वर्मा, गीता, सीता, अनिता, सुनीता, अंजू, मंजू , लाला,बाला, काला, पीला, या नीला
ख़ैर, इसे ही बाल साहित्य कहते है बस मस्त सेटिंग हो तो एक ही पत्रिका के एक अंक में 4 जगह आप छप कर रुपया कमा सकते हो - बल्कि यही सब करके महान बन गए और फटेहाली का प्रदर्शन करके राजधानियों में रहते है और हवाई सफ़र से यात्राएँ निपटाते है धड़ाधड़
जियो लल्ला
सकारात्मक सोच की साहित्य सेटिंग ज़िंदाबाद
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छोटी सी मिली ज़िन्दगी में असल में हम प्रायश्चित नही करते, मुआफ़ तो कतई नही करते किसी को कभी भी क्षण भर के लिये, बस अपने दुख समय के साथ फ़ैलते जाते है और हम पुरानी बातों या ज़ख्मों को याद करने के लिये समय नही दे पाते - क्योंकि नया ज़ख़्म इतना विरल और ताज़ा होता है कि उसे ही पोसने में अपना ध्यान लग जाता है - इसलिये मुआफ़ी या प्रायश्चित जैसे मन बहलाने वाले शब्दों का सहारा लेकर हम अँधेरी बन्द गलियों से निकल आते है और उजालों में पसरे सार्वजनिक हो रहें दुख को भोगने के लिये अभिशप्त हो जाते है
ज़िन्दगी भूलने में नही हर बात को याद रखने और बदला लेने का ही नाम है - भले हम किसी काल्पनिकता में वो सब कर लें - जो अंदर तक गुम्फित होकर बारम्बार ज़ज़्ब करते रहते है और अपनी सीमाओं के कारण प्रदर्शित नही कर पाते हैं
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बहुत पुराने परिचित के घर गया था कल, घर अस्त - व्यस्त था, जिन्हें मैं जानता था उनमें से उस घर की स्त्री अस्पताल में थी किसी चोट की वजह से और पुरुष घर के कमरे में लेटा हुआ था, बाकी लोगों के लिये मैं नितांत अजनबी था, उन्हें समझ नही आ रहा था कि वे क्या करें, क्या कहें, क्या पूछे - हड़बड़ी में सोते बुजुर्ग को जगा दिया और मैं उनके पास जाकर जबरन बैठ गया - कुछ धुँधली यादों को समेटकर बमुश्किल उन्होंने पहचाना और फिर बुदबुदाने लगें, लगभग 85 पार होंगे - पत्नी भी 80 के पार होंगी - मैंने बस हालचाल पूछा और बाकी लोगों को देखता रहा, वे अजनबी जानकर शायद भरी दोपहरी में पानी का भी पूछना भूल गए थे, उन्हें समझ नही आ रहा था घर का वयोवृद्ध एक अनजान आदमी के कंधे पर सर रखकर क्यों रोने लगा, मैं उठा और सबको अचरज में छोड़कर चला आया
असल में यही देखने गया था कि वे कैसे है - समय का कोई भरोसा नही, जहाँ - जहाँ भी मेरी नाल बंधी है मैं वहाँ हो आता हूँ, मिल आता हूँ उन लोगों से - क्योंकि अब समय कम है - उनका इस तरह से अभी तक जीवित रहना मुझे चमत्कृत करता है, 1973 से 76 तक किसी पुराने शहर में हम पड़ोसी रहें थे, उनकी माँ की मृत्यु शक्कर की बीमारी के कारण हुए पाँव के अंगूठे में हुए गैंगरीन से हुई थी - पर उस असह्य पीड़ा का साक्षी हूँ मैं जब उनके एक और कम्पाउंडर साथी आकर पोटेशियम परमैंगनेट के लाल पानी से धोते थे घाव को और वह वृद्धा चीखती थी, कौतुक से हम बच्चे आसपास इकठ्ठे होकर देखते और बाद में किस्से गढ़ते
एक मित्र पिछले 15 दिनों से ब्रेन हैमरेज के कारण जीवन - मृत्यु के बीच संघर्षरत है उसका परिवार कैसे मैनेज कर रहा नही मालूम पर इस दारुण दुख को सहने की अब हिम्मत नही है, दो बार गया देखने और चुपके से लौट आया - काँच के उस पार जा के देखने की हिम्मत चूक गई अब, अपने हिस्से की मदद करके हम भरपूर सोग मना चुके है और अब उसके ठीक होने की बाट जोह रहे हैं, डॉक्टर्स कहते है सब कुछ ठीक भी होता रहा तो दस बारह साल सामान्य होने में लगेंगे - सोचता हूँ एक दिन जब वह एकदम से होश में आएगा तो क्या गुज़रे वक्त को याद कर उस समय की नब्ज़ को पकड़ सकेगा ; एक युवा मित्र के यहाँ विभीषिका ने अभी जन्म लिया है - जब घर के एक सदस्य को अचानक एडवांस स्तर का कैंसर बता दिया गया है - हम सब प्रार्थनाओं में ही ज़िंदा रह सकते है या दुआओं से ही जीवन की कठिनाइयों का सामना कर सकते है
मौत को वही देखा था सन 1976 में उस पड़ोस के मकान में - भीड़, मातम और क्रंदन, सम्भवतः अपनी स्मृति की पहली तड़फती हुई मौत और वह कुछ ऐसी दिल - दिमाग़ में जम गई थी कि आज पाँच दशक बाद भी भुलाये नही भूलती - बस सिर्फ़ इतना कि अंत में प्यार नही उम्मीद के भरोसे ही हम पार पाते हैं, प्यार और उम्मीद में बहुत बारीक सी रेखा है - जिसके इस पार जीवन और उस पार ठौर है, सारे सफ़र और मंज़िलों के रास्ते निश्चित ही प्यार से होकर गुज़रते है पर एक उम्मीद अंत तक जीवित रहती है
धीरे - धीरे सब धुंधलका साफ़ होते जा रहा है, कल एक मातम पुर्सी में दूर देश जाना था पर लगा कि यदि मरने वाला पूरी दुनिया की असंवेदनशीलता से आज़िज़ आकर इतना तंगदिल हो गया कि अपने ही चंद लोगों के बारे में आगा पीछा नही सोच सका और अपने आपको खत्म कर लिया तो ऐसी नैतिकता किस काम की, और संसार में सबको दुख होता है और अपना दुख ही सबसे बड़ा लगता है, बस बहुत कुछ छूट रहा है, तो वहाँ जाना भी छोड़ दिया और यह तय किया वह अध्याय ही खत्म कर दो - यह सोचा और ठीक 31 वें दिन सब भूल गया शायद यही हल भी था अपने तनाव - अवसाद को दूर करने का जो उस स्वाघात से उपजा और हावी हो गया था, एक पूरा माह लग गया
अफसोस यह है कि भरोसा, विश्वास, आस्था सब पर यकीन किया, बहरहाल रास्तों को त्याग रहा हूँ तो छोटे भेद समझ आ रहें हैं , जैसे जैसे लोगों की असलियत सामने आ रही है लगता है ये सब गैंगरीन के उस रोग की तरह है जिसे हर दवाई से धोने के बाद भी अंदर की शक्कर ठीक नही होने देगी और एक दिन ये ही जानलेवा सिद्ध होंगे
बहरहाल - सबको सब स्थितियों से गुज़रना है बस अपनी बारी का इंतज़ार करना है और उस पार जाने का हौंसला सँजोना है
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सम्बन्ध कभी भी सबसे जीतकर नहीं निभाए जा सकते, संबंधों की खुशहाली के लिए झुकना होता है, सहना होता है, दूसरों को जिताना होता है और स्वयं हारना होता है तभी रिश्ते टिक पाते है
और यह सब करके जो मिलता है उसे सुकून कहते है - कितनों के पास है आज सुकून - यह बड़ा सवाल है
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80% लोग फेसबुक की मित्र सूची में है - यह तब समझ आता है जब जन्मदिन की बधाई का सन्देश या नोटिस आता है, पर यह एक अच्छा मौका भी होता है - जब इन महामहिमों को आप बधाई देकर रवाना कर दो कि सकुशल अपनी दुनिया में पहुँच जाओ गुरू, अब ससम्मान निकलो, नामुराद कब से पड़े थे - जगह घेरकर और अतिक्रमण करके
दूसरा, लगातार दस वर्ष तक बधाई देने के बाद भी अगला धन्यवाद तो दूर देखें भी नहीं तो दिल करता है तिलक, तराजू और चार जूते देकर आकाश गंगा के बाहर फेंक दूँ
इस तरह के Attitude वालो को लगता है कसम से अपने लाड़ले ग्यारण्टेड सुपारिबाज उस्ताद सिरी सिरी अमित शाह के हवाले कर दूँ और कहूँ कि इनकी सुपारी लो और निपटा दो..........
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कदम ताल करते, ज़िन्दगी के सुर से ताल मिलाते हुए और गला काट स्पर्धाओं के दौर में दौड़ते हुए हम कब कहाँ पहुँच जाते है कि अपने लोगों को लगभग भूलते जाते है - परिजन, रिश्ते नाते और वो दोस्त जिनसे कभी सुबह होती थी, जिनके साये में रात संग - साथ बीत जाती थी, सबसे अच्छी स्मृतियाँ हम बुनते जाते है और अपनों को ही भूलते जाते है - यह विडंबना नही तो क्या है
पलटकर देखता हूँ और वो कही कभी टकरा जाते है तो बूझ भी नही पा रहा, तस्वीरें जो किसी वाट्सएप्प पर डीपी बनकर चमक रही है - देखकर नाम और वो सारे फ़साने याद आते है - एक इंसान होने के नाते शर्म महसूस होती है कि कितना समय बीता होगा पाँच दस साल या डेढ़ दशक बमुश्किल पर मैं इतना कृतघ्न कैसे हो गया कि यह सब भूलकर यहाँ आ पहुँचा हूँ
इस आपाधापी के समय में निश्चित ही कुछ कटु अनुभव मिलें होंगे - पर सबको उन पैमानों पर फिट करना अन्याय है, अपने आप से शर्मिंदा होते हुए और उन सबसे मुआफ़ी मांगते हुए अब आगे बढ़ना है - ना प्रतिस्पर्धा है और न दौड़, ना अपेक्षा है और ना कोई लक्ष्य - बस इस राह पर घनी छाँह बनी रहें, शामें गुलज़ार होती रहें, हँसी खनकती रहें किसी सोने के कंगन सी और यारियां बनी रहें
याद आते है ग़ालिब कि - "मौत का एक दिन मुअय्यन है ग़ालिब...."
सबसे नये साल में दिल से मिलने की उम्मीद
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बहुत पास आकर भी जीवन कभी पूर्णमासी के चाँद में समाहित नही हो पाता है, एक तड़फ हमेशा बनी रहती है
कभी न कभी तो सितारे चाँद में छुपकर विलोपित होंगे - आईये उस साँझ का इंतज़ार करें
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