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Man Ko Chithti 23 Jan 2025

बचपन में एक चोट लगी थी, मुहल्ले के एक परिचित के यहाँ मुम्बई से एमएस शिंदे (प्रसिद्ध फ़िल्म शोले के एडिटर और जिन्होंने कई फिल्मों का एडिटिंग किया था, और उनका इंटरव्यू उस ज़माने में नईदुनिया के लिये लिया था और बाकायदा छपा था) और उनके बच्चे आये थे - गर्मी की छुट्टियाँ थी और हम दोपहर में खेल रहे थे - "ब्लाइंड फोल्ड" - जिसमें आँखों पर पट्टी बांधकर खेलते है, मैं टकरा गया था किसी कोने की ईंट से और दाहिनी आँख बच गई - भौंह पर बहुत गहरा घाव हुआ था, तत्काल डॉक्टर गोपाल बिन्नानी के यहाँ ले जाया गया ड्रेसिंग, टिटेनस का इंजेक्शन लगाया गया, कई दिनों तक स्कूल जाना बंद, चलना फिरना बन्द क्योंकि आँखों पर पट्टी थी पुराना जमाना था, घाव भरने को रुई की बत्ती भरी जाती थी , घाव तो ठीक हो गया एक डेढ़ माह में, पर निशान आज भी ताज़ा है

उन दिनों इस बात का दुख तो बहुत हुआ था, पर घर रहा तो फिलिप्स का रेडियो सुना करता था, एक दिन बिजली चली गई तो उसी नीले रंग के प्लास्टिक की बॉडी वाले रेडियो पर जलती हुई मोमबत्ती रख दी, जलती हुई मोमबती कब रेडियो की ऊपरी सतह को छू गई मालूम नही पड़ा - थोड़ी देर में जब प्लास्टिक जलने की बदबू आई तो समझ आया कि रेडियो जल रहा है और इस तरह से मेरे मनोरंजन का अंतिम सहारा भी जल गया, जो घर रहने की वजह से बना था, घाव थोड़े दिन में ठीक हो गया वैसे ही जैसे सब एक दिन ठीक हो जाता है

अपने आख़िरी दिनों में पिता जी बीमार रहते है - घर, अस्पताल, लैब में जाँच, इंदौर में डॉक्टर्स के क्लिनिक में घण्टों इंतज़ार, मेडिकल कॉलेज, फिर घर, फिर क्लॉथ मार्केट अस्पताल - इंदौर में महीनों भर्ती रहना, धक्के खाते हुए देवास आना - क्योंकि आँखों से दिखना बन्द हो गया था, मैं और माँ हाथ पकड़कर बस में बिठाते और देवास ले आते, दफ़्तर के कागजों पर वे काँपते हाथों से साइन करते, बहुत पीड़ादायी था यह सब - इंदौर में अस्पताल में भर्ती रहने के दौरान दो बुआओं के घर से या मौसियों के घर से अस्पताल टिफिन आते, कभी फूफा लोग ले आते कभी मैं सायकिल पर जाकर लाता दोनो समय या टेम्पो में हिचकोले खाते लाता, सब दूर - दूर था पर कोई चारा नही था और - एक दिन इंदौर में ही बुआ के घर देर रात उन्हें अटैक आया और वे गुजर गये

फिर माँ को हृदय की समस्या हुई, यहाँ समझ नही आया तो तत्कालीन मद्रास के अपोलो अस्पताल में ट्रेन से ऑपरेशन के लिये ले गया, मप्र में कही भी बायपास सर्जरी होती नही थी, एक माह उस अहिन्दी भाषी प्रदेश की राजधानी में रहना जहाँ कोई दोस्त नही था सिवाय डॉक्टर कमल लोढ़ा के जो Indian Institute of Mathematics में प्रोफ़ेसर थे, (कमल - शबनम वीरमणि के देवर थे, जी हाँ, वही शबनम जो कबीर गाती है और फिल्में बनाती है) जैसे - तैसे वहाँ से लौटा - पर माँ की तबियत ठीक नही रहती थी - घर, लैब, अस्पताल, विशेषज्ञ, और जाँच के बहाने रोज - रोज नए इलाज, आख़िर में ब्रेन ट्यूमर हुआ, दस दिन इंदौर के सुयश अस्पताल में रही, डॉक्टर्स ने कहा घर ले जाओ ठीक हो रही है, हमें समझ नही आ रहा था कि सोडियम - पोटेशियम बिगड़ गया है, पोस्ट केयर में डॉक्टर्स सम्हाल नही पा रहे है , यहाँ लाते ही तीसरे दिन गुज़र गई

छोटे भाई को सदी के आरम्भ होते ही शुगर और ब्लड प्रेशर की शिकायत शुरू हुई थी जो किडनी फेल में बदल गई, चौदह वर्ष तक डायलिसिस की पीड़ादायी प्रक्रिया से हम गुज़रे - और डायलिसिस तब देवास में होता नही था - हफ्ते में दो बार इंदौर जाने से शुरू हुआ सिलसिला एक आदत बन गया - हर डायलिसिस के समय दो यूनिट खून का इंतज़ाम करना, रक्तदाता को खोजना - उसकी मनुहार करना, उसकी व्यवस्थाएं देखना - रुपये पैसे की व्यवस्था के अतिरिक्त था, एक दिन भाई भी थक गया और बोला अब जाने दो, वेंटिलेटर पर मत रखना और शाम के समय हम सबको छोड़कर चला गया, हम उसे घर ले आये देवास और अगले दिन अग्नि को सुपुर्द किया भारी मन से

ज़िन्दगी घावों से भरी हुई है - कुछ बहुत स्पष्ट रूप से सामने दिखते है, तकलीफ़ का एहसास कराते है, रोज़ की भागदौड़ में सर्कस करवा देते है पर हमें इनसे लड़ना आता है - क्योंकि रास्ते, सलाह, सुविधाएँ, सीमित ही सही पर संसाधनों पर हमारा बस होता है - हम कष्ट सहते हुए इनसे उबरने की कोशिश करते है, तन - मन और धन लगा देते है कि आख़िर एक दिन सब ठीक होगा और ठीक होता भी है - भले ही वह मौत के स्वरूप में हो या किसी चीज के नष्ट हो जाने के स्वरूप में पर, पर कुछ घाव ऐसे होते है जिनसे हम ताउम्र लड़ते रहते है पर उनसे पार नही पा सकते, क्योंकि ये ना दिखते है, ना इनके लिए कोई इलाज है, ना संसाधन, ना रास्ते, ये अँधेरे में लड़ते जाने के समान है, यह एक ऐसी अंधी सुरँग में चलने के समान है जिसका कोई मुहाना नही और कही से भी रोशनी की कोई किरण नही फूट रही है - ये अबूझ है और इनके ख़त्म होने की गुंजाईश भी शायद ना हो - बस अपनी अंजुरी में इन्हें रोज देखना है, आचमन करना है इन्ही से और पंचामृत की तरह से श्रापित जीवन के प्रसाद की तरह चुपचाप पी जाना है

एक दिन सब ठीक हो ही जायेगा - जब हम ही नही रहेंगे तो, पर तब तक यह जो असह्य पीड़ा है, जो चलते - फिरते सुनाई देने वाले कर्कश बोल है, ताने हैं, छींटाकशी है और इशारों में सिमटे जीवन के दारुण अवसाद है - उनसे कोई कैसे निजात पायें, दुर्लक्ष्य करने और कान बन्द करने से हम ज़्यादा घिर जाते है इस संग्राम में


हम सब अपनी बारी का इंतज़ार करते है कि ज़िन्दगी अंतिम समय में किसी उम्मीद के वेंटिलेटर पर ना रखें और कोई भभकता हुआ सा दीया सिरहाने ना हो कि लोग उसके बुझ जाने का इंतज़ार करते व्यग्र हो, एक झटके से खत्म हो सब, एक ही फाड़ से दो चीर हो जाये और एक ही बार में कष्टों से मुक्ति मिल जाये - ये रिसते हुए घाव जो नासूर बनकर पीड़ा दे रहें हैं इनसे मुक्ति मिलना ही चाहिये

सच में एक दिन सब ठीक हो जायेगा

_____________

Poem by Amit Priyadarshi, Patna,  on this article 

एक दिन सब ठीक हो जाएगा
घाव जो बचपन में लगे थे,
भौंह पर उनके निशां जगे थे।
खेल के बीच ईंट से टकराया,
एक मास में घाव भर आया।
पर निशान, वह आज भी कहता है,
दर्द में भी जीवन बहता है।
फिर वो रेडियो, जो साथी बना,
बिजली गुल, और मोमबत्ती जला।
प्लास्टिक की गंध, सपनों का अंत,
जैसे उजाड़ हो गई वह संत।
घाव की तरह, वह भी छूट गया,
पर एक दिन सब ठीक हो गया।
पिता की बीमारी, थकावट का दौर,
इंदौर-देवास का अनगिनत शोर।
माँ के दिल की पीड़ा का जाल,
मद्रास के अस्पतालों का हाल।
दर्द की हर गली में गुजरते रहे,
जीवन के रंग बस बिखरते रहे।
छोटा भाई, डायलिसिस की पीड़ा,
हर सफर में समय की चीता।
रक्त की खोज, वादे और दुआएं,
पर आखिर में बस अधूरी आशाएं।
उसने कहा, "अब जाने दो मुझे,"
और शाम को छोड़ गया सब तन्हा।
ये जीवन, घावों की किताब है,
हर पन्ने पर दर्द की लकीरें साफ़ हैं।
कुछ घाव दिखते, कुछ अदृश्य हैं,
कुछ सहन होते, कुछ असह्य हैं।
हर दर्द के पार जाने की आस है,
पर कुछ में उजाले की ना कोई राह है।
फिर भी हम लड़ते, सहते और चलते हैं,
दर्द में भी उम्मीद का दीप जलते हैं।
क्योंकि एक दिन सब ठीक हो जाएगा,
हर अंधेरा उजाले में छिप जाएगा।
पर क्या सच में सब ठीक होता है?
या जीवन बस दर्द से रोता है?
शायद, अंत में जब हम ना रहेंगे,
तभी ये घाव सब शांत कहेंगे।
तब तक, ये पीड़ा को गले लगाना है,
इस श्रापित जीवन को निभाना है।
एक दिन सब ठीक होगा,
शायद, जब जीवन का अंत होगा।
पर तब तक, हर दर्द पीते जाना है,
इस तन्हा सफर को निभाना है।

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