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An Interview with Kalapini Komkali on 20 Jan 25


 



संगीत का काम मोहिनी बिखेरना है – कलापिनी कोमकली

-      संदीप नाईक से बातचीत -

पूर्णत: मौलिक-मधुर और दमदार आवाज की धनी कलापिनी कोमकली का जन्म १२ मार्च को  देवास के पास शाजापुर में हुआ। कुछ बिरले सौभाग्यशाली लोगों में से एक कलापिनी को पण्डित कुमार गंधर्व एवं विदुषी वसुन्धरा कोमकली जैसे  माता-पिता गुरु के रूप में मिले, जिनसे उन्होंने संगीत का ज्ञान, तकनीक और व्याकरण विरासत में पाया। विशेष बात यह है, कि अपने गुरु के सान्निध्य में संगीत पाठ के दौरान उन्होंने मनन और सृजन का माद्दा भी हासिल किया। स्वरों की विस्तृत परिधि भावों को दर्शाने में पूर्ण सक्षम कलापिनी के गायन में ग्वालियर घराने की व्यक्तिगत छाप झलकती है। कलापिनी के रागों और बंदिशों का संग्रह मालवा अंचल की लोक धुनों और विभिन्न संतों के सगुण-निर्गुण भजनों से और भी अधिक समृद्ध हुआ है। पिछले एक दशक में वे एक प्रखर और संवेदनशील गायिका के रूप में उभरी हैं। उनकी प्रस्तुतियों में आत्मविश्वास, परिपक्वता है और एक सधी हुई कलाकार का सोच भी है।

कला के उत्थान के प्रति समर्पित कलापिनी देवास में संगीत उत्सवों का आयोजन करती हैं, ताकि गायक, युवा कलाकार और विद्वतजनों का समागम संभव हो। अपनी सांगीतिक समझ और अध्येता भाव के कारण कलापिनी जैसी परिपक्व आवाज की धनी गायिका युवा पीढ़ी में भारतीय शास्त्रीय संगीत पर अपने  व्याख्यान प्रदर्शनों (लेक्चर डेमोन्स्ट्रेशन्स) के लिये काफी लोकप्रिय हैं। कुमार गंधर्व संगीत अकादमी की वे सक्रिय न्यासी हैं। उन्होंने अपने पिता पर लिखी गयी एक किताब का संपादन भी किया है जिसका नाम है ‘कालजयी कुमार गंधर्व’. यह पुस्तक दो भागों में बंटी है पहले भाग में मराठी भाषा में कुमार गंधर्व के सांगीतिक योगदान के बारे में लिखे गये  आलेखों का संग्रह है, दूसरे भाग में अंग्रेज़ी और हिंदी में कुमार गंधर्व पर लिखे गये  आलेखों का संग्रह है।

कलापिनी के बारे में एक रोचक बात यह है कि बचपन में उन्हें संगीत अपना दुश्मग लगता था। उनका मानना था कि संगीत ने मां-बाबा को उनसे दूर कर रखा था। वे चाहती थी कि बाबा न गाएँ और मां तो बिलकुल ही न गाएँ। एक बार देर रात अचानक उनकी आँख खुली तो बाबा के कमरे से माँ के गाने की आवाज सुनायी दी। वे दौड़कर उनके कमरे में गयी और मां से लिपटकर रोने लगीं , “तुम मत गाओ।” वे गाते-गाते रुक गयीं। संगीत कलापिनी को इतना  नापसंद था कि वे लंबे समय तक उससे दूर ही रहीं। कुमार साहब ने भी उन पर कभी संगीत सीखने पर बहुत ज़ोर नहीं डाला। कलापिनी के अनुसार वे अपनी कोई बात कभी किसी पर थोपते नहीं थे।

भारत सरकार के संस्कृति विभाग की छात्रवृत्ति उन्हें प्राप्त है। संगीत के प्रति उनकी तमाम कोशिशों को देखते हुए पुणे स्थित श्रीराम पुजारी प्रतिष्ठान ने उन्हें कुमार गंधर्व पुरस्कार से सम्मानित किया है। आरंभ और इनहेरिटेंट शीर्षक से एच.एम.वी. द्वारा व्यावसायिक तौर पर जारी उनकी दो स्टूडियो रेकॉर्डिंग हैं।  इसी तरह हाल ही में ‘धरोहर’  शीर्षक से टाइम्स म्यूजिक ने रेकार्ड जारी किया है। स्वर मंजरी में उनकी एक पूरी संगीत सभा है, जो वर्जिन रेकॉर्डस् की ताज़ातरीन प्रस्तुति है। कलापिनी ने पहेली और देवी अहिल्याबाई फिल्मों के साउण्डट्रेक में भी अपनी आवाज दर्ज करायी  है। कलापिनी सिडनी और मेलबोर्न में स्प्रीट ऑफ इण्डिया, क्वीन्सलैण्ड ऑफ म्यूजिक फ़ेस्टिवल, बिस्बन (ऑस्ट्रेलिया), सवाई गंधर्व फ़ेस्टिवल, पुणे, देज़ ऑफ दिल्ली मास्को (रूस),अली अकबर खान म्यूजिक अकादमी बसेल (स्विट्ज़रलैंड),सुर संगम दुबई के साथ ही देश के सभी प्रमुख प्रतिष्ठित संगीत समारोह में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुकी हैं। उनके विषयगत संगीत में गीत वर्षा, आई बदरिया, गीत वसंत, आयो बसंत, सगुण-निर्गुण भजन, निर्गुण गान, मालवा की लोकधुन और गंधर्व सुर प्रमुख हैं।

उपलब्धियां - 

1. श्रीराम पुजारी प्रतिष्ठान, पुणे द्वारा कुमार गंधर्व पुरस्कार

2. एचएमवी द्वारा आरंभ और इनहेरिटेंट रेकार्ड, टाइम्स म्यूजिक द्वारा धरोहर और वर्जिन रिकाड्र्स द्वारा स्वर मंजरी रेकार्ड जारी

3. फिल्म पहेली और देवी अहिल्या के लिए साउंड ट्रैक

4. संगीत नाटक कला अकादमी पुरस्कार

यह जनवरी की बीसवीं तारीख थी, शाम ठिठुर रही थी देवास की टेकडी के ठीक नीचे जहाँ बरसों बरस स्व कुमार गंधर्व जी के घर पर संगीतज्ञों, कलाकारों, साहित्यकारों, अधिकारियों का जमघट लगा करता था, हंसी के ठहाके गूंजते थे और देर रात तक गाना बजाना, भोजन चाय और बातचीत की महफ़िलें हुआ करती थी वहां आज सन्नाटा है, एक आवाज अभ्यास में, रियाज में गूंजती है सिर्फ और वह है विदुषी कलापिनी की आवाज जो देश की शीर्षस्थ गायिका है और उन्हें पिछले वर्ष देश का संगीत कला आकादमी का अवार्ड दिया गया है जिसे वो अपने गायन की बड़ी उपलब्धि इसलिए मानती है कि यह “संगीतकारों और कलाकारों द्वारा दिया गया अपने ही संगी-साथी को दिया पुरस्कार है इसलिए इसका उनके जीवन में बड़ा महत्त्व है”

“अपने बचपन और शिक्षा के बारे में बताईये”

मेरा जन्म देवास के पास शाजापुर में हुआ क्योकि बड़ी माँ की बहन डाक्टर त्रिवेणी कौन्स वहां शासकीय अस्पताल में महिला चिकित्सक थी, पहले आवागमन के साधन नहीं थे और बाबा [स्व कुमार जी] जब कार्यक्रम के लिए जाते तो एक साथ तीन - चार जगह प्रस्तुतियां देकर लौटते थे, वे भी बड़े मुश्किल वाले दिन थे, दोनों कांख में तानपुरे उठाये देवास से इंदौर और फिर इंदौर से रतलाम या खंडवा टर्न से और फिर वहाँ से दिल्ली मुम्बई की ब्रोडगेज वाली ट्रेन मिला करती थी. बड़ी माँ के देहांत के बाद मेरी माँ यानी स्व वसुंधरा जी कलकाता से देवास आई और कुमार जी कि गृहस्थी को सम्हाला. ऐसे समय में घर में कोई था नहीं जाहिर है प्रसव के लिए और देखभाल के लिए कोई अपना होना जरुरी था तो बाबा ने निर्णय लिया कि मेरा जन्म मेरी मौसी के यहाँ शाजापुर में हो इस तरह से जन्म जरुर शाजापुर में हुआ परन्तु तीन – चार दिन बाद मै देवास आ गई और मेरी आँखें तो “भानुकुल” में ही खुली इसलिए मै इस मकान के हर जर्रे जर्रे से परिचित हूँ और एक लम्बी यात्रा की हे इस मकान के भीतर मैंने बहुत सुख और दुःख देखें है, इस माती से इस मकान की हर ईंट से गारे और सीमेंट बाजारी से प्यार है और जब जब बाहर घूम कर आती हूँ देश विदेश तो यहाँ आकर मन प्रफुल्लित हो जता है सारी थकान दूर हो जाती है.

संगीत बचपन से घर परिवार, संस्कार और फिजां में था, यह बात सही है और यह भी सही है कि मै दुनिया के उन चुनिन्दा सर्वश्रेष्ठ लोगों में से हूँ जिन्हें बचपन में वो सब मिला जो माँगा, दुनिया के श्रेष्ठ अभिभावक, संगीतकार मेरे पिता थे, मेरी माँ और गुरू बेहतरीन गायिका थी, घर संगीतज्ञों, साहित्यकारों से भरा रहता था क्योकि देवास में उस समय कोई होटल नही होते थे और जो भी लोग इधर से गुजरते या प्रस्तुतियां देने आते या सीखने को आते तो वे हमारे घर रहते घर बड़ा है और आज भी लोग होटल के बजाय हमारे इस सुकून वाले परिसर में रहना पसंद करते है जिनसे हमारे संगीत का नाल बंधा है. इस तरह से मै देखती कि गणेश उत्सव में प्रस्तुतियां देने के बाद भी देर रात घर भोजन होता और फिर बाबा के कमरे में गप्प के साथ फिर गाना होता, बाबा और आई कमरे में रियाज़ करते रहते या “मला उमजले बाल गन्धर्व” बनाते समय घंटों बातचीत नोट्स लेना और सांगत कलाकारों के साथ अभ्यास करते रहते, मै बहुत छोटी थी और यह सब देखकर मुझे चिढ होती कि मेरे माँ बाप मेरे साथ समय क्यों नही देते, लोग जब वहां मल्हार स्मृति मंदिर में देर रात तक गाकर आ चुके है तो फिर अल्लसुबह तक घर में गाना गाने का क्या औचित्य है और मुझे लगता कि संगीत के ही कारण मै उपेक्षित हूँ –“ मुझे सुबह उठकर स्कूल जाना है, पढाई करनी है और दीगर काम करने है पर यह सब कोई नहीं सोचता” बस इसी से मुझे संगीत से चिढ हो गई और मैंने पाना ध्यान पढ़ने में लगाया. एक मजेदार बात बताऊँ एक बार शायद मै कक्षा छठवी में थी और मेरे स्कूल से मुझे परीक्षा परिणाम दिया गया कि इस पर अपने पिता के हस्ताक्षर करवाकर लाओ. बाबा कही प्रस्तुती देने बाहर गए थे जब वे एकाध हफ्ते बाद लौटे तो उन्होंने पूछा –“ तुम छठवीं में आ गई – और आश्चर्य से देखने लगें, फिर बोले पढ़ाई कैसी चल रही है”, उन्होंने हस्ताक्षर कर दिए पर एक कालम पर जाकर वे अटक गए जहाँ जाति लिखना था. उन्होंने कहा कि “मै नहीं लिखूंगा कोई जाति – वाति, हम सब इंसान है, फिर माँ ने कहा – “अरे लिख दो रिपोर्टकार्ड वापिस आयेगा और आप फिर निकल जायेंगे तो लड़की को दिक्कत होगी स्कूल में”,  उन्होंने बहुत देर सोचा और फिर हिन्दू लिख दिया और जब उपजती वाले कालम पर नजर गई तो सब काट दिया और लिखा इंसान – इंसान - इंसान और खूब झल्लाए कि स्कूलों में यह सब क्या हो रहा है.

“अपनी पढाई शिक्षा और संगीत से कैसे लगाव हुआ”

पढने और किताबों के बीच मैंने रास्ता खोजा, हमारे घर कुछ किताबें आती थी, तब सड़क बहुत खराब थी तो एबी रोड पर चाय की गुमटी पर डाकिया रोज डाक दे जाता था उसमे कुछ पत्रिकाएं होती कुछ किताबें, एक दो बार बाबा की डाक देख रही थी तो किताबें हाथ लगी और उन्ही दिनों पुस्तकालय से अमर चित्र कथाएं पढ़ना शुरू की  और कुछ ऐसा चस्का लगा कि अमर चित्र कथाएं खरीद कर पढ़ने लगी, आई हर शनिवार रविवार को इंदौर संगीत की कह्सयें लेने जाती थी तो मेरा उंसे एक ही आग्रह रहता कि बस स्टेंड पर से नै अमर चित्र कथा ले आयें और वे भी मेरी रूचि पढ़ने में देख कर  हर बार नई अमर चित्र कथा ले आती, इन चित्र कथाओं से मैंने जाना कि भारत की संस्कृति, विरासत, वैभव, विविधता क्या चीज है – एक ओर आसाम है, दूसरी ओर गुजरात, मालवा, कर्नाटक, भाषाओं का सौन्दर्य, उड़ीसा के नृत्य,  कोंकण से लेकर श्रवण बेलगोला तक और फिर कन्याकुमारी से लेकर ऊपर लद्दाख तक खानपान, रहन सहन, भाषाएँ बोलियाँ और इन सबसे बढ़कर इतिहास जिसमे मुझे सबसे ज्यादा रूचि होने लगे थी, मै आज भी गुप्त काल से लेकर मराठा साम्राज्य आदि के बारे में जानकारी रखती हूँ, सिर्फ दख्खण का शिवाजी ही नहीं या अकबर, औरंगजेब, हुमायु नहीं, चन्द्रगुप्त मौर्य या चाणक्य नहीं बल्कि हमारा इतिहास इन सबसे ज्यादा है और विस्तृत है और यह सब समझ मेरी अमर चित्र कथाओं को पढ़ने से बनी. मैंने बाद में इण्डिया बुक हाउस के अनंत पई को एक चित्ती लिखी कि मुझे नियमित भिजवा दिया करें हर अंक और मै उनकी ताउम्र आभारी रहूंगी कि उन्होंने मुझे ज्ञान का झरोखा खोलने में मदद की, मेरे पास आज भी सारे अंक सजिल्द रखें हुए है. बाद में बाबा ने जब पूछा तो मैंने उन्हें बताया – उन्हें अच्छा लगा और फिर उन्होने मुझे सीधे राहुल सांस्कृत्यायन लिखित “वोल्गा से गंगा” पकड़ा दी मैंने बहुत धैर्य से पढ़ी और समझा कि एक आदमी कितना वृहद् काम कर सकता है बाद में मैंने राहुल जी का सम्पूर्ण साहित्य तो पढ़ा ही तोलस्तोय, गोर्की, अन्ना केरेनिना, युद्ध और शांति, धर्मवीर भारती का गुनाहों का देवता जैसी ढेरों किताबें पढ़ डाली. मुझे क्रिकेट का बहुत शौक था, कां में रेडियो लगाकर अपने कमरे में मै कमेंट्री सुना कराती थी, एक दिन बाबा ने कहा कि तुझे लोग ऑफ, स्पिन या गुगली समझता है क्या यदि नहीं तो इनसे समझ और मुझे हमारे घर आने वाले हमारे पारिवारिक चिकित्सक डाक्टर कजवाडकर से मिलवाया जो क्रिकेट के प्रकांड पंडित और सुनील गावस्कर के मुरीद थे. उन्होंने मुझे सुनील गावस्कर की जीवनी “सनी डेज़” लाकर दी जिसे पढ़कर मै रोमांचित हो उठी और क्रिकेट की दुनिया से मेरा प्रेम बढ़ा. इस तरह घर में संगीत से दूर रहकर मैंने अपनी साहित्य और क्रिकेट की दुनिया बना ली थी – स्कूल की पढाई के साथ यह सब समानांतर चल रहा था. बाबा लगातार पूछते भी थे कि क्या पढ़ा, क्या समझा, क्या अच्छा लगा और क्या सीखा इस किताब से, फिर उन्होएँ मराठी में महाभारत के आठ - दस खंड लाकर दिए , हर खंड लगभग तीन सौ चार सौ पृष्ठ के थे मैंने बहुत बारीकी से पढ़े और आखिरी अध्याय आज तक नही पढ़ा – ऐसा कहते है कि इसे घर में नहीं पढ़ना चाहिए, अब देखो कब जीवन मौका देता है कि इसे कही और पढ़ सकूं. महाभारत ने मेरी दृष्टि को विस्तार दिया और यह कह सकती हूँ कि महाभारत जैसा विपुल साहित्य और ग्रन्थ संसार में कही कभी नहीं लिखा गया होगा जब महाभारत पढ़ लिया तो इसके साथ जुड़े कर्ण - कुंती और तमाम उन चरित्रों को लेकर लिखे गए सभी हिंदी, मराठी, अंग्रेजी की किताबों को पढ़ा जिसमे श्रीकृष्ण थे या कर्ण या कौरव या पांडव या भीम या इससे जुदा हुए ययाति या पुरे भक्ति काल के कवि फिर वे तुकाराम हो, ज्ञानदेव, कबीर या मीरा, दादू. या रसखान और यह सब मुझे समृद्ध कर रहा था. बाबा खुश थे कि संगीत ना सही पर कुछ तो है जहाँ मेरा मन लग रहा है और मै सीख रही हूँ.

“आपके होने में अपने माता-पिता की क्या भूमिका रही है”

किशोरावस्था के दिनों की बात है बाबा और आई मिलकर “त्रिवेणी’ नामक कार्य्रकम की तैयारी कर रहें थे, मै स्कूल से आती और अपना काम करती, बाबा के कमरे में  आई और बाबा बहुत तैयारी करते पदों को लिखना, नोट्स लेना, अभ्यास करना, प्रस्तुति कैसी हो, संगार्ट कलाकारों के साथ हर पद पर गहराई से काम करना, मै रसोई में खाना खाते या पढ़ाई करते हुए यह सबा सुनती रहती और इस तरह मुझे लगा कि यह जो कुछ भी हो रहा है वह आकर्षक, श्रवणीय तो है ही पर बहुत बढ़िया भी है – बस उठाते बैठते हुए मुझे त्रिवेणी के सारे पद और बंदिशें याद हो गई, और मैंने आई को एक दिन सुनाई तो ई बहुत खुश हुई. आई ने यह बात बाबा को बताई और कहा कि अपनी पिनी को त्रिवेणी कंठस्थ हो गई है तो बाबा बोले “अरे वाह - मुझे भी सुनाओ” – मै स्कूल से लौटी ही थी और रसोई में टेबल के पास बाबा बैठे थे और मै खड़ी थी और वही खड़े होकर मैंने  बाबा को त्रिवेणी सुना दी पहले पद से लेकर आखिरी में भैरवी तक गाकर सुना दिया. बाबा देर तक देखते रहें और फिर उसके बाद की कहानी ही अलग है – आई फिर मुझे अपने शिष्यों के साथ बिठाने लगी जब वो संगीत सीखाती, बाबा के कमरे में लोग आते तो कहती “जाकर बैठ, सुन और समझ” मुझे समझ कुछ नही आता पर वो बातचीत अदभुत होती थी, आई के शिष्यों के साथ जब अभ्यास कराती तो लगता मै थोड़ा बेहतर अगाती हूँ क्योकि मेरा सुर लग रहा है, टाल ठीक लग रहें है, बंदिश याद है मुझे, तानपुरा साध लेती हूँ और राग – रागिनियों कि समझ बाकी से थोड़ी बेहतर है. फिल्मों के गाने सुनने में शौक बढ़ा, अमीन सयानी का बिनाका गीतमाला रेडियो पर कान में लगाकर अपने पढाई के कमरे में सुनती थी. धीरे धीरे संगीत मेरी नसों में घुसता चला गया, पढ़ाई के साथ मै संगीत का नियमित अभ्यास करने लगी और फिर मै इस तरह से संगीत में आई. संगीत के कार्यक्रमों में जाना मुझे उस उम्र में बहुत बोरिंग लगता था पर गणेशोत्सव के कार्यक्रमों में बाबा एक दिन नृत्य का दिन जरुर रखते थे जिसमे प्रस्तुति देने बिरजू महाराज आये, दमयंती जोशी आई, गोपीकृष्ण जी आये, माधवी मुदगल के साथ बड़े बड़े नर्तक आये. इससे कार्यक्रमों में जाने में रूचि जगी. अमजद अली खां साहब आये तो वो भी सब याद है, और इससे कार्यक्रमों में जाने का चस्का लगा और इस तरह से मै कार्यक्रमों में जाने लगी आई और बाबा के साथ.  

“मेरी माँ ने बचपन से हमें यह बता दिया था कि अपने बाबा अपनी विधा में बहुत बड़े है और यह जितनी जल्दी समझ लो अच्छा रहेगा. अनचाहे मै गुनगुनाने लगी थी और माँ के साथ बाबा के साथ सीखने लगी. सन 1984 का वर्ष था बाबा की षष्ठी पूर्ति का बहुत बड़ा कार्यक्रम होने वाला था दिल्ली में और सिरी फोर्ट पर एक वृहद् आयोजन था, पर एन उसी समय मेरी बीएससी के अंतिम वर्ष की परीक्षा थी, हर विषय के दो पेपर होते थे उस समय. आई ने कहा कि कुछ भी हो जाये तुम्हे वहां रहना है, इतिहास में षष्ठी पूर्ति का कार्यक्रम दोबारा नहीं होगा, भले ही साल चूक जाए, परीक्षा मत दो पर तुम्हे वहां रहना ही होगा, बाबा को वहां देखना और उस पूरे कार्यक्रम को अपनी आँखों से देखना ज्यादा जरुरी है, बताईये आज के समय में कौन माँ अपने बच्चो को ऐसा कहेगी - परन्तु यह बहुत बाद में समझ आया कि कुमार जी कालजयी संगीतकार थे और वो कार्यक्रम मै नही देखती तो शायद कभी समझ नहीं पाती कि बाबा ने भारतीय संगीत को क्या दिया है, मै आई और हम सब दिल्ली गए और उस कार्यक्रम के गवाह बनें. बाद में मै अगले दिन स्व नरेंद्र तिवारी जी के साथ फ्लाईट से इंदौर आई, घर के सब लोग दिल्ली ही रूक गए थे, नरेंद्र जी मुझे कार से छोड़ने देवास आये और बोले ‘बेटा जाओ अब कल के पेपर की तैयारी करो, और मुझे पेपर के बाद ट्रंककॉल लगाना’ – जब परिणाम आया तो बहुत धुकधुकी थी पर जब संगी साथी रिजल्ट लेकर आये तो मै पास थी कि क्योकि मैंने दूसरे पेपर की तैयारी जमकर करके रखी थी. इस तरह शिक्षा, शौक, संगीत मेरे साथ चलता रहा और आज भी सारे संसाधन हवाई जहाज, टेक्सी, रेल, बस सुविधाओं के बावजूद भी दिक्कतें आती है पर ना संगीत का सफ़र खत्म होता है ना साधना और मुझे लगता है कि कलाकार भी इसी समाज से आते है तो जाहिर है उन्हें वह सब झेलना पड़ता है जो आम आदमी को भुगतना पड़ता है पर हमारा काम है अपना काम करना और बाकी यश अपने आप आयेगा.

हमारे समय में हमे कुछ मालूम नही होता था कि आगे क्या करना है, जैसा कि आज की पीढी बहुत फोकस्ड है कि इंजिनियर बनना है, डाक्टर बनना है या सिविल सर्विस में जाना है पर अब समय बदल रहा है. मेरे बचपन में बाबा के कमरे किशोरी जी, भीमसेन जोशी, जसराज जी, श्रीराम पुजारी जी, अशोक वाजपेयी जी, पु. ल. देशपांडे आये, आदि जैसे बड़े लोगों को संगीत के साथ कला संस्कृति पर बात करते हुए देखा है, समझ में क्या आता था यह नहीं मालूम पर जो भी चल रहा है वह बहुत रोचक है यह पक्का था. चौबीसों घंटे संगीत के संस्कार पड़े थे इसलिए आज कुछ करने और कहने की हिम्मत होती है. मुझे यह गम है कि मैंने बहुत देरी से सीखना शुरू किया, हमें जो भी पूछना होता था वो माँ से पूछते थे क्योकि बाबा से बहुत छोटे छोटे प्रश्न नहीं पूछ् सकते थे ऐसे में माँ ने गुरू की  और माँ की भूमिका एक साथ निभाई और हमें तैयार किया. मै माँ और बाबा के साथ तानपुरा लेकर बैठी - उनके साथ यात्रा पर जाना, किस तरह अभ्यास करते है, नोट्स बनाते है, अपना होम वर्क करके जाते है, जो व्यक्ति उम्र के नैव वर्ष से गा रहा हो वो आज भी किसी कार्यक्रम के पहले पूर्व तैयारी करता है, आज के समय में हमने बहुत सुना है कि स्थापित कलाकार कहते है अरे चार – पांच सौं बंदिशे तो तकिये के नीचे ही बिखरी पड़ी रहती है यूँही जाकर गा देंगे क्या तैयारी करना पर मेरे बाबा और आई को मैंने आखिर तक बगैर तैयारी के कोई कार्य्रकम देते नहीं देखा. उन्होंने कोई आडम्बर नहीं पाला हमेशा सफ़ेद कुरते पाजामे रहें, बाद में मैंने उन्हें सिल्क के रंग बिरंगे कुरते पहनाये और उनके पहनावे में बदलाव किया.

“आपको अभी तक क्या पुरस्कार और अवार्ड्स मिलें है”

अवार्ड और उपलब्धियों के बारे में ज्यादा बात करना मुझे पसंद नहीं है पर संगीत कला अकादमी का अवार्ड मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योकि यहाँ कलाकारों द्वारा दिया जाने वाला कलाकार को पुरस्कार है. जहाँ तक देश-विदेश में कार्यक्रमों की बात है, मैंने अमेरिका, आस्ट्रेलिया, स्वीटजरलैंड, फ्रांस,कतर, दोहा, दुबई, अफ्रीका, मास्को भी गई हूँ. भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में मैंने प्रस्तुतियां दी है. मास्को कि एक घटना बताती हूँ मै सरकार की ओर से भारत महोत्सव के लिए मास्को गई थी वहां उदघाटन समारोह मेरे गायन से आरम्भ होना था, क्रेमलिन के उस हाल में लगभग तीन हजार लोगों के अलावा भी लोग थे और उनमे नब्बे प्रतिशत रूसी लोग थे और दस प्रतिशत भारतीय रहे होंगे. रशियन लोग भारतीय संगीत, फिल्मों को और संस्कृति को बहुत प्यार करते है.  मेरे बाद पंडित रविशंकर का सितार वादन था. मैंने निर्धारित समय में प्रस्तुति दी और समापन “सुनता है गुरू ज्ञानी”  कबीर के भजन से किया – हाल में देर तक तालियाँ बजती रही और उपस्थित श्रोताओं ने तीन बार वंस मोर वंस मोर कहकर मेरे और तीन भजन सुने जो मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी, ग्रीन रूम में आकर रोने लगी क्योकि वह मालवा, बाबा और कबीर को सम्मान था कि किस तरह से लोगों ने हमारे संगीत को सम्मान दिया. आज भी जब सोचती हूँ तो रोंगटे खड़े हो जाते है. अच्छी बात यह है कि विदेशों में मैने जहां भी कार्यक्रम दिए है वहाँ स्थाई निवासियों कि संख्या अस्सी नब्बे प्रतिशत और भारतीय मूल के निवासियों की संख्या दस से बीस प्रतिशत तक रही है और होना भी यही चाहिए. बाहर लोग शांति से सुनते है और लोगों के साथ संगीतकार जुड़ते है कार्यक्रम के बाद संगीतकार लोग आपसे सवाल पूछते है समझते है हमारे संगीत को और अपनी बात भी कहते है. यह सब बहुत अच्छा लगता है और इसे सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है.  

 “वर्तमान में संगीत के सम सामयिक परिदृश्य पर आपको क्या लगता है”

हर समय एक जैसा नही होता , कुमार जी के पहले का समय और कुमार जी के बाद का समय बहुत अलग था जैसा कि राघव मेनन ने कहा है कि “Before BC and After AD वैसे ही भारतीय संगीत  कुमार जी के पहले का संगीत और बाद का संगीत एकदम भिन्न है” - कुमार गन्धर्व एक ऐसे मानक बन गए है जिन पर विचार करने की जरूरत है उनका आगे का चलन बहुत बदल गया है, कौन मानता है कौन नहीं मानता यह अलग है, कई घरानों के लोग इस बात को नहीं मानेंगे पर अंदरूनी तौर से ये लोग मानते है कि इस आदमी ने परिवर्तन की धुरी  लाकर छोड़ी है और किसने यह बदलाव किया है, किसने यह बिगुल बजाया है, यह जरूर कहूँगी अभी जो संगीत है जो चल रहा है उस दौर में भारतीय संगीत का रुझान कुछ कुछ जगहों पर कम हुआ है पर कुछ जगहों पर बेतहाशा लोग पसंद कर रहें है, देखिये पैटर्न बदल गया है थोड़ा सा – कभी कभी दुःख भी होता है कि कहाँ जा रहा है हमारा संगीत क्या हमारा संगीत दूर जा रहा है क्या सुरों से हटकर रिदम पर ज्यादा केन्द्रित हो रहा है? क्या रिदम को आत्मसात कर रहा है, हम मधुर सुरों कि मोहिनी से थोड़ा वंचित होते जा रहें है, हमको सुरों कि महिमा शायद उतनी मोहित नहीं करती इसका प्रभाव फिल्मों के गानों पर भी पड़ा है जो गाने साठ, सत्तर, अस्सी के दशक के थे संगीतकारों को ले लीजिये या गायकों को ले लीजिये और आज के लोगों को ले लीजिये आपको तुरंत समझ आयेगा कि रिदम का प्रभाव कितना बढ़ गया है और इससे हमारा शास्त्रीय संगीत भी अछूता नही रहा है. हम कोई तीसरी दुनिया से नहीं आये है प्रभाव तो पडेगा पर इस प्रभाव को किस तरह से मोल्ड किया जाए कि हमारे संगीत कि मधुरता बनी रहें हमारे संगीत का सौन्दर्य रिदम के साथ हाथ मिलाते हुए आगे बढे यह आज संगीतकारों को सोचना होगा ऐसा मुझे लगता है. हमें कटकर नही रहां है, केवल तालवाद्य पर दांव लगान है क्या, यह नीड ऑफ़ द टाईम है, या मूल क्या है उसे समझना होगा मूल स्वर सुर है, बंदिश है, राग है रिदम आपका सहयोगी है रिदम राजा नहीं है - स्वर राजा है यह बात जब तक शिद्दत से आगे नहीं आयेगी, तब तक संगीत में थोड़ी सी डांवाडोल की स्थिति रहेगी. इसकी गुंजाइश आजकल बनी हुई है, मुझे लगता है हमारा संगीत सुगंध को लेकर मोहिनी बिखेरे, सुरों को लेकर मोहिनी बिखेरे, वो बहुत जरूरी है - काम हो रहा है, बहुत नए लोग तैयारी के साथ आगे आ रहें है, कई लोग बड़ा काम कर रहें हैं, पर केवल तैयारी मतलब कला नही होती , कला एक ऊँचे पायदान की चीज है, और वो स्वांत सुखाय से निकल कर आती है वह केवल गैलरी खुश करने के लिए की जाने वाली कसरत नहीं है यह हमें भी समझना पड़ेगा वह जरुरी है, आपको घंटों आँख बंद करके गाते आता है क्या या आप केवल आडियंस को देखकर गायेंगे, आडियंस को दिखना चाहिए, आडियंस आपको सुनने आये है आजकल एक तमगा चला है कि हम दर्शकों का धन्यवाद करते है अरे भाई दर्शक नहीं वो श्रोता है – दर्शन फ्लिम देखने जाता है, फिल्म देखने जाता है श्रोता नाटक देखने जाता है  संगीत तो सुनने श्रोता आता है और वह कब सुनेगा - जब मिठास होगी – जब आप संगीत की सुरों की मोहिनी बिखेरेंगे, तब आँख खोलने की जरुरी नही है, आप गाते हुए श्रोताओं से संवाद करने बैठे है स्टेज, आप गाकर संवाद कर रहें है - तभी तो वह जुडा है, उसकी भागीदारी तो लेना है तब जाकर चीज  बनेगी, तैयारी और कला को जोड़कर देखना है टेबल से लेकर हारमोनियम वाला आपके साथ भयंकर तयारी कर ली आपने तान लगा दी पर आगे क्या – सुकून मिला, मै क्या करने बैठी हूँ बरगद के नीचे छाँह देने बैठी हूँ या सुरों को देने यह मुझे भी तो पता हो, जब यह स्पष्टता होगी तभी तो मै सुर या संगीत संप्रेषित कर पाउंगी यदि मेरा ही दृष्टिकोण अलग है तो मै कुछ नहीं दे पाउंगी, कलाकार को यह तय करना होगा कि वो क्या देना चाह रहें है और कई बार गलती कर बैठते है, भारतीय संगीत का भविष्य उज्जवल है बस इसे टीक से सम्हाला जाए और संरक्षित किया जाए

“बहुत सार्थक बातचीत रही - आपका बहुत बहुत धन्यवाद कलापिनी जी”


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आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी व...