नरेंद्र मोदी जी को केंद्र में तीसरी जीत के लिये बधाई और शुभेच्छाएँ
मोदी जी, आपको अब ज्यादा सतर्कता और होशियारी से काम करना होगा क्योंकि आपकी सरकार की चाभी अब स्वयं की तानाशाही से नही - दूसरों की दया पर निर्भर है, लोकसभा में जो भाव भंगिमा और भाषा आपने विपक्ष विशेषकर राहुल, सोनिया, प्रियंका, राजीव, नेहरू, ममता, लालू, और अन्य लोगों के लिये इस्तेमाल की है पिछले दस वर्षों में, वह बेहद फूहड़ और घातक थी - इसका नतीज़ा आपको समझ भी आ गया होगा, आपको देशभर में कोसा भी गया है, आपकी नीतियों और योजनाओं को लेकर मैनें भी भला - बुरा कहा है पर कभी असंविधानिक भाषा का प्रयोग नही किया
अब आप 73 के भी हो गए है,हमारे मालवे में कहते है "अपनी इज्जत - अपने हाथ"
नई पारी और अपने जीवन की आख़िरी पारी प्रधानमंत्री के रूप में खेल रहें है, और यही मौका है जब आप विपक्ष को और किसी को भी सँविधान प्रदत्त गरिमा देकर उनके विचारों को सम्मान दें और लोकतंत्र की रक्षा करें, आपको अपने वादे याद ही होंगे, भाजपा का घोषणा पत्र सम्हालकर रखा होगा ही घर में
अपने सहयोगियों और समर्थकों से बेहद सावधान रहें और उम्मीद है कि यह पाँच साला कार्यकाल शायद आप पूरा करेंगे, पार्टी के भितरघात और दोनो लालची समर्थक को आप जानते ही है
अशेष शुभकामनाएँ और कहा - सुना माफ़, देश सर्वोपरि है यह ध्यान रखिये - ना आपकी किसी से व्यक्तिगत दुश्मनी है, ना किसी की आपसे और जनता जनार्दन, भक्तगण और आपके आनुषंगिक संगठन के बेहद फुरसती लोगों को, रिटायर्ड लोगों को जो सठिया गए है - को कुछ नही तो वृक्षारोपण करके पेड़ पौधे सम्हालने का ही काम दे दीजिये - आपको बदनाम करने में ये सबसे बड़े गिरगिट है
बहरहाल, तीसरा कार्यकाल आपको यश और कीर्ति दें यही कामना
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धूप में नज़र आने वाली छबियाँ अक़्सर अंधेरों के प्रेत से भरी हुई होती है जो उद्दंडतापूर्वक सबको छलावा देते हुए जीवन को बहकाती है और अंधेरे में ही ठेलती है
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यह थप्पड़ कंगना को नही पूरी उस व्यवस्था के मुंह पर है - जो किसान, मजदूर, मेहनतकश महिलाओं,दलित आदिवासी, हाशिये पर पड़े आम आदमी के ख़िलाफ़ है
यह थप्पड़ उस अभिजात्य के मुंह पर है - जो दूसरों को कीड़ा - मकौड़ा समझकर मज़ाक उड़ाता है
यह थप्पड़ उस राजनीति के नाम है - जो चुनाव के समय तो आम आदमी के पाँव पड़ती है, पर सत्ता में आते ही हरामीपन दिखाने पर आमादा हो जाती है
कंगना और कंगना जैसों को यह समझ लेना चाहिए कि अब उनके ना चोंचले चलेंगे और ना ही कोई नाटक - नौटँकी बर्दाश्त की जाएगी
और अभी तो यह सिर्फ़ एक थप्पड़ है - मथुरा काशी बाकी है
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हिंसा सिर्फ़ मारा-पीटी, थप्पड़, हत्या या शब्दों से बेधने वाली वाचिक या भाव भंगिमा वाली सांकेतिक ही नही होती - हिंसा के कई प्रकार है
आत्ममुग्धता एक बड़ी हिंसा है जो आप दूसरों की बुद्धि पर अपने कुंठित विचार थोपकर कर रहे होते है और सदैव अपने को ज्ञानी, पढ़ाकू, निर्मल, कोमल और निष्पाप साबित करने में लगे रहते हैं - जबकि आपका अपना अतीत पाप-पुण्य और व्याभिचारों से बजबजा रहा होता है, बाजदफ़े आप talk of the town भी होते है
रिश्तों में बनावटीपन, दूसरे पर हावी होना, अपनी बात मनवाने की जबरन कोशिश और अंत में कोई ना मानें तो छोड़ना, त्याग करके सम्बन्ध विच्छेद कर लेना भी हिंसा है, इस सबमें आप यह भूल जाते है कि इस क्रम में आपने कितने शिकार किये और मासूमियत बरकरार रखने का ढोंग किया
आवश्यकता से अधिक सँग्रह करके अपने निजी जीवन के लिये स्वार्थवश इकठ्ठी की गई सामग्री या भोग विलास के ग़ज़ट्स इकठ्ठे करना और इस तरह से दूसरों को प्रभावित करना भी हिंसा है
हिंसा लिखना भी हिंसा है और जो तर्क-वितर्क कर निहायत ही उजबक तरीकों से अपने को ज्ञानी सिद्ध करें - वह सबसे बड़ी हिंसा है
अपन तो कबीरपंथी है
"जो दिल खोजा आपणा मुझसे बुरा ना कोय"
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हिंसा - अहिंसा के बीच
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अहिंसा का सिद्धांत सर्वकालिक और शाश्वत है - यह सही है एवं हो सकता है
पिछले एक - दो वर्षों से गांधीवादियों में मप्र के भोपाल, दिल्ली, बनारस से लेकर वर्धा तक की सम्पत्ति के लिये लट्ठमार होली और अदालतों में लड़ाई चल रही है, बैठकों में जूतम पैजार होना, अकाउंट सील करना, एसडीएम से लेकर कलेक्टर के पास आये दिन शिकवा- गिले और प्यार-मुहब्बत के साथ प्रेस विज्ञप्तियों के माध्यम से कीचड़ उछालना एकदम आम बात है, मतलब कुल मिलाकर शांति और अहिंसा का श्रेष्ठ स्वरूप सामने आ रहा है दुनिया के सामने
मज़ेदार यह है कि कब्र में पाँव लटकाये ये सब 70 - 75 पार के लालची बूढ़े है और बीमारियों से ग्रस्त है, इनकी औलादें निकम्मी है जिनके लिए ये अभेद्य किले कुबेर और लक्ष्मी की सहायता से बना देना चाहते है, खादी के झब्बों और महंगी कार में जीवन बीत रहा है, सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट से इन्हें सख्त परहेज है, जो गांधी तीसरे दर्जे में भारत घूमते थे - उनके ये वंशज पंद्रह - बीस लाख की कार के नीचे पाँव नही रखते, भोपाल, दिल्ली के राजघाट से लेकर छतरपुर और वर्धा से लेकर बनारस तक अरबों रुपयों की जमीन और संपत्ति है और मरने के पहले ये सेवाग्राम हो, मगन संग्रहालय हो, राजघाट हो, कस्तूरबा निधि हो या गांधी भवन - सब बेचकर, बांट-चूट कर अपने खाते में नगदी जमा कर लेना चाहते है
इसलिये मैं अब इन पर और खासकरके "अहिंसा" जैसे शब्द पर शक करता हूँ, अपने महामना दुनिया भर में जाकर अहिंसा की बात करते है पर गोधरा से लेकर तमाम दंगे इनके और इनके पितृपुरुषों के नाम है , कांग्रेस खुद अहिंसा का ढोल पीटती है, पर दंगे की जड़ वही से आती है, कम्युनिस्टों को खून से खेलने में मजा आता है - दुनिया की तमाम रक्त रंजित क्रांतियां इस बात की गवाह है, अपने यहां प. बंगाल इसका उदाहरण है जहां आज एक भी चुनाव मानव बलि के बिना नही होता, दलित आंदोलन हो या गोंडवाना या बोडोलैंड का सुभाष घीसिंग का जनांदोलन या नक्सलवाद, आतंकवाद - मतलब कही भी अहिंसा शब्द की प्रतिध्वनि सुनाई नही देती - ऐसे में हम जो गम्भीरता से चूक गए है इतिहास, वर्तमान में - क्या देकर जाएंगे नई पीढ़ी को
पूरी धरती इस समय युद्ध और शांति के बीच बेहतर जीवन का रास्ता तलाश रही है इसलिये शब्दों के मायने सापेक्ष है
इसी में से चुनना है वो गाना है ना
"हमें उन राहों पर चलना है
जहां गिरना और सम्हलना है"
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