हे हिंदी के कवि
जीते जी अपने छर्रों से अपने ही ऊपर किताब कैसे छपवा लेते हो बै और पूरी बेशर्मी से फिर बेच भी लेते हो
इसलिये पूछ रियाँ हूँ कि हमारे कस्बे में एक कवि ने जीते जी अपने नाम पर फाउंडेशन बना लिया था और मरने तक उस फाउंडेशन के बैनर के नीचे बहुत तरह के जुगाड़ और सेटिंग वाले आयोजन करते रहें
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फेसबुकिया लेखकों की किताबों और उनके दुष्प्रचार के चक्कर में बिल्कुल न पड़ें, आप इनकी किताबो के फोटू यहां ना चैंपे, इनके साथ आपकी भी इज्ज़त मेरी ही नही - दुनिया की नजरों में गिर जायेगी, अपना जमीर बचाये रखें
जो आपको मिलकर गले मिल रहा हो, खूब प्यार से मिल रहा, आपको अपने शहर में आमंत्रित कर रहा उससे कटकर निकल लें
जिसकी किताब को खासकरके युवा से दिखने वाले युवा [ जो 40 - 45 के ऊपर हो गया है, मैं कुछ कवियों को जानता हूँ जो रिटायर्ड हो गए कम्बख़्त अभी तक युवा ही कहलवाते है, इनके पड़पोतो की शादी हो गई पर ये जवान बने रहना चाहते है हरामखोर ] कोई पुरस्कार मिला हो - साहित्य अकादमी हो या शब्द-अब्द या गोबर गणेश उस किताब को बिल्कुल न खरीदें
अजा, रज़ा टाइप कार्यक्रमों में जाने वाले भाड़े के चापलूस और चारण - भाट जैसे लेखकों की किताबें बिल्कुल ना लें, ये ससुरे फेलोशिप और मानदेय पर नया कामसूत्र भी लिख देंगे
महिलाओं की कुटिल मुस्कान से बचें ये आपको फँसाएगी और अपनी घटिया किताब और कविताओँ के साथ अपनी सहेलियों की रद्दी भी खरीदवा देंगी और फेसबुकिया आशिकों की किताबें भी आपके झोले में डाल देंगी और जेब ऐंठ लेंगी साथ ही आपके रुपयों से पानी और नाश्ता भी भकोस लेंगी
अंजू मंजू अनीता सुनीता गीता सीता वाग्मिता आदि से तो बहुत बचकर रहे यह गैंग चलाने वाली फूलन देवियां हैं जो आपकी जान लेकर रहेंगी और समय आने पर ट्रोल भी करेंगी
फालतू की बेसिर पैर कहानियों, गाइड के जनक, पाथेय, और अग्रज, स्वयम्भू महान लोगों उर्फ बूढों से बचें और इनसे ना बात करें ना इनके पाँव छूकर चरण रज लें, वरना ये आपको सन 1700 में छपी ट्रेडल प्रेस की किताब चिपका देंगे - इन्हें देखते ही दो खरी खोटी सुनाकर भागो
विवि के निकम्मे हरामखोर मास्टर जो 24×7 फेसबुक इंस्टाग्राम या सोशल मीडिया पर बैठे रहते है और अपने छर्रो से अपने खुद के संडास बाथरूम से लेकर मुफ्त के सेमिनारों में जाने के किस्से प्रचारित करवाते रहते है - उनको भी घास मत डालो और फेसबुक से ब्लॉक कर दो
हिंदी के पीजीटी और घरेलू किस्म की कवयित्रियों से तो इतना दूर रहना जैसे नींबू को दूध से रखा जाता है - ये समय आने पर आपको डस लेंगे और आपकी मौत की खबर आपको भी नही होगी
युवा शोधार्थियों, कवियों और केंद्रीय विवि के उन अवसादग्रस्त फर्जी कवि, आलोचक, कहानीकार और उपन्यासकारों से बचना और इन्हें चाय तो दूर पानी की एक बूंद भी मत देना मेले में क्योंकि सांप को दूध पिलाने से उसका ज़हर ही बढ़ता है - ये अपनी माशूकाओं को खोजने या किसी और से ब्याह कर इन्हें नाली में धकेलकर भाग गई प्रेमिका को देखने आए है
उन प्रकाशकों से बचना जो प्रकाशन को वेश्यावृत्ति के धंधे और ट्रैफिकिंग के स्तर पर ले आये है लखनऊ, दिल्ली, जयपुर, हिसार, भोपाल, सीहोर, इंदौर, पटना, अलीगढ़, रोहतक, प्रयागराज , बनारस में ये लोग कोठे चला रहे है और अपनी कोठियाँ भर रहे है
पुलिसवाले, ब्यूरोक्रेट्स, बाबू टाईप लेखकों से भी बचना पर ये तुलनात्मक रूप से बेहतर है इनकी किताबें खरीद सकते हो क्योंकि ये रैंकिंग के अलावा किसी और लालच में नही है
एनजीओ वालो की रिपोर्ट्स और पत्रिकाओं से बचना, बच्चों के साहित्य लेते समय जरूर चौकन्ना रहना ये नवाचार के नाम पर कुछ भी थमा देंगे और आपको घर आकर समझ आएगा कि आप वही आत्महत्या कर लेते तो ठीक रहता
मुफ्त में बंटने वाली बाइबल, कुरान, रामायण, गीता और वे सारी किताबें ले आए जिनकी वहां जरूरत नहीं है और अपने मोहल्ले के स्कूलों, पुस्तकालय और घर-घर में बांट दें - आज सिर्फ लोगों को सांप्रदायिकता और कूप मण्डूकता से बचाने की जरूरत है , धर्म के सही मायने सीखाने की ज़रूरत है
अंत में अपने विवेक का इस्तेमाल करें, दोस्त यारों की किताबें ना लें और कम से कम नामुरादों के संग फोटू हिचवाने से बचें
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जब हम अपने अतीत के बारे में सोचते हैं, तो अविश्वसनीय किस्म की हैरानी होती है कि हम ऐसी मूर्खतापूर्ण गलतियां कैसे कर सकते थे, जिन्हें हम आज इतनी सफाई से देख सकते हैं - हम अपनी आज की नियती को कितनी आसानी से टाल सकते थे- एक चिट्ठी भेजकर, फोन पर कुछ शब्द कहकर, दूसरे शहर जाकर - लेकिन हमने ऐसा कुछ नहीं किया - मानों उन दिनों हम किसी स्वप्न सरीखी धुन्ध में चल रहे थे- किसी तर्कपूर्ण निर्णय के परे- जहां हमारा कोई बस नहीं था
अतीत हमें कुछ नहीं सिखाता, वह उसी तरह तर्कातीत है, जैसे दिन के उजाले में पिछली रात का स्वप्न
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◆ निर्मल वर्मा
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सन 2000 से लेकर आज सुबू तक बंडल से आई किताबों के झरोखे दिखायेगा, मुस्कुराते हुए सेटिंग से प्राप्त पुरस्कारों के फोटू दिखायेगा, आकर्षक कव्हर से लेकर उचित कमीशन की बात करेगा, "रूपये फिर आ जायेंगे - कहाँ जा रहे" कहकर भरमायेगा
क्योंकि भरी ठंड में शाम को रिक्शा नई मिलेगा - प्रगति मैदान के बाहर, दिल्ली से ट्रेन में किताबें ढोकर लाना किसी प्रसव पीड़ा से कम नही, एक के बदले दस और दस के बदले सौ पकड़ा देगा
इससे तो अच्छा है कि जब पाँच हजार में दस हजार किताबों का ऑफर देगा दीवाली पर या दान करने पर तैयार होगा तब सोचना
अभी जाओ - भले ही पर घूमो, चाट खाओ, छोला कुलचा खाओ, सबसे मिलो - जूलो
राहत इंदौरी साहब को दिल से याद करना
"बुलाता है / बुलाती है पर जाने का नई"
[ विशेष नोट - विवि के माड़साब लोग्स की, कॉलेज के माड़साब लोग्स की, हिंदी के पीजीटीज़ , और सरकारी स्कूल के माटसाब लोग्स की किताबें लेने का नई ]
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जिन किशोरों के दूध के दाँत भी नही टूटे, पाँव में दाये - बाये वाले पैर की स्लीपर पहचानने की अक्ल नही आई - वे अपना परिचय - "कवि, ऑथर, लेखक, कहानीकार, उपन्यासकार या आलोचक" के रूप में देते है या फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर या टेलीग्राम पर लिखते है तो कसम से मज़ा आ जाता है और उम्मीद बंधती है कि जल्दी ही वे पोस्ट लिखेंगे -
बस 800 से 1200 पेज के उपन्यास, 1551 कविताओं, 501 कहानियों के संकलन इनके और आ जाये तो झोला उठाकर चल दूँगा
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1992 में जब बाबरी मस्ज़िद ढाँचा गिराया जा रहा था तो सुना था कि पीवी नरसिम्हाराव पूजा कर रहे थे और जब तक वे पूजा से उठकर कार्यवाही करते ढाँचा अयोध्या में ढहा दिया गया था देश प्रेमियों द्वारा , उनके पूजा घर के बाहर अधिकारी निर्देशों का इंतज़ार ही करते रहें और उधर कलंक मिट गया
एक सच्चे देशभक्त कांग्रेसी को भारत रत्न जाहिर है मिलना ही था, बाकी सबके योगदान के लिए माननीय मोदी जी ने स्पष्टीकरण दिए है पर पीवी के लिये कोई कमेंट सुना नही
एक भारत रत्न कल्याणसिंह को और दे देते जब रेवड़ी बांट ही रहे हो सरकार बहादुर तो और भी ठीक रहता - अमर तो आप हो ही बस टोपी में एक सुनहरी लग्गी और लग जाती
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जिस अंदाज़ में लेखकगण किताबों के विज्ञापन, स्टाल नम्बर, हाल क्रमांक और बाकी जानकारी यहाँ दे रहे है - उससे लगता है कि प्रकाशक नामक प्राणी का पिछले दो - तीन महीनों में पूरा शरीर ही घी और ड्राय फ्रूट्स में डूबकर निखर गया होगा, फिर भी कुछ ही नही सभी टसुए बहाएंगे कि किताबें बिक नही रही और गरीबी परोसेंगे सबके सामने पूरी बेशर्मी से, वैसे यह भी बता दूँ कि संसार के उदभव के बाद इतना टनों कचरा छपा नही होगा आज तक
अफसोस यह होता है कि मंचीय कविता के मंच से घटिया तुकबंदी पढ़ने वाले सेटिंगबाजों, छोटे कस्बों में सतनारायण भगवान की कथा करने वाले, गली मोहल्ले के शिव मंदिरों में अभिषेक और पूजा करके लूटने वाले कुछ धोती छाप लोग प्रकाशक बन गए हैं और नए लोगों को फाँसकर कर हर महीने 150 से 200 शीर्षकों की किताबें छाप रहे हैं - शर्म आना चाहिए इन लोगों को जो साहित्य सेवा के नाम पर सिर्फ और सिर्फ धंधा चला रहे हैं - मल्लब हद यह है कि किटी पार्टी में आई महिलाओं की बातचीत और विशुद्ध ठलवेबाजी को भी ये कथा संकलन बनाकर छाप रहे है पुस्तक मेले के नाम पर और खपाने को तैयार है
बस अब फिक्र यह है कि कोई लेखक अपनी किताब लेकर जयपुर, दिल्ली, अलीगढ़, रोहतक, जींद, भिवानी, प्रयागराज, बनारस या झुमरी तलैया के धंधेबाज प्रकाशक के पास जाएगा तो वो बापड़ा पहचानेगा कैसे कि यह मेरा ही लेखक है और इसे मैंने ही छापा है
इसलिये लेखकों को सुझाव है कि जो 15 से 75 हजार तक नगदी प्रकाशक को दे रहे हो - उसमें 10 - 12 नोट फटे हुए, या होली के रंग में रंगे या शादी-ब्याह की हल्दी में चोपडकर दे दें, ताकि उसे याद रहें कि चंपा बाई या घीसालाल से 22 नोट बदलना है
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"ओ दीदी एक मिनिट आयेंगी"
"जी भैया बोलिये ना का काम है, पूरे मैले की सफाई करना है, बहुत देर हो गई आज"
"कुछ नही बस इस किताब का विमोचन कर दीजिये ज़रा, एकाध फोटू हीच लूँ फेसबुकवा पर लगाना है "
लेखक की किताब एन आख़िरी दिन आखिरी घण्टे आई प्रेस से और प्रकाशक भाग गया जयपुर या गाज़ियाबाद बगैर केशलोचन समारोह करवाये
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#पुस्तक_मैले - 24, की आख़िरी पोस्ट
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