मेरे यहॉं सफाई कर्मी आती है वो पढ़ी - लिखी है, उसे काम करने में बहुधा शर्म भी आती है, निगम में स्थाई कर्मचारी है, पाँच अंकों में तनख्वाह है पर अभी भी मांगने की प्रवृत्ति गई नही है खून से
आज ग्रहण का शीदा लेने आई थी, पहले भी बात हो चुकी थी कि जब नगर निगम से तनख्वाह मिलती है तो ये बचा हुआ खाना क्यों मांगने आती हो, और क्या सच में घर जाकर खाती भी हो
तो बोली - "सास ने जागीरदारी दे रखी है इस कॉलोनी की, इसलिये हमारा हक्क है, रुपये भी लेंगे और राशन भी और रात का बचा अन्न भी, दीवाली ईद पर इनाम भी - इसे कैसे छोड़ दें"
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सिर्फ़ पढ़ा - लिखा होने से इंसान मूर्खता छोड़ देगा यह कल्पना ही बेकार है, रुपया लेना ठीक है कभी - कभी, पर रात का बचा खाना ले जाकर घर के बच्चों और बाकी को खिलाना कहाँ की बुद्धिमता है वो भी आज के समय में, फिर नगर निगम में स्थाई कर्मचारी है, पाँच अंकों में तनख्वाह भी लेते है - पर जो जागीरदारी का भूत है, ठसक है - वह 25 वीं सदी भी जायेगी यकीन नही होता - खत्म नही होगा और यह नई पीढ़ी पर थोपना क्या जायज़ है
मैंने कई कर्मचारी देखें है जो शहरों - कस्बों में बढ़िया नौकरी कर रहें , वे अपने बुजुर्ग माता - पिता को पर्याप्त रुपया भी भेजते है गांवों में, पर अभिभावक पारंपरिक पेशा नही छोड़ पा रहें, आख़िर क्यों नही अब आराम से रहते, कई मित्र इससे परेशान रहते है - पर समझ नही आता आख़िर क्यों यह मांगना और पेट भरना वो भी दूसरों के घर के बासी बचे भोजन से
किसी आदिवासी को होली के अलावा मांगते नही देखा आजतक, इतने सुदूर इलाकों में जाता हूँ तो कभी भी नही देखा मांगते, वे चुपचाप रोटी खा लेंगे या भूखे सो जाएंगे जबकि वे इनसे ज़्यादा गरीब और वंचित है
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दलित आंदोलन का इस पर क्या कहना है
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