|| जो मेरे घर नही आयेंगे ||
डाक्टर संजय अलंग जी हिंदी साहित्य के वरिष्ठ लेखक है और इतिहास के अध्येत्ता है, मूल पंजाब - परन्तु अब छत्तीसगढ़ के स्थाई निवासी हो गए है , भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी है और इन दिनों बिलासपुर सम्भाग के कमिश्नर है
कल से वे इंदौर में थे, सो आज देवास आने की योजना बन गई, लगभग दो घण्टे हम मित्रों के बीच रहें और बहुत सारी बातें हुईं - साहित्य, संस्कृति, इतिहास , टीवी , ओटीटी प्लेटफॉर्म और विभिन्न फिल्मों और सीरीज़ की
अपने फ़लसफ़े और यात्राओं के सन्दर्भ में अपने अनुभव बाँट कर इस चर्चा को बेहद ऊर्जा से भर दिया, आपने एक महत्वपूर्ण बात कही कि हिंदी साहित्य में हमें अब नए विमर्शों की जरूरत है - "गरीबी, स्त्री, दलित, किसान और आदिवासी विमर्श " के जाल से निकलकर जब हम कुछ नये विषयों पर अपनी क़लम चलाएंगे तभी कुछ उत्कृष्ट रच पायेंगे और यदि विश्व साहित्य को देखें तो हम पाएंगे कि अब उपन्यास और कहानी विमर्श से बाहर है - क्योंकि नयापन इसी में निहित है - और हम लोग इन्ही पाँच मुद्दों या थीम को पकड़कर बैठे है सदियों से , बजाय इसके अब कुछ और नए विषयों पर एक्सप्लोर करने की ज़रूरत है, संस्कृति के उदाहरण देते हुए कुवैत, और तुर्क के उदाहरण देते हुए कहा कि एक संस्कृति अंततः आपराधिक हो जाती है और दूसरी स्थापित संस्कृति पर आच्छादित हो जाती है और हमे कही तो खुला हुआ रहना ही पड़ेगा, रेत समाधि से उद्धत करते हुए कहा कि "हर मुल्क का अपना खुलापन है, कहीं कपड़ों का, कहीं कहकहों का" और इसे मानना ही पड़ेगा
आपने कई उदाहरणों और इतिहास के सफ़ों से उदाहरण देकर अपनी इस हाइपोथीसिस की व्याख्या की और यह कहा कि रेत समाधि की निंदा इसलिये हो रही कि वो इन विमर्शों से बाहर है, वहां कंटेंट है और एक नई भाषा के साथ नए बिम्ब और व्याख्याएं है और अब विश्व स्तर पर वही पुरस्कृत और अनुशंसित होगा या यश पायेगा जो इन विमर्शों से निकलेगा, दुर्भाग्य यह है कि हम सब इस ट्रेप में ही अब तक फंसे है और नया कुछ रच नही पा रहें
आपने अपने लिए लेखन को एक नियमित अभ्यास बताते हुए कहा कि सुबह एक घण्टा खेलना और डेढ़ घण्टा शाम को लिखना अनिवार्य है - ताकि दफ़्तर और बाकी सबसे कटा जा सकेगा और यही हम सबके लिए जरूरी है ताकि बाकी मनोविकारों से बचा जा सकें
बहुत शुक्रिया भाई साहब, बिलासपुर से यहां तक आने के लिए, भाई साहब से इसी मई में 4 से 8 तक उमरिया में मुलाकात निश्चित थी, परन्तु ना मैं जा पाया और ना वे जा पाये थे, हम दोनों ही बीमारी में थे, पर आज देवास में जी भरकर बातें की तो मुझे रायपुर के ही वरिष्ठ कवि विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता याद आ गई -
"जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे
मैं उनसे मिलने
उनके पास चला जाऊँगा.
एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर
नदी जैसे लोगों से मिलने
नदी किनारे जाऊँगा
कुछ तैरूँगा और डूब जाऊँगा
पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब
असंख्य पेड़ खेत
कभी नहीं आएँगे मेरे घर
खेत-खलिहानों जैसे लोगों से मिलने
गाँव-गाँव, जंगल-गलियाँ जाऊँगा।
जो लगातार काम में लगे हैं
मैं फ़ुरसत से नहीं
उनसे एक ज़रूरी काम की तरह
मिलता रहूँगा—
इसे मैं अकेली आख़िरी इच्छा की तरह
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूँगा"
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शुक्र है कि जिलाधिकारी महोदया की गाय ही बीमार है और गाय की सेवा में 7 पशु चिकित्सक लगे है, जब वो खुद कभी बीमार पड़ी तो [ भगवान ना करें ] पूरे जिले के चिकित्सक ना लग जाएं उनका ओवर ऑयलिंग करने में
मेरी दुआएँ और उन सभी चिकित्सकों के प्रति हार्दिक सहानुभूति भी - जो कलेक्टर नामक प्राणी के नीचे काम करते है और ऐसी चित्ताकर्षक कहानियाँ देश भर में रोज़ घटित होती है, कुछ मित्र बुरी तरह कोसते है और खीजते भी है पर ये ठोस उदाहरण है ना - अब कैसे भाषा और तंज पर कंट्रोल करूँ
फिर कहता हूँ जब तक LBSNA, मसूरी नामक संस्थान में बम लगाकर उड़ा नही दिया जाएगा सामंतवादी प्रशिक्षण की पद्धति को और इन्हें राजा बनाने का - तब तक ये ब्यूरोक्रेट्स सुधरेंगे नही - अपवाद हर जगह है, मेरे बहुत अच्छे संवेदनशील मित्र इस सेवा में है पर जो pampering से बनकर आये है और सामंतवादी रवैये से पूरे प्रशासन को हलकान किये रहते है उनका क्या कीजै
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