और ये रहा "बया" का नया अंक और ये रहा आलेख
“ओह शीट ये क्या हो गया”
“फक ऑफ, धीस इस टू मच”
“आय ऍम नोट गोइंग टू डू धीस फकिंग वर्क”
“भैन्चोद कुछ होता ही नही यहाँ”
“उस दिन उसने सबकी कहकर ली और बुआ कुछ बोल ही नही पाई सबके सामने, एंड शी इज अ ब्लडी बीच”
“साला ये दस्तावेज किस मादरचोद ने लिखा है कि कुछ पढ़ने में नही आ रहा”
“यार पापा, आप मेरी मैय्यू मत करो मै देख लूंगा उस बीसी को, एंड आय विल फक हिम लाईक ए वाईल्ड डॉग”
“यार मोम, तुम भी ना हर बार शीट कर देती हो जब भी मै कुछ करना चाहता हूँ तो और दीदी को देखो, अपने बॉय फ्रेंड के साथ जब घूमती है तो फक यार..क्या बोलूँ , शी इज लैक अ प्रोस”
“जलेबी वाज़ टू सेक्सी एंड चाट वाज़ सो कूल – मादरचोद ने पार्टी में खूब रुपया उड़ाया, साला कुत्ते का पिल्ला और एक हमारा बाप - कुछ नहीं साले भडवे के पास ”
“सिच्युएश्न इस सो बेड देट आय कांट हेंडल इट, वी नीड टू पुट ब्लडी फकिंग टीम फॉर कंट्रोल”
“ही इज अ होमो एंड लाईक माय प्रोफेसर, गिविंग ब्लो जॉब इज हिज़ पैशन”
“शी इज अ लेस्बो एंड वैरी हॉट , बट आय वन्ना गिव हर अ हॉट फक फुल नाईट”
क्या आपने इस तरह की भाषा सुनी है, आप इसमें कुछ और जोड़ सकते है क्या ? भोसडीके, साले, कुत्ते, सूअर, गांडू, एमसी, बीसी, बीच, बास्टर्ड, गे, लेस्बो, हॉट, कूल डूड, बडी, सेक्सी आदि शब्द कही सुने है क्या ? कब कहाँ, क्या आपके बड़े भाई और बहन या माँ बाप ने इन्हें सुना है या इस्तेमाल करते है, आपके दोस्त, स्कूल कॉलेज या कार्यस्थल पर कोई इनका इस्तेमाल करता है? क्या वे जब ये सब उच्चारित करते है तो असहज होते है या बोलते समय उनके चेहरे पर कोई गिल्ट होता है या सुनाने वालों को गुस्सा आता है या कभी आपने सोचा कि जलेबी कैसे सेक्सी हो सकती है या सिस्टर को कैसे कह सकते है कि फकिंग जॉब कर रही है वो, आपकी माँ कैसे शीट कर सकती है आपकी तरक्की की राह में या पिताजी के सामने कैसे आप अपने ही छोटे भाई को भैन्चोद कह सकते है या बीबी के सामने चौबीसों घंटे बॉस को फक फक करके गालियाँ दे सकते है आप पर यह सब हो रहा है
बात कोई बहुत पुरानी नहीं बस पिछली सदी के आठवे - नवें दशक के शुरुवात की है जब अपने देश भारत में एशियाई खेलों का आयोजन हुआ सन १९८२ में तो टीवी नामक अजूबा देश के कोने - कोने में फैलाने की जिम्मेदारी सरकार ने की. हमारे कस्बे में भी टीवी आया और जब वेस्टन से लेकर विडियोकोन नामक कम्पनियां बाजार में आई तो आठ दस हजार का एक ब्लेक एंड व्हाईट टीवी घर में पड़ता था. नब्बे ढाई सौ का वेतनमान पाने वाले माँ बाप सरकारी नौकरी में तो थे परन्तु इतनी औकात या हिम्मत नही थी कि वो एक टीवी का डिब्बा घर खरीद लाये, ल्लिहाजा कॉलोनी में रहने वाले एक तमिल परिवार के घर हम जाते और शनिवार की शाम रूना लैला का कार्यक्रम, रविवार की सुबह की रंगोली और शाम की फिल्म बिना नागा देखते, थोड़े दिनों तक नियमित देखने के बाद तमिल परिवार की निजता में दखल होने लगा. इस बीच कई प्रकार के सीरिय्ल्क्स भी चालू हुए हम लोग से लेकर नुक्कड़ हमारी टीवी देखने की लालसा बढ़ने लगी और परिउवार की उसीबतें , तो फिर वे सरेआम हम लोगों को टरकाने लगे तब तक किशोरावस्था पार करके हम महाविद्यालय में आ गए थे और श्रम, बेइज्जती आदि समझ आने लगा था, पिताजी और माताजी को जिद पकड़कर आखिर घर में एक वेस्टन का डिब्बा ले लिया शटर वाला, रोज शाम को ठीक छः बजे उस पर कपड़ा मारकर धूल साफ़ करते और फिर टीवी देखने बैठ जाते किसी योगाभ्यास की तरह – इस तरह से फिल्मों , सीरिज और रंगोली का दौर जीवन में आरम्भ हुआ. फिल्मों को छोड़ भी दे तो सीरियल्स का भयानक जोर था, हालांकि आधे में छुट जाने और हफ्ते भर तक इंतज़ार करने का काम अखरता था परन्तु कोई चारा ही नही था. हमलोग, दर्पण नुक्कड़ से लेकर हिंदी साहित्य की कहानियों पर आधारित सीरियल्स ने जीवन पर बहुत बड़ा प्रभाव डाला , हम सबकी पीढ़ियों की जो भी समझ उस समय थी उसे परिपक्व करने, पढने और साहित्य में रूचि बढाने में इन सीरियल्स का बड़ा हाथ रहा है. फिर आया रामायण और महाभारत का दौर – जिसने ना मात्र जीवन बदला बल्कि देश की गति और संस्कृति को बुरी तरह से प्रभावित किया – काकाश्री, भ्राताश्री, तात, अनुज, देवी, माता, पिताश्री जैसे शब्दों को जीवन की भाषा बनाया. रविवार की सुबह पसरा सन्नाटा और हफ्ते भर तक इन पौराणिक प्रसंगों के साथ बातचीत का ढंग, संस्कार, और चाल ढाल पर बातें करते हुए हम अघाते नहीं थे
सीरियल्स का कुछ दौर ऐसा चला कि हमलोग रामायण महाभारत के बाद दूरदर्शन पर फिल्मों के बाद सीरियल्स का दौर शुरू हुआ जिसमें हिंदी, बांग्ला के साहित्यकारों की अमर कहानियों के साथ ये सीरियल्स आये
वृंदावन लाल वर्मा से लेकर महाश्वेता देवी, कमलेश्वर, टैगोर, रांगेय राघव जैसे लेखकों की कृतियों पर सीरियल्स बनें साथ ही दर्पण जैसे सीरियल में हिंदी, मराठी, बंगला, उड़िया से लेकर दक्षिण भारत की भाषाओं के साहित्य की भी कहानियां सामने आई और इस तरह साहित्य ना मात्र प्रचलित हुआ बल्कि लोगों को विभिन्न आस्वाद मिलें
यह एक बड़ी चुनौती थी कि कैसे संस्कृति, भाषा, साहित्य और समाज को देखा परखा जाए साथ ही एक किस्म के संस्कार आने वाले नागरिकों को दिए जाएं, उस समय दूरदर्शन अकेला माध्यम था जिस पर कड़ा नियंत्रण और सेंसर किस्म की कैंची थी जो बहुत बारीकी से हर कोण पर ध्यान देती थी मतलब साले शब्द को भी एक बीप के कारण सुना नही जा सकता था। नुक्कड़ में खोपड़ी (समीर कक्कड़) की भाषा और लहजे पर हुआ विवाद याद ही होगा बहरहाल सीरियल्स की लोकप्रियता बढ़ती जा रही थी हफ्ते में एक बार आने वाले सोमवार से शुक्रवार तक आने लगे फिर दूरदर्शन चौबीसों घण्टे चलने लगा तो रिपीट टेलीकास्ट होने लगे और दीवानगी यह थी कि लोग रिपीट भी देखते काम करने वालों को या गृहिणियों को यह सुविधा मिली कि वे एक बार छूट जाने पर दूसरी बार देख सकती थी. इस बीच निजी चैनल्स आये स्टार, सोनी आदि जैसे चैनलों की शुरुवात के बाद टीवी रंगीन भी हुआ महंगा जरूर था और स्टेटस का सिम्बोल भी पर धीरे धीरे रंगीन टीवी लोकप्रिय हुआ और केबल कनेक्शन का दौर शुरू हुआ जिसमें लोगों को पन्द्रह रूपये माह देना था हालांकि यह अतिरिक्त बोझ था जेब पर , परन्तु यह ट्रेंड अपना लिया गया
निजी चैनल्स आने के कारण सीरियल्स में प्रतिस्पर्धा बढी और फिर जिस तरह से सीरियल्स आये वो बेहद चौकाने वाले थे, शहरी चमक दमक, दिखावा, उद्योग घराने, ऊँची सोसाईटी की महिलाओं का चलन, किती पार्टी, जलन, कुढ़न, होड़, और इस सबके बीउच षडयंत्र रचती स्त्रियाँ और पुरुष - मतलब स्थिति यह हो गई कि इन सीरियल्स ने देश को लगभग मानसिक रूप से बीमार कर दिया, औरतें संताप और अवसाद में रहने लगी, म्नोच्जिकित्सकों का व्यवसाय बढ़ा और घर -घर में क्लेश बढ़ने लगे और यह समझ आया कि एकता कपूर जैसे निर्माता निर्देशकों के कारण निम्न और माध्यम वर्ग के परिवारों पर इन सीरियल्स ने बहुत गहरा प्रभाव डाला. वर्तमान राजनीति में मुखर स्मृति ईरानी भारतीय बहु का चेहरा बनी और सास भी कभी बहु थी जैसा सीरियल भारतीय घर परिवार और अस्मिता का मुखौटा बन गया – क्या कभी कोई सोच सकता है कि कभी आलोक नाथ या अन्य कलाकार “हमलोग” के माध्यम से भारतीय समाज का मुखड़ा थे वे खत्म किये जाकर सास भी कभी बहु थी जैसे सीरियल के कलाकार हमारा प्रतिनिधित्व करने लगे और सिर्फ स्त्रियाँ ही नही बल्कि पुरुष युवा किशोर सब इस भीड़ में शामिल थे और ऐसे तमाम सीरियल्स लोकप्रियता के शिखर पर चढ़कर व्यवसायिक लाभ देने लगें, अर्थात अब बाजार इन सीरियल्स के माध्यम से घरों में घुस रहा था और फलस्वरूप करवा चौथ या तीज या छत जैसे त्यौहार जो बिलकुल ही सहज और सादे ढंग से मनाये जाते थे अब फैशन परस्ती में आ गए और देखा देखी घर घर में श्रृंगार और सजावट का एक पूरा बाजार उतर आया, इधर भार कि सावली लडकियां विश्व सुन्दरी, मिस यूनिवर्स बनी, महिलाए तो ठीक पुरुष भी गोरा होने लगे. इस सब का श्रेय निश्चित ही सिरियल्क्स को जाता है
सदी बदली नया जमाना आया और नए तरह के चैनल्स, नई बहस और नए प्रकल्प खड़े हुए - राजनैतिक विचारधारा, नए अर्थ तंत्र, नया बाजार, उपभोक्तावाद, वैश्वीकरण, विश्व भर से आयातित सामग्री का इस्तेमाल हमारे यहाँ जिस पैमाने पर हुआ और खपाया गया वह निश्चित ही एक शोध का विषय है. इस सबके बीच समाज में बदलाव कि अपनी एक चाल थी एनजीओ से लेकर विभिन्न आन्दोलन, एक्टिविज्म, और लिख्जने पढ़ने के बढ़ाते दायरों ने भी बराबरी से इस पुरे को एक तरह से काउंटर किया और कुछ निजी चैनल्स पर अपनी बात रखी. सबसे अच्छा था कि इन सीरियल्स की भाषा, तहजीब तकनीक और समझ पर लोगों ने सवाल खड़े करना शुरू किये
इस बीच समानांतर सिनेमा का दौर लौट गया था जहां हमने गोधुली, मंथन, मिर्च मसाला, बाजार, अर्थ , दामुल या पार अर्धसत्य जैसी कालजयी फ़िल्में देखी थी और एक वृहत्तर समाज जिसमे असमानता गैर बराबरी और पिछड़ेपन से त्रस्त लोगों की जिन्दगी देखकर सबको साथ लेकर चलने की कसमे खाई थी सरकार के तौर पर भी और समाज के स्तर पर भी. परन्तु इस सदी कि शुरुवात में वो घटित होते दिखा नहीं बल्कि हम ज्यादा स्वार्थपरक होते गए
कोरोना की महामारी ने विश्व के सामने नए प्रकार की चुनौतियां रखी है और इससे हमने कई बातें सीखी जिसे कहने सुनने की आवश्यकता नही अप्रन्तु इस दौर में जो सबसे बड़ा बदलाव आया वह था हमारे फिल्मों और ललित कलाओं पर प्रभाव. सिनेमा घर बंद हो गए, नाटक संगीत के कार्यक्रम या चित्रकला के शो खत्म हो गए, घरों में काम कर रहे लोगों के सामने मनोरंजन का कोई उपाय नही था, दूरदर्शन और निजी चैनल्स के साथ न्यूज की भसड में भी अब लोगों को रूचि नहीं थी, बाजार घर पहुंच सेवाओं के जरिये एक क्लिक पर उपलब्ध है और यह जो स्वरूप उभरा है वह मुझ जैसे आदमी को निश्चित ही चकित करता है. फिर किनडल पर पढने का हो या पीडीएफ फार्मेट में या ब्लोगिंग का, हम अभी भी हार्ड कॉपी पसंद करते है परन्तु यह दौर सूचना प्रौद्योगिकी का दौर है जहां बच्चे हमसे बेहतर जानते है हर चीज. हाथ का मोबाइल दुनिया है – वह दूकान है, बेंक है, शादी ब्याह करवाने का साधन या सम्बन्धों का जरिया. बस इसीका प्लेटफोर्म उठाकर नेटफ्लिक्स, अमेज़न सोनी, हॉट स्टार, मेक्स प्लेयर जैसे बड़े चैनल्स ने एक नया प्लेटफोर्म बनाया और इसे ओटीटी कहा गया जहाँ हर समय एक क्लिक पर हर तरह की सामग्री उपलब्ध है. फिल्म, सीरियल्स, इतिहास, बाजार, विश्व साहित्य, सेक्स, रोमांस से लेकर युद्ध विभीषिका और वो तमाम जो एक इंसान को मनोरंजन से लेकर हर तरह से उद्धेलित करने को तैयार है. मात्र सौ से लेकर दो सौ रूपये प्रतिमाह में मोबाइल पर सब उपलब्ध है और यह इतना सस्ता है कि यह समाज का हिस्सा बन गया. शुरू में हम जैसे लोग मन मसोजते थे कि मेरे पास अमेज़न या नेटफ्लिक्स नहीं है जब कही फिल्म या सीरिज की चर्चा होती थी तो पर आज हम भी इस दस्तूर को अपना कर विकसित और प्रबुद्ध लोगों की भीड़ (?) में शामिल है. ये ओटीटी प्लेटफोर्म जीवन का हिस्सा है और औसतन मेरे जैसा आदमी रोज के तीन से चार घंटे यहाँ घूमता रहता है, फिल्म, सीरीज, डाक्युमेंटरी, वृत्त चित्र, क्लासिक्स की तलाश में और वैश्विक्स स्तर पर क्या हो रहा है यह देखने - समझने के लिए.
सीरियल्स की भीड़ में अभी बात करें तो मुझे लगता है 8 -10 सीरियल पर बात करना जरूरी है जिन्होंने अलग - अलग मिजाज की कहानियां और परिदृश्य हमारे सामने प्रस्तुत किए. सबसे पहले सैक्रेड गेम जैसा सीरियल है जिसमें षड्यंत्र, देश प्रेम का थोथा नाटक, हिंसा और सेक्स है - गाली गलौज तो भरपूर है ही, परंतु इसके साथ कहानी बिल्कुल भी नहीं है. मिर्जापुर दूसरा सीरियल है जो बेहद चर्चित रहा. मिर्जापुर 1 एवं 2 वस्तुतः प्रेम, वर्चस्व और ईगो की कहानी है और इन तीनों को पाने और बरकरार रखने के लिए हिंसा, खून खराबा, षड़यंत्र और बदला लेना स्वाभाविक है और इस सबमें पुलिस, प्रशासन और राजनीति का इस्तेमाल होना लाज़मी है, बहुत लोग पैदा ही इसलिए हुए है कि मोहरों की तरह इस्तेमाल होते रहें और कीड़े मकौडों की तरह मर जाये - गाहे बगाहे हम सब एक दूसरे का इस्तेमाल करते है - मरना मारना हमेंशा भौतिक नही होता. बस इतनी सी बात को दो सीजन के लगभग दस - ग्यारह घण्टों में फ़िल्माया गया है, छायांकन, अभिनय, कहानी, निर्देशन, और लोकेशन बेहतरीन है - भाषाई गालियों को लेकर कमेंट करने की जरूरत नही - गालियाँ हम सब देते है और देना चाहिये जो लोग नैतिक होने का ढोंग करते है वे कितने पतित है उस पर कहने का अर्थ नही है. बिहार, उप्र ही नही - हम सबके घर परिवार की सीधी कहानी है और समय रहते इसे स्वीकार कर लीजिए, आपके पाखंड और दोगलेपन से किसी को फ़ायदा तो नही पर आपको ही सबसे ज़्यादा नुकसान होगा - यह पीढ़ियों को सचेत करने वाली कहानी और दूर तक फैले फ़लक की दास्तान है जिसे हम सबको अपने जीवन में एक ना एक दिन सहना, झेलना और निपटना है
फिर आश्रम है जिसमें राम रहीम के चरित्र को अप्रत्यक्ष रूप से दर्शाया गया है इस सीरियल में भारत में किस तरह से धर्म अध्यात्म का सहारा लेकर बाबाओं ने भोली भाली जनता को बेवकूफ बनाया और इस पूरे षडयंत्र में अच्छे खासे पढ़े-लिखे लोग भी फंसे - वहीं बाबाओं ने अकूत संपत्ति बनाई. अरबों रुपयों के आश्रम जहां पर हर तरह के गैर कानूनी काम होते थे, को धर्म के आवरण से ढक दिया गया और अपना व्यवसाय चलाया. बेहद चर्चित रहा और देशभर में इसको लेकर धार्मिक नेताओं ने प्रदर्शन भी किये परन्तु सच्चाई जानने के बाद भी हमारे यहाँ आशाराम या तमाम ऐसे साधू महात्मा लोकप्रिय है और इसकी सीधी वजह है कि साधुओं का राजनीती से बहुत तगड़ा गठजोड़ है. इसके बाद एक सीरियल आता है दिल्ली क्राइम जिसमें दिल्ली में हुए एक अपराध की लंबी तफ्तीश की गई है इसमें बहुत बारीकी से यह दिखाने की कोशिश की है कि कैसे पुलिस पूरी व्यवस्था का हिस्सा होते हुए भी एक पुर्जा मात्र है और राजनीति के हाथों चाह कर भी लोगों को न्याय नहीं दिला पाती हैं. फिर एक सीरियल आता है तांडव जो बिहार के राजनीति पर आधारित था और उसमें कैसे राजनीति विकास और जन मुद्दों पर ध्यान न देकर सत्ता केंद्र में ही रहती है, तांडव में राजनीति तो पूरी टीम करना ही चाह रही थी ताकि प्रचार हो, दो कौड़ी का घटिया तांडव निहायत ही उबाऊ, बचकाना और सस्ता सीरियल था. शी, आश्रम, भौकाल, दिल्ली क्राइम, सेक्रेड गेम्स, तलाश, लाखों में एक, मिर्जापुर या बाकी और इससे हजार गुना बेहतर है - ना राजनीति, ना गुंडागर्दी, ना गालियाँ, ना कहानी, ना अभिनय, ना निर्देशन, ना फ्लो, उजबकों ने कन्हैया, शेला राशिद, उमर और जेएनयू की कच्ची - पक्की कहानी को आधार बनाकर जबरन पेल दिया: विडंबना यह है कि सेफ अली और डिंपल कपाड़िया के होने से सारा कचरा सोना हो जाएगा क्या, मतलब आर्टिकल 15 की समीक्षा मे भी लिखा था कि निजी जातिगत फ्रस्ट्रेशन, व्यक्तिगत अपराध बोध और निजी साहित्यिक पहचान हिंदी में न मिल पाने का अवसाद और तनाव कम से कम सीरीज लेखन में नही झलकना चाहिये - इसका जितना प्रचार किया या हो रहा था, उसकी तुलना में यह सीरीज दो कौड़ी की भी नही है, बेहद सस्ते डायलॉग और परिपक्व राजनैतिक समझ ना होने से लेफ्ट को गलियाने से जातिवाद के दंश और अपराधबोध कम नही होते, यह समझ नही है किसी की तो - इतना बड़ा चुतियापा काटकर वितान रचने की ज़रूरत नही है. गौरव सोलंकी की कहानी और अली अब्बास ज़ाफ़री पर सच में तरस आता है और अमेज़न ने क्या सोचकर यह मूर्खतापूर्ण जोखिम उठाया होगा; महाबोरिंग और एकदम कच्चा आख्यान, जैसे बीए प्रथम वर्ष के छात्र को अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में "आधुनिक हिंदी कविता के विकास में तृतीय सप्तक के पाथेय कवियों के अनुशीलन" , पर बोलने को कह दिया जाए - और अंत मे वह जो गुड, गोबर और गौमूत्र करेगा उसका कुल जमा है - तांडव
हर्षद मेहता एक महत्वपूर्ण सीरियल था जिसने पूरे भारत के आर्थिक तंत्र को किस तरह से एक व्यक्ति ने व्यवस्था की कमियों को भापकर अपना फायदा किया और भारत जैसे गणराज्य को खोखला किया शेयर बाजार के माध्यम से जिस तरह से भारत को आर्थिक गर्त में ले गया वह देखना दिलचस्प था. हर्षद कमज़ोर भारतीय व्यवस्था का प्रोडक्ट था. हर्षद मेहता शातिर नही, भ्रष्ट नही वरन व्यवस्था का उपयोग करके अपने परिवार की बेहतरी के लिए, गरीबी दूर करने के लिए एवं अपने आर्थिक स्वार्थ सिद्ध करने वाला व्यक्ति था जो बहुत ही साधारण परिवार से आया, यह कोई गलत नही है - महत्वकाँक्षाये सबमें होती है, कम पढ़ाई लिखाई के साथ पनपा और कड़ी मेहनत से अर्थशास्त्र, शेयर बाज़ार और अंग्रेजी पर महारथ हासिल करने वाला यह बन्दा अपने व्यवहार, सम्प्रेषण कला और जीवंत सम्बंध बनाकर अर्थ व्यवस्था में सेंध लगाता है , एक गुजराती व्यवसायी के मूल चरित्र को उभारने में हंसल मेहता सफल रहें है. नरसिम्हाराव से लेकर साधु संतों और डाक्टर मनमोहन सिंह जैसों को भी पानी पिलाया; बुल, रिजर्व बैंक, बैंकिंग, अफसर, सीबीआई , तोता, बोफोर्स से लेकर माधवन जैसे असली चरित्रों को अपने सामने पुनः अभिनीत होते देखना संतोषप्रद है
हंसल मेहता द्वारा निर्देशित यह सीरीज़ भारतीय अर्थ व्यवस्था की एक बेजोड़ कहानी है - जिसे हर उस भारतीय को देखना चाहिये जो भले ही भीख मांगकर एक रुपया कमाता है और उसमें से पांच पैसे आने वाले कल के लिये सुरक्षित रखना चाहता है, उसे समझना चाहिये कि रुपया, बजट, नीति, बैंक, शेयर, पूंजी, दलाल, सरकार, वैश्विकता, भाव और सबसे अंत में व्यक्ति का इस सबमें क्या महत्व है और जब कोई औकात पर आ जाता है तो क्या से क्या हो जाता है. यह कपोल कहानी या गल्प नही वरन ऐतिहासिक तथ्यों, रिकॉर्ड और पर्याप्त सबूतों के आधार पर बनी हुई एक महत्वपूर्ण डाक्यूमेंट्री है जिसे नाटकीयता से पेश किया गया है और अंत मे राम जेठमलानी, स्वयं हर्षद के असली दृश्य डालकर इसे प्रामाणिक बनाया गया है. प्रेम, रिश्ते, बदला, संघर्ष, सहानुभूति, समानुभूति से लेकर मानवीयता के सारे गुण -अवगुणों से भरपूर इस सीरिज में हर्षद के परिवार और दफ़्तर के बहाने एक बड़े सामाजिक बदलाव की भी बात आपको समझ आएगी, वैश्विक मंदी और बदलाव जो 90 के दशक से आरम्भ हुआ था और 2000 के आते आते कैसे इसने हर छोटे बड़े व्यक्ति और काम धन्धों को लील लिया यह सब सीखना हो तो यह सीरीज़ जरूर देखना चाहिये. हर्षद के बहाने सुचिता दास से लेकर दिलीप पडगांवकर और राजदीप जैसे वास्तविक चरित्रों से मीडिया की भूमिका, ताक़त और शोधपरक पत्रकारिता के विभिन्न आयाम दिखाए है जिनकी तारीफ़ करना होगी, आज के बर्बाद हो चुके मीडिया को यह समझना चाहिये कि उनके क्या कर्तव्य है और क्या करने की जरुरत है. अरबों रुपयों में खेलने वाला हर्षद जब एक सरकारी अस्पताल की बेंच पर इलाज के अभाव में मरता है तो पृष्ठभूमि में कबीर का भजन बजता है " मत कर क़ाया का अभिमान " जो जीवन की कड़वी सच्चाई है और यही समझ आता है कि हम सब नश्वर है और अर्थ काम धर्म मोक्ष सब माया है , बहुत ही त्रासद दृश्य है और देखते देखते बरबस ही आँसू आ जाते है. उत्कृष्ट अभिनय, दृश्यांकन, बेहतरीन फिल्मांकन और बेहद कसा हुआ निर्देशन इस सीरीज़ को अलग तरह से तकनीकी रूप से श्रेष्ठ बनाता है, पूरी टीम कौशलों से परिपूर्ण तो है ही - हंसल मेहता स्वयं निपुण एवं पारंगत निर्देशक है तो इस सीरीज को जाहिर है अंजाम तक पहुंचना ही था , बीए पास से मैं आज तक प्रभावित हूँ अब यह सीरीज़ उन्हें मेरी नजर में और ऊंचा कर गई - जिस तरह से उन्होंने भाषाई प्रयोग किये -गुजराती मुहावरों को वापरा वह शानदार है, गालियाँ भाषा का अंग है वह कहने की आवश्यकता ही नही है और यह सहज रूप से स्वीकार्य होना ही चाहिए. यह सीरीज़ भारतीय इतिहास में गुजरात फाइल्स [ राणा अय्यूब ] जैसे प्रामाणिक दस्तावेज़ के समान लिखें दस्तावेज पर आधारित है
इसके बाद की बात करें तो ए सूटेबल बॉय विक्रम सेठ की किताब पर आधारित था जो बहुत प्रचारित किया गया परंतु सीरीज लंबे समय तक प्रभाव नहीं डाल पाए रविंद्र नाथ टैगोर की कहानियों पर आधारित सीरीज भी है. इसके अलावा क्रिमिनल जस्टिस भी एक सीरीज है जो भारतीय न्याय व्यवस्था की खोखले और लचर व्यवस्था को उजागर करता है. पंचायत जैसा एक साफ सुथरा सीरीज भी आया था जिसमें भारत में संविधान संशोधन अधिनियम 73वें के द्वारा जिस तरह से सुशासन की कल्पना की गई है परंतु जमीनी हकीकत है क्या है उसकी एक बानगी यह सिर्फ प्रस्तुत करती है. जमतारा एक अन्य सीरीज है जो बिहार के बेरोजगार युवा देशभर में बैंक धोखाधड़ी करके जो करतब दिखाते है वह देखना समझना दिलचस्प है, सूचना क्रान्ति ने जहां बेरोजगारी
बधाई
है वही धोखाधड़ी से रूपये कमाने के नयुए रास्ते भी खोले है हालांकि अब जागरूकता बढी है पर आज भी लोग इस तरह की घटनाओं के शिकार हो रहें है.
बन्दिष्ठ बंदिष्ठते जैसा सीरिज भी आया था जो शात्य्रीय संगीत पर आधारित था, राजस्थान और सीमावर्ती जिलों में फिल्माया गया यह सीरिज बेहद खूबसूरत था परन्तु इसमें भी गाली गलौज और शिष्टता की सीमा तोड़ते चरित्र थे जिसने इसकी खूबसूरती पर ग्रहण लगा दिया परन्तु इसके गाने जो लोकप्रिय हुए, बंदिशे जो अमर हो गई वह अकल्पनीय है
जैसे पिछले दिनों ह्यूमन सीरिज आई हॉट स्टार पर - जो भोपाल में फिल्माई गई हैं, भोपाल शहर को टीवी पर देखना अपने आप में रोचक है. पिछले दिनों इसी शहर को लेकर विसलब्लोअर सीरीज आई थी, ह्यूमन सीरीज़ में भोपाल गैस त्रासदी से अनाथ बनी एक लड़की की कहानी है जिसे कोई डॉक्टर नाथ गोद लेता है, उसका शोषण करता है और बाद में वह लड़की बड़ी होकर प्रसिद्ध न्यूरोलॉजिस्ट बनती है और उस डॉक्टर और उसके परिवार को खत्म करके मंथन नामक अस्पताल चालू करती है, उसका सपना है कि वह इस अस्पताल को विश्व स्तर का बनायें . समय गुजरने पर यह अस्पताल षड्यंत्र का घर बना जाता है जहां पर ड्रग ट्रायल के धंधे चलते हैं, इस सीरीज में मूल रूप से तीन - चार औरतों की कहानियां है जो अपने इशारों पर पूरे तंत्र और राजनीति को नचाती है - साथ ही पैसे और हुस्न के बल पर पूरे तंत्र को जेब में रखती है ; अपनी महत्वकांक्षा पूरा करने के लिए जब कोई स्त्री अपने ही शरीर को इस्तेमाल करके सीढ़ी बना लेती है ऊंचाई पर चढ़ने के लिए तो उसे कोई रोक नहीं सकता और यह हम अपने आसपास भी देखते हैं, और यह सब इस सीरीज़ में होना कोई नया अजूबा नहीं है
बहरहाल, सीरीज में काफी बारीकी से भोपाल गैस त्रासदी, एनजीओ की भूमिका, राजनीति, मुख्यमंत्री का रोल, ड्रग ट्रायल, फार्मा कंपनियों के षड्यंत्र और वह सब दिखाया है जो एक सभ्य समाज अभी देखना नहीं चाहता या अभी इतना मैंच्योर नहीं हुआ है कि घर - परिवार में बैठकर सहजता से देख सकें - डॉक्टर सायरा और डॉक्टर गौरी नाथ के संबंध शुरुआत में भले ही प्रेम से उपजे हुए लगते हो, परंतु बाद में पता चलता है कि गौरीनाथ सायरा जैसी कार्डियोलाजिस्ट ने बुरी तरह से इस्तेमाल किया, अंत में सभी बारी - बारी से मर जाते हैं और एक सवाल छोड़ जाते हैं कि आखिर यह सब मध्यप्रदेश में क्यों हो रहा है, मुझे जेहन में भोपाल के हालात नजर आ रहे थे, वहां के मेडिकल कॉलेज नजर आ रहे थे, मुझे चिरायु अस्पताल नजर आ रहा था और वो सारे अस्पताल नजर आ रहे थे जहां पर ड्रग ट्रायल लगातार होता रहा है ; मुझे इंदौर का ड्रग ट्रायल वाला केस याद आ रहा था जहां डॉ नाडकर्णी, डॉ श्रीकांत रेगे जैसे लोगों को इंडियन मेडिकल काउंसिल ने एक लंबे समय के लिए प्रैक्टिस करने से रोक दिया था
मूल सवाल वही है कि विसलब्लोअर हो या ह्यूमन मेडिकल क्षेत्र की शिक्षा या इलाज के तौर तरीके हो, यह मध्य प्रदेश की सरजमी पर ही क्यों होता है - हम सबको हकीकत मालूम है परंतु बोलना कोई नहीं चाहता, मेरा सुझाव मानकर यह सीरीज देख लीजिए काफी रोमांचक और शैक्षिक है. ओटीटी प्लेटफॉर्म पर एलजीबीटी समुदाय को लेकर काफी खुलापन आया है यह समझना दिलचस्प है कि इस तरह के पुरुषों के गे या क्रॉस ड्रेसर या वृहन्नला के चरित्र तो हर फिल्म या सीरीज में खुले रूप से अब तक दिखाए जाते थे, भले ही मजाक बनाया जाता हो या गम्भीरता से भी, परन्तु इस सीरीज़ में पहली बार तीन सम्भ्रान्त पढ़ी - लिखी, ज़िम्मेदार और जवाबदार महिलाओं के लेस्बियन सम्बन्धों पर इतना खुलकर प्रदर्शन देखा, निश्चित ही यह बोल्ड एवं साहसिक कदम है पर अभी भारतीय समाज इस बात के लिये तैयार नही है
लगभग पांच घण्टों में फैली यह सीरीज आपको बांधे रखती है, अस्पताल, इलाज, षड्यंत्र, राजनीति, रुपया पैसा, विलासिता, अपने बच्चों से व्यवहार, हाई सोसाइटी का दोगलापन, गरीबी, फोटोग्राफी, गैस त्रासदी के विक्टिम्स का पत्रकारों से रुपया एंठना, ब्यूरोक्रेसी, कुत्तों की दास्ताँ और भोपाल शहर के तालाबों किनारे की शूटिंग, खूबसूरत मकान, और पुराने महलों में फिल्माई सीरीज़ बहुत प्रभावी है, शेफ़ाली शाह ने अभिनय का उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है वही कीर्ति कुलहरी, सीमा विश्वास, राम कपूर, विशाल जेठवा, इंद्रनील सेनगुप्ता, संदीप कुलकर्णी और सुशील पांडेय भी गज्जब के कलाकार साबित हुए है इसमें
मुझे लगता है कि भारतीय सीरीज के बजाए अंग्रेजी में जो सीरीज अनूदित होकर हिंदी में दर्शकों के लिए इन प्लेटफार्म में उपलब्ध कराई है वह बहुत उल्लेखनीय है अंग्रेजी सीरीज की बात करें तो सेक्स एजुकेशन बहुत अच्छा सीरीज है जिसमें किशोरावस्था के बच्चों के लिए किस तरह से बदलते शरीर और परिवर्तन को लेकर काम करने की जरूरत है - इस पर बहुत अच्छे तरीके से फिल्मांकन किया गया है और यह बताया गया है कि सेक्स जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा है और उसे समझ कर ही अपने जीवन में महत्व दिया जा सकता है. किशोरावस्था में शारीरिक मानसिक भावनात्मक परिवर्तन होते हैं यह हम सब जानते हैं परंतु इन सब पर बात करने के लिए दुर्भाग्य से भारत जैसे देश में कोई प्लेटफार्म नहीं है. जीवन कौशल शिक्षा के नाम पर कुछ संस्थाओं ने काम जरूर किया परंतु दक्षिणपंथी ताकतों ने उन्हें सेक्स एजुकेशन कहकर रोक दिया और करने नहीं दिया - जबकि यह इस समय की बड़ी महती आवश्यकता है खास करके भारत में जिस तरह से महिलाओं पर अत्याचार, हिंसा, बलात्कार और छेड़छाड़ के मामले बढ़े हैं उस परिप्रेक्ष्य में सेक्स एजुकेशन बहुत आवश्यक है और इसके आलोक में यह सिर्फ देखा जाना अनिवार्य होना चाहिए.
इसके अलावा द हाउस आफ कार्ड्स और द क्रॉउन जैसे दो महत्वपूर्ण सीरीज हैं जो अमेरिकी राष्ट्रपति के चयन प्रक्रिया से लेकर राष्ट्रपति के कामों पर असर डालते हैं खास करके किस तरह से अमेरिका का राष्ट्रपति पूरी दुनिया की राजनीति और अर्थ तंत्र में दखल रखता है यह महत्वपूर्ण है. द क्राउन इंग्लैंड के रानी एलिजाबेथ की कहानी है कि किस तरह से एक भोली भाली लड़की इंग्लैंड के सर्वोच्च पद पर पहुंचती है और वहां के संस्कारों को और अपनी ताकतों का इस्तेमाल करते हुए पूरी दुनिया में अलग-अलग जगहों पर अपना साम्राज्य स्थापित करती है. यह दोनों सीरियल फिल्मांकन, कहानी, डायलॉग डिलीवरी, अभिनय और ऐतिहासिक संदर्भ के लिए देखना बहुत जरूरी है इसके अलावा मनीहीस्ट जिसमें दुनिया की सबसे बड़ी चोरी किस तरह से अंजाम तक पहुंचती है - यह समझने के लिए देखना चाहिए, बहुत रोचक तरीके से यह पूरी कहानी बुनी गई है. पुलिस और शातिर अपराधी के बीच आखिर में किस तरह के संबंध होते हैं - यह भी देखना बहुत रोमांचक है इसके बाद द ट्रायल ऑफ शिकागो, ओजार्क, क्रिमिनल, सूट, लूसीफायर, द वॉइस मेड इन हेवन, आदि जैसे अंग्रेजी सीरीज भी हैं जो अपराध रोमांस आदि से भरपूर हैं
मूल सवाल यह है कि सीरिज फिल्मों से ज्यादा लोकप्रिय क्यों हुए, आखिर क्या कारण है कि समाज ने इन्हें व्यापक स्तर पर अपना लिया और अपने जीवन का हिस्सा बनाया. मुझे लगता है वह यह कि सीरिज एक तो लोगों के जीवन से जुड़े हुए थे सीधे-सीधे और इसकी वजह यह है कि यहां पर बहुत ज्यादा दिखावटीपं नहीं है, बहुत ज्यादा शू शा और बहुत हाई फाई समाज नहीं था. मसलन, दिल्ली क्राइम का पुलिस इंस्पेक्टर बिल्कुल वैसा ही था जैसे हमारे आसपास के थानों या कोतवाली में होता है. आश्रम के चरित्र हमारे आस पास के ही थे कि किस तरह से हम बाबाओं के जाल में फंसते हैं और लूटे जाते हैं. मिर्जापुर हमारे आसपास रोज घटित होता है परंतु हम देख नहीं पाते. जम्तारा के सीरिज के नुमा हमारे पास ढेरो फोन आते है लोन कम्पनी से लेकर बैंक के, पंचायत का सचिव हमारे गांव के सचिव जैसा लगता है जो भोला भाला तो है, परंतु अंत में सरकारी व्यवस्था उसे भ्रष्ट बना देती है या वह छोड़ कर चला जाता है. कहने का अर्थ यह है कि जब समाज बड़े स्तर पर अपने ही चरित्रों और अपने ही किरदारों को उसी भाषा और संस्कार में इसी परदे पर प्रस्तुत कहानी और चरित्रों को देखता समझता है या अनुसरण करता है तो हमें उन चरित्रों से ना मात्र समानुभूति होती है बल्कि हम उसका एक हिस्सा बन जाते हैं और जिस रोचकता के साथ, जिस लगन के साथ हम उसके साथ जुड़ाव महसूस करते हैं - वह हमारे लिए बहुत बड़ी बात हो जाती हैं. जहां तक भाषा और गाली गलौज का संबंध है उस पर इन सीरीज की शुरुआत में समाज में व्यापक स्तर पर बहुत आपत्तियां उठाई थी कि इसमें गाली गलौज बहुत हैं, संस्कार खराब हो रहे हैं, लोगों के बोलने का ढंग बदल गया है, गुंडागर्दी बढ़ गई है परंतु इसके ठीक विपरीत हम देखें तो क्या हम रोजमर्रा के जीवन में गालियों का प्रयोग नहीं करते, अपने घरों में जिस तरह के संवाद होते हैं उनमें गाली एक सहज हिस्सा है भाषा का. हमारी तमाम शादियों में वर पक्ष को और बरात पर गाली देने का रिवाज है और हमारे लोकगीतों में इसके भरपूर उदाहरण मिलते हैं, तो फिर यह जब हम पर्दे पर देखते हैं तो आपत्ति क्यों उठाते हैं. निश्चित रूप से सेक्स और हिंसा को देखना थोड़ा आपत्तिजनक है - क्योंकि अभी हम उसी स्थिति में नहीं पहुंचे हैं कि सेक्स को बहुत आसानी से आत्मसात कर ले परंतु हिंसा हमारे यहां पर अब एक सहज हिस्सा हो गई है जीवन का खासकरके सार्वजनिक जीवन में रोज हिंसा के नए नए रूप दिखाई देते है जो प्रशासन और राजनीति से आश्रय प्राप्त करके फ़ैल रही है. बच्ज्कों, किशोरों और युवाओं पर इसका गहरा असर हुआ है. पिछले दो दशकों में जिस तरह से छेड़छाड़, अपराध, गुंडागर्दी राजनीतिक आश्रय लेकर सामूहिक नरसंहार आदि बढ़े है वह कोई अनूठा नहीं है. 2014 के बाद देश में मॉब लिंचिंग और लोगों को घर से बाहर निकाल कर खाना, कपड़ा, संस्कृति या प्रेम – शादी - ब्याह के नाम पर जिस तरह से मारा पीटा जा रहा है या सरेआम हत्या की जा रही है वह भी अब हमने धीरे-धीरे स्वीकार कर लिया है, लब जिह्गाद एक नया फ्रेज है और इसे राज्य कानूनी जामा पहना रहें है जो संविधान के खिलाफ है पर किया क्या जाए यह बड़ा प्रशन है. अब तो स्थिति यह है कि हम पुलिस के दरोगा को सरेआम पीट देते हैं, विधायक और सांसदों को भीड़ पीट देती है और प्रशासन नपुंसक खड़ा रहता है इसलिए जब हम मिर्जापुर में या किसी और सीरियल में हिंसा की बात करते हैं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
इधर पिछले दो वर्षों से कुरियन, चाइनीस और क्षेत्रीय भाषाओं के सीरिज आए हैं जो आश्वस्त करते हैं कि वह कम से कम इन सब मुद्दों से अभी थोड़ा दूर हैं और उम्मीद की जाना चाहिए कि सेक्स और हिंसा का यह दौर जल्दी ही समाप्त होगा और जिस तरह से समाज में जागरूकता बढ़ी है जिस तरह से लोग राजनीतिक रूप से परिपक्व हो रहे हैं बाजार की चालबाजी समझ रहे हैं और कोरोना ने जो हमें समझाया है उससे हम एक स्वस्थ माहौल की उम्मीद तो कर ही सकते हैं और अच्छे सीरीज की बयार निश्चित ही आएगी यह उम्मीद की जाना चाहिए.
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