|| यात्रा बहुत छोटी है ||
एक बुजुर्ग महिला बस में यात्रा कर रही थी - अगले पड़ाव पर, एक मजबूत, क्रोधी युवती चढ़ गई और बूढ़ी औरत के बगल में बैठ गई, उस क्रोधी युवती ने अपने बैग से कई बार चोट पहुंचाई
जब उसने देखा कि बुजुर्ग महिला चुप है, तो आखिरकार युवती ने उससे पूछा कि जब उसने उसे अपने बैग से मारा तो उसने शिकायत क्यों नहीं की
बुज़ुर्ग महिला ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया - "असभ्य होने या इतनी तुच्छ बात पर चर्चा करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आपके बगल में मेरी यात्रा इतनी छोटी है कि मैं अगले पड़ाव पर उतरने जा रही हूं"
◆ यह उत्तर सोने के अक्षरों में लिखे जाने के योग्य है - "इतनी तुच्छ बात पर चर्चा करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हमारी यात्रा एक साथ बहुत छोटी है"
◆ हम में से प्रत्येक को यह समझना चाहिए कि इस दुनिया में हमारा समय इतना कम है कि इसे बेकार तर्कों, ईर्ष्या, दूसरों को क्षमा न करने, असंतोष और बुरे व्यवहार के साथ काला करना समय और ऊर्जा की एक हास्यास्पद बर्बादी है
◆ क्या किसी ने आपका दिल तोड़ा, शांत रहें, यात्रा बहुत छोटी है
◆ क्या किसी ने आपको धोखा दिया, धमकाया, धोखा दिया या अपमानित किया, आराम करें - तनावग्रस्त न हों, यात्रा बहुत छोटी है
◆ क्या किसी ने बिना वजह आपका अपमान किया, शांत रहें, इसे नजरअंदाज करो, यात्रा बहुत छोटी है
◆ क्या किसी पड़ोसी ने ऐसी टिप्पणी की जो आपको पसंद नहीं आई - शांत रहें, उसकी ओर ध्यान मत दो, इसे माफ कर दो, यात्रा बहुत छोटी है
◆ किसी ने हमें जो भी समस्या दी है, याद रखें कि हमारी यात्रा एक साथ बहुत छोटी है
◆ हमारी यात्रा की लंबाई कोई नहीं जानता, कोई नहीं जानता कि यह अपने पड़ाव पर कब पहुंचेगा
याद रखिये - " हमारी एक साथ यात्रा बहुत छोटी है "
कबीर कहते है - "आखिर ये तन खाक मिलेगा - क्यों फिरता मगरूरी में"
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No questions are stupid questions, if you can not answer or you are adamant , stubborn and with a closed mind set, you are rather stupid and perfect idiot.
Conclusion out of a webinar
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सब जने आम के फोटू डाल रिये हेंगे घर के आम के, अपुन बी अब्बी बाजार गया - लँगड़ा, केसर, बादाम, हापुस, गुठली और तोतापरी लेके आया 2 - 2 किलो सब प्रकार के कुल 12 किलो आम हो गए हेंगे और सबकूँ धोया खूब, फेर निचोड़ के अमूल का गाढ़ा वाला दूध और किरीम डाल के रस बनाया मिक्सर में और ढेर सारे मेवे मल्लब - काजू, किशमिश, बादाम, पिस्ते और इलायची डाल के फिरिज में रख दिया हेगा अब्बी, अब आत्मा को सांति मैसूस हो रई हेगी अल्ला कसम
आज साम कूँ निरात से पेले रस पिया जाएगा, फेर कल सुबु रसभात मेवे डालकर, फेर कल साम कूँ खोया सेंककर रस मिलाकर आमबर्फी पिस्ते बाली बनेगी और फेर बचे आम के रस को देसी घी के दुई चम्मच मिलाकर पीया जायेगा
खबरदार जो अब किसी ने फिर से फोटू हिंचकर लगाए तो, के दे रियाँ हूँ , नी तो कल सुबु फिर ले आउंगा
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बड़े लेखकों को भोत बड़े बड़े डाक्टरों ने हिंदी अंग्रेजी में बोला "नौकरी छोड़ो और कॉपी पेस्ट लिखों जिसे अकादमिक भाषा मे शोध कहते है" - और अब लेखक बन्धु समाज से हर माह उनके जिंदा रहने का रुपया मांग रहें है जैसे इनको जिंदा रखना मजबूरी है भारत की
इसे कहते है शराफत की भीख, ये बताओ हर माह कोई क्यों देगा कॉपी पेस्ट के लिए, स्लोगन नुमा कविताओं के लिए, ख़ूबसूरत मैंनेजर को पालने के लिये - लिखने से किसने मना किया, खूब लिखों रद्दी बढ़ाओ, अपने ऐसे नासमझ दोस्तो और कवियों को जबरन इमोशनल अत्याचार करके कबाड़ा बेचो जिनकी विषय को लेकर कोई समझ नही और औकात भी नही पढ़ने की या समझने की
पर फिर भी चलो मान लिया कि महान कल्कि अवतार हो धरा पर, मेरी प्यारी बहन और भाई लिखो, किताब खरीद लेंगे - पर हर माह कोई क्यों दे तुम्हे रुपया - वो भी तुम्हारे चैनल सब्सक्राइब करके - मल्लब गज्जब का काट रहें हो, यहाँ लोग फ्री का नेट पर अख़बार नही पढ़ते, ज्ञान और रायतों से भरी फेसबुक पोस्ट को नही पढ़ते, ब्लॉग के लिंक नही खोलते, एक मिनिट का वीडियो नही झेलते तो तुम्हे रुपया देकर क्यों कोई पढ़े कॉपी पेस्ट
पर सब सम्भव है यदि विशुद्ध धंधेबाज है और इस तरह के पाप करने का प्राचीन अनुभव है तो
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इनकम टैक्स की नई साइट जाम हो गई है, हेल्पलाइन पर पिछला पूरा साल यह सुनते हुए चला गया कि अगले वर्ष नया सॉफ्टवेयर आएगा - जो बहुत कारगर होगा और आपको तुरंत रिफंड मिल जाएगा, पर हे भगवान मां निर्मला देवी और नंदन नीलेकणी की रक्षा करना
मेले प्याले प्याले लाड़ले मोदी जी, "आ आ आ आ आ आधार" बनवाया था ना इसी कमबख्त से, तो तब पल्ले नही पड़ा कि यह निहायत ही फर्जी आदमी है, जो इनकम टैक्स की साइट का ठेका दे दिया
सच बताओ हुजूर, सरकार, माईबाप - कुछ और इरादा तो नही और यह नीलेकणी तो बाहर भाग नी रियाँ है
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भक्तों के लिए नया शब्द ईजाद किया अभी
|| अन्धाधुन्धी अनुचर ||
[ अंध की सुपरलेटिव डिग्री वाला शब्द है अंधाधुंध ]
इति
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गीत एक अच्छे व्यक्ति हो सकते है कवि है या नही - मालूम नही , पर ओव्हर रेटेड जरूर है और कविता लिखते है या कुछ और नही पता, मुझे कभी समझ नहीं आया कि स्लोगन कब से कविता हो गये और अनुवाद की बात सही कही किसी ने, जब आप बहुतायत में अनुवाद करते हो तो आप भी धीरे से वही से बहुत कुछ लेकर मेड इन इंडिया बना देते हो मतलब अपना माल .......और खपत शुरू
दो चार स्लोगन नुमा पंक्तियाँ कविता नही होती कम से कम, और मै तो कवि हूँ ही नही इसलिए कह सकता हूँ , हाँ कविता साधने और लिखने की कोशिश की, अपने ही मित्रों ने दुत्कार दिया जो खुद दो कौड़ी के भी नही है, इन संगठित कवियों के कुनबे में जगह ना मिली और शायद गीत को भी कभी ना मिलें - इसलिए वो उजबक किस्म के लौंडो - लपेड़ो के बीच लोकप्रिय है - प्रेम और अतिभावुक स्लोगन लिखकर, बाकी तो खुदा जानता है सब कुछ, दो बार पुस्तकें भी शर्मा शर्मी में मंगवाई, गिफ्ट भी मित्रों को पर अब तौबा, अब हिम्मत नही करूंगा कभी भी
पटना और बिहार में गीत के आयोजनों की खबर Pushya Mitra ने अभी लिखी है पर उस दिन जब भास्कर में साक्षात्कार एक करीबी मित्र लेने वाला था, बाद में पूछा तो उस मित्र ने बताया कि "बड़े लटके झटके है गीत के, बातचीत करते हुए जब आधा घँटा हो गया तो गीत की कोई खूबसूरत सी मैनेजर आई और बोली कि समय ज्यादा हो गया है, आपको आधा घँटा ही दिया था, दूसरे लोग है पंक्ति में, पर जब बाहर गया तो कोई नही था " - पता नही, ये कवि लोग कौन सी दुनिया मे रहते है , भारत अभी इतना महान नही बना कि लेखक कवियों के इवेंट मनाए जाए और आयोजन हो, हां आप किसी केंद्रीय विवि में प्रोफेसर हो और शोध करवाने या नौकरी दिलवाने की औकात रखते हो - तो जहाँ जायेंगे वहाँ छर्रे जरूर इकठ्ठे हो जाएंगे या पुराने छात्र पर कवियों की राज्य यात्रा हो और पूरे राज्य के लोग इसमें शरीक हो - असम्भव है अभी, दुनिया हमने भी देखी है गुरु, झाँसे बाजी से बाज आ जाओ सब लोग
कोई मर जाये तो फेसबुक जरूर रंगीन हो उठता है यह हाल ही के वर्षों में देखा है, क्योकि पहले तो खबर भी नही मिलती थी, और अब तो सर्दी, खांसी, टट्टी, पेशाब, जुलाब से लेकर क्या निगला और क्या उगला की खबर बापड़े छर्रे दे ही देते है फेसबुक पर, बाकी कुछ और बोलना तो सब पाप ही है - शोध की डिग्री लेनी है मास्टरी करनी है, फेलोशिप जुगाड़नी है, शोध पत्र छपवाना है और फिर गाइड से बड़ा तो भगवान भी नही ससुरा
यह बात सच है कि अनुवाद करते - करते आप भी किसी की नही, बल्कि सबकी शैली अपना लेते है और मिक्स वेज बनाकर अपनी दुकान चमका लेते है और यह सबके साथ है ; 1987 - 89 में अंग्रेजी में एमए करने के बाद खूब अनुवाद किये कविताओं के, नईदुनिया से लेकर दीगर पत्रिकाओं में छपे भी - पर फिर लगा कि महाराज आप तो नकलची हो गए, खुद का मौलिक लिखा भी ससुरा अनुवाद लगने लगा, सम्पादक लिखते जवाब में कि "आपने अनुवाद में मूल कवि का नाम लिखा नही, कृपया भेजें " - धत साला, अनुवाद का काम ही छोड़ दिया
बहरहाल, यह पोस्ट किसी को आहत करने के लिए नही आत्मालोचन के लिए है - लेखक, कवियों के लिए, छर्रों के लिए जो तथाकथित पिरेम, मुहब्बत, जुल्फों, घटाओं, मस्सों, बवासीर , भगन्दर और फेफड़ों, लिवर और दिल - दिमाग और उनके बिस्तर से लेकर अंडरवियर के चित्रों पर जान लूटा देते हो और गम्भीर रोगों पर स्लोगन लिखने वाले कवियों कहानीकारों पर समय और रुपया लुटाते है और उनके घटिया प्रेम कविताओं के संग्रह खरीद कर अपनी मूल भाषा, वर्तनी, समझ, संस्कार और विचारधारा खत्म करते है - इससे बेहतर है ₹ 150 - 200 के बादाम खा लो - इम्युनिटी बढ़ेगी - जिंदा रहें तो "इत गीत कविता कहानी सोरठा छंद मुक्तक ग़ज़ल" भी लिख लोगे, और हां अपने शील, अश्लील चित्र और गूगल से कॉपी की हुई पेंटिंग चैंपना मत भूलना हर पोस्ट के साथ - याद रहें हर पोस्ट में थोबड़ा दिखना जरूरी है, हर पोस्ट में स्कैंडल नही तो कुछ नही रे बाबा, इसलिए विवाद में रहो और इवेंट में रहो,
दुआ यह है कि आपका जीवन खूबसूरत पीआर मैनेजरों से भरा रहें
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बचपन में हर साल 7 जून को मानसून आ जाता था, पर इधर जलवायु परिवर्तन और पता नही क्या - क्या हो गया कि जून तो जून, जुलाई भी बीतने लगता था और काले बादल देखने को तरस जाता था
आज बहुत सालों बाद आज 7/8 जून को मानसून की बरसात हो रही है, कड़कड़ाहट के साथ बादल गरज ही नही बरस भी रहें हैं जोकि सुखद है
स्वागत इस बरसात का, आड़ी टेढ़ी दिशा से तेज़ बूंदें यूँ बरस रही है मानो सारा ताप हर लेंगी और धरती के कोने - कोने को भिगो देंगी
और बिजली को तो ख़ैर जाना ही था - धर्म है बापड़ो का कि दो बूंदें गिरे और खटका बन्द, पोया - कचोरी खाने और चाय पीने निकल गए होंगे बेचारे और फोन तो बन्द करना भूलते ईच नई कब्बी बी
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ये प्रायोजित हत्याएँ है सरकार द्वारा
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देवास विधि महाविद्यालय देवास में मेरे साथ लॉ में पढ़ रहे एक युवा मित्र की आज सुबह मृत्यु हो गई
डेढ़ माह से इंदौर के बॉम्बे अस्पताल में भर्ती था - पहले कोविड, फिर ब्लैक फंगस और अंत में आज यह समाचार
सबसे दुखद यह है कि उसे समय पर इंजेक्शन नही मिलें, हर बार अधिकारियों से बात करके इंतज़ाम करवाये, परन्तु हर बार वही कि उपलब्ध नही है और मान मनोव्वल, चिरौरी और खुशामद करना पड़ रही थी उसके परिवार ने लगभग 30 लाख खर्च कर दिए थे, फिर भी बचा नही पाये
कल इंदौर में 12 हजार की खेप आई थी जिसकी वजह से उसके साथ कई मरीजों ने शिकायत की कि यह इंजेक्शन लगाने के बाद कंपकपी आ रही है और यही उसके साथ भी आज सुबह हुआ, बुखार भी तेजी से चढ़ा, वेंटिलेटर पर रखा पर कुछ काम नही आया
डेढ़ माह से इलाज, इंजेक्शन और बाकी सबके लिए उसका परिवार परेशान होता रहा और आज आखिर अपने परिवार के एकमात्र युवा लड़के को खो दिया - जो अभी लॉ के 5 सेमिस्टर का छात्र था
यह मृत्यु नही राज्य प्रायोजित हत्या है और पूरी व्यवस्था सरकार और प्रशासन तंत्र इसका दोषी है - पर कानून में इन हत्यारों के लिए कोई सजा नही है और इनमें से किसी को प्रायश्चित्त भी नही करना होगा , ये सब और हम भी इसे किस्मत और नियति मानकर चुप रहेंगे, भूल जाएंगे पर सोचिये कि डेढ़ माह तक कलेक्टर से लेकर एसडीएम तक के हाथ पांव जोड़कर इंजेक्शन जिस परिवार को लेने के लिए भीख मांगना पड़ी हो मनमाने रुपये देकरइंजेक्शन ले रहे थे और अधिकारियों का तेवर ऐसा था मानो जेब से या घर से दे रहें हो,जिस परिवार को डेढ़ माह में भयानक संत्रास झेलना पड़ा हो - उसकी जगह आप होते तो क्या चुप रहते, क्या इस निकम्मी और हरामखोर व्यवस्था से पूछते नही, क्या आप अभी भी सरकार और प्रशासन पर , न्याय पर विश्वास रखते हैं
दुखद यह कि उसकी सगी बहन न्यायाधीश है - इस समय, इस सबके बाद भी ये हाल हुआ है तो सोचिये आप और हमारी क्या औकात है इस निर्लज्ज व्यवस्था और तथाकथित संवेदनशील प्रशासन और मामा राज में
धिक्कार है इन सब पर और शर्मनाक है यह सब , कैसे कहूँ नमन या उस युवा साथी को श्रद्धांजलि दूँ जो कक्षा में सम्मान देता था, आये दिन वैकेंसी का पूछता था, कानूनी पहलुओं पर बात करता था - यह सब दुखी करने वाला तो है ही पर इस देश में जन्मने और नागरिक होकर यहाँ रहने का पाप भी है
अफ़सोस यह एक नही, हम लाखों मौतों को देख चुके है - पर हम इन वहशी हत्यारों को आश्रय दे रहें है
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हंसों मत कम्बख्तों
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कोरोना से घर में बोर हो गए, एक मित्र से आज लम्बी बात हुई कि देश के सबसे ऊपरी या निचले हिस्से में चलते है जहाँ हम दोनों के कॉमन दोस्त है घुमा फिरा देंगे थोड़ा जीवन में चेंज आ जायेगा
मेरे दूसरे मित्र ने कहा " जरूर चलते है, एक हफ़्ता घूम आते है, मौसम भी सुहाना है बस एक ही दिक्कत है - उसे झेलेगा कौन "
उस बापड़े के इस मासूम सवाल के बाद लगा कि कोरोना का लॉक डाउन ही बेहतर है एक महीने और पर इन दोस्तों को झेलना सम्भव नही - गुरु, अब नही झिलाता कोई भी - ना लिखा हुआ, ना बकलोली, ना बकचक, ना समाज बदलाव, ना जाति प्रथा के समीकरण, ना शिक्षा पर प्रवचन , ना मीडिया के किस्से और ना ही आध्यात्म के लटके झटके, ऊपर से युवा कवि, अधेड़ कहानीकार - उफ़्फ़ ये सब है देशद्रोह कि लोगों को सड़ा देना पका पकाकर
बहुत झेल लिया सबको, रही सही कसर झूम मीटिंग के बहाने विश्वविद्यालयों और साहित्यिक संस्थाओं ने कहानी - कविताओं और बेमतलब की टाइम पास चर्चाओं ने जीवन का अचार बना दिया कड़वे सरसो का तेल डालकर - गत दो वर्षों में झूम - झूम करके झूम बराबर झूम शराबी हो गया है दिल - दिमाग़
बस रे भैया, बहुतों को देख समझ लिया एलते - पेलते हुए, अब नही
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महारानी में एक चरित्र की वाट लगाई है उमाशंकर ने "मुसाफिर बैठा" की , इस तरह के नाम वाले एक सज्जन फेसबुक पर भी सक्रिय थे एक जमाने में - कही ये वही तो नही - अधकचरी और अधपकी दलित चेतना [ वो भी सरकारी नौकरी करते हुए ] फ़ैलाने वाले ऐसे बहुतेरे है किरान्तिकारी जिनकी सारी समझ आरक्षण से शुरू होती है और आरक्षण पर खत्म, बाकी ना दलित मुद्दों की समझ है, ना जातिवाद की और ना बदलाव विकास की, बस 'जय भीम - जय भीम' के नारे लगाते रहना - जैसे जय इंदिरा या जय मोदी के लगते रहते हैं
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सरकारी नौकरी करो और साहित्यकार भी बने रहो - पुलिस हो, डॉक्टर, कंडक्टर, मास्टर, प्रोफेसर या पटवारी या नर्स या ब्यूरोक्रेट - सब धोखा दे रहें साहित्य के नाम पर , नौकरी भी बची रहें उपन्यास, आलोचना, कहानी, कविता, यायावरी या किरान्तिकारी की सूची में भी नाम हो, पुरस्कार भी मिल जाये, खाकी चड्ढी भी छिपी रहें और लाल साफा भी ओझल रहें, मलाई हर जगह की खा लेंगे
दूरदर्शन आकाशवाणी में भी गोटी फिट, रजा फाउंडेशन में भी, कुमार विश्वास भी संग साथ और वरवरा राव के घर से लाया परचम भी फहराएंगे, नियोगी की याद में भी कवि गोष्ठी कर आएंगे, घर में दुर्गा सप्तशती के पाठ भी पढ़ेंगे और वाल्मीकि के जूठन पर पर्चा भी पढ़ेंगे, दलित चेतना पर कहानी लिखेंगे और किसी बलाई के घर का पानी भी नही पियेंगे, महिला सशक्तिकरण की कविता लिखेंगे और घर की बहन - बेटियों और बीबी को प्रताड़ित भी करेंगे, अपनी बीबी को तलाक देंगे और दूसरी के दरवाजे पर मुंह मारेंगे दुनियाभर में बेशर्मी से लेकर घूमेंगे और ज्ञानी बनकर कॉपी पेस्ट किताबें लिखेंगे महान बनने का शौक तो ऐसा कि हाथा पाई पर उतर आये ये गुणीजन - फिर कोई मालवा का हो, हांगकांग का या अवध का या पूर्वांचल का फर्जी आदमी
एक ससुरे नगदी समेटे लिफाफे, हवाई यात्रा, दो घूँट शराब के और राम भरोसे होटल में अकेले कमरे में रहने भर की महिमा है - वरना तो घण्टा है साहित्य, ससुरे जीवन भर बैंक में बाबूगिरी और मक्कारी करते रहें, सरकारी विभागों में धेले का काम नही किया समय - समय पर कभी कॉमरेड बनें, गाय बछड़े का गोबर साफ किया और कभी नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि गाते रहें और बाद में जलेस, प्रलेस या वनवासी कल्याण परिषदों में ज्ञानी - मुनियों की दाढ़ी में तिनके बीनकर अपीलें लिखते रहें, समाजवादियों को भी बेचकर खा गए ये - इनकी वजह से ही जुनैद भी मरते है और किवाड़ों की आड़ से क्रूरताएँ भी जन्म लेती है, क्यों विदा नही होते ये लोग, शेष क्यों रह जाते है - सम्भवतः बिरला से लेकर गली - मोहल्ले के ग्यारह रुपये वाले पुरस्कार बटोरने के लिए ताकि मरते समय भरपूर रुपया निकम्मी औलादों के नाम छोड़ जाये
बिल्कुल सही लिखा तुमने अम्बर, जो प्रतिरोध ही ना रचे वो काहे का साहित्य
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◆ अम्बर पांडे की पोस्ट - साहित्य क्या है
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सबको खुश करनेवाली दासी या साहित्य
साहित्य सबको खुश करनेवाली शै नहीं है। साहित्य स्वभाव से ही अनैतिक (immoral) होता है, अनादरपूर्ण (irreverent) होता है और किसी भी सत्ता के विरुद्ध (anti-authoritarian) होता है। साहित्य स्वभाव से समाज की मुख्यधारा के ख़िलाफ़ होता है, भीड़ से अलग होता है और अपने लिए कदम कदम पर ख़तरे पैदा करने और उठानेवाला होता है। कूटनीतिक रूप से सही (politically correct) व्यक्ति निजी जीवन में ही घुटता रहता है वह समाज के स्वातन्त्र्य का सपना क्या देखेगा, उस बेचारे का संघर्ष तो केवल प्रासंगिक (relevant) बने रहने का ही होता है।
साहित्य निरंतर प्रश्न उठाता है, निरन्तर ललकारता है, सतत लड़ता रहता है।
सबको राम राम करनेवाले लेखक या कवि नहीं हो सकते और सबसे बढ़कर बात यह है कि डरे हुए लोग लेखक या कवि नहीं हो सकते, वे व्यापारी हो सकते है, जैसे परचूनी काग़ज़ में बाँधकर जीरा बेचता है ऐसे लोग जीरे को लपेटकर अपनी कविता या कहानी बेच सकते है साहित्यकार तो बिलकुल नहीं हो सकते।
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हिंसा, प्यार, जुगुप्सा, बदला, देश प्रेम, अपनी माटी का नेह, अहम, द्वैष, दोस्ती, राजनीति, भाषा और कड़े अनुशासन की कहानी है "द फेमिली मेन - 2"
लम्बा लिखूँगा - अभी बस इतना ही कि अंत में मनोज वाजपेयी की गोली से चलता हेलीकॉप्टर धराशयी हो जाता है - साबास, भोत बढ़िया, एकदम झकास
बढ़िया सीरीज है जरूर देखें - तमिल तो सीख ही जायेंगे कम से कम
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#महारानी औसत सीरीज भी नही है और बिहार की राजनीति को बहुत ज्यादा हाईप करके दिखाया है, सर्वेश्वर की कविता की पंक्ति को पूरा उड़ा लिया साथ ही इस तरह के कई प्रसंग है जिनको अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से चित्रित किया गया है. कल रात शुरू किया था देखना और आज सुबह खत्म किया
मुझे एक भी एपिसोड ऐसा नहीं लगा जिसे याद रखा जा सकता हो या उल्लेखनीय हो, ना जेंडर के परिप्रेक्ष्य में ना राजनीति के संदर्भ में, और ना बिहार के आंदोलनों के सन्दर्भ इसमें है - मतलब यह बड़ी विचित्र बात है कि जिस चारे घोटाले की गूंज की बात करता है या केन्द्रीय भाव है इस सीरिज का वह सिरे से नदारद है, जितना बिहारी लोग अपने को बुद्धिवान समझते है और हर बार मुंह की खाते है वह जरूर दिखाने में सीरिज कामयाब होती है सारी प्रखरता और बकलोली कैसे बर्बाद होती है यह जरूर बढ़िया तरीके से स्थानीय कहावतों और लोकोक्तियों से दिखाया गया है - एक दृश्य में भालू की कहावत के माध्यम से कैसे प्रेमकुमार को नवीन बाबू चमड़े के जूते से पीटते है यह देखना रोचक है
रानी भारती की भूमिका में अभिनय बढ़िया किया है परन्तु बाक़ी एकदम बिहारी ही है , बहरहाल एक बार देखे जाने योग्य ही है, पर इस पर कोई लम्बे समय तक बहस होगी या कोई सबक मिलेंगे यह उम्मीद ना करें, बिहार की राजनीति तब भी भिन्न थी और आज तो है ही, इसलिए इसे एक पाठयक्रम की भाँती भी नही देखा जा सकता ना इतिहास के रूप में , जेपी आन्दोलन से निकले पासवान, लालू, शरद यादव, अजीत सिंह से लेकर मांझी जैसे राजनीतिज्ञों के बारे में भी कोई ख़ास बात नजर नहीं आती, जो बिहार दुनियाभर को ब्यूरोक्रेट्स देता है वो अपने ही राज्य में एक दक्षिण भारतीय महिला के हाथों कठपुतली बनकर नाचता रहता है, हालांकि ये दीगर बात है कि कैडर मिलने की अलग दास्ताँ है परन्तु एक मिश्रा और एक कावेरी क्या किसी राज्य की कहानी लिख सकती है , जातिवाद की बात बार - बार आती है पर उसमें कोई दम नही है, गौरव सोलंकी के आर्टिकल 15 में जो हिंसा, जातिवाद, भेदभाव और दमन है, स्त्रियों के प्रति दुराभाव है और संविधानिक आस्था की अधकचरी - अधपकी बात है - वो यहाँ तो है ही नही, शायद दिल्ली में लंबे समय से रहते हुए उमाशंकर बिहार के असली "खेला को पकड़ नही पायें" और दिल्ली के दरवाज़े से देखते रहें और सीरीज़ हाथ से फिसल गई
बेहद औसत दर्जे का सीरिज है 437 मिनिट लगाकर देखना एक प्रसव पीड़ा से कम नहीं है, अब सवाल यह है कि इसको देखने का और बर्दाश्त करने का मुआवजा कौन और कब देगा.........? बिहारी मित्र अन्यथा ना लें परन्तु यह बिहार की किसी भी प्रकार की छबी को प्रस्तुत नहीं करता है, बिहारी मेधा और बुद्धि का ना उल्लेख है ना कोई परिदृश्य ऐसे में कैसे होगा जी बिहार का विकास
मेरी तरफ से ***
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सायकिल का रायता समेट लो शूरवीरों अब पर्यावरण दिवस, वृक्षारोपण, बकस्वाहा पर गूगल, विकिपीडिया और ई वाचनालय से अक्षत ज्ञान निकालो, फोटो कॉपी करो और चैंपने की तैयारी करो
जल्दी करो समय नही है - फूल पत्ती, पशु पक्षी, नदी - बांध - जंगल आदि का मसाला इकठ्ठा करो, कविताएँ लिखों और पेलना शुरू करो 5 जून में बस चौबीस घँटे बाकी है
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कोरोना से बड़े आत्ममुग्ध लेखक
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खराब गद्य को पढ़ना तो पीड़ा है ही, पर उसी के बारे में वर्षों - वर्ष तक भयानक आत्म मुग्ध होकर लेखक का खुद का प्रचार करना कितना लज्जास्पद है, एक पुरस्कार को चाटते रहना, पूर्व में मिलें पुरस्कारों के और आगामी पुरस्कारों के सम्भावित निर्णायकों की पोट्टी को केक समझकर खाते रहना भी कितना शर्मनाक है, पर जैसे कहते है ना "महंगाई के दौर में ग्यारंटी की उम्मीद ना करें", वैसे ही "सोशल मीडिया के ज़माने में नैतिकता की भी उम्मीद ना करें" कम से कम कुछ लोगों से तो बिल्कुल नही और ऐसा भी नही कि ये जवान है या नासमझ है - सब किरान्तिकारी अधेड़ है 35 पार के है - जो जवानी के लच्छे ओढ़कर बासी रबड़ी बेचने में लगे है और इसमें महिला - पुरुष सब शामिल है, मास्टरों की जमात ज़्यादा है जो पढ़ाने लिखाने के बजाय हाथ में मोबाइल लिये नेटवर्क बनाकर षडयंत्र बुनते रहते हैं
ऊपर से इनके अश्लिलतम घटिया किस्म के तंज और घटिया किस्म की लगातार आती पोस्ट्स, एक दिन में 20 से 30 पोस्ट्स, मतलब नौकरी से क्या ही न्याय करते होंगे भगवान जाने
ख़ैर , शुक्र है कि फेसबुक पर अनफॉलो करने का विकल्प है - वरना तो इन आत्ममुग्ध लोगों की आत्म प्रशंसा, अपने बीबी - बच्चों, माशूकाओं, कुत्ते, बिल्ली, चूहों, फूल - पत्ती, जल, जंगल , जमीन, पहाड़, टूटी बाँसुरी, फटे हारमोनियम, उखड़े हुए तबले, उजड़े चमन से बाल, शोबाजी वाले फोटो, एपल के लेपटॉप - मोबाइल और कभी ना खरीदी जाने वाली किताबों की कचरा तारीफ़ - वो भी कच्ची पक्की हिंदी अंग्रेज़ी में पढ़ - पढ़कर लोग आत्म हत्या ही कर लेते
फिर भी ऐसे सभी स्वर्गीय लोगों को [ क्योकि ये अपने ही दस - बीस छर्रों और घोर फ़ुरसतिया महिलाओं से घिरे रहकर स्वर्ग में महसूस करते है ] मैं प्रणिपात प्रणाम करता हूँ
भगवान इन्हें शांति दें, इनके छर्रों को कोरोना ना हो, इनके आक्सीजन सिलेंडर खत्म ना हो और इनके लिए ओम शांति, बोले तो RIP
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|| जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा ||
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जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा, एकदम जर्जर बूढ़ा, तब तू क्या थोड़ा मेरे पास रहेगा? मुझ पर थोड़ा धीरज तो रखेगा न? मान ले, तेरे महँगे काँच का बर्तन मेरे हाथ से अचानक गिर जाए? या फिर, सब्ज़ी की कटोरी मैं उलट दूँ टेबल पर? मैं तब बहुत अच्छे से नहीं देख सकूँगा न! मुझे तू चिल्लाकर डाँटना मत प्लीज़! बूढ़े लोग सब समय ख़ुद को उपेक्षित महसूस करते रहते हैं, तुझे नहीं पता?
एक दिन मुझे कान से सुनाई देना बंद हो जाएगा, एक बार में मुझे समझ में नहीं आएगा कि तू क्या कह रहा है, लेकिन इसलिए तू मुझे बहरा मत कहना! ज़रूरत पड़े तो कष्ट उठाकर एक बार फिर से वह बात कह देना, या फिर लिख ही देना काग़ज़ पर। मुझे माफ़ कर देना, मैं तो कुदरत के नियम से बुढ़ा गया हूँ, मैं क्या करूँ बता?
और जब मेरे घुटने काँपने लगेंगे, दोनों पैर इस शरीर का वज़न उठाने से इनकार कर देंगे, तू थोड़ा-सा धीरज रखकर मुझे उठ खड़े होने में मदद नहीं करेगा, बोल? जिस तरह तूने मेरे पैरों के पंजों पर खड़े होकर पहली बार चलना सीखा था, उसी तरह?
कभी-कभी टूटे रेकॉर्ड प्लेयर की तरह मैं बकबक करता रहूँगा, तू थोड़ा कष्ट करके सुनना। मेरी खिल्ली मत उड़ाना प्लीज़, मेरी बकबक से बेचैन मत हो जाना। तुझे याद है, बचपन में तू एक गुब्बारे के लिए मेरे कान के पास कितनी देर तक भुनभुन करता रहता था, जब तक न मैं तुझे वह ख़रीद देता था, याद आ रहा है तुझे?
हो सके तो मेरे शरीर की गंध को भी माफ़ कर देना। मेरी देह में बुढ़ापे की गंध पैदा हो रही है! तब नहाने के लिए मुझसे ज़बर्दस्ती मत करना। मेरा शरीर उस समय बहुत कमज़ोर हो जाएगा, ज़रा-सा पानी लगते ही ठण्ड लग जाएगी! मुझे देखकर नाक मत सिकोड़ना प्लीज़! तुझे याद है, मैं तेरे पीछे दौड़ता रहता था, क्योंकि तू नहाना नहीं चाहता था? तू विश्वास कर, बुडढों को ऐसा ही होता है, हो सकता है एक दिन तुझे यह समझ में आए, हो सकता है, एक दिन!
तेरे पास अगर समय रहे, हम लोग साथ में गप्पें लड़ाएँगे, ठीक है? भले ही कुछेक पल के लिए क्यों न हो। मैं तो दिन भर अकेला ही रहता हूँ, अकेले-अकेले मेरा समय नहीं कटता! मुझे पता है, तू अपने कामों में बहुत व्यस्त रहेगा, मेरी बुढ़ा गई बातें तुझे सुनने में अच्छी न भी लगें तो भी थोड़ा मेरे पास रहना। तुझे याद है, मैं कितनी ही बार तेरी छोटे गुड्डे की बातें सुना करता था, सुनता ही जाता था? और तू बोलता ही रहता था, बोलता ही रहता था। मैं भी तुझे कितनी ही कहानियाँ सुनाया करता था, तुझे याद है?
एक दिन आएगा जब बिस्तर पर पड़ा रहूँगा, तब तू मेरी थोड़ी देखभाल करेगा? मुझे माफ़ कर देना यदि ग़लती से मैं बिस्तर गीला कर दूँ, अगर चादर गंदी कर दूँ, मेरे अंतिम समय में मुझे छोड़कर दूर मत रहना प्लीज़!
जब समय हो जाएगा, मेरा हाथ तू अपनी मुट्ठी में भर लेना। मुझे थोड़ी हिम्मत देना ताकि मैं निर्भय होकर मृत्यु का आलिंगन कर सकूँ।
चिंता मत करना, जब मुझे मेरे सृष्टा दिखाई दे जाएँगे, उनके कानों में फुसफुसाकर कहूँगा, कि वे तेरा कल्याण करें, कारण कि तू मुझसे प्यार करता था, मेरे बुढ़ापे के समय तूने मेरी देखभाल की थी!
मैं तुझसे बहुत-बहुत प्यार करता हूँ रे, तू ख़ूब अच्छे-से रहना ... इसके अलावा और क्या कह सकता हूँ, क्या दे सकता हूँ भला!!
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मध्यम वर्ग फिर बजाओ
उत्तर प्रदेश में जीत की अग्रिम
बधाई
गरीबों वोट दो, वोट दो
नरेंद्र मोदी - जिंदाबाद , जिंदाबाद, जिंदाबाद
दलितों, गरीबों, आदिवासियों, फर्जी बीपीएल कार्डधारियों बोलो - आयेगा तो मोदी ही
जय मोदी, जय मोदी और जय मोदी
और ध्यान रहें अब भी नही जितवाया तो दंगों के लिये तैयार रहो
पेट्रोल डीजल को श्रद्धांजलि ही दे देता बापड़ा
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