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Bihar Election, Bihari trend, Akhil Tiwari, Mirjapur -1 & 2, Scam of 1992 Harshad Mehta, Khari Khari and Drisht Kavi - posts from 24 to 31 Oct 2020

 तवायफ़ और संगीत की अमर नायिकाएं

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एक मित्र - जो प्राध्यापक है और हिंदी के विद्वान भी, इन दिनों तवायफ़ों और भारतीय संगीत की महिलाओं पर लगातार लिख रहे है और सच मे पठनीय और रोचक है, जानकारियों को संग्रहित करके ठीक ठाक भाषा में प्रस्तुत करना अच्छा काम भी है
कल मैंने उनकी वाल पर लिखा कि उन सभी महिला गायकों की उपलब्धि और यश उनके गायन शैली से मिला, उनकी गाई हुई ठुमरी, ग़ज़लें, बंदिशें आज भी मौजूँ है और क्लासिक्स का दर्जा प्राप्त है, अठारवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी तक वे सब किसी भी व्यवसाय या पेशे से आई हो पर तवायफ़ / वेश्या कहना अब आवश्यक नही है
यह सब सम्बोधन अब बेहद निम्न स्तर के है और महिलाओं की गरिमा के विपरीत है, इतिहास में जो भी हुआ हो किसी भी पेशे से उन्होंने पेट की आग को बुझाया हो पर उनका नाम संगीत और इतिहास में अमर उनकी गायकी और मौसिक़ी, ग़ज़ल कहने और बयाँ करने के अंदाज़ के लिए सुनहरे हर्फ़ों में लिखा गया है और नाकि पेशे के लिये
मैंने यह भी लिखा था कि मैं नासमझ हूँ पर इस तरह की भाषा और सम्बोधनों से अब परहेज करना चाहिये पर माड़साब को बुरा लगा, तो मेरा ज्ञान उघाड़ने लगें और मुझे इतिहास पढ़ने की सलाह देने लगे गोया कि मैं कोई नादान बच्चा हूँ, उन्हें मालूम होना चाहिये कि संगीत की समझ के साथ साथ जिस जगह मैं रहता हूँ वहां इतिहास बना है , खैर
हिंदी की और खासकरके हिंदी के प्राध्यापकों की दिक्कत यह है कि एक तो वे साहित्य के ठेकेदार है, जो वे कहेंगे वही सही, प्रामाणिक और अतुलनीय माना जाये, दूसरा अपने अकादमिक इंक्रीमेन्ट से लेकर तमाम तरह की सेटिंग के लिये वे जो लिखेंगे पढ़ेंगे - उसे ही श्रेष्ठ समझा जाये, कोई टिप्पणी व्यापक सन्दर्भ में करें तो बेहद आक्रामक होकर आपको निपटा देंगे और कुल मिलाकर "अहम ब्रह्मास्मि दूजो ना भव:" सिद्ध करने की कोशिश करेंगे
इन महाशय के साथ दूसरी दिक्कत यह है कि ये मुस्लिम महिला गायिकाओं पर ज़्यादा फोकस करते है, देवदासी प्रथा और आम्रपाली पर भी लिखें तो थोड़ा बैलेंस बनेगा - दो चार बार लम्बी बातचीत में इनके गुण तो दिखें, दक्षिणपंथ की तरफ झुकाव भी, पर इतने भद्दे तरीके से ये अपना एजेंडा इस तरह से लाएंगे पता नही था, एक चर्चित वेब पोर्टल पर जबसे छपने लगें तो ना लाईक किया ना कमेंट किया, बस वह भी एक कारण है
इन्होंने आज मुझे अनफ्रेंड किया और बहुत ही घटिया एसएमएस किया जो इन्हें अनपढ़ और गंवार से ज्यादा फ्रस्ट्रेटेड सिद्ध करता है - मतलब वही कि माड़साब की तारीफ करो हर तरह के कॉपी पेस्ट की और घटियापन की, वरना ये गाली गलौज पर उतर आएंगे - वैसे ही देश इन दिनों कॉपी पेस्ट, गूगल ज्ञान से या चार किताबों से चोरी करके सुंदर भाषा में प्रस्तुत कर लिखने वालों से परेशान है कश्मीर से कन्याकुमारी तक और नेहरू, गांधी से लेकर ज्ञानियों तक के बारे में कूड़ा लिखकर रिकॉर्ड समय में आठ - दस संस्करण निकालने वाले फर्जी लोगों की बारात झूम रही है प्रकाशकों के भौंडे बैंड के आगे , उस एसएमएस का स्क्रीन शॉट लगा दूँ तो इसकी इज्जत दो कौड़ी की नही रह जायेगी और सारी औकात भी सामने आ जायेगी - छोटे मोटे अखबार और सड़कछाप पत्रिकाओं में प्रूफ रीडिंग करते हुए, जगह जगह से हकाले हुए ये लोग कैसे जुगाड़ और सेटिंग से महाविद्यालयों और विवि में लग जाते है और चाटुकारिता करते हुए प्राध्यापक बन जाते है और फिर .... ख़ैर , खुदा ख़ैर करें
तवायफ़, वेश्या, सौतन, बांझ, रंडी, कुलच्छिनी, कुलटा, चुड़ैल, पापिन आदि जैसे शब्दों ने ही महिलाओं की गरिमा को गिराया है फलस्वरूप आज हम इन सबका प्रभाव देख ही रहें है
यह जेंडर, स्त्री समानता और संविधानिक गरिमा की बात है, कृपया इन शब्दों से गुरेज करें
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शरद पौर्णिमा पर अमावस
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कैसी मनहूस सुबह थी आज की, सुबह दो बजे एक मैसेज बॉक्स में संदेश था और मैंने जवाब दिया पाँच बजे और जब भोर में ही उस मित्र से फोन पर बात की तो पता चला कि अपने ही घर परिवार के समान वाले परिचित घर का चिराग बुझ गया
बीस इक्कीस साल का किशोर कहूँ या युवा नही पता और परसो रात दिल्ली में गुजर गया, उसी दिन सुबह दिल्ली पहुंचा था, पिछले छह माह से घर पर था कोविड के कारण और दिल्ली जब गया शाम को अचानक हार्ट अटैक सा कुछ हुआ और गुजर गया ; कल सुबह अभिभावकों को फोन आया और वे बदहवास होकर दिल्ली की ओर दौड़े तब जाकर पता चला कि उनको इकलौता लाड़ला पुत्र यह संसार त्याग चुका है
कितनी उम्मीदों से और आशाओं से उन्होंने उसे पाला था कैसे विदा किया होगा परसों, यह खबर सुनकर उन परिजनों के दिल पर क्या बीत रही होगी - यह समझ नहीं आ रहा है सुबह से दस बार यह बात अलग-अलग लोगों को फोन करके कंफर्म कर चुका हूं, हर कोई इस खबर को सही कहता है दुर्भाग्य से, सोया नही हूँ रातभर से - मेरा दर्द कम ही नहीं हो रहा, बार-बार उसका मासूम चेहरा पूरा बचपन सामने बीत जाता है, वह मेरे सामने ही पैदा हुआ था - मेरे सामने ही पला - बढ़ा, पूना पढ़ने गया था और अभी हाल ही में उसने दिल्ली में किसी विश्वविद्यालय में एमबीए के पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया था, अभी तो ठीक से मूंछे भी नहीं फूटी थी और काल के गाल में समा गया अचानक सबको छोड़कर
कुछ कहने की स्थिति में नहीं हूं कुछ बोलने की स्थिति में नहीं हूं - परंतु कई सवाल अंदर ही अंदर घुन की तरह से खायें जा रहें है कि आखिर ऐसा क्या हुआ होगा कि इतनी छोटी उम्र में एक बच्चा गुजर गया, क्या हमारे मूल्यों में कहीं कमी है, क्या हमारे लालन-पालन में कहीं कमी है, क्या हमारा खान पान ठीक है, क्या हम लोग स्वास्थ्य और अपनी आदतों पर पर्याप्त ध्यान दे पा रहे हैं, क्या हम अपने बच्चों के साथ सहज और दोस्ताना भाव से खुलकर बातें कर पाते हैं, क्या हमको हमारे बच्चों पर विश्वास है और क्या बच्चों को हम पर विश्वास है, क्या बच्चों को घर से दूर रख कर पढ़ाना ठीक है
एक शिक्षक होने के नाते मुझे हमेशा से लगता है कि बच्चों को अपने सामने ही रखना चाहिए जैसी भी शिक्षा अपने परिवेश में उपलब्ध है - उसे वहीं पर शिक्षित - दीक्षित करना चाहिए - क्योंकि मटके की तो अपनी सीमाएं हैं ही - उसमें उतना ही पानी आएगा जितना उसमें आ सकता है फिर वह टप - टप करते नल के नीचे रख दो या अथाह पानी वाले समंदर में, - "बढ़ती उम्र के बच्चों को बाहर रखना खतरे से खाली नहीं है इस समय" , यह सबक तो बार - बार मिलता है और पिछले एक डेढ़ महीने में यह तीसरी खबर थी कि युवा हम सबके बीच से यूँ सूना करके चले गये है, ये कोरोना से हुई मौतों के आँकड़े से अलग और वीभत्स आँकड़े है जो जीवन शून्य कर गए है परिवारों का
मैं बहुत बेचैन हूं और सिर्फ इतना ही कहूंगा कि जब तक हो सके बच्चों को अपने सामने रखिए, अपने पास रखिए, अपने घर, गांव, कस्बे या शहर में पढ़ाईये, बाहर भेजने का कोई अर्थ नहीं है
उस युवा के लिए श्रद्धांजलि और पूरे परिवार के लिए प्रार्थनाएँ - ईश्वर है या नही , नही मालूम पर इतना कहूँगा कि ऐसा शोक किसी को ना दें और ऐसी मनहूस सुबह किसी के जीवन में कभी ना आये - बुदबुदाते हुए कातर स्वरों में यही बड़बड़ा रहा हूँ
खयाल रखिये अपने बच्चों का, वे हमारी ताकत और सम्पदा है और उन्हीं से हम है
ओम शान्ति
आमीन
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"सुनिये, अभी दो तीन दिन इधर मत आना" - मैंने उनसे फोन करके कहा
" क्यों " - लाइवा कवि ने पूछा
"आपको देखकर वैसे ही हेलोवीन की फीलिंग आती है बारहों मास, कभी तो विश्व के साथ असली त्योहार मना लेने दो यार"
उन्हें आज सुना ही दी आख़िर
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8 माह हो गये है,अखबार नही पढ़ा है - मार्च से, न्यूज़ देखना भी लगभग बंद कर दिया है, मन की बात आज तक झेली नही - एक तरह की शांति है दिल दिमाग़ में
सात - आठ अखबार आते थे तो बहुत रुपया भी बच गया, सोच रहा हूँ कि इस बचत का एक खाता स्विस बैंक में खुलवा लूँ, 56 x 2 सूटकेस खरीद लिए है
बस जैसे माल्या को एयरपोर्ट पर छोड़ने जेटली गया था, मुझे निर्मला बैन निकलवा दें दिल्ली एयरपोर्ट से तो सुकून से बचा खुचा जीवन जी लूँगा
आप कहिये
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भट्टी जलाने वालों को फ़ायर इंजीनियर होना ज़रूरी है
जलेबी बनाने वालों को पोषण में स्नातक या केमिकल इंजीनियर
रबड़ी बनाने वालों को डेयरी में स्नातक
कप बसी और बर्तन धोने वाले को मेकेनिकल इंजीनियर
पुड़िया बाँधने वाले को आयुर्वेदाचार्य होना आवश्यक
ग़ल्ले पर बैठने वाले को चार्टेड अकाउंटेंट होना ज़रूरी है
चाय बनाने वाले को एंटायर पोलिटिकल साइंस में दिल्ली विवि से एमए होना आवश्यक है
क्योंकि मोदी है तो मुमकिन है
इतनी मूर्ख सरकार कभी देखी किसी ने - ये अफ़सर ले डूबेंगे मोदी जी आपको लिख लो आज
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आपदा में अवसर
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ऑनलाइन कोर्स और दो से आठ हफ्ते तक के फर्जी पाठ्यक्रम के नाम पर रोज सन्देश आते है, एक बड़ा दलाल वर्ग सक्रिय है यहाँ तक कि आई आई एम जैसे भी अब इसी राह पर निकल पड़े है - सुतियों बीस से पचास हजार तुम्हारे बाप ने मेरे नाम लिखकर छोड़े है क्या
दिन भर बजाज के लोन से लेकर क्रेडिट कार्ड वाले अलग जान खा जाते है
फिर मार्केटिंग वालों के फोन - गोरा, छरहरा, सैक्सी और दुबला करने से लेकर केंसर, कोविड, किडनी फेल, बायपास, बवासीर, भगन्दर, मर्दाना कमज़ोरी तक की ग्यारंटी वालों के फोन, गिलोय - चिरायता से लेकर पता नही क्या क्या घोलकर पिला देने वाले मर्द अभी भी ज़िंदा है जो सब कुछ बेच दें पॉलिसी हो या दवा दारू
यूनिसेफ से लेकर तमाम बड़े लोगों के सन्देश और मेल आते है मंगतों टाईप - अरे मेरे पास नही है रे बाबा कुबेर का खजाना क्यों शर्मिदा करते हो - मांगकर
घर - घर दवाई पहुंचा देने वालों से लेकर प्लॉट और फ्लैट बेचने वालों को गाली देकर थकता नही कि नौकरी लगवा दो की आफत आ जाती है, छोटी दुकान वाले एनजीओ अनुदान मांगते - मांगते मर जायेंगे और फेलोशिप मांगने वालों ने स्टॉक एक्सचेंज में शर्म भी बेच दी है अब - इन बेवकूफों को यह नही दिखता कि पूरी दुनिया बेरोजगार है अभी पर अंधे है साले सबके सब
पाकीज़ा, विशाल मेगा मार्ट, डी मार्ट, पीटर इंग्लैंड , वुडलैंड, एक्शन शूज़, जॉकी, गंजों के बाल उगाने वाले से लेकर जिम और पतंजलि वालों को मेरा नम्बर किसने दिया - ससुरे दिन भर मैसेज करके जीवन का रायता बना दिया है, डीमेट अकाउंट से लेकर जेट, रेड बस और पेन अमेरिका की बुकिंग वाले और यात्रा डॉट कॉम से लेकर वेडिंग डेस्टिनेशन वाले एक दिन मार डालेंगे - साला सपनो में भी भारत मेट्रीमोनियल वाले चले आते है पंजाबी खत्री या जाट लड़की लेकर
कविता, कहानी, युट्युब शेयर कर दो से लेकर लाईव वाले अभी भी थके नही कमबख्त - पेले जा रहें है इतनी गालियां खाने के बाद भी, किताब की समीक्षा लिखवाने वाले अलग है और अमेजॉन और फ्लिप कार्ट की लिंक से रद्दी खरीदवाने की होड़ अलग टशन में रहती है, लाइक और कमेंट के अंतरराष्ट्रीय भिखारी 24 x 7 सक्रिय रहते ही है, वाट्सअप विवि पर पोस्ट डाक्टरेट कर लिया ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, साहित्य से लेकर खगोल, स्पेस साइंस, कार्डियोलॉजी, नेफ्रोलॉजी, प्रसूति रोग एवं सर्जरी आदि तक में , मिर्जापुर, हर्षद मेहता और ए सूटेबल बॉय भी देख ली - अब क्या फांसी लगा लूँ
ग़ालिब, दाग देहलवी से लेकर कवि प्रेमचंद, बच्चन, के बहाने अपना कूड़ा पेलने वाले भी कम उत्पाती नही हरामखोर कही के रात डेढ़ बजे तक और सुबु चार बजे से वाट्सएप पर ढेरों माल खपा देते है और फूल पत्ती का कचरा मोबाइल से बीनते हुए आदमी सच्ची में एक दिन गुफा लौट जायेगा नंगा होकर मोबाइल फेंककर
शेष समय कचरा उठाने वाले, शनि महाराज, कुरियर वाले, ढोल वाले, चौकीदार और बाकी लोकल पापड़ - बड़ी से लेकर जेवरात बेचने वाले उधम मचाये रहते है
24 घँटे कम पड़ते है यारां, क्या ख़ाक जीवन जियें - इन सबसे बचें तो सुकून मिलें कुछ
कुल मिलाकर जीवन बर्बाद है मित्रों और अब किसी ने दखल दिया मेरे जीवन में तो साला गोली से उड़ा दूँगा - ढिंचक - ढिंचक्याउ
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हर्षद कमज़ोर भारतीय व्यवस्था का प्रोडक्ट था
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हर्षद मेहता शातिर नही, भ्रष्ट नही वरन व्यवस्था का उपयोग करके अपने परिवार की बेहतरी के लिए, गरीबी दूर करने के लिए एवं अपने आर्थिक स्वार्थ सिद्ध करने वाला व्यक्ति था जो बहुत ही साधारण परिवार से आया, यह कोई गलत नही है - महत्वकाँक्षाये सबमें होती है, कम पढ़ाई लिखाई के साथ पनपा और कड़ी मेहनत से अर्थशास्त्र, शेयर बाज़ार और अंग्रेजी पर महारथ हासिल करने वाला यह बन्दा अपने व्यवहार, सम्प्रेषण कला और जीवंत सम्बंध बनाकर अर्थ व्यवस्था में सेंध लगाता है , एक गुजराती व्यवसायी के मूल चरित्र को उभारने में हंसल मेहता सफल रहें है
नरसिम्हाराव से लेकर साधु संतों और डाक्टर मनमोहन सिंह जैसों को भी पानी पिलाया; बुल, रिजर्व बैंक, बैंकिंग, अफसर, सीबीआई , तोता, बोफोर्स से लेकर माधवन जैसे असली चरित्रों को अपने सामने पुनः अभिनीत होते देखना संतोषप्रद है
Hansal Mehta
जी, द्वारा निर्देशित सीरीज़ भारतीय अर्थ व्यवस्था की एक बेजोड़ कहानी है - जिसे हर उस भारतीय को देखना चाहिये जो भले ही भीख मांगकर एक रुपया कमाता है और उसमें से पांच पैसे आने वाले कल के लिये सुरक्षित रखना चाहता है, उसे समझना चाहिये कि रुपया, बजट, नीति, बैंक, शेयर, पूंजी, दलाल, सरकार, वैश्विकता, भाव और सबसे अंत में व्यक्ति का इस सबमें क्या महत्व है और जब कोई औकात पर आ जाता है तो क्या से क्या हो जाता है
यह कपोल कहानी या गल्प नही वरन ऐतिहासिक तथ्यों, रिकॉर्ड और पर्याप्त सबूतों के आधार पर बनी हुई एक महत्वपूर्ण डाक्यूमेंट्री है जिसे नाटकीयता से पेश किया गया है और अंत मे राम जेठमलानी, स्वयं हर्षद के असली दृश्य डालकर इसे प्रामाणिक बनाया गया है
प्रेम, रिश्ते, बदला, संघर्ष, सहानुभूति, समानुभूति से लेकर मानवीयता के सारे गुण -अवगुणों से भरपूर इस सीरिज में हर्षद के परिवार और दफ़्तर के बहाने एक बड़े सामाजिक बदलाव की भी बात आपको समझ आएगी, वैश्विक मंदी और बदलाव जो 90 के दशक से आरम्भ हुआ था और 2000 के आते आते कैसे इसने हर छोटे बड़े व्यक्ति और काम धन्धों को लील लिया यह सब सीखना हो तो यह सीरीज़ जरूर देखना चाहिये
हर्षद के बहाने सुचिता दास से लेकर दिलीप पडगांवकर और राजदीप जैसे वास्तविक चरित्रों से मीडिया की भूमिका, ताक़त और शोधपरक पत्रकारिता के विभिन्न आयाम दिखाए है जिनकी तारीफ़ करना होगी, आज के बर्बाद हो चुके मीडिया को यह समझना चाहिये कि उनके क्या कर्तव्य है और क्या करने की जरुरत है
अरबों रुपयों में खेलने वाला हर्षद जब एक सरकारी अस्पताल की बेंच पर इलाज के अभाव में मरता है तो पृष्ठभूमि में कबीर का भजन बजता है " मत कर क़ाया का अभिमान " जो जीवन की कड़वी सच्चाई है और यही समझ आता है कि हम सब नश्वर है और अर्थ काम धर्म मोक्ष सब माया है , बहुत ही त्रासद दृश्य है और देखते देखते बरबस ही आँसू आ जाते है
उत्कृष्ट अभिनय, दृश्यांकन, बेहतरीन फिल्मांकन और बेहद कसा हुआ निर्देशन इस सीरीज़ को अलग तरह से तकनीकी रूप से श्रेष्ठ बनाता है, पूरी टीम कौशलों से परिपूर्ण तो है ही - हंसल मेहता स्वयं निपुण एवं पारंगत निर्देशक है तो इस सीरीज को जाहिर है अंजाम तक पहुंचना ही था , बीए पास से मैं आज तक प्रभावित हूँ अब यह सीरीज़ उन्हें मेरी नजर में और ऊंचा कर गई - जिस तरह से उन्होंने भाषाई प्रयोग किये -गुजराती मुहावरों को वापरा वह शानदार है, गालियाँ भाषा का अंग है वह कहने की आवश्यकता ही नही है और यह सहज रूप से स्वीकार्य होना ही चाहिये
यह सीरीज़ भारतीय इतिहास में गुजरात फाइल्स जैसे प्रामाणिक दस्तावेज़ के समान लिखें दस्तावेज पर आधारित है, हंसल भाई गुजरात फाइल्स पर भी एक डाक्यू ड्रामा बनाईये या तेलगी पर भी जिसने दुनिया का सबसे बड़ा स्टाम्प घोटाला किया
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दोनो के पास अकूत सम्पत्ति थी, एक ने मजदूरों को घर भेजा दूसरे ने मौत को गले लगाया
एक के पास परिवार, मूल्य, संस्कृति और जीवन था, सपोर्ट था, फ़िल्म उद्योग के रिश्ते थे इसी वजह से वह ढेर सारे लोगों को वह दे पाया जिसे कहते है ख़ुशी और सन्तोष
दूजे के पास भी सब था पर ना पिता काम आए ना तीन बहनें, ना रुपया, ना संस्कृति, ना मूल्य और इसी वजह से जीवन एकाकी हो गया इतना कि ड्रग्स का सहारा ही जीवन का पर्याय बन गया - दोस्त सब स्वार्थी निकलें और इहलीला की समाप्ति के बाद भी बदनाम करने में कसर नही रख रहें मौत के बाद उन्नीस बीस करोड़ बर्बाद हो गये
घर , परिवार , दोस्त , मित्र क्यों है - यह सोचना होगा फिर से, यदि इनका होना - ना होना एक समान है तो फिर आदिम युग में लौटे और एकल जीवन बिताएं फिर से - जरूरतें और इच्छाओं , वासनाओं और हवस का क्या - वो तो कभी भी कही भी पूरी हो सकती है - सभ्यता गवाह है ही
क्या है जीवन का अर्थ - दोनो युवा, दोनो के पास नाम, यश , कीर्ति और दोनो के नाम पर उपलब्धियां, पुरस्कार, फॉलोवर्स की भीड़ और राजनीति पर कुल जमा हासिल क्या है - कभी विचार करिये
आप देते है तो संवरते है, आप दूसरों के ग़म में शामिल है तो परिशुद्ध होते है, एक शुक्रिया और एक मुआफी { thanks & sorry } आपको क्षणिक ही सही, निर्मल कर देता है, एक क्षण के लिए मनुष्य बना देता है जीवन मूल्यों से भर देता है
दोनो मुम्बई से बाहर के थे , दोनो को पलायन करना पड़ा, नई जगह दोनो के लिए थी, दोनो ने संघर्ष से मकाम हासिल किया, दोनो माया नगरी में रहें, दोनो देश की धड़कन, दोनो के भयानक फॉलोवर्स और दोनो ही आईकॉन पर जीवन कहाँ बना, सफल हुआ या गड़बड़ हुआ - इसे परखिये
आज के इस घमासान में, गंदगी में दोनो का इस्तेमाल हो रहा है पर कैसे यह बताने की ज़रूरत नही है - एक था सुशांत और एक है सोनू सूद - बस तय कर लीजिए आपके जीवन का लक्ष्य क्या है - इस्तेमाल तो हम सब होते है, जीते तो हम सब है पर कैसे, कब , कहाँ, क्यों यह आपको हमको तय करना है
[ एक मित्र से चर्चा के आधार पर ]
***
मिर्जापुर 1 एवं 2 वस्तुतः प्रेम, वर्चस्व और ईगो की कहानी है और इन तीनों को पाने और बरकरार रखने के लिए हिंसा, खून खराबा, षड़यंत्र और बदला लेना स्वाभाविक है और इस सबमें पुलिस, प्रशासन और राजनीति का इस्तेमाल होना लाज़मी है, बहुत लोग पैदा ही इसलिए हुए है कि मोहरों की तरह इस्तेमाल होते रहें और कीड़े मकौडों की तरह मर जाये - गाहे बगाहे हम सब एक दूसरे का इस्तेमाल करते है - मरना मारना हमेंशा भौतिक नही होता
बस इतनी सी बात को दो सीजन के लगभग दस - ग्यारह घण्टों में फ़िल्माया गया है, छायांकन, अभिनय, कहानी, निर्देशन, और लोकेशन बेहतरीन है - भाषाई गालियों को लेकर कमेंट करने की जरूरत नही - गालियाँ हम सब देते है और देना चाहिये जो लोग नैतिक होने का ढोंग करते है वे कितने पतित है उस पर कहने का अर्थ नही है
बिहार, उप्र ही नही - हम सबके घर परिवार की सीधी कहानी है और समय रहते इसे स्वीकार कर लीजिए, आपके पाखंड और दोगलेपन से किसी को फ़ायदा तो नही पर आपको ही सबसे ज़्यादा नुकसान होगा - यह पीढ़ियों को सचेत करने वाली कहानी और दूर तक फैले फ़लक की दास्तान है जिसे हम सबको अपने जीवन में एक ना एक दिन सहना, झेलना और निपटना है
जरूर देखिये - निसंकोच देखिये और पूरे परिवार के साथ देखिये - बच्चे महिलाएं आपसे ज़्यादा गालियां झेलते है और उपयोग करते है
बहरहाल, इस वीक एंड में निपटा दीजिये
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अभी एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी जो करीबी मित्र है, से बात हुई जो इन दिनों चुनाव आयोग के पर्यवेक्षक बनकर पूरे चुनाव पर नजर रख रहें है
इस टिप्पणी में चुनाव के तारतम्य में मेरे अपने पटना, मधेपुरा, मधुबनी, खगड़िया, गया, बेगूसराय आदि जिलों के काम के दौरान के अनुभव भी शामिल है
◆ बिहार के लोग जो वंचित, दलित और सबसे दरिद्र है वे बहुत तार्किक और बुद्धिलब्धि से परिपूर्ण है क्योंकि उनके सामने रोज रोटी की समस्या है
◆ बिहारियों में गुस्सा बहुत है एक तरह का जो जन्मजात है इसलिए वो हर जगह कुतर्क करके अपने को श्रेष्ठ साबित करने में लगे रहते है
◆ देश के बाहर इसी गुस्से से वो दूसरों को नीचा दिखाने से बाज़ नही आते क्योकि और जगहें बेहतर है और व्यवस्थित - बिहारी होने का अपराध बोध तथा कुंठा उन्हें गुस्सैल बनाती है
◆ एक बिहारी सौ पर भारी जैसे जुमले उनके इस ईगो या कुंठा को शांत कर बाहर रहने में मदद करते है और इसी से वे सर्वाइव कर पाते है यही उनके सेल्फ इस्टीम को पोषित करता है
◆ बिहार में ही नही पूरी दुनिया मे प्रशासन सबसे बड़ा राजनैतिक नौटँकीबाज है यह हम जानते है पर बिहार में यह कुछ अति की सीमा पार कर गया है
◆ कोई भी राजनैतिक पार्टी आये कोई फर्क नही पड़ना है जब प्रशासन, लोग और व्यवस्थाये नही बदलेंगी
◆ संगठित अपराध बहुत है पर जेंडर आदि जैसे मुद्दे कम है
◆ सत्तू , लिट्टी, गमछा, भाषाई शुद्धता, ज्ञानी होने के मुग़ालते, अधिक या सभी कुछ पढ़ा और समझा हुआ है - हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, वेद पुराण, उपनिषद, साहित्य, संस्कृति से लेकर विज्ञान और दर्शन भी - जैसी छोटी बातें उन्होंने बिहारी अस्मिता बना रखी है और लेखन में इनका कोई सानी नही - "अहम ब्रह्मास्मि दूजो ना भव:"
◆ एक दूसरे को भरपूर मदद करते है देशभर में रिक्शा ढोने के काम से लेकर प्रकाशन व्यवसाय में - बस एक बिहारी कही फिट हो जाये फिर तो कुनबा बन जायेगा बंगालियों की तरह
◆ भाजपा यहाँ अगले 50 वर्षों में मेजोरिटी में नही आ सकती क्योंकि मूल रूप से लोग लोकतांत्रिक, समाजवादी विचारधारा के है यहाँ अतिउच्च वर्ग सहसा दिखता नही
◆ मध्यम वर्ग से ज़्यादा निम्न वर्ग बड़े निर्णायक की भूमिका में है
◆ राजनेताओं ने मैथिली, भोजपुरी, भूमिहार से लेकर आदि विभाजनों में लोगों को बांट रखा है जो समझते सब है पर सब इसे इंजॉय करते है
◆ दलितों के हमदर्द बनने वाले फर्जी ब्राह्मण,ठाकुर और पिछड़े जाति के लोग हर जगह की तरह है पर कुछ क्षेत्रों में ज्यादा ही है और ये दिखावा वो सिर्फ बिहार के बाहर रहकर अपने सर्वाइवल और बुद्धिजीवी बने रहने के लिए करते है बिहार में घुसते ही वे अपनी जातीय औकात और व्यवहार पर उतर आते है
◆ अव्यवस्थाएं इतनी है कि लोग अब इम्यून हो गये है - उन्हें इन सबसे प्यार है और वे कीचड़ गंदगी या भ्रष्टाचार के साथ ही जीने को अभिशप्त है इन सब अव्यवस्थाओं को ना बदलने का उनमें जोश है और ना हिम्मत, प्रदेश के बाहर रहकर वे निंदा पुराण कर सबको बकवास से चुप कर देंगे अपने गुस्से से जैसे विदेश में हम भारतीय गुस्सैल व्यवहार करते है
◆ कुल मिलाकर बिहार में दो ही वर्ग है मजदूर और कामकाजी जो राज्य से बाहर है और पूरे देश और बड़े जनमानस को लताड़ने का काम करते है बजाय अपने राज्य या घर के फिर वो IAS IPS हो या सड़कों पर सबसे ज्यादा पैदल चलें दिहाड़ी मजदूर और ये दोनो ही वर्ग सबसे ज्यादा पलायन भी करते है
◆ बिहार आजाद हिंदुस्तान के 74 वर्षों की प्रगति, मूर्खतापूर्ण विकास के मॉडल, विशुद्ध बकवास करने वाले सच्चे लोगों और निहायत ही वंचित, ग़रीब और सिर्फ अतार्किक सवाल दागने वालों स्वतंत्र नागरिकों का उदाहरण है और यह नज़ीर भी है राजनीति और प्रशासन की जो लापरवाह, कुटिल और गैर जवाबदेह है
◆ बहरहाल, यह हम सबके साथ है पर बात चुनाव की है और रोज़ जो उजबक कृत्य देख सुन रहें है हम लोग तो एक टिप्पणी
जिसे बुरा लगें दो लिट्टी ज़्यादा खा लें , सत्तू घोलकर पी ले पर यहाँ कुतर्क ना करें

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मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही