दीपक मिश्रा, रंजन गोगोई और अब अरुण मिश्रा जैसे जजों ने यह बहुत साफ सन्देश दिया कि फासिस्ट ताकतें अब न्याय क्षेत्र में है तो आम आदमी होने में और धर्म निरपेक्षता का कोई अर्थ नही - सत्ता मनमाने फैसले करवा सकती है यानि करोड़ो लोग लॉक डाउन में पैदल चलें और कोर्ट को दिखा नही - कमाल, 48 हजार झुग्गी हटा दो और कोई बोलेगा नही, बहुजनो को लड़ने पर ना न्याय मिलेगा न उनके हक सुरक्षित है
यह पद्धति कांग्रेस ने शुरू की और आज देश भुगत रहा है पूरा
कानून पढ़ रहा हूँ पर जो उदाहरण देख रहा हूँ वो घातक और भयावह है - ये नज़ीरे आने वाले समय के लिए खतरनाक होगी जैसे अब कोई स्टे आर्डर नही देगा
इस देश का अब कुछ नही हो सकता
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"सुनिये, जरा अंदर आईये ना " - कवयित्री की गली से गुज़रते हुए लाइवाकवि ने आवाज़ सुनी तो चहक उठा और फुर्ती से घर में घुस गया
ये हिंदी का पीजीटी भी था किसी केंद्रीय विद्यालय में, पर भड़कता शोले टाइप था - जो कॉलेज की नौकरी ना मिल पाने के गम में कुंठित हो गया था हिंदी की तमाम फर्जी डिग्रियाँ होने के बाद भी और जमकर कविता लिखता था
" कहिये आज आखिर आपने कविता सुनने के लिए बुला ही लिया " - मन समर्पित, तन समर्पित के भाव थे ललाट पर, कवि के
" नही असल में मेरे फूफा ससुर का श्राद्ध है आज, कोई बामण नही मिल रहा - वर्किंग ड़े है ना आज, फिर गाय भी नही आई, कुत्ते भी नही दिख रहे सुबह से और भोग की थाली फोटो के सामने रखी है - आप खाना यही खा लिजिये , ग्यारह रुपये वही नीचे है थाली के - ले लीजिए और निकलिये क्योकि 'ये' लंच में आयेंगे अभी एक बजे " कवयित्री ने थाली की ओर इशारा किया जो स्व सवाईलाल अनोखेलाल शर्मा के सामने रखे रखे सूख रही थी
कौव्वें और काला पानी कहानी कवि को याद आ रही थी - स्साला निर्मल वर्मा भी अभी ही याद आना था - कवि ने मन ही मन कहा
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पक्के बेशर्म है - एक लाश पर चुनाव जीतेंगे, ढीट है - एक अभिनेता की लाश पर जो कर्जदार था, नशेड़ी था और तमाम अनैतिक काम करता था, जिसने आत्महत्या की है - वह इनका रोल मॉडल है और बिहारी इंटेलेक्ट को भी यह सब भायेगा क्योकि बिहारी अस्मिता है ना इस मसाले में
ये असली संस्कृति इनकी, ये संस्कार जो बरसों से गली आंगन में कोमल दिमागों में बो रहे है , देश का प्रधान एक नशेड़ी के फोटो पोस्टर लेकर खड़ा प्रचार में उतरा है, (कु)सुशासन का खलनायक इसे अपनी जीत कह रहा है
हम टैक्स पेयर्स का रुपया सीबीआई, नारकोटिक्स और आई बी के गधों को पालने पोसने में बर्बाद हो रहा है जो संविधान के प्रति समर्पित ना होकर इन घटिया राजनेताओं के चरणोँ में लोट लगाते है
मीडिया आपको रिया से रनौत तक उलझाकर रखता है - युवाओं को क्या चाहिये - डेढ़ जीबी डाटा, रिया, रनौत, मन्दिर और पोर्न - बस हो गया
याद है ना मणिशंकर अय्यर
[तस्वीर देखिये गौर से - कला एवं संस्कृति प्रकोष्ठ - इनको हिंदी सीखाओ बै कोई ]
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फेसबुक पूछता है "आपके दिमाग में क्या है"
आपके दिमाग में क्या चल रहा है, इसका अर्थ यह है कि किसी विषय के बारे में, किसी मुद्दे के बारे में किसी किताब के बारे में, किसी लेखन के बारे में आपके दिमाग में क्या चल रहा है, पिछले दिनों कुछ काम किया तो मुझे लगा कि संबंधित विषय और व्यक्ति से बात कर लेना चाहिए - परंतु बहुत प्रयास करने के बाद भी मुझे लगता है कि मैं सफल नहीं हो पाया और जब तीन-चार दिन बहुत परेशान रहा तो अब समझ में आ रहा है कि फेसबुक का यह वाक्य कि "आपके दिमाग में क्या चल रहा है" - बहुत महत्वपूर्ण है - क्योंकि आपके दिमाग में जो है वह मेरे दिमाग में नहीं आ सकता
मेरी अपनी क्षमताएं हैं, मेरी अपनी सोच है, मेरा अपना अनुभव है और मैंने एक विचार बनाया है जो मेरे परिवेश, परिस्थिति और शिक्षा से उपजा है - इसलिए यदि मैं चाहूं कि आपके दिमाग को हूबहू कॉपी करके उसे ले आऊँ शब्दों में बोकर किसी लेख, कहानी या कविता का या किताब का स्वरूप दे दूं - वह शायद मुश्किल होगा - यह बात आप भी समझते हैं, मैं भी समझता हूं और हम सब समझते हैं परंतु उपलब्धियां, सच, जानकारी और अनुभव और इस पूरी प्रक्रिया से गुजरने में जितना आपके दिमाग ने समय लगाया है उसको मैं चाह कर भी एक जन्म तो क्या दस जन्मों तक पूरा नहीं कर पाऊंगा, कभी समझ ही नहीं पाऊंगा कि वह सब क्या था जो छूटता रहा
मैंने अपनी समझ से जितना बेहतर हो सकता था करने की हमेशा कोशिश की और उसके बाद भी मैं खुला हूं कि अभी भी यदि कोई संभावनाएं होती है तो उस पर मेहनत की जा सकती है ; गौतम बुद्ध कहते थे मैं एक बात कहता हूं लोग उसे अपने अपने तरीके से समझते हैं - बौद्ध लामा या भिक्षु अलग समझेगा, कोई गणिका अलग समझेगी, नगर सेठ अलग समझेगा, आम्रपाली अलग समझेगी, अंगुलिमाल अलग समझेगा, प्रिय शिष्य आनंद अलग समझेगा - क्योंकि सबका परिवेश, भाषा, संस्कृति अलग है और लालन-पालन अलग - अलग तरीके से हुआ है
इसलिए हम शिक्षा में जब बात करते हैं कि "क्या समझ गए हो" - तो अक्सर छात्र कहते हैं - "जी गुरु जी" बावजूद इसके कि एक कक्षा में 50 बच्चे मतलब 50 भिन्न प्रकार की मानसिकता, संस्कृति और परिवेश है बावजूद इसके यदि कोई समझाने में सफल हो जाता है और बच्चे वही उत्तर पुस्तिका में लिखते हैं जो उस शिक्षक के दिमाग में था तो निश्चित ही शिक्षक की तारीफ तो है परंतु यह घातक भी है कि हमने 50 मेधावी छात्रों को एक डंडे से हांक दिया और भिन्नता को खत्म कर दिया और कहने की माफ़ी पर यह एक जैसा जवाब देना और किसी के कहे को ज्यों का त्यों समझकर जवाब दे देना कम से कम शिक्षा नही है और मेरे लिए शिक्षा का मतलब है comprehension यानि किसी बात को आत्मसात करके अपनी भाषा,अपने अनुभवों को जोड़कर नया रचना और बुनना है, हो सकता है मैं गलत हूँ पर अब यह गलती अच्छी लगती है भले ही नाकारा, निकम्मा कहलाऊँ कोई फर्क नही पड़ता, नोबल पुरस्कार की चाह तो नही कम से कम
बहरहाल, शिक्षकों को शिक्षक दिवस की बधाई - इस पीड़ा के साथ कि यदि आप सच में अपना काम सही अर्थों में करते तो 74 वर्षों में देश के यह हालात ना होते और इसमें मैं भी शामिल हूं बल्कि सबसे बड़ा गुनहगार मैं हूं - जिसने अपने जीवन के लगभग 10 वर्ष सीधे शिक्षण और शिक्षा के प्रबंधन में लगाएं हैं, 20 वर्ष शैक्षिक नवाचार और शोध में लगाए हैं इसलिए इतिहास में देश की इन परिस्थितियों के लिए मुझे जिम्मेदार माना जाए
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कवि किसी प्रांत की राजधानी में रहता था जहां कुएँ, बावड़ी और तालाब बहुतायत में थे
सरकार ने एक नाट्य दल को सांस्कृतिक आदान प्रदान के तहत फ्रांस भेजने का निर्णय लिया तो कवि के मन में उमंगे हिलोरे लेने लगी उसने नाट्य दल प्रमुख के चरण पकड़ लिए और बोला - " उस्ताद ले चलो भले ही भाला पकड़कर नंगा खड़ा कर देना स्टेज पर "
दल प्रमुख ने बंसी बजाई चैन से और जवाब दिया - " मेरा होलडॉल और ब्रीफकेस भी उठाना पड़ेगा तो बोल मंजूर "
" हाँ , उस्ताद मंजूर " कवि ख़ुश था
बस फ्रांस से लौटा कवि अब प्रातः स्मरणीय है और कविता की हत्या करके चैन से बंसी बजाता है इन दिनों, हर जगह लाइव में नजर आता है और पुरस्कार भी बटोरता है
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" हेलो, कैसे है आप " फुर्सत में था तो फोन लगाया मैंने कविराज को
" जी , सब बढ़िया है भाई सा, आज कैसे याद किया आपने " बड़ी मीठी आवाज़ में बोले
"आपका पोस्ट देखा कि कही लाइव हो रहा हो तो तुरन्त लिंक भेजे और लाइवा का लिंग भी बताये - कवि है या चंचल यौवना " वे बोले
" क्यों - आज उल्टा क्यों हो रहा है " हैरान था मैं कि आज शिकारी खुद शिकार
" क्या है ना भाई सा, आज ही जियो फाइबर लगवा लिए है अब अनलिमिटेड नेट है और जब दूसरों को सुनेंगे तो दूसरे मुझे सुनेंगे " कविराज भयानक ख़ुश थे " और अब नेट की चिंता नही, अम्बानी जी सस्ता कर दिया है - एक महीना फिरी भी है , बस कोई आये या ना आये - मैं लाइव रहूँगा सुबह 530 से रात 12 तक " कवि अब चरम पर थे
भगवान इतनी फुर्सत किसी को ना दें
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"इतने क्यों उदास हो" - मैंने पूछा
बहुत दिनों बाद चाय पर आज घर के बरामदे में बुला लिया आखिर मैंने, कब तक गेट के बाहर खड़ा रखकर बात करता, छह माह तक तो घुसने नही दिया अंदर
" कुछ नही धोखा हुआ, ये सब चीटिंग है - फेसबुक पर, किताबों के अंतिम पृष्ठों पर इतने सुंदर सुंदर फोटो देखें और जब लाइव हुए तो 122 में से एक भी कवयित्री फोटो के माफ़िक नही थी, सब अधेड़ और वृद्धावस्था तक पहुंची हुई थी - और तो और साले कवि भी सब 70 पार , गंजे, चश्मा लगाये हुए और दाँत टूटे पोपले मुंह के " - कविराज ने बसी में चाय उण्डेलते हुए कहा
" सोच रहा हूँ यह दुनिया ही छोड़ दूँ " - अंत मे बोले
" जी , अब निकलिए दफ्तर को देर हो रही है आपको जगह जगह लाइव करना है पर मेरा परिवार भी है, और अब अगले साल आना " - मैं अंदर था
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तेरे सीने में नही तो मेरे सीने में सही
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प्रशांत भूषण को इस सरकार के ख़िलाफ़ सड़क पर उतरना चाहिये और सुप्रीम कोर्ट के साथ समूची व्यवस्था बदलने के लिए आंदोलन करना चाहिये इसके अलावा अब कोई चारा नही है, युवा, जनता और पूरी Legal Fraternity उनके साथ है , किसी अण्णा जैसे दलाल की या अरविंद जैसे विभीषण की जरूरत नही है उन्हें , ज्यादा से ज्यादा मिठास के अग्रदूत योगेश यादव को साथ रख लें बस दो बूंद शहद की तरह इस्तेमाल के लिए
इस समय यह सरकार पतन की गर्त में है और बंदर मोरों के बीच रहकर प्रधानमंत्री खिलौनों की बात कर रहा है - मन की बात से उमड़ा जनाक्रोश इस सरकार की विफलता की कहानी कह रहा है
यह सही समय है जब लोग जो बेरोजगार है, त्रस्त है सिर्फ एक रुपया देकर इस आंदोलन को खड़ा करें और कार्पोरेट्स के गुलाम बन चुके और नोटबन्दी, जीएसटी और लॉक डाउन से देश को हजारों साल पीछे ले जा चुके तथाकथित विकासवादियों को असलियत से रूबरू करवाएं
अपनी लोकप्रियता को घटता देख बड़ी बेशर्मी से फिर चीन के हमले का नाटक शुरू कर दिया है और इसी माध्यम पर प्रबुद्ध जन और फर्जी पत्तलकार चीनी घुसपैठ और हमले की पोस्ट लिखकर मोदी को सपोर्ट कर रहे हैं
इस समय में देश में अंधभक्तो के बजाय समझदारों की ज़रूरत है तब अवाम को ही सामने आना होगा और सबसे पहली शुरुवात न्यायपालिका को ठोक पीटकर सही रास्ते और संविधानिक पथ पर लाने की जरुरत है ताकि वहाँ से असली देशद्रोहियों को और जनता को बरगलाने वालों को ठीक किया जा सकें
हो सकता है प्रशान्त भूषण सही आदमी ना हो इसके लिए पर एक प्रतीक के रूप में मैंने नाम लिया है क्योंकि अब एक बड़ा आंदोलन बहुत जरूरी है - कोरोना की आड़ में जो खेल चल रहे है, फर्जी आंकड़ों से जीडीपी का षडयंत्र रचा जा रहा है और चीनी घुसपैठ के नाम पर देश को भरमाया जा रहा है वह बहुत चिंतनीय है
अभी तो चार साल इस "गरबर सरकार" [ उच्चारण भी बदलेगा देख लेना बिहार के लिए ] के बाकी है - असली चेहरा बिहार और बंगाल चुनाव और अलग अलग राज्यों में होने वाले उप चुनावों में सामने आएगा इनका
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अभी कालिदास अकादमी में मिला वो, हिंदी का प्रतिष्ठित लाइवाकवि था, उज्जैन में रहता था पर फ़ेसबुक लाइव में विदेशी भी झेलते थे उसको
बोला " कब आये, कुछ उधार दे सकते हो क्या "
मैंने कहा " क्यों "
" भाई जी, कवयित्रियाँ अपनी किताबों के अमेजॉन लिंक भेजती है, मंगवा लेता हूँ, फिर इसी सब में बर्बाद हो गया, आज नेट भी खत्म हो गया - पूरे साल भर का जीबी कोटा नौ दिन में खत्म हो गया - अब देख भी नही पा रहा कुछ, आज चंचल यौवना सुश्री दंतेश्वरी जी का लाइव है और मन उदास है " वो बोला
"भाई मैं खुद अकादमी के बाहर घूम रहा हूँ नाटक देखने के रुपये नही फिर...." टाल दिया मैंने
"बहाने मत बनाओ साला दोस्त हो, बीड़ी ही पिला दो ... " वो अब समर्पित कर चुका था, रुलाई फुट रही थी
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राजदीप सरदेसाई या अर्नब या एनडीटीवी की एंकर को सीबीआई , सेना, पुलिस से लेकर ईडी तक का प्रमुख बना देना चाहिये
ये मीडिया ट्रायल की इजाज़त कैसे मिली जब मामला सीबीआई के पास है और जिस तरह के सबूत , तारीखवार विवरण उनके पास है वो कैसे ओपन हुए, बेहद निजी सवाल से लेकर आन्ततिक बातचीत के सवाल वे किस हैसियत से पूछ रहे हैं, क्या ये कानूनी है , एक महिला की गरिमा पर लगातार चोट करते हुए वे पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है और कई सवाल जो जाँच के घेरे में है वो पूछ रहे है बल्कि cross examination / interrogation करते हुए पूछ रहे है - चैनल के एंकर्स या पत्रकारों की औकात इतनी कैसे हो गई - सारे कोर्ट अंधे हो गए है क्या
अगर हां तो देश के लॉ एंड आर्डर की स्थिति बेहद घटिया है , एक दो कौड़ी का चैनल न्यायाधीश की भूमिका में कोर्ट नुमा सवाल कर रहा है
ये सब जांच के बिंदु और सबूत बाहर कैसे और कौन ला रहा है - मज़ाक है या शर्मनाक
बेहद शर्मनाक है।
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कंगाल हो चुकी केंद्र सरकार ने आज राज्यों से कहा कि वित्त के लिए कोई उपाय ढूंढें क्योंकि वो जीएसटी का शेयर राज्यों को नही दे पायेगी
12 राज्य कंगाल हो गए है और अपने कर्मचारियों को तनख्वाह नही दे पायेंगे इस सबको ढँकने और छुपाने का जमकर बड़ा खेल हुआ आज रात सभी जगह प्राइम टाईम पर
कुछ तो करना ही था, साली जनता को कुछ मालूम ना पड़े - लिहाज़ा आज परम श्रद्धेय , प्रातः स्मरणीय रिया चक्रवर्ती हर चैनल पर रात में उदित हुई और अपने आँसूओं से देश के युवाओं, माता बहनों और अवाम को सच्चाई से रूबरू करवा दिया, बोली गोली मार दो मुझे और परिवार को - जबरदस्त
अब सीबीआई की जाँच वापिस ले लो , सब स्क्रिप्टेड, रिकार्डेड और प्रमाण सहित मौजूद है - सज़ा दे दो डायरेक्ट - कल ही , परसो से फिर शनिवार रविवार की छुट्टी है कोर्ट की - क्यों सुप्रीम कोर्ट का टाइम और देश का रुपया बर्बाद करना
मतलब Ravish भाई आप लोग भी रिया को रात दस बजे ले ही आये - चलो पुण्य कमा लिया आपके चैनल ने भी - गंगा बह ही रही थी
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" खुद को आबाद किया देश बर्बाद किया - सत्ता पाने के लिए " - #कमलाभसीन यह गीत बहुत गाती थी 1989 - 90 के समय, Runu Chakraborty दी, याद है ना - जागोरी की बहनें भी झूम के गाती थी और हम भी साक्षरता मिशन से जुड़े थे तो खूब चिल्लाकर गाते थे, सफदर के नुक्कड़ नाटकों के पहले जनता को इकठ्ठा करने के लिए यह गीत बहुत प्रचलित था जनांदोलनों में
पहले 5 साल बोला कि 60 साल का कांग्रेस का फैलाया कचरा साफ करना है - नोटबन्दी और जीएसटी कर दिया और हजारों बेवजह मारे गए
फिर जनता जनार्दन ने बदलाव के लिए वोट दिए तो 370 हटाकर कश्मीर को क़ैद किया, फिर देश बेचा और फिर कोरोना देव की कृपा हुई तो लॉक डाउन कर सब कुछ बर्बाद कर सबको सड़क पर ला दिया , 12 करोड़ नौकरियां चली गई जिनकी है वो 30 से 50 % कटौत्री पर काम कर रहें है, 32 से 40 साल के युवा पीएचडी करके बैठे है - कब नौकरी मिलेगी, कब शादी ब्याह करेंगे और नागरिक बनेंगे
अयोध्या में मन्दिर बन ही रहा है , 5 अगस्त को अनंत हेगड़े के अनुसार संविधान खत्म हो ही गया जब पंथ निरपेक्षता खत्म हो गई, अदालतें चौपट हो ही गई है - बचा क्या है
नई सरकार से उम्मीदें होती है कि बदलाव करें, पुराने को कोसने से कुछ नही होता - इसलिए तो आपको लाये थे, पर आपको तो सिर्फ कोसना और बर्बाद करना आता है, चलो वो भी ठीक , परिवर्तन नही तो जो था बेहतर उसे ही बनाये रखतें - आपने तो देश को दो लोगों को बेचकर हजार साल पीछे कर दिया उपर से कोरोना का इलाज दवाइयों और व्यवस्था से करने के बजाय राजनीति से किया
जनता मतलब हम, हम मतलब मैं - हम ही मूर्ख है तो सरकार की क्या गलती - वो तो है ही शोषक और विकास विरोधी - युवाओं और लोगों को यह समझ नही आ रहा कि उनका भविष्य क्या है - नौकरी, धँधा, रोटी, मकान, दवा, इज्जत, सेल्फ इस्टीम और बाकी सबका क्या
झाँझ बजाओ, खिजो और ताली बजाओ, जनता को व्यस्त रखो कि वो तमाशे देखती रहें उजबको की तरह, आप मन की बात सुनो और बेवकूफ बनो, जैसे सुशांत की आत्महत्या एक निजी मसला है पर टैक्स पेयर्स का रुपया सीबीआई में बर्बाद कर रहें हैं , बिहार - बंगाल चुनाव के बाद देखेंगे कि सीबीआई का तोता कितना टर्राता है
गोबर खाएंगे तो ये ही देश बनेगा , आईये गौमूत्र पियें, गोबर खायें और थाली पीटें , 12 राज्य सरकारों के पास अगस्त की तनख्वाह बांटने को रुपया नही है , मजदूर दिहाड़ी और बाकी हम्मालों का तो छोड़ दो और हमारे मप्र ने 65 करोड़ का हवाई जहाज ले लिया है - लाशों पर दिवाली किसे कहते है
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"मैं रोज़ यहां आता हूँ, बैठता हूँ और तारों को देखता रहता हूँ, एक अजीब सी फीलिंग होती है - कैसी ये मैं बता नहीं सकता, जब आसमान में सितारे टिमटिमाते हैं तो ऐसा लगता है जैसे हमें कोई संदेश भेज रहे हों...मैसेज..या चैलेंज दे रहे हों..कह रहे हों - तुमलोग अपने छोटे से ग्रह में रहकर आपस में लड़ते झगड़ते रहते हो, वक़्त बर्बाद करते रहते हो, हमारी तरफ देखो,हमें समझने की कोशिश करो ; इस विश्वलोक के असीम रहस्य को कितना जानते हो - इंसान होने का इतना गुरूर, इतना घमंड, इंसान का दिमाग, इंसान की बुद्धि, इंसान का ज्ञान कितना कुछ जानता है हमारे बारे में - बताओ "
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दिल को समझाने तेरी याद चली आई है
फिर वही शाम, वही गम वही तन्हाई है...
[ जिन गाँव, कस्बों या शहरों में नदी - तालाब नही होते वहाँ के लोगों के आंसू कभी नही सूखते - पानी का घर वो जगह होती है जहाँ किसी भी अवसाद या चरम खुशी के मौके पर जाया जा सकता है ]
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" साधारण सर्दी है, कोरोना भी नही है,घर जाकर सिर्फ आज आराम करो, कल से कॉलेज जा सकते है आप " डाक्टर ने कहा
" क्या कोई भयंकर टाइप वाली बीमारी का नाम इस कागज़ पर अंग्रेजी में लिखकर दे सकते है जो गूगल पर हो और विवरण भयानक दिया हो " - कविराज बोलें
"क्यो " - डाक्टर को समझ नही आया
" क्या है ना यह बीमारी लिखकर कहूँगा कि अब आखिरी लाइव है, लोग गूगल करेंगे तो सच मान लेंगे, फिर 25 - 30 तो आ ही जायेंगे, हो सकता है 'अंजू मंजू अनिता सुनीता सीता गीता' फोन पर ही सुन लें मेरी कविताएँ , प्लीज़ लिख दीजिये ना " कविराज दरिद्र स्वर में घिघिया रहें थे
" ये तीन सौ पकड़ो और निकलो बाहर " कवि को धकेला और रिसेप्शसनिस्ट को बुलाकर डाँटा और बोला "अब किसी कवि को टाइम मत देना "
***
" उसके सपनों में परियाँ नहीं आती
उसकी किताबें हैं
बोरी में बन्द, दुछत्ती पर धरी हुई
छोटे भाई की किताबों को
देखती है छूकर
सोचती है कि स्कूल जाना
उसे इतना तो नापसन्द न था "
उपासना झा हिंदी की वो कवयित्री है जिनके पास न मात्र समृद्ध भाषा है बल्कि लम्बा जीवंत अनुभव है, साथ ही संसार को अलग ढंग से देखने का अपना एक नज़रिया है जो उन्होंने हिंदी, अंग्रेजी की भाषाओं के क्लासिक्स पढ़कर, स्थापित रचनाकारों को पढ़कर एवं गहन चिंतन कर अर्जित किया है
उपासना बहुत संवेदनशील कवि है - जो बहुत बारीकी से अवलोकन करती है, लम्बा शोध करती है और अपने आसपास के परिवेश और चरित्रों पर पकड़ रखकर चलती है, उनकी भाषा में कविता या कविता के पात्र एकाएक उभर कर नही आते - बल्कि वे एक दीर्घकालीन अवलोकन और उनके पूरे प्रभाव जो एक कवि की दृष्टि विकसित करते हुए समझ बनाते है - तब ये चरित्र बहुत आहिस्ते से कविता में प्रवेश करते है, ये चरित्र तब कवि की पकड़ से छूटते है और अपनी बात खुद इतने मुकम्मल तरीके से कहते है कि पाठक चमत्कृत रह जाता है, कविताएँ मन मस्तिष्क पर कैसे दर्ज होती है स्थाई - यह प्रक्रिया समझने के लिए उपासना को पढ़ना जरूरी है इसलिए नही कि कविताएँ है बल्कि इसलिए कि कविता के माध्यम से सहज बात को कैसे कहा जा सकता है फिर वो दर्द हो या बदलाव, कविता में जो बिंब और स्थानीयता है, लोक के शब्द शहद की भांति घुलते है वो पकड़ना भी अदभुत है
उपासना की इन कविताओं के विषय स्त्रियां, किशोरियां और गांव देहात के वे लोग है जो कही ना कही इस वैश्विक दुनिया मे पिछड़ रहें हैं , फेसबुक पर उपासना को पढ़ता रहा हूँ, पत्र -पत्रिकाओं में अनुवाद और छुटपुट कविताएँ भी पढ़ी है, सामाजिक सरोकार रखने वाली पोस्ट्स भी पढ़ी है, पर #जानकीपुल पर राकेश श्रीमाली जी की टिप्पणी के साथ इन दस कविताओं को पढ़कर समृद्ध हुआ हूँ और अभी भी यूँ लग रहा है मानो ये कविताएँ कही अंतर्मन में घुल रही है, अपनी समूची चेतना में इन्हें बहुत गहराई से पढ़कर ही इनमें डूबा जा सकता है
यह कहना गलत नही होगा कि उपासना झा हिंदी की श्रेष्ठ कविताओं और बेहतरीन उम्मीदों का दूसरा नाम है
लिखती रहो और यूँही इस समाज को झकझोरती रहो
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ज्ञान सरीखा गुरु ना मिल्या, चित्त सरीखा चेला
मन सरीखा मेल ना मिलया, गोरख फिरे अकेला
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मन में रहीना भेद ना कही, ना बोलिबा अमृत वाणी
अगिला अग्नि होई बा, हे अवधू तो आपन होई बा पानी
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जिस देश में 80 हज़ार मरीज रोज निकल रहें हो, हजारों लोग रोज मर रहें हो - वहाँ जनता के धन का ऐसा दुरुपयोग और निजता की बात ना करें कोई - करोड़ो लोग बेरोजगार हो गए और यह प्रपंच , अयोध्या के भूमि पूजन तक तो ठीक था पर यह मोर के साथ फोटो शूट
उफ़्फ़, किन मानसिक रोगियों के बीच हम रह रहे है, भक्ति और पिछलग्गू पन में हम सब अवसाद और गहरी मानसिक जड़ता के शिकार है और किसको इस देश का वर्तमान और भविष्य सौंप दिया है , सोचा था नही बोलूँगा - लिखूँगा पर हद है हर बात की
कभी सोचा कि अपने बच्चों का क्या होगा - अपने किशोरों और युवाओं को क्या अवसर है नौकरी - धन्धों के आज , उनके शादी ब्याह और जीवन का क्या
Sanjeev Thakur का संकलन है
" नौटँकी जा रही है " - अप्रतिम है, हालांकि सन्दर्भ अलग है पर शीर्षक फबता है फैब इंडिया पर
***
आज रविवार है, सुबह 8 बजे से कवयित्री का ज़ूम पर लाइव था
कल शाम ही पेडीक्योर, मैनीक्योर करवाकर आई थी, पूरे तीन घँटे ब्यूटी पार्लर पर लगायें, इधर पति और बेटा सबको मैसेज भेज रहें थे 1740 कुल वाट्सअप और मैसेज गए
पर आज बरसात हो गई तेजी से,
" सेटेलाईट से ही जूम के इश्यू है, हमारे हाथ मे कुछ नही है और मेरे से मत पूछ, मेरा काम सिर्फ चल्लू करके बैठना है, नींद भी आ जाती है साली, पर आज नही हो पायेगा " - किसी बाबू टाईप आदमी ने बोला जब पूछा तो
" फिर कब " - कवयित्री मायूस थी
" जब कोई मना कर देगा या एकदम ही फुर्सत होगी हमको तब " - आयोजक का जवाब था
[ हमेंशा कविराज ही क्यों भुगते ]
***
श्रीगणेश उम्मीद का दूसरा नही बल्कि पहला नाम है, इस उत्सव के स्थापना के जो भी सामाजिक राजनैतिक कारण रहें हो पर सावन के बाद भादो में पानी की झड़ी के बीच दस दिनों का उत्सव मन में शांति लाने वाला है , असँख्य उम्मीदों और आशाओं के बीच यह जीने की प्रेरणा देने वाला उत्सव है जो हर जाति, वर्ग और समाज को एक करता है, श्रीगणेश शब्द ही एक शुरुवात है - नई, अनूठी, दुष्कर और असम्भव को सम्भव बनाती
दस दिनों में प्रफुल्लित मन और उमंगों से भरे इस त्योहार की छटा यद्यपि इस बार थोड़ी कम है पर हम अंदर से टूटे नही हैं और बिखरने की हद तक अभी पहुँचे नही हैं - सबको गणेश चतुर्थी की शुभेच्छा और स्वस्तिकामनाएँ
एक गीत याद आता है - फ़िल्म दुखद थी पर गीत बहुत प्यारा था सुनील दत्त और स्मिता पाटिल की फ़िल्म थी, और गीत के बोल थे - " मेरे मन मन्दिर में तुम मेहमान रहें, मेरे दुख से तुम कैसे अनजान रहें " यह गीत टींस भी देता है और प्रचंड आशा भी जगाता है , बहरहाल
जै जै
***
आखिर कवि ने अपना स्टेटस बदला "सिंगल" फिर भी लाइव पर कोई नही झाँका, बल्कि दो तीन तो पोस्ट पर लिख गए कि 54 की उम्र में तलाक दे गई क्या भाभीजी, कोई और मिल गई क्या छमिया और तेरी उन निकम्मी औलादों का क्या होगा जो बगैर नौकरी के मंदिर - मस्ज़िद की बहस में लगे रहते है और तेरी ही कविता नही सुनते तो हमको क्यों झिला रहा है
***
बात बहुत पुरानी है। कई बार की पढ़ी हुई भी। मगर आज पहली बार इसकी एक पंक्ति ने अलग अस्तित्व के साथ असर किया। ख़लील जिब्रान की इस कथा की अंतिम पंक्ति है वह।
◆◆◆
बहुत समय पहले, देवता भी जब पैदा नहीं हुए थे, एक सुबह मैं गहरी नींद से जाग उठा। मैंने देखा कि मेरे सारे मुखौटे चोरी हो गए हैं। सात मुखौटे जिन्हें मैं सात जनमों से पहनता आ रहा था। बिना किसी मुखौटे के जोरों से चिल्लाता हुआ मैं भीड़भरी गलियों में दौड़ने लगा - "चोर!… चोर… !!"
लोग मुझ पर हँसने लगे। कुछ मुझसे डरकर अपने घरों में घुस गए।
जब मैं बाजार में पहुँचा तो अपने घर की छत पर खड़ा एक नौजवान चिल्लाया - "देखो… ऽ… वह पागल है।"
उसकी झलक पाने के लिए मैंने ऊपर की ओर देखा। सूरज की किरणों ने उस दिन पहली बार मुखौटाविहीन मेरे नंगे चेहरे को चूमा। मेरी आत्मा सूरज के प्रति प्रेम से दमक उठी। मुखौटों का ख्याल मेरे जेहन से जाता रहा; और मैं जैसे विक्षिप्त-सा चिल्लाया - "सुखी रहो, सुखी रहो मेरे मुखौटे चुराने वालो!"
इस तरह मैं पागल हो गया।
और अपने इस पागलपन में ही मैंने अकेला रह पाने की आज़ादी और पहचान बना लेने के अहसास से मुक्ति पाई। वे, जो हमें पहचानते हैं, कुछ-न-कुछ गुलामी हममें बो देते हैं।
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कुमार जी, भीमसेन जी और अब जसराज जी
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यूँ तो दिल्ली, इंदौर आदि जगहों पर क़ई बार सुना उन्हें पर वे उस दिन देवास में थे मल्हार स्मृति मन्दिर में और हॉल भरा हुआ था, मैं एकदम आगे बैठा था, सब तल्लीन होकर सुन रहें थे और मैं बेचैन था कि मेरा पसंदीदा भजन कब गाएंगे
कार्यक्रम में ब्रेक हुआ, भारी मन से बाहर आया और अपना मुंह टेकड़ी की ओर किया - मैंने मन ही मन कहा कि क्या देवास या माँ चामुंडा / माँ कालिका की नगरी में आकर भी भजन नही गाएंगे तो क्या मतलब
पुनः कार्यक्रम शुरू हुआ, बड़ी विनम्रता से वे मंच पर आये और सबका झुककर अभिवादन किया और बोलें कि "अभी मैंने बाहर पहाड़ी पर जगमगाते हुए माता के मंदिर देखें और नमन किया और अब लगता है कि यदि मैंने माता के दरबार में आकर, माँ के घर - आंगन आकर वह भजन नही गाया, माता कालिका की स्तुति नही की तो मेरा होना ही व्यर्थ है, मेरा संगीत व्यर्थ है, मैं देवों के वास से बगैर माँ के आशीर्वाद लिए चला जाऊँगा - यह नही हो सकता " - मेरी धड़कने बढ़ गई थी और उधर मंच पर उजालों की लट बिखर गई , संगीत की स्वरलहरियां अपने उद्दाम वेग से बिखरने लगी और हर कोई स्तब्ध था - उस दिन पंडित जी ने जो उपहार दिया था - वो मेरे लिए अमूल्य था
भजन था " माता कालिका महाकाल महारानी भवानी, भवानी - जगत जननी भवानी, भवानी " - पता नही पंडित जी ने मेरे मन की बात कैसे भांप ली थी, आलाप लेते समय जब उनसे नज़रें मिली तो वे मुस्कुरा रहें थे, वो चमक और मुस्कुराहट मेरे जीवन की उपलब्धि और ताक़त है - वे गए कहाँ है यही है - यह भजन मेरा सबसे पसंदीदा भजन है आज भी
वे इतने बड़े शिखर पुरुष है कि भले ही दैहिक रूप से आज विदा हो गए है पर इस धरा पर हमेशा रहेंगे - तब तक, जब तक इंसानियत, गुरु शिष्य परम्परा, संगीत की उम्मीद किसी आरोह - अवरोध और आलाप - तान के बीच बनी रहेगी
पंडित जी, आपका नाम लिखना भी मेरे जैसे तुच्छ आदमी के लिए मुश्किल है, आपको नमन और श्रद्धांजलि
यह समय कितना और लील लेगा, कितनी जान और लेगा - मन उदास है क्षुब्ध हूँ और कही आशा की किरण नज़र नही आती
[ वह भजन आपके लिए ]
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50 से लेकर 60 के लोगों को युवा कहते आयोजको को लज्जा आनी चाहिए असल में - गलती इन 50 से लेकर 85 तक के कवियों की नही ये तो बेचारे है जो शुगर की गोलियाँ और बत्तीसी लेकर कविता की सेवा करने जेब से रुपया लगाकर "पोच" जाते है कही भी
पिछले दिनों एक आयोजन में हिंदी के 6 कवि युवा कहे गए जिनमे से एक उसी समय रिटायर्ड हुआ, दूसरा 59 का है तीसरा 52 का है....And so on
दो तो मुझे साफ लिखने पर नाराज हो गए और बाकी से मन मुटाव हो गया, इनमें से एक अपने से "बड़े वाले" को इष्ट कहकर कविता की वैतरणी पार कर गया बाकी तो राम भला करें काव्य और कविता का - दूसरे के बंधुआ है कुछ
साला अजीब हालत है हिंदी जगत की - एक 72 के ऊपर है लौंडो टाइप घने बाल वाली फोटो लगाकर नई प्रोफ़ाइल बना ली और बेवकूफ बनाता है दुनिया को
ये ससुरा युवा होता क्या है - युवा भी युवा नही रहें - शोध करते करते 35 - 38 के हो गए , गाइड के चरण धोकर पी लिए,नहा लिए फिर भी नौकरी नही बापड़ो को , इनकी चम्पाओं को दलित - आदिवासी या महिला कोटे से नौकरी मिल गई और वो इन्हें गंगाराम कुंवारा रह गया टाइप गाना गाने के लिए छोड़कर किसी और के साथ फुर्र भी हो गई - अब अपन तो 25 के नीचे वालों को युवा कहते है
पर आलोचक Pankaj की पोस्ट पढ़ने के बाद अब अपुन लिखेगा गृहस्थ कवि क्योंकि 25 के ऊपर सब गृहस्थ कवि ही है ब्याह ना भी हुआ हो पर एकाध गर्ल फ्रेंड तो बांध ही लेते है टाइमपास के लिए, 50 वालों को बूढ़े कवि और बाकी सबको चूके हुए सठियाये कवि आज से Prefix लगेगा
महिला कवियों का तो और मत पूछिए अंजू मंजू सीता गीता अनिता सुनीता - लिखेंगी तो चालीस साला, पचास साला औरतें और बनी रहेंगी 16 और हाई स्कूल की फोटू ब्यूटी एप से धे फिल्टर धे फिल्टर लगाकर चैंपति रहेंगी - इसलिये सबको आज से सबको अक्षत यौवना माताजी कहूँगा
होशियार
#दृष्ट_कवि
[गृहस्थ पंकज पाराशर हिंदी के प्रख्यात आलोचक है और इन दिनों विलुप्त विषयों पर गहराई से लिख रहे हैं, अलीगढ़ मुस्लिम विवि में प्राध्यापक है और दो दशकों से ज्यादा पुराने मित्र है ]
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