कितनी पुरानी बात
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यह तस्वीर है 1989 की - जब एक निजी विद्यालय में शिक्षक बना था, 22 साल उम्र थी - बीएससी किया था 1987 में - नौकरी कर ली क्योंकि विज्ञान एवं अंग्रेजी पढ़ाने का चस्का लग गया था और लगा था कि आत्मनिर्भर भी होना चाहिये, तीन साल भरपूर दिल लगाकर पढ़ाया 1987 से 1989 तक और इसके साथ अंग्रेजी साहित्य में एमए भी कर लिया था, बाद में बहुत स्कूल - कॉलेज में पढ़ाया,दो तीन जगह प्राचार्य भी रहा, पर ये तीन साल अनिल कपूर की अमर फ़िल्म " वो सात दिन " जैसे थे आजीवन ऊर्जा और ताजगी देने वाले
उसके बाद फिर असली सफर शुरू हुआ था जीवन का - परिवर्तन, एक्टिविज़्म और बदलाव लाने का - 2019 तक खूब दौड़ता रहा इतना कि थक गया, कि साँसे भर आती है अब
करीब 30 - 40 हजार छात्रों से जीवंत सम्पर्क, समाज मे कार्य करने से बनें समुदायों में असंख्य मित्र, मीडिया में रुचि और लिखने पढ़ने से बने मित्र और अपनी पढ़ाई के दौरान कक्षा पहली से आज तक यानि 54 की उम्र में लॉ की कक्षा में साथ पढ़ रहे युवा मित्र और ढ़ेरों शासन प्रशासन से जुड़े मित्र और साहित्य का वृहद दायरा - कुल मिलाकर एक बहुत बड़ा फ़ैला हुआ दायरा है - रिश्तों नातों का और ये सब मेरी ताकत रहें है हर कदम पर
अज्ञेय कहते थे -
मैं मरूँगा सुखी
मैंने जीवन की धज्जियां उड़ाई है
आज इस मकाम पर जब पलटकर देखता हूँ तो लगता है कितना भरपूर जीवन जिया, अवागर्द रहा, यायावरी की , लड़ते - झगड़ते, सीखते सिखाते जन्म के बाद 53 साल बीत ही गए - कितना खोया और कितना पाया पर आज हाथों में एक शून्य है - दोनों हाथ खाली है, झोली में स्नेह के प्रसाद और प्रमाद के अलावा कुछ नही, इस समय में जब रोज़ आसपास मौत की खबरें सुनता हूँ, दहशतजदा लोगों की आवाज़ें सुनता हूँ, स्क्रीन पर मौत का तांडव और आंकड़ों की बाज़ीगरी देखता हूँ तो दिमाग़ सुन्न हो जाता है
सुबह उठकर सोचना पड़ता है कि क्या किया जाये - करने को बहुत है, लिखने पढ़ने को भी पर सूझ नही पड़ती और फिर पूरा दिन सुनसान सी रपट पर गुजरता है - एक पुल है जो पानी मे डूबा है, दोनों तरफ चेतावनी लिखी है फिर भी मुसाफ़िर पानी मे उतर गया है - गले गले तक पानी है, असँख्य हाथ पानी में नजर आते है, आवाज़ों का शोर है, जहाँ तक दृष्टि जाती है - अँधेरों के सिवाय कुछ नजर नही आता - पाँव जम गए है नीचे से पानी गुजर रहा है तेजी से, कब यह ठंडी पड़ी देह पानी के उद्दाम वेग के संग - साथ बह जाएगी - मालूम नही पर अब कोई आशा शेष नही है, जीवन के उद्देश्य और अर्थ पूरे हो गए है - कोई चाह बची नही है अब
पर धुँधली स्मृतियाँ जेहन में एक बाईस्कोप के रील की तरह चल रही है और उसी रील से यह एक तस्वीर निकली है इस आश्वस्ति के साथ कि जो जीवन में आये जिनका साथ मिला, जिनसे सीखा और बहुत कुछ लिया - आज नतमस्तक होकर उस सबको याद करके उपकृत समझता हूँ और जब पूरा खाली हो गया हूँ तो दुष्यंत बहुत याद आते है जो कहते थे -
"दुख नही कोई कि उपलब्धियों के नाम पर
और कुछ हो ना हो ये आकाश सी छाती तो है "
[ तटस्थ ]
दो प्यारे छात्र जो आज जीवन में मित्र है और ऐसे ही वो सब है जो जाने अनजाने जीवन मे आये टकराये और फिर इस भूभाग पर खो गए, खुशी यह है कि इस वर्चुअल दुनिया ने भी बहुत प्यारे मित्र दिए है और यही सब साथ जाएगा हम सबके
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