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Posts of Dec 4 to 9, 2016 - Bhopal Vijay Bhoge, Delhi , Anil Badnikar and others ......



उस वार्ड में जो भर्ती थे सब मौत का इंतज़ार कर रहे थे, भयावह था वार्ड - मौत मानो चहलकदमी कर रही थी हर बिस्तर के सामने और बिस्तर पर पड़े लोग ख़ौफ़ में थे और हर बार आती जाती मौत को देखकर भयाक्रांत थे.
दूर तक फैले उजाले में मौत के साए से जिंदगी फुसफुसाकर कही दुबक जाने को बेताब थी और लोगों के साथ आये परिजन दुआ कर रहे थे कि यहां कभी ना आना पड़े इसके पहले ही मौत खुलेआम दबोच लें पर यहां आने की नौबत ना आये। अनिल के ठीक पास वाले पलँग पर वह औरत मर गयी आधे घण्टे में, अनिल सारे समय उस बिस्तर को देर रात तक घूरता रहा और आखिर में उसे अंदर ही अंदर ब्लीडिंग चालू हो गई और एक ही दिन में उसी तारीख को रात के दस बजे थे घड़ी में और तीन मिनिट ही ऊपर हुए थे कि अचानक मौत के अट्टाहास ने उसे बेचैन कर दिया और वह खुद ब खुद आहिस्ते से मौत के आगोश में समा गया, मौत की लपलपाती जीभ शांत हो चली थी थोड़ी देर के लिए और अनिल की देह शांत ! वार्ड की गंदगी और लापरवाही को वह बर्दाश्त नही कर पाया।
मेरी बहन, जीजा और बाकी भाई लोग उसकी लाश को उस वार्ड से निकालकर मंदसौर ले जाने की तैयारी कर रहे थे। कोई रोया या नहीं, मैं नही जानता पर सब उस वार्ड से मुक्ति पाना चाह रहे होंगे यह मेरा विश्वास है।
अनिल बदनीकर, तुम बहुत छोटी उम्र में चले गए मेरा दिल्ली से आने का भी इंतज़ार नही किया !
माँ बताती थी कि सबसे छोटी बहन यानि मेरी शोभा मौसी को भी इसी वार्ड ने दबोच लिया था यह वैसा ही भयावह था - जैसा आज है तो फिर सन 1954 से कल 9 दिसम्बर 2016 तक क्या बदला, क्या तरक्की की हमने, क्या व्यवस्था बनाई , सिर्फ मौत को आसान किया है प्रदेश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल #एमवायइंदौर ने !!! कितना रुपया आया और बर्बाद हो गया , कितनी योजनाएं यह डकार गया पर बदला तो कुछ नही यहां आज भी। यह हमारी नाकामयाबी का क़ुतुब मीनार है और अकर्मण्यता का ताजमहल।
यह मौत नही एक तंत्र के द्वारा की जा रही लोगों के विश्वास और आस्था की हत्या है, यह महंगी पढ़ाई करके आये और मेडिसिन जैसे लोक कल्याणकारी विज्ञान का दुरूपयोग है।
जिम्मेदार लोग ही है - जो यहां ठीक होने दूर दूर से चले आते है।
दुःख है कि घने कोहरे के कारण ट्रेन देरी से आई और इस कारण मैं तुम्हारे अंतिम क्रिया में भी नही पहुँच सका पर अब सिर्फ अफ़सोस ही कर सकता हूँ ।
नमन और श्रद्धांजलि अनिल।
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हिंदी साहित्य में जब आप कुछ नही कर पाते तो गली मोहल्लों में अपनी पुरानी कविता कहानी पढ़ते रहते हो और लौंडे लपाड़े आपको और आपकी महानता को कार में ढोते रहते है और अगली बार मिलने पर आप उन्हें पहचान भी नही पाते कि बेचारों ने स्टेशन से होटल और शहर भर के दारूबाज लोगों के यहां घुमाया था और आखिर में जाते समय आपको अपनी घटिया सी किताब भी पकड़ा दी थी जिसे आपने घर जाकर रद्दी में बेच दिया था, हाँ आपने उन महिला कवियों और कहानीकारों के नम्बर बेशर्मी से मांग लिए थे।
भूल रहे है आप कि आपकी औलादें आपको बोझ मान रही है और बाहर ठेल रही है माह में 20 दिन, और आप अध्यक्षता करते मुगालते में जी रहे हो।
घर में बैठिये जनाब, आपकी लाश पहुंचाने कोई नही जाएगा अब
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जब भाई जैसा यार 1994 के बाद दिल्ली जैसे शहर में समय निकाल कर छुट्टी लेकर गोईला की डेरी यानी इतनी दूर तक मिलने आ जाए तो शुगर का मरीज एक पीस क्या पूरा मिठाई का डिब्बा खा सकता है।
कुलदीप से आज 1994 के बाद मिला, सतना में बी एड के बाद विदा हो रहे थे तो हाजमोला कैंडी दी थी और आज मिठाई, अगली बार जमके खाना खाएंगे भाई और खूब गप्प करेंगे। मज़ा आ गया दिल्ली आना सार्थक हो गया अबकी बार। कुलदीप एक सरकारी स्कूल में बेहद ईमानदारी से पढाते है और इनके बच्चे किसी निजी स्कूल के बच्चों से श्रेष्ठ है। कुलदीप की अपनी लाड़ली बिटिया नेशनल स्तर की एथलीट है जो हम सबके लिए गर्व की बात है।
दुनिया कितनी छोटी और गोल है और हम फिर मिल ही जाते है।
साथ है मित्र सचिन, उत्तम और हरीश



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क्यों रहे इतने शासक, क्यों लड़े इतने बरस
क्यों रहते है इतने लोग, क्या करते है ये लोग
क्यों कवि है, कविता, कहानी और साहित्य यहां पर
क्यों है इतनी दुकानें और क्या बिकता है इनमे
क्यों है गोरे, काले पीले - रंग बिरंगे इतने लोग
जब पूछा बहुतेरों से ये बार बार तो एक जवाब मिला
यह दिल्ली है और दिल्ली दिल वालों को मिलती है
पर हर जगह किले और मजार, अभिलेखागार और स्मारक
क्या दिल्ली होना मजार हो जाना है
क्या दिल्ली होना स्मारक हो जाना है

मैं घर जा रहा हूँ कल सुबह की पहली गाड़ी से 
मुझे नही रहना यहाँ इस दिल्ली में 
जीवन का समाहार दिल्ली नही है।

- संदीप नाईक
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5 Dec 2016 Dainik Bhaskar 

ट्रेन लेट है छः घण्टे करीब। भाई के बेटे के दोस्त का भाभी को फोन आया, जो मात्र 13 साल का है, कि पापा का एक्सीडेंट हो गया है आप तुरंत आओ। जब हम पास के अस्पताल में पहुंचे तो डॉक्टर ने कहा वो मर चुके है। सब 10 मिनिट में खत्म हो गया, वो आदमी नाश्ता करके सब्जी लेने आया था, अटैक आया, गाड़ी से गिरा और खत्म। हम लोग लगे रहे 3- 4 घण्टे आखिर सब कुछ सुलझाकर और माथा फोड़ी करके उसकी लाश को अभी पत्नी और दो छोटे बच्चों सहित अमरावती भिजवाकर आ रहे है। उस भले आदमी को इस भोपाल शहर में कोई जानता नही था और रिश्तेदार भी इतनी दूर आने में परहेज कर रहे थे कैसा होता है मानव मन, स्वभाव और स्वार्थ।
सोच रहा हूँ मेरा क्या रिश्ता था उससे या परिवार से पर उन दोनों बच्चों, उस भली महिला और परिवार के लिए आंसू आ गए जब एम्बुलेंस विदा हुई थी। बुदबुदाता रहा कि इन दोनों बच्चों का भविष्य अच्छा बन जाए और उस महिला में इतनी शक्ति आ जाए कि इस निष्ठुर संसार में वो सब सहकर अपने अबोध बच्चों को पाल लें, पढ़ा लें और काबिल बना दें। आज की स्थिति में उसके पास कुछ नही है, उस आदमी की नौकरी भी निजी कम्पनी में थी, भोपाल में बन रहे फ्लाय ओवर बना रही कम्पनी में था। दुर्दैव क्या यही है ?
सच में इतना रोया हूँ कि बस , उस पर से हमारी पुलिस का रवैया , उफ़ आप समझ सकते है और निजी अस्पताल । सब कुछ लिखना भी त्रासद है !
ऐसी जगह काम मत करो जहां कोई जानता ना हो, या जहां काम करो वहाँ रिश्ते इतने मजबूत बनाकर रखो कि कम से कम एक आदमी आपकी लाश के साथ घर छोड़ने आ जाए ।
उफ़, मौत भयावह है बहुत।
सबकी मदद करते हुए ही जीवन बीत जाए बाकी कुछ नही चाहता, अपने सारे अवगुणों और अड़ियल स्वभाव के बाद भी यह गुण बना रहे इतनी शक्ति बनी रहें, आपकी दुआएँ और स्नेह मेरी ताकत बनी रहें।
(अब स्व विजय महादेव भोगे, 212 एम आई जी, अरविंदविहार, बाग़ मुगलिया, भोपाल मूल निवासी धामनगांव, अमरावती, महाराष्ट्र)
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शादी में समय दो पार्टी का और दूल्हा दुल्हन गायब । दोनों ब्यूटी पार्लर में और आये हुए मेहमान मेज़बान को खोजें तो वो भी गायब ।
अरे भाई काहे बुला रखे हो लोगों को जब किसी को समय नही है तो और फिर पत्रिका में क्यों लिख दिया समय ? लिखो ना कि आ जाना तुम लोग टाइम पर - हम मिले ना मिले, खाना मिले या ना मिले, लिफाफा और गिफ्ट किसी को पकड़ाकर या देकर, भले ही बगैर मिलें चले जाना, हम सब लोग तो ब्यूटीपार्लर में व्यस्त रहेंगे।
भाई आपके जीवन का महत्वपूर्ण दिन है पर हजार मेहमानों का क्या दोष जो ठंड में खड़े कुड़कुड़ा रहे है और दुआओं के बदले गलियां रहे है।


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