मुझे भी शुमार करो अब गुनहगारों की फेहरिस्त में....
मैं भी क़ातिल हूँ हसरतों का, मैंने भी ख्वाहिशों को मारा है..
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एक तो फ्री में लिखवा लेते है दबाव डालकर और फिर जब मिलते है तो गोली मारने की भी धमक्री देते है , ये तो हाल है मीडिया के नामी गिरामी संपादकों के। ये श्रीमान जो छोटे लाडले नवाब और अनुज है बेदर्द दिल्ली में रहते है मिले 15 साल बाद तो बन्दूक तान दी , गजब हो यार - Sarang Upadhyay । आज मजा आ गया। इनके शहर और मुहल्ले में था ना। देवास आओ मियाँ फिर देखते है
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ये है ढोंग पाखण्ड और शर्मनाक दुनिया जिसमे हम रहते है। एक व्यक्ति मरता है और उसके लिए समाज के लोग करोड़ो रुपया खर्च करते है नीचे लिखे रीति रिवाजों पर और यही लोग ब्याज की चवन्नी भी नही छोड़ते। मप्र के बड़े अखबार नईदुनिया में आज की लीड स्टोरी है, कोई मन गढ़न्त कहानी नही है।
तिस पर से आज जब समाज के बच्चे कुपोषण और भूख से बिलबिला रहे है तो करोड़ो रूपये के मन्दिर बनाने का क्या तुक है। देश भर में यहां तक कि मालवा में गोम्मटगिरी से लेकर पुष्पगिरी तक जैसे मन्दिर बने है, पूरी की पूरी पहाड़ियाँ उजाड़कर अपने मठ बना लिए फिर इन मन्दिरों की जरूरत क्या है ? जिस विश्व कल्याण की बात ये समाज करता है वह कौनसा समाज है, विदिशा का एक सात साल का बच्चा दिल के छेद का इलाज नही करवा पाता और मर जाता है अभाव में, तब कोई भला मानुष आगे नही आता।
और यह सिर्फ एक समाज की नही सारे धर्मों और समुदायों की है, इंसानों के रहने की जगहें बजबजाते गन्दे नालों में है और मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च बीच शहरो में जमीन हथिया कर बैठे है।
विचलित हूँ पुष्पेन्द्र की खबर देखकर और ये ढोंग देखकर। शर्म आती है ऐसे देश का नागरिक होने पर जहां ज़िंदा बच्चे और आदमी की कदर नही और एक मरे हुए संत को मुखाग्नि देने के लिए करोड़ों की "बोली" लगती हो।
धिक्कार है ऐसे मुर्दा समाज पर , न्याय और शासन प्रशासन पर जो इस तरह की मौत के खुले जुए और सट्टे को प्रश्रय देता हो।
मप्र में यह सत्ता और राजनीति की शह पर ज्यादा हो रहा है, क्योकि निर्णायक लोग तो व्यापमं से जान छुड़ाने के रास्ते खोज रहे है और बच्चे मर रहे है।
एक बात और ये आयकर विभाग इस तरह के मामलों में क्या करता है जो लोग खुले आम इस तरह के कार्यक्रमों में, दीक्षा समारोह , पर्युषण और अन्य बोली लगाने वाले वणिक समुदाय के धन लोलुप धार्मिक रीति रिवाजों में रुपया लगाते है।
विदिशा के बच्चे की लाश और एक बेशर्म महिला अधिकारी द्वारा उसके पिता को दिए गए शासन प्रदत्त दो हजार रूपये कोई मायने रखते है इस शाही मौत के सामने ?
कितना और गिरेंगे हम और कितने बच्चों की जान लेंगे, शिवराज सिंह जी कितने और लोगों को अंधा करके अपनी कुर्सी बचाकर रखोगे, कब तक इस तरह के कार्यक्रमों को भव्यता दोगे ? याद रखना अगर भगवान मानते हो, मैं तो नही मानता, पर सुना है उसकी लाठी जब पड़ेगी तो आवाज भी नही होगी।
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